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Sunday, February 12, 2017

नोटबंदी का बजट


नोटबंदी के नतीजों पर सरकार में सन्‍नाटे के बावजूद कुछ तथ्‍य

 सामने आ ही गए हैं

हिम्मतवर सरकारें अगर बड़े फैसले लेती हैं तो उन्हें फैसलों के नतीजे बताने से हिचकना नहीं चाहिए. नोटबंदी ने रोजगार से लेकर कारोबार तक सबका बजट बिगाड़ दिया तो इससे सरकार को भरपूर टैक्स या फिर रिजर्व बैंक से मोटा लाभांश जरूर मिलने वाला होगा! लेकिन बजट भी गुजर गया अलबत्ता नोटबंदी के फायदे-नुक्सान को लेकर न तो सरकार का बोल फूटा, न ही रिजर्व बैंक ने आंकड़े बताने की जहमत उठाई.

नोटबंदी को बिसारने की तमाम कोशिशों के बावजूद बजट और आर्थिक समीक्षा नोटबंदी से जुड़े कुछ तथ्य सामने लाती है. अगर उन्हें एक सूत्र में बांधा जाए तो हमें एहसास हो जाएगा कि नोटबंदी पर बेखुदी बेसबब नहीं है, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.
तीर!
कहावत है जिसकी नाप-जोख नहीं हो सकती, उसे संभालना भी असंभव है. वित्त मंत्री कह चुके हैं कि नकद काले धन का कोई ठोस आकलन उपलब्ध नहीं है. तो 500 और 1000 के नोट बंद करने और 86 फीसदी नकदी को एकमुश्त अवैध करार देने का इतना बड़ा निर्णय किस आकलन पर आधारित था?
आर्थिक समीक्षा की मानें तो करेंसी नोटों का सॉयल रेट (नोटों के गंदे होने और कटने-फटने की दर) इस फैसले का आधार था. सॉयल रेट नोटों के इस्तेमाल की जानकारी देता है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, 500 रु. से नीचे के मूल्य वाले नोट में सॉयल रेट 33 फीसदी सालाना है यानी 33 फीसदी गंदे कटे-फटे नोट हर साल बदल जाते हैं. 500 रु. के नोट में सॉयल रेट 22 और 1000 रु. के नोट में 11 फीसदी है.
समीक्षा ने दुनिया के अन्य देशों में सॉयल रेट को भारत में बड़े नोटों के प्रचलन पर लागू करते हुए निष्कर्ष निकाला है कि नोटबंदी से पहले करीब 3 लाख करोड़ रु. के बड़े नोट ऐसे थे जिनका भरपूर इस्तेमाल लेन-देन में नहीं होता था. इस राशि को क्या काली नकदी माना जा सकता है जो जीडीपी के दो फीसदी के बराबर है?
इस सवाल पर समीक्षा मौन है अलबत्ता वह नकदी के दो आयाम बताती है.
सफेद धनः रसीद काटकर और टैक्स की घोषणा के बाद कर्मचारियों को दिया गया नकद वेतन या घरों में आकस्मिकता के लिए रखा गया धन.
काला धनः छोटी कंपनियां या व्यापारी नकद में धन रखते हैं और चुनाव में चंदा देते हैं. 
निशाना!
बजट के आंकड़े नोटबंदी के निशाने पर बैठने का प्रमाण नहीं देते. टैक्स के आंकड़ों में एकमुश्त कोई बहुत बड़ी रकम मिलने का आकलन नहीं है, अलबत्ता आंकड़े इतना जरूर बताते हैं कि आयकर संग्रह में बढ़त की दर तेज रहेगी. नोटबंदी के बाद एडवांस टैक्स भुगतान लगभग 35 फीसदी बढ़ा है. अगले साल आयकर संग्रह में लगभग 25 फीसदी की बढ़त की उम्मीद है. यदि आकलन सही उतरे तो दो साल में करीब 1.5 लाख करोड़ रु. का अतिरिक्त आयकर मिल सकता है.
रिजर्व बैंक ने नहीं बताया है कि बड़े नोटों में कितना धन बैंकिंग सिस्टम से बाहर रह गया है इसलिए रिजर्व बैंक से मोटा लाभांश मिलने का आकलन उपलब्ध नहीं है
नुक्सान 
''नोटबंदी से नहीं कोई मंदी" का दम भरने के बावजूद सरकार ने मान लिया है कि ग्रोथ की गाड़ी पटरी से उतर गई है. आर्थिक समीक्षा बताती है कि नोटबंदी के चलते इस साल आर्थिक विकास दर में करीब एक फीसदी (पिछले साल 7.6) की गिरावट होगी. अगले साल भी विकास दर सात फीसदी से नीचे रहेगी. नोटबंदी से रोजगार घटा है, खेती में आय को चोट लगी है और नकद पर आधारित असंगठित क्षेत्र में बड़ा नुक्सान हुआ, लेकिन इसके आंकड़े सरकार के पास उपलब्ध नहीं हैं.
सरकार मान रही है कि नकदी का प्रवाह सामान्य होने के बाद बैंकों से जमा तेजी से बाहर निकलेगी, नोटबंदी से सरकार-रिजर्व बैंक की साख को धक्का लगा है और लोगों में भविष्य के प्रति असमंजस बढ़ा है.
हिसाब-किताब
नोटबंदी मौद्रिक फैसला था इसलिए फायदे-नुक्सान को आंकड़ों में नापना होगा. बजट और समीक्षा को खंगालने पर हमें इसके सिर्फ दो ठोस आंकड़े मिलते हैं.
फायदा
नोटबंदी के बाद इस साल के चार महीनों में और अगले साल के दौरान आयकर संग्रह में लगभग 1.5 लाख करोड़ रु. की बढ़त हो सकती है.
नुक्सान  
2016-17 में नोटबंदी से जीडीपी में एक फीसदी की कमी आएगी जो कि 1.5 लाख करोड़ रु. के आसपास है. रिजर्व बैंक के लिए नोटों की छपाई की लागत और बाजार में नकदी का प्रवाह संतुलित करने के लिए जारी बॉन्डों पर ब्याज को भी इसमें जोडऩा होगा.

