गूगल प्रमुख सुंदर पिचाई बाजार पर मोनोपली यानी एकाधिकार के मामले
में अमेरिकी कानून निर्माताओं के कठघरे में थे फेसबुक और अमेजन पर भी अमेरिका के
कानून निर्माता एंटी ट्रस्ट यानी प्रतिस्पर्धा रोकने वालों के खिलाफ बने कानून
के तहत कार्रवाई की तैयारी में थे
उस सुनवाई के फोटो और वीडियो में अनोखा दृश्य नजर आया. कांग्रेस की सुनवाई के दौरान पिचाई के पीछे
तीसरी पंक्ति कुर्सियों में काली टोपी वाले मुच्छड़ रिच अंकल पेनीबैग्स नजर आ रहे
थे
रिच पेनीबैग्स का तो आपको पता ही होगा. दुनिया भर में मशहूर मोनपली
बोर्ड गेम के प्रतीक पुरुष हैं पेनीबैग्स. 1930 में अमेरिकी महामंदी के दौरान यह
सबसे लोकप्रिय बोर्ड गेम था जिसका भारतीय संस्करण व्यापार के नाम से आता था.
बहरहाल अमेरिकी कांग्रेस की सुनवाई में ग्रीडी मोनोपली मैन की
मौजूदगी किसी फोटोशॉपीय कला से नहीं हुई. अमेरिका के एक वकील ग्रीडी मोनोपली मैन की वेशभूषा में, इस मामले की प्रत्येक सुनवाई में ठीक उस जगह मौजूद रहे थे जहां से वह
तस्वीरों का हिस्सा बन सकें. उनकी कोशिश रंग लाई. लोगों को बाजार का विद्रूप और
एकाधिकारवादी चेहरा नजर आया मुच्छड़ रिच अंकल पेनीबैग्स जिसके प्रतीक हैं
तकनीकी कंपनियों के एकाधिकारों यानी कि मोनोपली मनीबैग्स पर चोट की
यह लहर जो अमेरिका से उठी वह यूरोप होते हुए भारत तक आ ही गई. यहां के नियामकों को
मजबूर होना पड़ा. एंड्रायड प्लेटफॉर्म और प्ले स्टोर में अपने एकाधिकार की
दुरुपयोग करने की शिकायतों पर भारत के प्रतिस्पर्धा आयोग ने गूगल पर 1300 करोड़
का जुर्माना लगाया. गूगल इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई है. यूरोप में भी अमेजन
फेसबुक और गूगल पर प्रतिस्पर्धा नियामकों की चाबुक बरस रहे हैं. भारत की संसदीय
समिति डिजिटल मोनोपली की सचाई स्वीकार करने पर मजबूर हुई है
आप कहेंगे कि भारत के नियामक भी देर आयद मगर दुरुस्त आयद हैं. ...
शायद नहीं
प्रतिस्पर्धा आयोग की ताजी सख्ती पर रीझने से पहले जरा करीब से देखिये.
गूगलों फेसबुकों पर सख्ती से पहले तक भारत दुनिया के सबसे जिद्दी और पेचीदा
एकाधिकारवादी बााजर में बदल चुका है. यह बाजार प्रतिस्पर्धा आयोग की नाक नीचे बना
है जिसे बाजार पर कब्जे सेवा और उत्पादों की मनमानी कीमतें और राजनीतिक चंदों की
जटिल जहरीले तालमेल ने बनाया है.
अब अगर मोनोपली की बात निकली है दूर तलक जानी ही चाहिए केवल डिजिटल
कंपनियां को ही क्यों कानून में बांधा जाए यहां तो ज्यादातर जरुरी सामानों और सेवाओं
के बाजार पर चुनिंदा कंपनियां काबिज हैं.
जो बड़ा है वही चढ़ा है
गूगल अमेजन आदि की मोनोपली और एकाधिकार की बहस भारत में कुछ फैशनेबल
सी हो जाती है या कि इसकी मदद से असली एकाधिकारों से ध्यान बंटाया जा सकता है.
अव्वल तो भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाली लोग आबादी का केवल 47 फीसदी
हैं उनमे भी इंटरनेट का भरपूर इस्तेमाल करने वाले और सीमत. दूसरा डिजिटल
मोनोपली मुफ्त सेवाओं पर चलती हैं जो डिजिटल बाजार की एक दूसरी ही अदा है जिस पर
बड़ी बहसें होती हैं
भारत में मोनोपली उन उत्पादों और सेवाओं में ज्यादा बड़ी जिनकी इस्तेमाल
सब करते हैं और नाक से पैसा चुकाते हैं. कभी अपने एक महीने के बिल भुगतान को देखिये.
