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Tuesday, July 21, 2015

इतना तो हो सकता है!


शिक्षा में बड़े सुधारों में समय लगना लाजिमी है लेकिन चुनिंदा सरकारी परीक्षाओं और भर्तियों का ढांचा ठीक करने के लिए सरकार को राज्य सभा में किस बहुमत की दरकार है?

स बार ऑल इंडिया प्री मेडिकल रीटेस्ट के परीक्षार्थी जूते और पूरी बाजू की शर्ट पहनकर परीक्षा देने नहीं जा सकेंगे. उन्हें अंगूठी, चूड़ी, ब्रेसलेट, हेयर बैंड, हेयर क्लिप, ईयरिंग, स्कार्फ, धूप का चश्मा पहनने या पर्स, यहां तक कि पानी की बोतल ले जाने की छूट नहीं होगी. देश की सबसे प्रतिष्ठित मेडिकल परीक्षा में नकल रोकने के लिए सीबीएसई के इस बेतुके इंतजाम पर आपको हैरत दिखाने का पूरा हक है लेकिन अचरज इस पर भी होना चाहिए कि व्यापम घोटाले की विरासत के साथ सत्ता में पहुंची बीजेपी ने पिछले एक साल में प्रमुख परीक्षाओं की दशा सुधारने पर गंभीर होना भी मुनासिब नहीं समझा. शिक्षा में सुधार में समय लग सकता है लेकिन परीक्षाओं का ढांचा ठीक करने के लिए पता नहीं सरकार को राज्यसभा में किस बहुमत की दरकार है
देश में नौकरियां हैं ही कितनी? उनमें भी सरकारी नौकरियां तो और भी कम हैं. पिछले चार साल में अकेले उत्तर भारत के राज्यों में करीब 20 परीक्षाएं और भर्तियां घोटालों की वजह से दागी होकर रद्द हो चुकी हैं या अदालतों में फंसी हैं. सरकारी परीक्षाओं और भर्ती में फर्जीवाड़ा न सिर्फ रोजगार रोकता है बल्कि जरूरी सेवाओं में कर्मचारियों की कमी बनाकर रखता है जो भ्रष्टाचार की एक और बड़ी वजह है. विशाल नौकरशाही और तमाम तकनीकों के बावजूद अगर केंद्र और राज्य सरकारें भी अपनी चुनिंदा परीक्षाएं व भर्तियां साफ-सुथरी नहीं कर सकतीं तो फिर हमें शिक्षा की गुलाबी बहसों पर जरा नए सिरे से गौर करना चाहिए, क्योंकि सरकारी नौकरियां और उनकी परीक्षाएं शिक्षा के विशाल परिदृश्य का एक फीसदी हिस्सा भी नहीं हैं.
सरकारी नौकरियों के लिए परीक्षाएं और भर्ती भारत का सबसे पुराना संगठित घोटाला है. इसका सबसे अनोखा पहलू यह है कि इसे सुधारने के लिए किसी बड़े नीतिगत आयोजन की जरूरत नहीं है. क्षमताएं बढ़ाकर, तकनीक लाकर और पारदर्शिता के सख्त नियम बनाकर इस लूट व शर्मिंदगी को आसानी से रोका जा सकता है. मसलन, मेडिकल परीक्षा को ही लें. 50,000 सीटों के लिए लाखों परीक्षार्थी संघर्ष करते हैं और सफलता का अनुपात 0.5 फीसदी से भी कम है. अगले पांच साल में देश में पर्याप्त मेडिकल सीटें  बनाने का मिशन आखिर कितना महंगा हो सकता है? खास तौर पर जब मोदी सरकार अरबों की लागत वाले मिशन हर महीने शुरू कर रही है.