अगर परोक्ष नुक्सान को गिनती में न लिया जाए तो  भी आयकर राजस्व में बढ़ोतरी का अनुमान जीडीपी के नुक्सान के बिल्कुल बराबर है.

बाकी आप खुद समझदार हैं.


Sunday, November 20, 2016

नोटबंदी की बैलेंस शीट


यह एक आर्थिक फैसला है इसेे तथ्‍यों में नापना चाहिए और फिलहाल तो इस फैसले के बाद भारत दुनिया की सबसे तेजी से थमती अर्थव्‍यवस्‍था में बदल गया है 

बड़े नोटों का चलन बंद करने के साथ सरकार ने क्‍या इतना बडा निवाला काट लिया है कि अब चबाना मुश्किल पड रहा है ?
क्या प्रधानमंत्री मोदी ने खासे लंबे वक्त में मिलने वाले अनजाने फायदों के बदले मंदी और आम लोगों के लिए मुसीबतें न्‍योत ली हैं?
नोट बंद होने से भारी अफरा तफरी के बाद सरकार भावनात्‍मक और रक्षात्‍मक है। संसद की बहसें हमेशा की तरह तथ्‍यहीन है। जबकि यह एक आर्थिक फैसला है इसेे तथ्‍यों में नापना जरुरी है बोदी बयानबाजियों में नहीं। अपना ही पैसा निकालने में लाइन में लगकर मौत को गले लगाते बदहवास लोग यह जरुर जानना चाहते होंगे कि इस विशाल मौद्रिक बदलाव के फायदेे और नुक्सान क्‍या हो सकते हैं

