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Thursday, May 25, 2023

कंपटीशन के दुश्‍मन


 

 दिसंबर 2018 

गूगल प्रमुख सुंदर पि‍चाई बाजार पर मोनोपली यानी एकाधि‍कार के मामले में अमेरिकी कानून निर्माताओं के कठघरे में थे फेसबुक और अमेजन पर भी अमेरिका के कानून निर्माता एंटी ट्रस्‍ट यानी प्रतिस्‍पर्धा रोकने वालों के ख‍िलाफ बने कानून के तहत कार्रवाई की तैयारी में थे

उस सुनवाई के फोटो और वीड‍ियो में अनोखा दृश्‍य नजर आया.  कांग्रेस की सुनवाई के दौरान पिचाई के पीछे तीसरी पंक्ति कुर्स‍ियों में काली टोपी वाले मुच्छड़ रिच अंकल पेनीबैग्स नजर आ रहे थे

रिच पेनीबैग्‍स का तो आपको पता ही होगा. दुनिया भर में मशहूर मोनपली बोर्ड गेम के प्र‍तीक पुरुष हैं पेनीबैग्‍स. 1930 में अमेरिकी महामंदी के दौरान यह सबसे लोकप्र‍िय बोर्ड गेम था जिसका भारतीय संस्‍करण व्‍यापार के नाम से आता था.

बहरहाल अमेरिकी कांग्रेस की सुनवाई में ग्रीडी मोनोपली मैन की मौजूदगी किसी फोटोशॉपीय कला से नहीं हुई. अमेरिका के एक वकील ग्रीडी मोनोपली मैन की वेशभूषा में, इस मामले की प्रत्येक सुनवाई में ठीक उस जगह मौजूद रहे थे जहां से वह तस्वीरों का हिस्सा बन सकें. उनकी कोशिश रंग लाई. लोगों को बाजार का विद्रूप और एकाधि‍कारवादी चेहरा नजर आया मुच्‍छड़ रिच अंकल पेनीबैग्‍स ज‍िसके प्रतीक हैं

तकनीकी कंपनियों के एकाध‍िकारों यानी कि मोनोपली मनीबैग्‍स पर चोट की यह लहर जो अमेरिका से उठी वह यूरोप होते हुए भारत तक आ ही गई. यहां के नियामकों को मजबूर होना पड़ा. एंड्रायड प्‍लेटफॉर्म और प्‍ले स्‍टोर में अपने एकाध‍िकार की दुरुपयोग करने की श‍िकायतों पर भारत के प्रतिस्‍पर्धा आयोग ने गूगल पर 1300 करोड़ का जुर्माना लगाया. गूगल इसके खि‍लाफ सुप्रीम कोर्ट गई है. यूरोप में भी अमेजन फेसबुक और गूगल पर प्रतिस्‍पर्धा‍ नियामकों की चाबुक बरस रहे हैं. भारत की संसदीय सम‍ित‍ि ड‍िजिटल मोनोपली की सचाई स्‍वीकार करने पर मजबूर हुई है 

आप कहेंगे कि भारत के नियामक भी देर आयद मगर दुरुस्‍त आयद हैं. ...

शायद नहीं

प्रतिस्‍पर्धा आयोग की ताजी सख्‍ती पर रीझने से पहले जरा करीब से देख‍िये. गूगलों फेसबुकों पर सख्‍ती से पहले तक भारत दुनिया के सबसे जिद्दी और पेचीदा एकाधिकारवादी बााजर में बदल चुका है. यह बाजार प्रतिस्‍पर्धा आयोग की नाक नीचे बना है जिसे बाजार पर कब्‍जे सेवा और उत्‍पादों की मनमानी कीमतें और राजनीतिक चंदों की जटिल जहरीले तालमेल ने बनाया है.

अब अगर मोनोपली की बात निकली है दूर तलक जानी ही चाहिए केवल ड‍िज‍िटल कंपन‍ियां को ही क्‍यों कानून में बांधा जाए यहां तो ज्‍यादातर जरुरी सामानों और सेवाओं के बाजार पर चुनिंदा कंपन‍ियां काब‍िज हैं.

 

जो बड़ा है वही चढ़ा है

गूगल अमेजन आदि की मोनोपली और एकाध‍िकार की बहस भारत में कुछ फैशनेबल सी हो जाती है या कि इसकी मदद से असली एकाध‍िकारों से ध्‍यान बंटाया जा सकता है. अव्‍वल तो भारत में इंटरनेट का इस्‍तेमाल करने वाली लोग आबादी का केवल 47 फीसदी हैं उनमे भी इंटरनेट का भरपूर इस्‍तेमाल करने वाले और सीमत. दूसरा ड‍ि‍ज‍िटल मोनोपली मुफ्त सेवाओं पर चलती हैं जो ड‍िज‍िटल बाजार की एक दूसरी ही अदा है जिस पर बड़ी बहसें होती हैं

भारत में मोनोपली उन उत्‍पादों और सेवाओं में ज्‍यादा बड़ी जिनकी इस्‍तेमाल सब करते हैं और नाक से पैसा चुकाते हैं. कभी अपने एक महीने के ब‍िल भुगतान को देख‍िये. कुल समाान और सेवाओं पर हमारे भुगतान का करीब 60 फीसदी हिस्‍सा चुनिंदा 25-30 कंपनियों को जाता है जिनका बाजार में एकाध‍िकार या जिन बाजारों में दो कंपनियों का दबदबा है. इनमें सरकारी और निजी दोनों कंपनियां शामिल हैं

चाय, बिस्कुट, चॉकलेट, मक्‍खन, नमक, हेयर आयल, खाने के तेल, बेबी फूड, फुटवि‍यर, इनरवीयर, मोबाइल टेलीकॉम, बिजली उत्‍पादन, बिजली पारेषण, तेल पाइपलाइन, एयरपोर्ट, परिवहन, सड़क, पेट्रोल‍ियम, गैस, रेलवे, मोबाइल हैंडसेट, ऑनलाइन शॉपिंग, एप आधार‍ित टैक्‍सी, ऑन लाइन फूड गिनती बहुत लंबी है  

चौंक गए न

कहां से आई मोनोपली

भारत में कैसे बन गईं इतनी बड़ी मोनोपली ?