कुल समाान और सेवाओं पर हमारे भुगतान का करीब 60 फीसदी हिस्सा चुनिंदा 25-30
कंपनियों को जाता है जिनका बाजार में एकाधिकार या जिन बाजारों में दो कंपनियों का
दबदबा है. इनमें सरकारी और निजी दोनों कंपनियां शामिल हैं
चाय, बिस्कुट, चॉकलेट, मक्खन, नमक, हेयर आयल, खाने के तेल,
बेबी फूड, फुटवियर, इनरवीयर,
मोबाइल टेलीकॉम, बिजली उत्पादन, बिजली पारेषण, तेल पाइपलाइन, एयरपोर्ट,
परिवहन, सड़क, पेट्रोलियम,
गैस, रेलवे, मोबाइल
हैंडसेट, ऑनलाइन शॉपिंग, एप आधारित
टैक्सी, ऑन लाइन फूड गिनती बहुत लंबी है
चौंक गए न
कहां से आई मोनोपली
भारत में कैसे बन गईं इतनी बड़ी मोनोपली ?
2013 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में ढलान शुरु होने लगी थी. यही
वह वक्त था जब भारत में कई उद्योगों में कंपनियां बीमार हुईं, प्रतिस्पर्धा सिमटी थी. वह पहला मौका था जब भारत
में कंपनियों के अधिग्रहण शुरु हुए. दूरंसचार में घोटाले और कंपनियों के बंद होने
के बाद धीमे धीमे बाजार दो तीन कंपनयिों तक सिमटता गया. एयर टेल ने इस दौरान कई
कंपनियों का अधिग्रहण किया था.
वोडाफोन आइडिया का विलय उसी वक्त हुआ. यह कंपनी आज डूबने के करीब
है और बाजार में डुओपली होने वाली है.
यही वह दौर था जब वालमार्ट फ्लिपकार्ट सोनी जी इंटरनेटमेंट एलआईसी
आईडीबीआई बैंक जैसे बड़े अधिग्रहण सुर्खियों में आए. आंकडे बताते हैं कि 2015 से
2019 के बीच भारत में अधिग्रहणों पर 310 अरब डॉलर खर्च हुए. यह दौर टेलीकॉम, ऊर्जा और मीडिया में अधिग्रहणों का था
लगभग इसी वक्त उपभोक्ता उत्पादों में कंपनियां छोटे ब्रांड निगलने
लगी थीं. इंदुलेखा
केरल और तमिलनाडु के बाजारों में खासा कामयाब हेयर केयर ( बालों का तेल अन्य उत्पाद) ब्रांड था. 2016 में हिंदुस्तान यूनिलीवर ने
350 करोड़ रुपए में इस ब्रांड का अधिग्रहण कर लिया. इसे उन्होंने अखिल भारतीय
ब्रांड बनाया और नए उत्पाद पेश किए. महज तीन साल में इंदुलेखा, हिंदुस्तान यूनिलीवर के लिए 2,000 करोड़ रुपए का ब्रांड बन गया.
आइटीसी ने बंगाल का छोटा-सा ब्रांड
निमाइल (Nimyle) खरीद
कर इंदुलेखा वाला फॉर्मूला दोहराया गया. टाटा ने चाय
लोकप्रिय ब्रांड लाल घोड़ा और काला घोड़ा का अधिग्रहण किया.
संकट में मिले मौके
2019 के बाद उद्योगों में संकट बढा.
कुछ जीएसटी के कारण कुछ कर्ज के कारण और कुछ बाजार में पिछड़ने के कारण संकट में
फंसे.
अब उपभोक्ता बाजार में कब्जे की
बारी थी. 2020 अप्रैल में हिंदुस्तान लीवर ने 3045 करोड़ रुपये में जीएसके यानी
ग्लैक्सो स्मिथक्लाइन कंज्यूमर को खरीद लिया. यह एफएमसीजी बाजार का सबसे बड़ा
अधिग्रहण था. इसी साल आइटीसी ने 2000 करोड़ में सनराइज फूड्स को समेट लिया. 2022
के अंत में डॉबर ने बादशाह मसाले का अधिग्रहण कर लिया. सबसे बड़ी ताजा डील टाटा
कंज्यूमर करने जा रहा है जहां वह 60000 करोड़ में रमेश चौहान के बिसलेरी वाटर
ब्रांड को खरीद कर ब्रांडेड पानी के बाजार पर लगभग एकाधिकार कर लेगा.
