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Friday, October 9, 2020

डूबने से पहले


गस्त 2019 तक जीएसटी की दूसरी बरसी बीत चुकी थी और मंदी भी अपनी जड़ें जमा चुकी थी. बदहाल क्रियान्यवयन, सैकड़ों संशोधनों, बार-बार बदलती टैक्स दरों, गिरते राजस्व और टूटते नियम पालन ने, जून 2017 के अंत में संसद में अर्धरात्रि को हुएमहोत्सवको भुला दिया था. फील्ड यूनिट्स से राजस्व मुख्यालय पहुंचती रिपोर्ट में सवाल उठने लगे थे कि नवोदित जीएसटी क्या यह मंदी झेल पाएगा? 

लॉकडाउन होते इस महत्वाकांक्षी टैक्स सुधार ने खाट पकड़ ली. केंद्र और राज्यों के बीच जिस महान क्रांतिकारी सहमति की तारीफों पर महीनों खर्च हुए थे वह राज्यों के साथ नुक्सान भरपाई समझौते (जीएसटी लागू करने से हुए नुक्सान की पांच साल तक वापसी) की मियाद पूरी होने से पहले ही दरक गया. केंद्र-राज्यों के बीच सीधी मोर्चाबंदी और टैक्स बढ़ाने की नौबत के बीच जीएसटी किस तरह बढ़ रहा है, यह जानने के लिए जीएसटी के छोटे सफर पर एक नजर जरूरी है.

जीएसटी अब तक

• 2016-17 में जीएसटी इस वादे के साथ आया था कि इससे कई टैक्स दरें खत्म होंगी. टैक्स का बोझ घटेगा. उत्पाद सस्ते होंगे. लेकिन चार दरों और सेस वाले जीएसटी के बाद 2019-20 में भारत में निजी खपत की दर पांच साल के न्यूनतम स्तर 5.3 फीसद पर गई. यानी मांग नहीं बढ़ी. कोविड के बाद तो हाल और बुरा हो गया.

मांग बढ़ने की मार्केटिंग इस दावे के साथ की गई थी ‌‌कि नियम सरल होंगे, सब टैक्स देंगे, खूब खपत होगी तो खूब राजस्व आएगा. जीडीपी दो फीसद उछल जाएगा. लेकिन अपने जन्म से आज तक जीएसटी 1.5 लाख करोड़ रुपए के मासिक टैक्स संग्रह का न्यूनतम मंजिल नहीं छू सका. राजस्व की उम्मीद तो लागू होते ही टूट गई थी इसलिए जीएसटी पर सेस थोप दिया गया था.

जीएसटी का भविष्य पहले दिन से संदिग्ध था. इसकी जान एक कृत्रिम राजनैतिक सहमति में बसी थी जिसके जरिए एक घटिया टैक्स सिस्टम को महान सुधार बताकर जल्दबाजी में लागू किया गया. 2016 के मध्य में जब पहली बार देश को पता चला कि इस जीएसटी में कई टैक्स दरें, असंख्य शर्तें और नया इंस्पेक्टर राज होगा और इसे लागू करने की तैयारी भी नहीं है. सवालों के तूफान के सामने केंद्र ने खड़ी कर दी कृत्रिम राजनैतिक सहमति जो राज्यों को जीएसटी से संभावित नुक्सान की गारंटी (राजस्व में 14 फीसद सालाना की बढ़त दर पर) पर टिकी थी.

लॉकडाउन से उपजी मंदी के बाद केंद्र ने राज्यों को नुक्सान भरपाई की गारंटी से इनकार कर दिया. अब जीएसटी पर राजनैतिक सहमति ध्वस्त हो चुकी है जो इस सुधार का आखिरी सहारा था. विपक्ष के पांच राज्यों ने राजस्व क्षतिपूर्ति के बदले कर्ज की सलाह को नकार दिया है. काउंसिल की 42वीं बैठक तो झगड़े की भेंट चढ़ गई.

जीएसटी का भविष्य

जीएसटी से राज्यों का भरोसा उठ रहा है. पेट्रोल-डीजल या रियल एस्टेट इसके दायरे में लाने का एजेंडा फिलहाल खत्म हो गया है. सरकारों की कमाई नहीं बढ़नी है इसलिए काउंसिल ने जीएसटी के तहत टैक्स पर टैक्स यानी सेस (उपकर) को 2022 से आगे बढ़ा दिया है. फैसला इस बात का संकेत है कि सरकार को मंदी जल्दी जाती नहीं दिख रही है. टैक्स बढ़ाने की नौबत भी आने वाली है.

जीएसटी अब आपदा में अवसर है. टीम मोदी इसका चोला बदलकर ही इसे बचा सकती है.

मंदी से मरती अर्थव्यवस्था को मांग की मदद चाहि. यही मौका है जब जीएसटी का पुनर्गठन करते हुए दो नई दरें (7-20) तय करनी चाहिए. आम खपत के सामान को कर मुक्त किया जाए और कुछ उत्पादों को निचली 7 फीसद की दर में डाला जाना चाहिए. जीएसटी की पीक रेट घटी तो मांग बढ़ेगी, जिसका फायदा टैक्स संग्रह बढ़ने के तौर पर सामने आएगा.

कानून बदला जाए ताकि राज्यों को टैक्स रियायतें देने की छूट मिल सके. कोविड के बाद नया निवेश राज्यों की नीतियों और प्रोत्साहनों पर ही निर्भर होगा. राज्यों को टैक्स संबंधी आजादी देकर जीएसटी पहले वाली निवेश की प्रतिस्पर्धा को पुन: शुरू करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.

दुनिया में जीएसटी की सफलता की कथाएं पुरानी पड़ चुकी हैं. मंदी टैक्स सुधारों की दुश्मन है. टैक्स कानूनों में बदलाव तेज आर्थि विकास दर के साथ ही सफल होते हैं. मलेशिया ताजा नसीहत है जहां 2015 में भारत जैसी जल्दबाजी से जीएसटी आया जिसे भ्रम, मंदी और खराब क्रियान्वयन के कारण 2018 में वापस लेना पड़ा.

मलेशिया का जीएसटी तो आदर्श सिंगल टैक्स रेट वाला था जो छोटी सी अर्थव्यवस्था में एक सामान्य मंदी नहीं झेल सका तो चार टैक्स रेट और सेस वाला आधा अधूरा, लचर और बदहवास जीएसटी भारत की महामंदी नहीं झेल पाएगा.

जीएसटी की सुधार वाली पहचान खत्म हो चुकी है. अब एक वैकल्पि टैक्स सिस्टम के तौर पर भी यह खतरे में है. अगर बदलाव नहीं हुए तो यह सुधार केंद्र और राज्य के रिश्तों के लिए सबसे बड़ा संकट बन जाएगा.