2013 के बाद भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में ढलान शुरु होने लगी थी. यही वह वक्‍त था जब भारत में कई उद्योगों में कंपनियां बीमार हुईं, प्रतिस्‍पर्धा सिमटी थी. वह पहला मौका था जब भारत में कंपनियों के अध‍िग्रहण शुरु हुए. दूरंसचार में घोटाले और कंपनियों के बंद होने के बाद धीमे धीमे बाजार दो तीन कंपनयिों तक सिमटता गया. एयर टेल ने इस दौरान कई कंपनि‍यों का अध‍िग्रहण किया था.

वोडाफोन आइड‍िया का विलय उसी वक्‍त हुआ. यह कंपनी आज डूबने के करीब है और बाजार में डुओपली होने वाली है.

यही वह दौर था जब वालमार्ट फ्ल‍िपकार्ट सोनी जी इंटरनेटमेंट एलआईसी आईडीबीआई बैंक जैसे बड़े अध‍िग्रहण सुर्ख‍ियों में आए. आंकडे बताते हैं कि 2015 से 2019 के बीच भारत में अधि‍ग्रहणों पर 310 अरब डॉलर खर्च हुए. यह दौर टेलीकॉम, ऊर्जा और मीडिया में अध‍िग्रहणों का था

लगभग इसी वक्‍त उपभोक्‍ता उत्‍पादों में कंपनियां छोटे ब्रांड निगलने लगी थीं. इंदुलेखा केरल और तमिलनाडु के बाजारों में खासा कामयाब हेयर केयर ( बालों का तेल अन्य उत्पाद)  ब्रांड था. 2016 में हिंदुस्तान यूनिलीवर ने 350 करोड़ रुपए में इस ब्रांड का अधिग्रहण कर लिया. इसे उन्होंने अखिल भारतीय ब्रांड बनाया और नए उत्पाद पेश किए. महज तीन साल में इंदुलेखा, हिंदुस्तान यूनिलीवर के लिए 2,000 करोड़ रुपए का ब्रांड बन गया.

आइटीसी ने बंगाल का छोटा-सा ब्रांड निमाइल (Nimyle) खरीद कर  इंदुलेखा  वाला फॉर्मूला दोहराया गया. टाटा ने चाय लोकप्रिय ब्रांड लाल घोड़ा और काला घोड़ा का अधिग्रहण किया.


संकट में मिले मौके

2019 के बाद उद्योगों में संकट बढा. कुछ जीएसटी के कारण कुछ कर्ज के कारण और कुछ बाजार में पिछड़ने के कारण संकट में फंसे.

अब उपभोक्‍ता बाजार में कब्‍जे की बारी थी. 2020 अप्रैल में हिंदुस्‍तान लीवर ने 3045 करोड़ रुपये में जीएसके यानी ग्‍लैक्‍सो स्‍म‍िथक्‍लाइन कंज्यूमर को खरीद लिया. यह एफएमसीजी बाजार का सबसे बड़ा अध‍िग्रहण था. इसी साल आइटीसी ने 2000 करोड़ में सनराइज फूड्स को समेट लिया. 2022 के अंत में डॉबर ने बादशाह मसाले का अध‍िग्रहण कर लिया. सबसे बड़ी ताजा डील टाटा कंज्‍यूमर करने जा रहा है जहां वह 60000 करोड़ में रमेश चौहान के बिसलेरी वाटर ब्रांड को खरीद कर ब्रांडेड पानी के बाजार पर लगभग एकाध‍िकार कर लेगा.

रिटेल बाजार में मेट्रो पर रिलायंस का कब्‍जा, अंबुजा सीमेंट में होलसिम की हिस्‍सेदारी पर अडानी का नियंत्रण और एलएंडटी माइंड ट्री बड़े अध‍िग्रहणों की सूची को और बड़ा करते हैं

स्‍टार्ट अप कंपनियों ने डूबने से पहले एकाध‍िकार के लिए टेकओवर की मुहिम सी चला दी थी. बायजूस ने कई एजुकेशन ब्रांड खरीदे थे.

इस दौर अधि‍ग्रहण आक्रमक थे. इनमें कई कं‍पनियां कर्ज चुकाने में चूकी थीं और उन्‍हें दीवाला प्रक्रिया के तहत खरीद गया था. 2020 से 2022 तक अध‍िग्रहणों का तूफान सा आ गया. करीब 80 फीसदी सौदे नतीजे तक पहुंचे. 2022 में करीब 126 अरब डॉलर के 1185 सौदे हुए.

 

बीते दो बरस में कोविड के कारण जो मंदी आई उसमें कई छोटे ब्रांड अध‍िग्रहणों का श‍िकार हुए और बाजार में एकाध‍िकार के लिए नए युग शुरुआत हो गई.

मुंबई स्थित निवेश फर्म मार्सेलस के मुताबिक, भारत में 20-25 कंपनियों ने अपने-अपने बाजारों में 80 फीसद या उससे भी ज्यादा कारोबार पर एकाधिकार कायम कर रखा है जबकि ज्यादातर देशों में 15 फीसद की बाजार हिस्सेदारी को कंपनी की अग्रणी स्थिति माना जाता है.

2021-22 कंपनियों की कुल आमदनी का करीब 70 फीसद हिस्सा सबसे अव्वल 20 कंपनियों की जेब में गया. इसके मुकाबले, अमेरिका में शीर्ष 20 कंपनियों के खाते में कुल कॉरपोरेट मुनाफे का तकरीबन 25 फीसदी हिस्सा (2019) जाता है इसके बावजूद वहां नियामक (रेगुलेटर) और उपभोक्ता दोनों एकाधिकार वाली कंपनियों की बढ़त रोकने को लेकर तरह तरह के जतन करते रहे हैं.

सरकार को नहीं दिखता यह सब ?