रिटेल बाजार में मेट्रो पर रिलायंस का
कब्जा, अंबुजा सीमेंट में होलसिम की हिस्सेदारी पर अडानी का नियंत्रण और एलएंडटी
माइंड ट्री बड़े अधिग्रहणों की सूची को और बड़ा करते हैं
स्टार्ट अप कंपनियों ने डूबने से
पहले एकाधिकार के लिए टेकओवर की मुहिम सी चला दी थी. बायजूस ने कई एजुकेशन ब्रांड
खरीदे थे.
इस दौर अधिग्रहण आक्रमक थे. इनमें कई
कंपनियां कर्ज चुकाने में चूकी थीं और उन्हें दीवाला प्रक्रिया के तहत खरीद गया
था. 2020 से 2022 तक अधिग्रहणों का तूफान सा आ गया. करीब 80 फीसदी सौदे नतीजे तक
पहुंचे. 2022 में करीब 126 अरब डॉलर के 1185 सौदे हुए.
बीते दो बरस में कोविड के कारण जो
मंदी आई उसमें कई छोटे ब्रांड अधिग्रहणों का शिकार हुए और बाजार में एकाधिकार
के लिए नए युग शुरुआत हो गई.
मुंबई स्थित निवेश फर्म मार्सेलस के
मुताबिक, भारत में 20-25 कंपनियों ने अपने-अपने बाजारों में 80 फीसद या उससे भी
ज्यादा कारोबार पर एकाधिकार कायम कर रखा है जबकि ज्यादातर देशों में 15 फीसद की
बाजार हिस्सेदारी को कंपनी की अग्रणी स्थिति माना जाता है.
2021-22 कंपनियों की कुल आमदनी का करीब
70 फीसद हिस्सा सबसे अव्वल 20 कंपनियों की जेब में गया. इसके मुकाबले, अमेरिका में
शीर्ष 20 कंपनियों के खाते में कुल कॉरपोरेट मुनाफे का तकरीबन 25 फीसदी हिस्सा (2019)
जाता है इसके बावजूद वहां नियामक (रेगुलेटर) और उपभोक्ता दोनों
एकाधिकार वाली कंपनियों की बढ़त रोकने को लेकर तरह तरह के जतन करते रहे हैं.
सरकार को नहीं दिखता यह सब ?
यही तो कहानी का सबसे बड़ा पेंच है. भारत के बाजार की सबसे बड़ी
मोनोपली तो सरकार के पास हैं. उदारीकरण के 25 साल बीतने के बावजूद असंख्य सेवाओं
में सरकार सीधा एकाधिकार है या सरकारी कंपनियों के कार्टेल हैं. खनन, सड़क परिवहन , रेलवे, रेलवे इंजीनियरिंग, भारी निर्माण, बिजली उत्पादन और वितरण,
कोयला, परमाणु ऊर्जा, पेट्रोलियम
वितरण , तेल खोज, नेचुरल गैस, बैंकिंग, बीमा,
अनाज खरीद जैसे कई क्षेत्रों में सरकार का एकाधिकार है. नेता और अधिकारी
यह ताकत छोड़ना नहीं चाहते इसलिए निजी एकाधिकारों पर भी किसी को फर्क नहीं पड़ता.
भारत के प्रतिस्पर्धा आयोग ने हाल में वर्षों में कंपनियों के
कार्टेल पर जो जुर्माने लगाये हैं वह लोगों की शिकायत हैं और आमतौर पर लंबे कानूनी
खींचतान के बाद लगे हैं. एसा इसलिए है क्येां कि भारत में कानूनी तौर पर मोनोपली या डुओपली की परिभाषा साफ नहीं है.
यदि कानूनी तस्वीर साफ होगी तो सरकार की मोनोपली भी कठघरे में होगी इसलिए कुछ
नहीं बदलता.
कोई और भी है फायदे में ?
