चीन से शुरु हुआ ताजा संकट अपने पूर्वजों की तुलना में अलग है और गहरा असर छोडऩे वाला है.
भारत की
दहलीज पर ग्लोबल संकट की एक और दस्तक को समझने के दो तरीके हो सकते हैं:
एक कि हम रेत में सिर घुसा कर यह कामना करें कि यह दुनियावी मुसीबत है और हम किसी
तरह बच ही जाएंगे. दूसरा यह कि इस संकट में अवसरों की तलाश शुरू करें. मोदी सरकार
ने दूसरा रास्ता चुना
है लेकिन जरा ठहरिए, इससे
पहले कि आप सरकार की सकारात्मकता पर रीझ जाएं, हमें इस सरकार को मिले अवसरों के
इस्तेमाल का रिकॉर्ड और जोखिम लेने की कुव्वत परख लेनी चाहिए, क्योंकि यह संकट अपने पूर्वजों की
तुलना में अलग है और गहरा असर छोडऩे वाला है.
सिर्फ शेयर बाजार ही तो थे जो भारत में
उम्मीदों की अगुआई कर रहे थे. चीन में मुसीबत के बाद, उभरती अर्थव्यवस्थाओं से निवेशकों की
वापसी के साथ भारत को लेकर फील गुड का यह
शिखर भी दरक गया है, जो
सस्ती विदेशी पूंजी पर खड़ा था. पिछले दो साल में भारतीय अर्थव्यवस्था में बुनियादी
तौर पर बहुत कुछ नहीं बदला. चुनाव की तैयारियों के साथ उम्मीदों की सीढिय़ों पर
चढ़कर शेयर बाजारों ने ऊंचाई के शिखर बना दिए. भारत के आर्थिक संकेतक नरम-गरम ही
हैं, मंदी है, ब्याज दरें ऊंची हैं, जरूरी चीजों की महंगाई मौजूद है, मांग नदारद है, मुनाफा और आय नहीं बढ़ रही जबकि मौसम की
बेरुखी बढ़ गई है. लेकिन विदेशी मुद्रा भंडार बेहतर है, कच्चा तेल सस्ता है और राजनैतिक
स्थिरता है. दुनिया में संकट की हवाएं पहले से थीं. अपने विशाल प्रॉपर्टी निवेश, मंदी व अजीबोगरीब बैंकिंग के साथ, चीन 2013 से ही इस संकट की तरफ खिसक रहा था.
भारत के आर्थिक उदारीकरण के बाद यह तीसरा
संकट है. 1997 में पूर्वी एशिया के करेंसी संकट से
भारत पर दूरगामी असर नहीं पड़ा. 2008
में अमेरिका व यूरोप में बैंकिंग व कर्ज संकट से भी भारत कमोबेश महफूज रहा. अब चीन
की मुसीबत सिर पर टंगी है. भारत इस पर मुतमइन हो सकता है कि ग्लोबल उथल-पुथल से हम
पर आफत नहीं फट पड़ेगी लेकिन यही संकट भारत की ग्रोथ की रफ्तार का भविष्य निर्णायक
रूप से तय कर देगा.
पिछले दो संकटों ने भारत को फायदे-नुक्सानों
का मिला जुला असर सौंपा. 1997
में जब पूर्वी एशिया के प्रमुख देशों की मुद्राएं पिघलीं तो भारत की पर शुरुआती
असर हुआ लेकिन उसके बाद अगले सात वर्ष तक भारतीय अर्थव्यवस्था ने ग्रोथ के सहारे
अपना चोला बदल दिया. यह उन बड़े सुधारों का नतीजा था जो नब्बे के दशक के मध्य में
हुए और जिनका फायदा हमें वास्तविक अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष निवेश व ग्रोथ के
तौर पर मिला. तब तक भारत के शेयर बाजारों में सक्रियता सीमित थी.