यही तो कहानी का सबसे बड़ा पेंच है. भारत के बाजार की सबसे बड़ी मोनोपली तो सरकार के पास हैं. उदारीकरण के 25 साल बीतने के बावजूद असंख्‍य सेवाओं में सरकार सीधा एकाध‍िकार है या सरकारी कंपनियों के कार्टेल हैं. खनन, सड़क परिवहन , रेलवे, रेलवे इंजीन‍ियरिंग, भारी निर्माण,  बिजली उत्‍पादन और वितरण, कोयला, परमाणु ऊर्जा, पेट्रोल‍ियम वितरण , तेल खोज, नेचुरल गैस,  बैंकिंग, बीमा, अनाज खरीद जैसे कई क्षेत्रों में सरकार का एकाध‍िकार है. नेता और अध‍िकारी यह ताकत छोड़ना नहीं चाहते इसलिए निजी एकाधिकारों पर भी किसी को फर्क नहीं पड़ता.

भारत के प्रतिस्‍पर्धा आयोग ने हाल में वर्षों में कंपनियों के कार्टेल पर जो जुर्माने लगाये हैं वह लोगों की शिकायत हैं और आमतौर पर लंबे कानूनी खींचतान के बाद लगे हैं. एसा इसलिए है क्‍येां कि भारत में कानूनी तौर  पर मोनोपली या डुओपली की परिभाषा साफ नहीं है. यदि कानूनी तस्‍वीर साफ होगी तो सरकार की मोनोपली भी कठघरे में होगी इसलिए कुछ नहीं बदलता.

 

कोई और भी है फायदे में ?

जानना चाहते हैं कि आप कि भारत में मोनोपोली यानी एकाध‍िकार और कार्टेल को लेकर कोई फ‍िक्र क्‍यों नही दिखती इस सवाल का जवाब हमें शेयर बाजार में मिलेगा. बीते चार एक साल में अर्थव्‍यवस्‍था की बुरी गत हो गई. आर्थ‍िक सुस्‍ती तो पहले से ही थी , इसके बाद महामारी ने कमाई, खपत और बचत तीनों तोड़ दिये मगर इस दौरान शेयर बाजारों ने ऊंचाई के रिकार्ड बनाये. बीएसई सेंसेक्‍स जो 2018 में करीब 35000 अंक पर था अब 61000 पर है. निफ्टी 10000 अंकों की बढ़कर 17000 पर पहुंच गया .

 

यह बढोत्‍तरी अर्थव्‍यवस्‍था में समग्र बेहतरी से मेल नहीं खाती. दरअसल सेसेंक्‍स और निफ्टी में जो कंपनियां काबिज हैं उनमें से आधी कंपनियां बाजारा में एकाध‍िकार रखती है, दो कंपनियों के दबदबे यानी डुओपली का हिस्‍सा हैं यानी फिर बाजार में 30 फीसदी से ज्‍यादा हिस्‍सा रखती हैं.

 

निफ्टी की 50 और  सेंसेंक्‍स की 25 कंपनियों की सूची ग्राफि‍क में


भारत के शेयर बाजार में करीब 100 से ऊपर कंपन‍ियां एसी हैं जिनका एकाध‍िकार या किसी बडे कार्टेल का हिस्‍सा है, कोविड के बाद उभरते एकाधि‍कारों के बीच भारतीय शेयर बाजार श्‍ह बदलता स्‍वरुप अच्छी खबर नहीं है. शेयर बाजार में छोटी और मझोली कंपनियों के घटते आकर्षण ने सेबी को सितंबर 2020 में यह आदेश जारी करने पर मजबूर किया कि म्युचुअल फंड को अपने निवेश मिड कैप और स्माल कैप स्टॉक्स का हिस्सा बढाना होगा. क्‍यों कि बाजार में जब प्रतिस्पर्धा कुछ कंपनियों के बीच सीमति है तो शेयर बाजार में निवेश सीमित कंपनियों में सिमटने लगा था.

अर्थव्‍यवस्‍था में कुछ भी हो मगर इनकी ताकत बढ़ती जाती है क्रेड‍िट सुइस ने 2020 में आकलन क‍िया था कि बीएसई 500 की 100 से ज्‍यादा कंपनियां अपने प्रतिस्‍पर्ध‍ियो की तुलना में नए बाजार में पहुंचने, प्रत‍िस्‍पर्धी के अधिग्रहण, ग्‍लोबल बाजार में विस्‍तार की ज्‍यादा क्षमता रखती है. आर्थ‍िक उतार चढ़ाव के बीच इनकी ताकत पर बड़ा फर्क नहीं पड़ता

बीते दो बरस में हमने यही सब होते देखा है जिसका जमीन 2016 से बन रही थी. इन कंपनियेां ने बाजार में छोटै प्रतिर्स्‍धी निगल लिये. पीएलआई जैसी स्‍कीमों का लाभ लिया और सरकारी की रियायतों से ताकत हासलि की. कच्‍चे माल की कीमत बढी तो बाजार में कीमतें बढ़ा दीं. बीते दो बरस में मांग घटने के बावजूद भी भारत की प्रमुख बड़ी कंपनियों के मुनाफों में रिकार्ड बढ़त दर्ज की गई है.

 

जहरीली जोडी

भारत में अब तकनीक, उपभोक्‍ता उत्‍पाद, टेलीकॉम, एयरपोर्ट, ई कॉमर्स में नई मोनोपली उभर रही हैं. यहां कंपन‍ियां ने केवल बाजार में कीमतों को नियंत्र‍ित कर रही हैं बल्‍क‍ि रोजगारों की मांग भी उनके रहमोकरम पर है. यानी मोनोपली और मोनोस्‍पोनी दोनों एक साथ.