पहले, तथ्यों पर एक नजर डालते हैं

1. तमाम स्वतंत्र एजेंसियों के अनुसार तकरीबन 20 फीसदी काला धन नकदी में है जबकि बाकी जमीन-जायदाद और जेवर-गहनों की शक्ल में रखा गया है. हालांकि काली नकदी और कम भी हो सकती है
2.  बड़े नोटों का बंद होना केवल उन लोगों को नुक्सान पहुंचाता हे जिन्होंने इस फैसले के वक्त अपनी काली कमाई नकदी की शक्ल में जमा कर रखी थी.
3. देश में जितनी मुद्रा चलन में थी, उसका 80 फीसदी हिस्‍सा अब बेकार हो चुका है। भारत का ज्यादातर व्यापार और खर्च बड़े नोटों में ही होता है. इस लिए नोटों को बदलने के लिए बैंकों या दूसरे विनिमय केंद्रों पर आना होगा.
4. भारत की 11.8 फीसदी अर्थव्यवस्था नकदी के सहारे चलती है. भारत के जीडीपी में नकदी का अनुपात कमोबेश कई बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बराबर है. जर्मनी के जीडीपी में नकदी का अनुपात 8.7 फीसदी है जबकि फ्रांस में यह 9.4 फीसदी है. जापान में 20.7 फीसदी अर्थव्यवस्था नकदी है.
5. नकद अर्थव्यवस्था में काले और सफेद लेनदेन का जटिल घालमेल है। गैरकानूनी तरीकों से कमाई गई नकदी का इस्तेमाल भी उत्पादक संपत्तियां और मांग पैदा करने के लिए भी किया जाता है. इसलिए  नकद अर्थव्यवस्था दूसरे तरह से समझते हैं।
नकद अर्थव्यवस्था में दो किस्म की नकदी होती है. एक एकाउंटेड या घोषित और दूसरी अनअकाउंटेड। नियमों के तहत दो ही खाते अधिकृत है। नकदी केवल तभी कानूनी बन सकती है जब या तो टैक्स खाते में उसका लेखाजोखा हो या बैंक खाते में. जो भी नकदी इन दोनों खातों से बाहर है उसे अनअकाउंटेडड कहेंगे।
6. काले धन की अर्थव्यवस्था के आकार के बारे में चाहे जो अनुमान हों लेकिन जहां तक नकद अर्थव्यवस्था की बात है, इसे भारतीय रिज़र्व बैंक हरेक तिमाही में अच्छी तरह से मापता और दर्ज करता है. चूंकि आरबीआइ छापे गए हरेक करेंसी नोट का रिकॉर्ड रखता है, इसलिए मनी इन सर्कुलेशन का आंकड़ा, नकद अर्थव्यवस्था की गणना है।

अब करते हैं फायदों का हिसाब  
लगभग दस ग्‍यारह दिन के दर्द के बाद देश यह जानने को बेचैन है कि इस कुर्बानी के फायदे आखिर क्‍या होने वाले हैं। नकद अर्थव्यवस्था के कुछ आंकड़ों से फेंट कर संभावित फायदों का अंदाज लगाया जा सकता है।
 रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक मार्च 2016 तक भारत में 500 और 1000 के नोटों में करीब 14,180 अरब रुपए की नकदी प्रचलन में थी. इसमें से 30 फीसदी यानी 4,254 अरब रुपए की नकदी बैंकों और दूसरी सरकारी एजेंसियों के पास थी जबकि 70 फीसदी यानी 9,926 अरब रुपए आम जनता (मनी विद पब्लिक) के पास थे.

यह लेख लिखे जाने तक करीब 6 लाख करोड़ रुपये बैंकों के पास जमा हो चुके थे

पूरेे अभियान की सफलता इस तथ्‍य पर निर्भर है कि बड़े नोट बंद होने के बाद कितनी नकदी अदला-बदली के लिए वापस आएगी और कितनी नकदी व्यवस्था से गायब हो सकती है?