जानना चाहते हैं कि आप कि भारत में मोनोपोली यानी एकाधिकार और
कार्टेल को लेकर कोई फिक्र क्यों नही दिखती इस सवाल का जवाब हमें शेयर बाजार में
मिलेगा. बीते चार एक साल में अर्थव्यवस्था की बुरी गत हो गई. आर्थिक सुस्ती तो
पहले से ही थी , इसके बाद महामारी ने
कमाई, खपत और बचत तीनों तोड़ दिये मगर इस दौरान शेयर बाजारों
ने ऊंचाई के रिकार्ड बनाये. बीएसई सेंसेक्स जो 2018 में करीब 35000 अंक पर था अब
61000 पर है. निफ्टी 10000 अंकों की बढ़कर 17000 पर पहुंच गया .
यह बढोत्तरी अर्थव्यवस्था में समग्र बेहतरी से मेल नहीं खाती.
दरअसल सेसेंक्स और निफ्टी में जो कंपनियां काबिज हैं उनमें से आधी कंपनियां
बाजारा में एकाधिकार रखती है, दो
कंपनियों के दबदबे यानी डुओपली का हिस्सा हैं यानी फिर बाजार में 30 फीसदी से ज्यादा
हिस्सा रखती हैं.
निफ्टी की 50 और सेंसेंक्स
की 25 कंपनियों की सूची ग्राफिक में
भारत के शेयर बाजार में करीब 100 से
ऊपर कंपनियां एसी हैं जिनका एकाधिकार या किसी बडे कार्टेल का हिस्सा है, कोविड के बाद उभरते एकाधिकारों के बीच भारतीय
शेयर बाजार श्ह बदलता स्वरुप अच्छी खबर नहीं है. शेयर बाजार में छोटी और मझोली
कंपनियों के घटते आकर्षण ने सेबी को सितंबर 2020 में यह आदेश जारी करने पर मजबूर
किया कि म्युचुअल फंड को अपने निवेश मिड कैप और स्माल कैप स्टॉक्स का हिस्सा बढाना
होगा. क्यों कि बाजार में जब प्रतिस्पर्धा कुछ कंपनियों के बीच सीमति है तो शेयर
बाजार में निवेश सीमित कंपनियों में सिमटने लगा था.
अर्थव्यवस्था में कुछ भी हो मगर
इनकी ताकत बढ़ती जाती है क्रेडिट सुइस ने 2020 में आकलन किया था कि बीएसई 500 की
100 से ज्यादा कंपनियां अपने प्रतिस्पर्धियो की तुलना में नए बाजार में पहुंचने, प्रतिस्पर्धी के
अधिग्रहण, ग्लोबल बाजार में विस्तार की ज्यादा क्षमता
रखती है. आर्थिक उतार चढ़ाव के बीच इनकी ताकत पर बड़ा फर्क नहीं पड़ता
बीते दो बरस में हमने यही सब होते
देखा है जिसका जमीन 2016 से बन रही थी. इन कंपनियेां ने बाजार में छोटै प्रतिर्स्धी
निगल लिये. पीएलआई जैसी स्कीमों का लाभ लिया और सरकारी की रियायतों से ताकत हासलि
की. कच्चे माल की कीमत बढी तो बाजार में कीमतें बढ़ा दीं. बीते दो बरस में मांग
घटने के बावजूद भी भारत की प्रमुख बड़ी कंपनियों के मुनाफों में रिकार्ड बढ़त दर्ज
की गई है.
जहरीली जोडी
भारत में अब तकनीक, उपभोक्ता उत्पाद, टेलीकॉम, एयरपोर्ट, ई कॉमर्स
में नई मोनोपली उभर रही हैं. यहां कंपनियां ने केवल बाजार में कीमतों को नियंत्रित
कर रही हैं बल्कि रोजगारों की मांग भी उनके रहमोकरम पर है. यानी मोनोपली और
मोनोस्पोनी दोनों एक साथ.
ब्रिटेन
की अर्थशास्त्री जोआन रॉबिनसन ने 1930 में इस
बाजार के इस चरित्र को समझाया था. तब तक को निजी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों
का युग शुरु भी नहीं हुआ था. खतरे को समय से पहले देख लिया था. जोआन ने बताया था कि मोनोपली और मोनोस्पोनी की घातक जोड़ी असंतुलित
बाजारों की पहचान है. मोनोपली के तहत चुनिंदा कंपनियां बाजार में आपूर्ति पर
नियंत्रण कर लेती हैं. ग्राहक उनके के बंधक हो जाते हैं जबकि मोनोस्पोनी में यही
कंपनियां मांग पर एकाधिकार जमा लेती है और रोजगार के अवसरों सीमित कर देती हैं
जिससे रोजगार व कमाई में कमी आती है.