 

ब्रिटेन की अर्थशास्‍त्री जोआन रॉबिनसन ने 1930 में इस  बाजार के इस चरित्र को समझाया था. तब तक को निजी और बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों का युग शुरु भी नहीं हुआ था. खतरे को समय से पहले देख लिया था.  जोआन ने बताया था कि मोनोपली और मोनोस्पोनी की घातक जोड़ी असंतुलित बाजारों की पहचान है. मोनोपली के तहत चुनिंदा कंपनियां बाजार में आपूर्ति पर नियंत्रण कर लेती हैं. ग्राहक उनके के बंधक हो जाते हैं जबकि मोनोस्पोनी में यही कंपनियां मांग पर एकाधिकार जमा लेती है और रोजगार के अवसरों सीमित कर देती हैं जिससे रोजगार व कमाई में कमी आती है.

भारत 40 सालों से सरकारी एकाधिकार की सजा भुगत रहा है यह सोचना भी गलत होगा कि निजी एकाधिकार थोड़े से बेहतर होंगे. कीमत तो आखिरकार आम उपभोक्ता को ही चुकानी होगी.  इसका फौरी असर नौकरियों के जाने के तौर पर सामने आ रहा है कि  क्योंकि प्रतिस्पर्धा से नई शुरुआत होती है और प्रतिस्‍पर्धा सिकुड़ने से रोजगार के मौके खत्‍म होते हैं. स्‍टार्ट अप बाजार में यही दि‍ख रहा है.

दुनिया में बीते 50 साल में कई जगह यह देखा है कि सरकारी एकाधिकार की जगह निजी एकाध‍िकार आकर पूरे उदारीकरण का मकसद खत्‍म कर देते हैं. जैसे कि कार्लोस स्लिम हेलु मैक्सि‍को का एक सामान्य शेयर ट्रेडर था. सरकार में पहुंच के जरिये उसने एक विवादि‍त निजीकरण में टेलीकॉम बाजार पर एकाधिकार रखने वाली सरकारी कंपनी टेलीमेक्स का अधिग्रहण कर लिया. उसकी बोली सबसे ऊंची बोली नहीं थी वह एक मुश्त पूरी रकम भी नहीं चुका पाया. तो भी इस कंपनी पर कब्जे ने उसे अंततः दुनिया के सबसे अमीर आदमियों में शामिल कर दिया.

होस्नी मुबारक की सरकार में कुछ शीर्ष कारोबारी मंत्रिमंडल में शामिल हो गए और सरकारी कानून बनाकर उन्होंने प्रतिस्पर्धा को सीमित कर दिया. नतीजतन उनकी कंपनियों ने बाजार पर नियंत्रण कर लिया. अक्‍सर बाजार में एकाध‍िकारों की राजनीत‍ि से गहरी छनती है. राजनीतिक सत्ता मुक्त प्रतिस्पर्धा के बजाय चुनिंदा कंपनियों की मदद करती हैं.  नियामक व्यवस्था की साख बैठ जाती है

 प्रतिस्पर्धा कानून को अमल में आए दो दशक हो चुके हैं. लेकिन अभी तक भारत में एकाधि‍कार और कार्टेल की परिभाषायें स्पष्ट नहीं हैं. भारत में कितने बाजार हिस्से को एकाधि‍कार माना जाए यह स्पष्ट नहीं है. सरकारी कंपनियों के एकाधि‍कार तो किसी गिनती में ही नहीं आते हैं.

पूंजीवादी व्यवस्था में प्रतिस्पर्धा पर लगातार निगरानी जरुरी है और इसक मामले में भारतीय नियामक और प्रतिस्पर्धा के नियमों को नए तरह से लिखे जाने की जरुरत है.

सरकारी प्रोत्साहन बाजार मे प्रति‍स्पर्धा केंद्रित करने होंगे. आयात महंगे करने के बजाय स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं में कंपनियों को लागत (जमीन, बिजली, टैक्स)  कम करने के लिए सहायता देनी होगी ताकि वे स्थानीय बाजारों में ताकत के साथ टिके रह सकें.

मेक्सिको, मिस्र, रूस, अर्जेंटीना सरीखे देशों में मुक्त प्रतिस्पर्धा की शुरुआत तो अचछी नहीं लेकिन  कुछ ही सालों में राजनीति की मदद से  चुनिंदा उद्योग घरानों ने  ज्यादातर कारोबारों पर एकाधिकार कायम कर लिए  और फिर  ऐसे देश अक्सर  निम्न आय के दुष्‍चक्र में फंस गए.

उदारीकरण के कारण प्रतिस्पर्धा ने भारत को दो प्रमुख फायदे पहुंचाये एक उपभोक्ताओं को नए विकल्प मिले जिससे जिंदगी बेहतर हुई और दूसरा रोजगारों का सृजन हुआ. लेक‍िन अब वक्‍त बदल रहा है. भारत आर्थ‍िक सुस्‍ती की तरफ खिसक रहा है. यह दौर मोनोपली के लिएउ सबसे माफि‍क है बीमार होती छोटी मझोली कंपनियां बड़ो के लिए आसान चारा हैं.  यही मौका जब सरकार को कुछ बड़ा करना होगा. नहीं तो बहुत देर हो जाएगी.

 

 

 

Sunday, February 20, 2022

न्‍यूु इकोनॉमी का सबसे बड़ा उलट फेर


एपल ने अपने नए मोबाइल ऑपरेट‍िंग सिस्‍टम यानी आईओएस 14 में मोबाइल धारकों को जरा सी आजादी क्‍या दी कि फेसबुक को एक साल में 10 अरब डॉलर की चपत लग गई यानी एक बायजूस या स्‍विगी की कीमत  के बराबर की रकम मेटा (फेसबुक) को गंवानी पड़ी. फेसबुक को इतिहास में पहली बार यूजर्स संख्‍या में गिरावट झेलनी पड़ी. शेयर बाजार उसकी गिरावट का इतिहास बन गया. फेसबुक के औंधे मुंह गिरने से न‍िवेशकों ने ट्व‍िटर और पिनटरेस्‍ट जैसी सोशल मीडिया कंपन‍ियों को भी कूट डाला.