1978 में इसी तरह के फैसले के बाद 75 फीसदी रकम व्यवस्था में वापस आ गई थी, जबकि बाकी 25 फीसदी नकदी सिसटम से बाहर हो गई थी.

हमारे पास नकदी में काले और सफेद का कोई ठोस आंकड़ा नहीं है फिर भी तमाम आकलनों के मुताबिक 2,500 अरब से 3000 अरब रुपए की रकम शायद नोट बदली के लिए बैंकों तक नहीं आएगी अर्थात यह धन बैंकिंग सिस्‍टम से बाहर हो जाएगा। यह रकम जीडीपी के 2.4 से 3 फीसदी के बीच कहीं हो सकती है।

अलबत्‍ता इधर जब हम इन आंकड़ों से सर खपा रहे थे तभी रिजर्व बैंक ने सरकार को बताया है कि अगर सरकारी छापेखाने तय वक्त से ज्यादा काम करेंगे तब भी गैरकानूनी करार दिये गये 22 अरब नोटों को एक साल का वक्त लगेगा. ऐसे में सरकार को मजबूर होकर करेंसी नोटों के आयात का रास्ता अपनाना पड़ सकता है और पुराने नोटों को बदलने की मियाद को 50 दिनों से आगे बढ़ाना पड़ सकता है.

इसलिए तीन चार माह बाद ही हमें यह पता चलेगा कि आखिर मनी इन सर्कुलेशन का कितना हिस्‍सा बैंकों के पास आया और कितना खत्‍म हो गया। 

फिर भी हम मानकर चल सकते हैं कि:
1. लोगों के पास जो कुल 9.9 लाख करोड़ रुपए की नकदी है, उसमें 7 से 8 लाख करोड़ बैंकों के पास नकदी बदलने के लिए वापस आएंगे
2. चूंकि करेंसी इन सर्कुलेशन आरबीआइ की देनदारी है इसलिए जितना धन वापस नहीं लौटेगा वह रिजर्व बैंक की कमाई होगी।
3. आरबीआइ यह रकम सरकार को निवेश के लिए या लाभांश के तौर पर बांट सकता है या फिर स्वाहा हो चुकी रकम को बेकार मानकर नोटों की आपूर्ति में कमी कर सकता है, जैसा कि 1978 में किया गया था.

आइए अब नुकसानों की गिनती करें

नोट बंद होने से बाजार में मांग और पूरी तरह खत्‍म हो चुकी है। व्‍यापार सुन्‍न पड़ा है और तरलता संकट की वजह से वित्तीय बाजार गिरे हैं और रुपया टूट गया है। बैंकों के सामने रकम के लिए ज्यादा लंबी कतारों ने सरकार को धन निकालने और अदला-बदली के नियमों में ढील देने के लिए मजबूर किया है।

खपत/मांग/ जीडीपी 

1.सरकार के आंकड़ों के मुताबिक भारत के भारत में उपभोग खर्च प्रति माह 2,97,455 रुपए है. इस खर्च में खाना, किराना, ईंधन, बुनियादी सेवाएं, उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स के सामान वगैरह सभी कुछ शामिल हैं. नोट बंद होने के बाद पूरी खरीदारी जरुरी चीजों तक सीमित है।

3. ध्‍यान रखें कि भारत में उपभोग खर्च जीडीपी का औसतन 60 फीसदी और है. चूंकि हिंदुस्तान की 11.8 फीसदी अर्थव्यवस्था नकदी के भरोसे चलती है, इसलिए नकदी पर आधारित खपत खत्‍म्‍ाा हो चुकी है. बाजार छह महीने लंबी मंदी और जीडीपी में 0.5 से द फीसदी तक गिरावट की अंदाज लगा रहा है।