हमें उम्मीद थी कि सरकार क्रिकेट में घोटाले पर भले ही ठिठक जाए लेकिन कम से कम भर्तियों में घोटाले, मेडिकल कॉलेजों का फर्जीवाड़ा, डोनेशन के खेल, फर्जी यूनिवर्सिटी की जांच के मामलों में तो नहीं हिचकेगी क्योंकि बीजेपी के बौद्धिकों को इस मर्ज की वजह मालूम है. सवाल पूछना जरूरी है कि सरकार ने पिछले एक साल में मेडिकल, टेक्निकल शिक्षा और निजी भागीदारी के मॉडल को चुस्त करने के लिए क्या किया जो कि हर तरह की लूट-खसोट से भरा है. भारत दुनिया में सबसे ज्यादा मेडिकल कॉलेजों वाला देश है लेकिन यहां न पर्याप्त सीटें हैं और न पर्याप्त डॉक्टर, क्योंकि मेडिकल कॉलेजों में औसत 100 से 150 सीटें होती हैं. बड़े कॉलेज बनाकर न केवल मेडिकल सीटों का खुदरा बाजार बंद हो सकता है बल्कि मेडिकल शिक्षा में फर्जीवाड़ा भी रुक सकता है. इसी तरह एमबीए और इंजीनियरिंग में कम नौकरियां और ज्यादा प्रशिक्षितों का असंतुलन है.
यह अपेक्षा करना गलत नहीं था कि सूचना तकनीक की संभावनाओं पर हमेशा रीझने वाली सरकार देश में सभी सरकारी परीक्षाओं को ऑनलाइन कराने का मिशन शुरू करेगी. डिग्रियों को जारी करने की प्रणाली को बायोमीट्रिक से जोड़ा जाएगा ताकि फर्जी डिग्रियों का पूरा तंत्र बंद हो सके. या नौकरियों, प्रशिक्षण की क्षमताओं, कॉलेजों और इंस्टीट्यूट को आपस में जोड़कर एक विशाल डाटाबेस बनेगा जो एक क्लिक पर शिक्षा से लेकर नौकरियों तक की तस्वीर बता सकेगा. दरअसल, यही तो वह डिजिटल इंडिया है जो हमें चाहिए. लेकिन देश को डिजिटल बनाने के नाम पर सरकारी प्रचार दिखाने वाले मोबाइल ऐप्लिकेशन थमा दिए गए हैं. मेडिकल, इंजीनियरिंग से लेकर प्रशासनिक और बैंकिंग तक सभी परीक्षाओं को ऑनलाइन कराना या सभी तरह की डिग्रियों को आधुनिक डिजिटल सिक्योरिटी से जोडऩा, अंतरिक्ष में प्लूटो की तलाश नहीं है. सिर्फ एक बड़े तकनीकी मिशन से पेपर लीक, सॉल्वर, नकल, फर्जी प्रमाणपत्रों का पूरा तंत्र खत्म हो सकता है.
शिक्षा के कारोबारियों के बीच एक चुटकुला प्रचलित है कि अगर किसी ने पिछले दो दशकों के दौरान कोई डिग्री ली है तो मुमकिन है कि वह उन पचास फीसदी लोगों में शामिल हो जिनकी डिग्रियां फर्जी हैं या उन्होंने जुगाड़ से परीक्षा पास की है. यदि ऐसा नहीं है तो वह डोनेशन देकर भर्ती हुआ होगा या उसकी परीक्षा का पर्चा लीक हुआ होगा. अगर यह भी नहीं है तो वह कम से कम किसी ऐसे कॉलेज में जरूर पढ़ा होगा जो किसी रसूखदार का है. या उसे सरकारी स्कूल में किसी ऐसे टीचर ने पढ़ाया होगा जो रिश्वत देकर नौकरी में आया. कुल मिलाकर यह कि शिक्षा में घोटाले क्रिकेट की तरह मसालेदार नहीं हैं, क्योंकि यह हमारी रोज की जिंदगी का हिस्सा बन चुके हैं. सरकारी भर्तियों और परीक्षाओं में हर तरह की धांधली से भलीभांति वाकिफ बीजेपी भी अगर इन्हें सुधारने के लिए कुछ नहीं कर पा रही है तो मोदी सरकार के खिलाफ कांग्रेस जैसी षड्यंत्र कथाएं बनना लाजिमी है.