2008 के संकट के बाद अमेरिका में ब्याज
दरें घटने से सस्ती पूंजी बह चली. पिछले छह साल के सुधारों के कारण उभरती
अर्थव्यवस्थाओं में उम्मीदें जग गई थीं. यही वह दौर था जब ब्रिक्स अर्थव्यवस्थाएं
चमकीं और भारतीय शेयर बाजार निवेशकों का तीर्थ बन गया. भारतीय अर्थव्यवस्था में
स्पष्ट मंदी के बावजूद यह निवेश हाल तक जारी रहा जो चुनाव के बिगुल के साथ 2014 में शिखर पर पहुंच गया था.
इन तथ्यों के संदर्भ में ताजा चुनौती व
अवसर को समझना जरूरी है.
चुनौतीः भारत की मुसीबत चीन का ढहना है
ही नहीं, न ही ग्लोबल मंदी से बहुत फर्क पड़ा है
सिवा इसके कि निर्यात ढह गया है, जो
पहले से ही कमजोर है. उलझन यह है कि अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ते ही (इसी महीने
मुमकिन) विदेशी निवेशक भारत सहित उभरते बाजारों से निकलेंगे जहां वे 2008 के बाद आए थे, क्योंकि निवेश पर होने वाले फायदे घट
जाएंगे. वास्तविक अर्थव्यवस्था में ग्रोथ नहीं है इसलिए भारतीय कंपनियों का मुनाफा
लंबे समय तक निवेश को आकर्षित नहीं कर सकता. यह पिछले पांच साल में पहला मौका है
जब विशेषज्ञ भारत सहित उभरते बाजारों में लंबी गिरावट का संदेश दे रहे हैं. ध्यान
रहे कि विदेशी निवेशक भारत के लिए डॉलरों का प्रमुख स्रोत रहे हैं इसलिए यह विदाई
महंगी पड़ेगी. यह फील गुड की आखिरी रोशनी है जो अब टूटने लगी है.
अवसरः यदि समय, अर्थव्यवस्था के आकार और ग्लोबल
अर्थव्यवस्था से जुड़ाव को अलग कर दिया जाए तो भारत 1995 की स्थिति में है जब जीडीपी में ग्रोथ
की उम्मीदें कमजोर थीं और शेयर बाजारों में निवेश नहीं था. अलबत्ता विदेशी व्यापार, निवेश के उदारीकरण से लेकर निजीकरण तक
भारत के सभी बड़े ढांचागत सुधार 1995 से
2000 के बीच हुए, जिनका फायदा ग्लोबल संकटों के दौरान
निवेशकों के भरोसे के तौर पर मिला. मोदी सरकार नब्बे की दशक जैसे बड़े ढांचागत
सुधार कर भारतीय ग्रोथ को अगले एक दशक का ईंधन दे सकती है.
वित्त मंत्री ठीक कहते हैं कि असली दारोमदार वास्तविक अर्थव्यवस्था पर ही
है. अब शेयर बाजार भी कंपनियों की ताकत और वास्तविक ग्रोथ पर गति करेंगे न कि
सस्ती विदेशी पूंजी पर. इस संकट के बाद भारत के पास दो विकल्प हैं: पहला, सुधार रहित 6.5-7 फीसदी की औसत विकास दर जिसे आप 21वीं सदी की हिंदू ग्रोथ रेट कह सकते
हैं. विशाल खपत और कुछ ग्लोबल मांग के सहारे (सूखा आदि संकटों को छोड़कर) ग्रोथ
इससे नीचे नहीं जाएगी. दूसरा, नौ-दस
फीसदी की ग्रोथ और रोजगारों, सुविधाओं, आय में बढ़ोत्तरी का है जो 1997 के बाद हुई थी.
शेयर बाजारों पर ग्लोबल संकट की दस्तक
के बाद 8 सितंबर को जब प्रधानमंत्री पूरे
लाव-लश्कर के साथ उद्योगों को जोखिम लेने की नसीहत दे रहे थे तब उद्यमी जरूर यह
कहना चाहते होंगे कि हिम्मत दिखाने की जरूरत तो सरकार आपको है! पिछले 15 माह में तो सुधारों का कोई साहस नहीं
दिखा है. अमेरिका में ब्याज दरें बढऩे के बाद संकट के झटके तेज होंगे. अगला एक
साल बता देगा कि हमें 21वीं
सदी की हिंदू ग्रोथ रेट मिलने वाली है या फिर तरक्की की तेज उड़ान.