कॉरपोरेट
1 उपभोक्‍ता उत्‍पादों कंपनियां अगले तीन से छह महीनों के दौरान बिक्री में जबरदस्त गिरावट से कांप रही हैं। उपभोक्‍ता खपत के सामान बनाने वाली 10 शीर्ष कंपनियां नोटबंदी के बाद से शेयर बाजार में 1.5 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का बाजार मूल्य गंवा चुकी हैं.
2. मांग लौटने तक नए निवेशों और मार्केटिंग के खर्चों की उम्‍मीद बेमानी है।

बैंकिंग व्यवस्था
1. नया जमा बैंकों के लिए हरगिज खुशखबरी नहीं है। आखिरी गिनती तक बैंकों ने रिवर्स रेपो विंडो के जरिए आरबीआइ में 6 लाख करोड़ रुपये जमा कराये हैं। जिस पर आरबीआइ को उन पर भारी ब्याज चुकाना पड़ेगा तकरीबन 6.2 फीसदी सालाना की दर से।

2. बैंकों ने जमा पर ब्याज दरों में कटौती करना पहले ही शुरू कर दिया है और वे चाहेंगे इस जमा रकमों को जल्दी ही निकाल लिया जाए, क्‍यों कि कर्ज बांटने का धंधा मंदा चल रहा है।

3.  बैंकों के कर्ज रिकवरी में सुस्‍ती आने की संभावना है। ग्रामीण और खुदरा कारोबार में गिरावट के कारण कुछ समय के लिए बैंकों के एनपीए बढ़ सकते हैं। बैंकों को अगले कुछ महीनों के लिए खुदरा/ग्रामीण कर्जों की अपनी अंडरराइटिंग प्रक्रियाओं पर नए सिरे से नजर डालनी होगी और नए कर्ज रोकने होंगे।

4. जब तक यह नकदी संकट खत्म नहीं होता, बैंकों को कर्ज बांटने, वसूली और अन्‍य कामकाज स्थगित रखने पड़ेंगे.

सरकार
1. स्वाहा हो चुके काले धन की शक्ल में कितना धन सरकार को मिलेगा यह अभी पता नहीं लेकिन सरकार को नई मुद्रा की छपाई की लागत के लिए 11,000 करोड़ रुपए की चपत सहनी होगी.

2. राज्य सरकारें जमीन की रजिस्ट्रियों और वैट के संग्रह में कमी आने की वजह से कर संग्रह में गिरावट के लिए कमर कस रही हैं. उत्पादन और बिक्री में ठहराव की वजह से केंद्र को सेवा कर और उत्पाद शुल्क से हाथ धोना पड़ सकता है.

राजनेता हमेशा चौंकाना चाहते हैं लेकिन अर्थव्यवस्था का तकाजा है स्थिरता, ताकि लंबे समय के लिए निवेश किया जा सके। सरकार के फैसलों का सियासी फायदा नुकसान तो चुनावी आंकडों से ही पता चलता है अलबत्‍ता आर्थिक आंकड़े रोज आते हैं और राजनीतिक फैसलों पर फैसला सुनाते हैं। फिलहाल तो नकदी की कमी ने भारत को दुनिया की सबसे तेजी से सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था में बदल दिया है, हालांकि आखिरी निर्णय अभी आना बाकी है। 
भूल चूक लेनी देनी !





Monday, October 17, 2016

सफलता की विफलता


टैक्स चोरों के नजरिए से यह अब तक की सबसे अच्छी स्कीम थी लेकिन फिर भी 
अपेक्षित कामयाबी क्‍यों नहीं मिली ..... 

प्रचारी सफलताओं में लिपटी असफलताएं अक्सर उन नाकामियों से ज्यादा जोखिम भरी होती हैं जो खुली आंखों से दिख जाती हैं. जैसे काला धन घोषणा स्कीम (आईडीएस 2016) को ही लीजिए. इसकी ''सफलता" की सबसे बड़ी नसीहत यह है कि कर चोरों और काले धन जमाखोरों को माफी स्कीमों की लंबी परंपरा में अब यह स्कीम आखिरी होनी चाहिए ताकि आगे ऐसी विफलताएं हाथ न लगें. 