एपल ने सिर्फ इतना किया अपने नए ऑपरेट‍िंग सिस्‍टम में एक सुव‍िधा दे दी, जिसे एप ट्रै‍क‍िंग ट्रांसपेरेंसी कहा जाता है. इसके जर‍िये आप अपने फोन की प्राइवेसी मजबूत कर सकते हैं यानी कि किसी एप्‍लीकेशन को अपना ड‍ि‍जिटल व्‍यवहार जानने और उसकी सूचना बेचने से रोक सकते हैं. मतलब यह कि अगर आपने इंटरनेट पर होटल की तलाश की है तो अब यह आपके हाथ में है कि आप अपनी टाइम लाइन पर होटलों के विज्ञापन बरसात चाहते हैं या नहीं.

वैसे सनद रहे कि मोबाइल पर डि‍जटिल व्‍यवहारों का डाटा जुटाने कके लिए फेसबुक जैसे आइडेंट‍िफायर फॉर एडवरटाइजर्स (आईडीएफ) नाम के  जिस टूल का इस्‍तेमाल करते हैं , एपल ही उसे 2012 में लेकर आई थी. इसके जर‍िये सीधे उपयोगकर्ता को विज्ञापन द‍िखाया जाता है जिसे टारगेटेड एडवरटाइजिंग कहते हैं. रिपोर्ट बताती हैं कि ज़करबर्ग की कंपनी की 90 फीसदी राजस्व इसी तरह से आता है 

तो फिर एसा क्‍या हुआ कि एपल को लोगों की न‍िजता बचाने का विकल्‍प देना पड़ा, जिससे  फेसबुक सहित पूरे सूचना आधा‍र‍ित बाजार की चूलें हिल गईं.

बात शुरु होती है कोविड के साल यानी 2020 से.

महामारी की मार से जब दुन‍िया अचानक बेतहाशा डिजिटल हो रही थी उस समय यूरोपीय समुदाय से एक बड़ा यूं कहें बहुत बड़ा झटका आया जिसने सूचना तकनीक और निजी सूचनाओं के कारोबार को लेकर पूरे पर‍िदृश्‍य को उलट पुलट द‍िया. कोर्ट ऑफ जस्टिस ऑफ द यूरोप‍ियन यून‍ियन के एक आदेश जारी किया. यह मामला डाटा प्रोटेक्‍शन कम‍िश्‍नर बनाम फेसबुक आयरलैंड और मैक्‍समिलन स्‍क्रेम्‍स का था. अदालत ने आदेश दि‍या क‍ि यूरोप की डाटा प्रोटेक्‍शन अथॉर‍िटी यूरोपीय समुदाय के न‍िवास‍ियों की निजी  सूचनाओं या डाटा के अमेरकिा को हस्‍तांतरण की व्‍यवस्‍था की पड़ताल करेंगे.

गौरतलब है कि फेसबुक,अमेजन,एपल,ट्व‍िटर जैसी कंपन‍ियों के लिए अमेरिका के बाद यूरोप सबसे बड़ा बाजार है. यूरोप व अमेरिका के बीच लोगों के निजी डाटा का हस्‍तांतरण काफी बड़ा है. दोनो भूगोलों के बीच प्राइवेसी के नियम अलग अलग हैं. इस आदेश के पहले तक अमेर‍िकी कंपन‍ियां एक प्राइवेसी शील्‍ड या सेफ हार्बर अरेंजमेंट के जरिये खुद प्रमाण‍ित करती थी और सूचनाओं का संग्रह कर लेती थीं. यूरोपीय अदालत के आदेश के बाद यह प्रक्रिया अवैध हो गई. 

अदालती फरमान के बाद के यूरोप‍ के डाटा प्रोटेक्‍शन बोर्ड का डंडा चलने लगा. यूरोप के जनरल डाटा प्रोटेक्‍शन रेगुलेशन (जीडीपीडीआर) के तहत नए नियम जारी हो गए. जिनके उल्‍लंघन का मतलब था कि कंपनी पर भारी जुर्माना जो उसके ग्‍लोबल रेवेन्‍यू का चार फीसदी तक हो सकता है. इस आदेश के बाद दुनिया के प्रमुख सोशल नेटवर्क, ई कॉमर्स कंपन‍ियों को को अब सूचनायें जुटाने, कारोबार‍ियों से बांटने और हस्‍तांतर‍ित करने की पूरी व्‍यवस्‍था  बदलनी पड़ी है. मेकेंजी के एक तारी रिपोर्ट मानती है कि

-    यह फैसला डेटा प्राइवेसी का पूरा परि‍दृश्‍य बदल रहा है

-    यह घटनाक्रम अंतरराष्‍ट्रीय डाटा ट्रांसफर के लिए एक तरह से नज़ीर बन गया क्‍यों कि इसमें अपने लोगों की सूचनाओं पर वहां की सरकारों का अध‍िकार  प्रमाण‍ित हो गया है. अभी तक कंपन‍ियां सूचनाओं का अपने तरह से कारोबारी इस्‍तेमाल करती थीं

-    इस आदेश के बाद रुस चीन,अमीरात और एश‍िया के देशों के साथ डाटा ट्रांसफर के नि‍यम भी बदलेंगे और यह देश डाटा लोकलाइजेशन के सख्‍त नियम बना सकेंगे जिसमें गूगल, फेसबुक, अमेजन जैसी कंपन‍ियों के सर्वर स्‍थानीय स्‍तर पर लगाने होंगे

-    यह कदम इन कंपनियों के ऊपर टैक्‍स का रास्‍ता भी खोलेगा जिस पर ग्‍लोबल बहस जारी है. जी20 और ओईसीडी की अगुआई में बहुराष्‍ट्रीय कंपन‍ियों पर प्रत्‍येक देश में एक न्‍यूनतम टैक्‍स का प्रस्‍ताव लागू होने वाला है.

-    यूरोपीय समुदाय ही नहीं कैलीफोर्न‍िया एक्‍ट ऑफ कस्‍टमर प्राइवेसी और अमेरिका कई राज्‍यों में डाटा प्राइवेसी को लेकर खासी सख्‍ती शुरु हो गई है.  