भारत 40 सालों से सरकारी एकाधिकार की सजा
भुगत रहा है यह सोचना भी गलत होगा कि निजी एकाधिकार थोड़े से बेहतर होंगे. कीमत तो
आखिरकार आम उपभोक्ता को ही चुकानी होगी.
इसका फौरी असर नौकरियों के जाने के तौर पर सामने आ रहा है कि क्योंकि प्रतिस्पर्धा से नई शुरुआत होती है और
प्रतिस्पर्धा सिकुड़ने से रोजगार के मौके खत्म होते हैं. स्टार्ट अप बाजार में
यही दिख रहा है.
दुनिया में बीते 50 साल में कई जगह यह
देखा है कि सरकारी एकाधिकार की जगह निजी एकाधिकार आकर पूरे उदारीकरण का मकसद खत्म
कर देते हैं. जैसे कि कार्लोस स्लिम हेलु मैक्सिको का एक सामान्य शेयर ट्रेडर था.
सरकार में पहुंच के जरिये उसने एक विवादित निजीकरण में टेलीकॉम बाजार पर एकाधिकार
रखने वाली सरकारी कंपनी टेलीमेक्स का अधिग्रहण कर लिया. उसकी बोली सबसे ऊंची बोली
नहीं थी वह एक मुश्त पूरी रकम भी नहीं चुका पाया. तो भी इस कंपनी पर कब्जे ने उसे
अंततः दुनिया के सबसे अमीर आदमियों में शामिल कर दिया.
होस्नी मुबारक की सरकार में कुछ शीर्ष
कारोबारी मंत्रिमंडल में शामिल हो गए और सरकारी कानून बनाकर उन्होंने प्रतिस्पर्धा
को सीमित कर दिया. नतीजतन उनकी कंपनियों ने बाजार पर नियंत्रण कर लिया. अक्सर
बाजार में एकाधिकारों की राजनीति से गहरी छनती है. राजनीतिक सत्ता मुक्त
प्रतिस्पर्धा के बजाय चुनिंदा कंपनियों की मदद करती हैं. नियामक व्यवस्था की साख बैठ जाती है
प्रतिस्पर्धा कानून को अमल में आए दो दशक हो चुके
हैं. लेकिन अभी तक भारत में एकाधिकार और कार्टेल की परिभाषायें स्पष्ट नहीं हैं.
भारत में कितने बाजार हिस्से को एकाधिकार माना जाए यह स्पष्ट नहीं है. सरकारी
कंपनियों के एकाधिकार तो किसी गिनती में ही नहीं आते हैं.
पूंजीवादी व्यवस्था में प्रतिस्पर्धा पर लगातार
निगरानी जरुरी है और इसक मामले में भारतीय नियामक और प्रतिस्पर्धा के नियमों को नए
तरह से लिखे जाने की जरुरत है.
सरकारी
प्रोत्साहन बाजार मे प्रतिस्पर्धा केंद्रित करने होंगे. आयात महंगे करने के बजाय
स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं में कंपनियों को लागत (जमीन, बिजली, टैक्स) कम करने के लिए सहायता देनी होगी ताकि वे
स्थानीय बाजारों में ताकत के साथ टिके रह सकें.
मेक्सिको, मिस्र, रूस, अर्जेंटीना
सरीखे देशों में मुक्त प्रतिस्पर्धा की शुरुआत तो अचछी नहीं लेकिन कुछ ही सालों में राजनीति की मदद से चुनिंदा उद्योग घरानों ने ज्यादातर कारोबारों पर एकाधिकार कायम कर
लिए और फिर ऐसे देश अक्सर
निम्न आय के दुष्चक्र में फंस गए.
उदारीकरण के कारण प्रतिस्पर्धा ने भारत को दो प्रमुख फायदे पहुंचाये एक उपभोक्ताओं को नए विकल्प मिले जिससे जिंदगी बेहतर हुई और दूसरा रोजगारों का सृजन हुआ. लेकिन अब वक्त बदल रहा है. भारत आर्थिक सुस्ती की तरफ खिसक रहा है. यह दौर मोनोपली के लिएउ सबसे माफिक है बीमार होती छोटी मझोली कंपनियां बड़ो के लिए आसान चारा हैं. यही मौका जब सरकार को कुछ बड़ा करना होगा. नहीं तो बहुत देर हो जाएगी.