2015 में विदेशी काले धन की स्वैच्छिक घोषणा स्कीम की भव्य नाकामी के बावजूद इस साल मार्च में जब सरकार ने देशी काले धन के लिए ऐसी ही स्कीम लाने का फैसला किया था तो यह माना गया था कि आइडीएस 2016 का दांव पूरी तैयारी के साथ लगाया जाएगाक्योंकि इस तरह की स्कीमों के धराशायी होने के पर्याप्त सबक सरकार के पास मौजूद हैं. जब खुद प्रधानमंत्री ने ''मन की बात" करते हुए इस स्कीम में आने का आह्वान किया तो कोई संदेह ही नहीं रहा कि सरकार काले धन को बाहर लाने में बड़ी कामयाबी के लिए पेशबंदी कर चुकी है.  
भरपूर रियायतों और हर तरह के जतन के बावजूद आइडीएस 2016 केवल 65,250 करोड़ रु. की घोषणाएं जुटा सकीजो 1997 में आई वीडीआइएस (कुल घोषणाएं 33,697 करोड़ रु.) का दोगुना भी नहीं है. पिछले दो दशकों में भारत की आधिकारिक अर्थव्यवस्था का आकार पांच से सात (अलग-अलग पैमानों पर) गुना बढ़ चुका है. काली अर्थव्यवस्था की ग्रोथ इससे कई गुना ज्यादा होगी. राहत सिर्फ इतनी है कि 45 फीसदी टैक्स व पेनाल्टी के चलतेआइडीएस ने लगभग 30,000 करोड़ रु. का टैक्स जुटाया जो वीडीआइएस का तीन गुना है. 

ईमानदार करदाता कुढ़ते रहें लेकिन टैक्स चोरों के नजरिए से यह अब तक की सबसे अच्छी स्कीम थी. सरकार ने पिछली असफलताओं से सबक सीखा था और आइडीएस को रियायतों के आकर्षण से भरने में कोई कमी नहीं छोड़ी. चार माह के दौरान कई स्पष्टीकरणों के जरिए शक-शुबहे दूर किए गए और नई रियायतें जोड़ी गईं. 
दरअसलमौजूदा कानूनों के तहतकर चोरों के लिए सरकार इससे अधिक मुफीद स्कीम नहीं ला सकती थी. आइडीएस में अघोषित संपत्ति की घोषणा पर इनकम टैक्स व वेल्थ टैक्स के तहत जांचछापे व सर्वे से छूट दी गई. बेनामी संपत्तियों की घोषणा का रास्ता भी खुला था. फेमा के तहत जांच या कार्रवाई भी नहीं होनी थी. फेमा आपराधिक रास्तों से जुटाए गए धन को रोकता है लेकिन आइडीएस 2016 में अपराध की कमाई को साफ करने की सुविधा भी खोल दी गई. विदेशी काले धन के लिए 2015 में आई स्कीम में फेमा से रियायत नहीं दी गई थी. 
आइडीएस में अगले एक साल तक तीन किस्तों में कर चुकाने की छूट थी. संपत्ति की घोषणा पर 45 फीसदी टैक्स (पेनाल्टी सहित) की दर भी आकर्षक थी क्योंकि साफ-सुथरे होने की सुविधा लगभग बीस साल बाद मिल रही थी. सितंबर के आखिरी सप्ताह से पहले तक आइडीएस में आने वालों को पैन नंबर के जरिए अपनी पहचान बताना जरूरी था लेकिन अंतिम दिनों में यह विवादित सुविधा देते हुएपैन बताए बगैर ऑनलाइन घोषणा की छूट भी मिल गई. इन रियायतों ने आईडीएस को कर चोरों के लिए सुनहरा मौका बना दिया. 
आयकर विभाग रियायतों तक ही नहीं रुका. स्कीम के आखिरी हफ्तों के दौरान देश भर में आयकर छापेमारी और सर्वे भी किए गए. आम तौर पर आयकर विभाग ऐसी स्कीमों के दौरान छापे नहीं मारता ताकि मौके को स्वैच्छिक रखा जा सके. छापे और सर्वे का मकसद होता है उलंघनकर्ता को पकडऩा और सजा देना न कि उसे कर माफी स्कीम में भेजकर बच निकलने का मौका देना. खबरों के मुताबिकस्कीम में अधिकांश घोषणाएं छापों के दबाव से आखिरी वक्त में शामिल हुईं.  
इन अभूतपूर्व रियायतों और विजिलेंस कार्रवाई के बावजूद आइडीएस निशाने पर नहीं बैठी. काला धन घोषणा स्कीमों की कामयाबी दो पैमानों पर आंकी जाती है. पहलास्कीम में मिल रही रियायतों ने कितनी घोषणाओं को उत्साहित किया. कर चोरों को रियायतें और बच निकलने के मौके ईमानदार करदाताओं को हतोत्साहित करते हैंइसलिए यदि स्कीम में भारी अघोषित संपत्ति सामने न आए तो सरकार की साख पर गहरी चोट लगती है.
दूसरा पैमाना यह है कि किसी देश में काले धन की अर्थव्यवस्था के मुकाबले स्वैच्छिक घोषणाएं कितनी हैं. हकीकत यह है कि भारत में काला धन गोते लगा रहा है. एम्बिट रिसर्च के आकलन के मुताबिकभारत की समानांतर अर्थव्यवस्था करीब 30 लाख करोड़ रु. (460 अरब अमेरिकी डॉलर) की हो सकती है जो कि देश के जीडीपी का 20 फीसदी है और थाईलैंड व अर्जेंटीना के जीडीपी से ज्यादा है. 