अब वापस लौटते हैं फेसबुक पर जिसकी मुसीबत इस कानूनी बदलाव के साथ शुरु हुई. फेसबुक ही क्‍यों गूगल, अमेजन, एपल यानी वे सभी जो लोगों की सूचनाओं को बाजार तक ले जाकर मोटी कमाई कर रहे थे उनके बिजनेस मॉडल लड़खड़ाने लगे हैं

केवल एपल अपना ऑपरेट‍िंग सिस्‍टम बदला बल्कि जनवरी 2020 में गूगल एलान किया क‍िया कि वह अगले दो साल मं क्रोम पर थर्ड पार्टी कुकीज पूरी तरह खत्‍म कर देगा.एपल इसका एलान पहले ही कर चुका है. क्रोम तीसरा ब्राउजर होगा जो थर्ड पार्टी कुकीज बंद करने जा रहा है यानी ब्राउजर बाजार के 85 फीसदी हिस्‍से में कुकीज का धंधा बंद हो जाएगा. सनद रहे कि इंटरनेट उपभोक्‍ताओं को बेहतर और लक्षि‍त सूचनायें व कंटेट देने के लिए  कुकीज का जन्‍म 1994 में हुआ था अब इसका अवसान करीब है.

यूरोप अमेरिका और अन्‍य देशों में चार तरह के बड़े बदलाव आ रहे हैं

-    पहला  अमेर‍िका में अमेजन, गूगल, फेसबुक आदि के बाजार एकाध‍िकार पर निर्णायक कार्रवाई शुरु हो गइ है.

-    दूसरा- यूरोपीय जीडीपीडीआर उपभोक्‍ताओं को राइट टू बी फॉरगॉटेन दे रहा है यानी उसकी सूचना सिस्‍टम में नहीं रहनी चाहिए

-    तीसरा- सूचना तकनीक कंपन‍ियों को इस बात के लिए बाध्‍य किया जा रहा है वह उपभोक्‍ताओं को इस बात का अध‍िकार दें कि उन्‍हें ट्रैक किया जा या नहीं

 

भारत जब फिनटेक भविष्‍य की क्रांति बनाने का मृदंग बजा रहा है, वहां मोबाइल से लेकर अस्‍पताल तक डाटा चोरी के प्रतिष्‍ठान चल रहे हैं.  डाटा प्रोटेक्‍शन के कानून पर पूरी तरह मौन है, भारत को कब यह समझ में आएगा कि हमारी निजतायें भी उतनी ही कीमती हैं जितनी की यूरोपीय और अमेरिकि‍यों की

बहरहाल न्‍यू इकोनॉमी दुनिया बदल रही है. टारगेटेड विज्ञापन जो डाटा मार्केटिंग की बुनियाद है अब वही डगमगा गई है. मेकेंजी का मानना है कि  कुकीज और  आइडेंट‍िफायर फॉर एडवरटाइजर्स (आईडीएफ) के बंद होने के बाद, इस सेवाओं का इस्‍तेमाल करने वाली कंपनियों को मार्केट‍िंग पर 10 से 20 फीसदी ज्‍यादा खर्च करना होगा.

फेसबुक या अमेजन जैसी कंपन‍ियों के लिए वक्‍त मुश्‍क‍िल हो रहा है. डिज‍टिल अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा हिस्सा तो हमारे खाने-पीनेपहनने-ओढ़नेखरीदने-बेचनेतलाशने-मिटानेसुनने कहने की खरबों की सूचनाओं पर केंद्रित है.

इन्हीं को बेचकर तो अमेजनगूगलजोमाटोपेटीएमफेसबुक हमें उस लोक में ले जाते हैं जहां 

सेवा तो मुफ्त है लेकिन हम बेचे जा रहे हैं.

लेक‍िन अगर निजता के आग्रह मजबूत होते गए तो इंटरनेट पर मुफ्त सेवाओं का एक पूरा संसार बदल नहीं जाएगा जिसकी आदत हमें पड़ चुकी है. न्‍यू इकोनॉमी के इस नए बदलाव की आहट हमें फेसबुक के राजस्‍व में गिरावट से मिल चुकी है

क्‍या अब गूगल, इस्‍टा, अमेजन, फेसबुक की सेवाओं का मुफ्त युग खत्‍म होने के करीब है..

उलटी गिनती शुरु हो रही है



Friday, December 25, 2020

हंगामा है यूं बरपा

 


अब से दो साल पहले दिसंबर 2018 में जब गूगल प्रमुख सुंदर पिचाई एकाधिकार के मामले में अमेरिकी कानून निर्माताओं के कठघरे में थे उस दौरान जारी हुए फोटो और वीडियो ने लोगों को चौंका दिया. कांग्रेस की सुनवाई के दौरान पिचाई के पीछे तीसरी पंक्ति में काली टोपी वाले मुच्छड़ रिच अंकल पेनीबैग्स नजर आ रहे थे जो मशहूर मोनोपली गेम के प्रतीक पुरुष हैं. उनकी मौजूदगी किसी फोटोशापीय कला का नमूना नहीं था. अमेरिका के एक वकील ग्रीडी मोनोपली मैन की वेशभूषा में, इस मामले की प्रत्येक सुनवाई में बाकायदा ठीक उस जगह मौजूद रहे थे जहां से वह तस्वीरों का हिस्सा बन सकें और लोगों को बाजार का विद्रूप और एकाधि‍कारवादी चेहरा नजर आता रहे. 

संयोग ही है कि बीते सप्ताह जब विश्व की सबसे बड़ी तकनीकी मोनोपली यानी गूगल और फेसबुक पर अमेरिका में ऐंटीट्रस्ट (प्रतिस्पर्धा खत्म करने) कानून की कार्रवाई शुरू हुई तब उसी दौरान भारत में भी बहुत से लोग सुधारों के फैसलों के पीछे किसी कॉर्पोरेट मुच्छड़ मैन का अक्स देख रहे थे. 

उदारीकरण और मुक्त बाजार ने भारत में सबसे कम समय में सर्वाधि‍क आबादी की गरीबी दूर की है, इसलिए इस पर उठते शक-शुबहे गहरी पड़ताल की मांग करते हैं. 

निजीकरण, निजी भागीदारी, मुक्त बाजार पर शक बेवजह नहीं है. बाजार पर भरोसा दो ही वजह से बनता है. एक, रोजगार यानी कमाई या आय बढ़ने से और दूसरा, उत्पादन का सही मूल्य मिलने से. इन्हीं दोनों वजह से पूंजीवाद को सबसे अधिक सफलता मिली है, इस व््यवस्था में बाजार सबको अवसर देता है और सरकार संकटों के समाधान करती है. बाजार इसके बदले कीमत वसूलता है और सरकार टैक्स. 

बाजारों के सबसे बुरे दिनों का नाम ही मंदी है. नौकरियां खत्म होती हैं. कर्ज डूबने लगते हैं और सरकार से राहत मांगी जाने लगती है. और तब बाजार लोगों का तात्कालिक शत्रु बन जाता है. भारत में भी बाजार इस समय खलनायक है लेकिन दंभ और आत्ममुग्धता में सरकार उसे संकटमोचक बनाकर पेश कर रही है. लोग बुरी तह चिढ़ रहे हैं.

भारत में कंपनियों के रिकॉर्ड मुनाफों के बीच रिकॉर्ड बेरोजगारी है. इसी बीच सरकार ने कंपनियों को नौकरियां लेने की ताकत से (श्रम सुधार) से लैस कर दिया. 

किसानों को आय में बढ़ोतरी के लिए सीधी मदद चाहिए न कि उन्हें उस बाजार के हवाले कर दिया जाए तो खुद मंदी का मारा है.

निजीकरण में कोई खोट नहीं लेकिन चौतरफा बेकारी के बीच जीविका को लेकर डर लाजिमी है. खासतौर पर जब लोग देख रहे हैं कि कुछ निजी कंपनियां बाजारों  पर कब्जा कर रही हैं.

महामंदी और महामारी एक साथ सबसे बड़ी मुसीबत है. महामारी सरकारों की साख पर भारी पड़ती है क्योंकि दुनिया की कोई सरकार महामारियों से निबट नहीं सकती. महामंदी बाजार की साख तोड़ देती है इसलिए दुनिया की तमाम सरकारें कंपनियों को रोजगार बचाने के लिए बजट से पैसे दे रही हैं ताकि बाजार और लोगों के बीच विश्वास को बना रहे. 

मशहूर अर्थविद् जॉन मेनार्ड केंज ने 1930 की महामंदी के दौरान अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट को लिखा थाःआपकी चुनौती दोहरी है. मंदी से भी उबारना है और सुधार भी होने हैं जो अर्से से लंबित हैं. मंदी से मुक्ति के लिए तेज और तत्काल नतीजे चाहिए. सुधारों में जल्दबाजी मंदी से उबरने की प्रक्रिया को धीमा कर सकती, जिससे सरकार की नीयत पर शक बढ़ेगा और लोगों का भरोसा टूटेगा.’

सरकार के सलाहकारों पता चले कि प्रत्येक सुधार 1991 वाला नहीं होता. बीते ढाई दशक में लोगों में आर्थिक सुधारों के फायदों और नुक्सानों की समझ बनी है. मंदी की चोट खाए लोग आय और जीवन स्तर में ठोस बेहतरी समझ कर सुधार स्वीकार कर पाएंगे. इसके लिए सुधारों का क्रम ठीक करना होगा.

भारत में बाजार और लोगों के रिश्ते बीते दो-तीन साल से काफी बदले हैं. जनवरी 2020 में एडलमैन के मशहूर ग्लोबल ट्रस्ट बैरोमीटर सर्वे ने बताया था कि भारत, दुनिया के उन 28 प्रमुख बाजारों में पहले नंबर पर था जहां सबसे बड़ी संख्या में (74 फीसद) लोग बाजार और पूंजीवाद से निराश हैं. यानी कि कोरोना की विपत्तिसे पहले ही बाजार से लोगों का भरोसा उठने लगा था जिसकी बड़ी वजह आय में कमी और बेकारी थी.

सनद रहे कि अच्छे सुधार बाजार को ताकत देते हैं जबकि खराब सुधार बाजार की पूरी ताकत कुछ हाथों में थमा देते हैं. यह सुनिश्चित करना होगा कि सुधारों के पीछे वाल स्ट्रीट मूवी का प्रसिद्ध गॉर्डन गीको नजर न आए जो कहता था कि लालच के लिए कोई दूसरा बेहतर शब्द नहीं है इसलिए लालच अच्छा है.

भारत के आर्थिक सुधार संवेदनशील मोड़ पर हैं. 2020 बाजार के प्रति गुस्से के साथ बिदा हो रहा है. मुक्त बाजार को खलनायक बनने से रोकना होगा. गुस्साए लोग सरकार तो बदल सकते हैं, बाजार नहीं. मुक्त बाजार पर विश्वास टूटा तो सब बिखर जाएगा क्योंकि कोई सरकार कितनी भी बड़ी हो, वह बाजार से मिल रहे अवसरों का विकल्प नहीं हो सकती.

 

Saturday, August 29, 2020

ये रिश्ता क्या कहलाता है !

 

 


मि. जकरबर्ग (फेसबुक) आप अपनी डेटा ताकत से प्रतिस्पर्धियों की जासूसी करते हैं. उनका अधिग्रहण करते हैं या उन्हें मिटा देते हैं

मि. पिचाई (गूगल) विशेष सेवाओं वाले सर्च इंजन आपको फूटी आंख नहीं भाते. अपनी अकूत ताकत से आप तय करते हैं कि उनको ट्रैफिक मिल पाए.

और मि. बेजोस (अमेजन) आपके प्लेटफॉर्म से जो कारोबारी सामान बेचते हैं क्या उनके डेटा का इस्तेमाल अमेजन कर रही है

बीते हफ्तों में जब फेसबुक और भाजपा के रिश्तों को समझने की कोशि हो रही थी और रिलायंस के डिजिटल कारोबार (सबसे बड़ी मोबाइल कंपनी) में फेसबुक, गूगल, क्वालकॉम (सबसे बड़े सोशल नेटवर्क, ऑपरेटिंग प्लेटफॉर्म सर्च इंजन और तकनीक कंपनी) के निवेश और माइक्रोसॉफ्ट से करार परजि-जिओहो रहा था, ठीक उस समय फेसबुक, एपल, गूगल और अमेजन के नेतृत्व अमेरिकी कांग्रेस (संसद) की समिति के कठघरे में थे. इन पर कंपीटिशन खत्म कर गलत तरीके से कारोबार करने गंभीर आरोप हैं.