इंडोनेशिया और अर्जेंटीना ने हाल में काले धन की स्वैच्छिक घोषणा स्कीमें जारी की हैं. इंडोनेशिया की नौ माह की स्कीम के पहले तीन माह में 277 अरब अमेरिकी डॉलर की घोषणाएं हुईं जबकि अर्जेंटीना ने 80 अरब डॉलर जुटाए. भारत से छोटी इन अर्थव्यवस्थाओं में आई स्वैच्छिक घोषणाओं की तुलना में आइडीएस की ''सफलता" कहीं नहीं ठहरती.  
वित्त मंत्रालय की भीतरी चर्चाओं के मुताबिकइस स्कीम में दो अघोषित लक्ष्य थे. पहला था कम से कम एक लाख करोड़ रु. की घोषणाएं और दूसराकाले धन के बड़े ठिकानों मसलन गुजरातमहाराष्ट्रकर्नाटकतमिलनाडु की बड़ी भागीदारी. दोनों ही मोर्चों पर सरकार को इतना भी नहीं मिला कि इसे आंशिक सफल कहा जा सके. 
वांचू कमेटी (1971) ने ऐसी ही स्कीमों के अध्ययन के आधार पर कहा था कि कर माफी या काला धन घोषणा के प्रयोग कभी सफल नहीं हो सकतेअलबत्ता इस तरह की कोशिशों से हर बार ईमानदार करदाता का विश्वास और कर प्रशासन का उत्साह जरूर टूट जाता है. आइडीएस को देखने के बाद हमें यह शक करने का हक बनता है कि ये स्कीमें हर दशक में कुछ खास लोगों को बच निकलने का मौका देने के लिए लाई जाती हैं. क्या मोदी सरकार हमें यह कानूनी गारंटी दे सकती है कि आईडीएस सच में आखिरी मौका साबित होगी और ईमानदार करदाताओं को चिढ़ाकर कर चोरों को बच निकलने के मौके आगे नहीं मिलेंगे?