राष्ट्रपतिचुनाव के शोर और कोविड के जोर के बीच अमेरिका की कारोबारी दुनिया नब्बे का दशक याद कर रही है जब उसके आखिरी वर्षों में अमेरिका के कानून निर्माताओं ने बिल गेट्स की कंपनी को इंटरनेट ब्राउजर बाजार में प्रतिस्पर्धा रोकने का दोषी पाया था. यह अभियान उससे कहीं ज्यादा बड़ा और रोमांचक है.

मोनोपली, मुक्त बाजार की पैदाइशी दुश्मन है इसलिए अमेरिका के कानून निर्माता फेसबुक, गूगल, अमेजन और एपल पर ऐंटी ट्रस्ट कानून (बाजार में मोनोपली तोड़ने वाला) के तहत कार्रवाई की पेशबंदी कर रहे हैं. कांग्रेस की समिति इन कंपनियों के अंदरूनी संवादों के आधार पर यह सनसनीखेज मामले बनाए हैं.

फेसबुक ने व्हाट्सऐप और इंस्टाग्राम को निगल कर कैसे कंपीिटशन खत्म किया, इसका खुलासा अब हो रहा है. आपसी खतो-किताबत में कंपनी के अधिकारी यह कहते पाए कि गए प्रतिस्पर्धा खत्म करने के लि कर्मचारी तोड़ने, कंपनी खरीदने और फिर खत्म कर देने में कोई हर्ज नहीं है.

यूट्यूब अधिग्रहण के पुराने दस्तावेजों के आधार पर गूगल कठघरे में है. कंपनी के गोपनीय संवाद दिखाकर सुंदर पिचाई से पूछा गया कि अगर गूगल के पास रोजगार सर्च आदि के लिए अच्छे रिजल्ट नहीं हैं तो क्या आप अन्य सर्च इंजन को ट्रैफिक नहीं देंगे. क्यों ग्राहक सभी सेवाओं के लिए सिर्फ गूगल के मोहताज रहें?

अमेजन तो फेडरल ट्रेड कमिशन और जस्टिस डिपार्टमेंट की जांच में फंस ही गई है. दुनिया के सबसे बड़े रिटेलर पर आरोप है कि उसने अपने प्लेटफॉर्म से सामान बेचने वालों और स्टार्ट-अप का डेटा चुराकर अपने उत्पाद विकसित किए. अमेजन ने थर्ड पार्टी डेटा के दुरुपयोग से इनकार नहीं किया. अभी तक की सुनवाई में एपल पर ज्यादा आरोप नहीं लगे हैं

ऐंटी ट्रस्ट का हथौड़ा चला तो फेसबुक, गूगल, अमेजन को दो-तीन हिस्सों में तोड़ने की नौबत सकती है. और पूरी दुनिया में इन पर कार्रवाई जुर्माना लगाया जा सकता है.

हैरत की बात है कि जिन कंपनियों को मोनोपली के लिए उनके जन्मस्थान पर सजा देने की तैयारी चल रही है, उन्होंने सिर्फ चार माह में भारतीय बाजार की सूरत ही बदल दी और कंपीटिशन कमिशन ने कुछ भी नहीं किया

जिओ-फेसबुक-गूगल-माइक्रोसॉफ्ट-क्वालकॉम के एक साथ आने का बाजार के लिए मतलब हैः

भारत के मोबाइल सेवा बाजार में जिओ की हिस्सेदारी 33 फीसद है. दुनिया की सबसे बड़ी तकनीक कंपनी माइक्रोसॉफ्ट क्लाउड इन्फ्रास्ट्रक्चर ले कर आई है. गूगल के पास मोबाइल डिवाइस, एंड्राएड ऑरेटिंग सिस्टम और पेमेंट सर्विस, फेसबुक के पास डेटा, चैट सोशल नेटवर्क है. क्वालकॉम 5जी की तकनीक से लैस है.

 

ये सब जिओ को एक सुपर ऐप बनाने की तरफ ले जाएगा. वह 2025 तक भारत में इंटरनेट के जरिए बिकने वाले सामान का 35 फीसद और डिजिटल पेमेंट का 50 फीसदी बाजार कब्जा सकती है. 

 

इसके एकाधिकार को ऐसे समझिए कि जैसे पेट्रोल-डीजल उत्पादन करने बेचने वाली कंपनी पूरे एकाधिकार के साथ इंजन, पुर्जों, टायर, बॉडी, बाहरी भीतरी सुविधाओं सहित पूरी कार बनाए, बेचे, सर्विस दे. उन कारों के लि हाइवे-सड़कें-गलियां भी बनाए उस पर टोल भी वसूले, उस सड़क के किनारे मकान, मॉल, मल्टीप्लेक्स, बनाए जहां उसी का सामान बेचा जाए. वह कंपनी इन्हें बनाने की तकनीक भी बनाए और यह सब कैसे बनेगा या चलेगा, इसके पैमाने भी तय करे. 


कोविड के बाद दुनिया तकनीक केंद्रित होगी लेकिन इसे एकतरफा नहीं होना चाहिए, इसलिए अमेरिकी कानून निर्माता अपनी ही यश कथाओं को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं. यह जानते हुए भी कि एकाधिकार, अवसरों के लुटेरे हैं, उपभोक्ताओं को ठगते हैं और ताकत केंद्रीकरण करते हैं. हमारे नेताओं, नियामकों और आत्मनिर्भरतावादियों ने भारत का उभरता बाजार प्लेट में सजाकर दुनिया का सबसे बड़ी मोनोपली को सौंप दिया है.