भारत को विश्व गुरु बनाने के सपनों के बीच अगर यहां मेडिकल की साफ-सुथरी परीक्षा के लिए छात्रों को कपड़े तक उतारने पड़ सकते हैं तो फिर हमें उम्मीदों की उड़ान को लगाम देनी होगी. शिक्षा और रोजगार की बड़ी बहसों के लिए हमारे पास वक्त है, पहले हम उन लाखों युवाओं की फिक्र कर लें जो नौकरियां तो छोड़िए, साफ-सुथरी परीक्षाओं के भी मोहताज हो चुके हैं. भारत को दुनिया में सबसे अच्छे मानव संसाधन का केंद्र बनाने के, प्रधानमंत्री के, सपने को सैकड़ों सलाम! लेकिन फिलहाल तो सरकारी परीक्षाएं भी अगर साफ सुथरी हो सकें तो यह उन युवाओं पर प्रधानमंत्री का बड़ा अहसान होगा जो जूझ घिसट कर किसी तरह पढ़ लिख गए हैं और अपनी काबिलियत के बूते, ईमानदारी से जिंदगी में कुछ हासिल करना चाहते हैं.

Tuesday, January 27, 2015

जिनपिंग का स्वच्छता मिशन

जिनपिंग का शुद्धिकरण अभियानग्लोबल कूटनीति को गहरे रोमांच से भर रहा है.
शी जिनपिंग को क्या हो गया है? ग्रोथ को किनारे लगाकर भ्रष्टाचार के पीछे क्यों पड़ गए हैं? यह झुंझलाहट एक बड़े विदेशी निवेशक की थी जो हाल में बीजिंग से लौटा था और चीन के नए आर्थिक सुधारों पर बुरी तरह पसोपेश में था. कोई सरकार अपनी ही पार्टी के 1.82 लाख पदाधिकारियों पर भ्रष्टाचार को लेकर कार्रवाई कर चुकी हो, यह किसी भी देश के लिए सामान्य बात नहीं है. उस पर भी अगर चीन की सरकार अपनी कद्दावर कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेताओं व सेना अधिकारियों के भ्रष्टाचार के खिलाफ स्वच्छता अभियान चला रही हो तो अचरज कई गुना बढ़ जाता है, क्योंकि भ्रष्टाचार चीन की विशाल आर्थिक मशीन का तेल-पानी है.
निवेशकों के लिए यह कतई अस्वाभाविक है कि चीन बाजार में एकाधिकार रोकने व पारदर्शिता बढ़ाने के लिए बड़े जतन से हासिल की गई ग्रोथ को न केवल 24 साल के सबसे कम स्तर पर ला रहा है बल्कि इसे सामान्य (न्यू नॉर्मल) भी मान रहा है. यकीनन, भारतीय प्रधानमंत्री की कूटनीतिक करवट दूरगामी है. अमेरिका व भारत के रिश्तों की गर्मजोशी नए फलसफे लिख रही है, अलबत्ता ग्रोथ की तरफ लौटता अमेरिका दुनिया में उतनी उत्सुकता नहीं जगा रहा है जितना कौतूहल, पारदर्शिता के लिए ग्रोथ को रोकते चीन को लेकर है. चीन की महाशक्ति वाली महत्वाकांक्षाएं रहस्य नहीं हैं, हालांकि सुपर पावर बनने के लिए जिनपिंग का भीतरी शुद्धिकरण अभियान, ग्लोबल कूटनीति को गहरे रोमांच से भर रहा है.
चीन में भ्रष्टाचार मिथकीय है. बीते मार्च में जब चाइना पीपल्स आर्मी के कद्दावर जनरल ग्यु जुनशान को भ्रष्टाचार में धरा गया तो चीन को निओहुलु होशेन (1799) याद आ गया. सम्राट क्विएनलांग का यह आला अफसर इतना भ्रष्ट था कि उसके यहां छापा पड़ा तो चांदी के 80 करोड़ सिक्के मिले जो सरकार के दस साल के राजस्व के बराबर थे, 53 साल की उम्र में उसे मौत की सजा हुई. चीन की सरकारी न्यूज एजेंसी शिन्हुआ के मुताबिक, जनरल ग्यु जुनशान के यहां 9.8 करोड़ डॉलर की संपत्ति मिली और अगर पश्चिमी मीडिया की खबरें ठीक हैं तो जुनशान के घर से बरामद नकदी, शराब, सोने की नौका और माओ की स्वर्ण मूर्ति को ढोने के लिए चार ट्रक लगाए गए थे.
मुहावरा प्रिय भारतीयों की तरह, 2013 में शी जिनपिंग ने कहा था कि भ्रष्टाचार विरोधी अभियान सिर्फ मक्खियों (छोटे कारकुनों) के खिलाफ नहीं चलेगा बल्कि यह शेरों (बड़े नेताओं-अफसरों) को भी पकड़ेगा. जाहिर है, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता, सरकारी मंत्री, सेना और सार्वजनिक कंपनियों के प्रमुख विशाल भ्रष्ट तंत्र के संरक्षक जो हैं. बड़े रिश्वतखोरों को पकड़ता और नेताओं को सजा देता, सेंट्रल कमिशन फॉर डिसिप्लनरी ऐक्शन (सीसीडीआइ) पूरे चीन में खौफ का नया नाम है. इसने चीनी राजनीति के तीन बड़े गुटों—'पेट्रोलियम गैंग’, 'सिक्योरिटी गैंग और 'शांक्सी गैंग’ (बड़े राजनैतिक नेताओं का गुट) पर हाथ डाला है, जो बकौल शिन्हुआ 'टाइगर्स कहे जाते हैं. दिलचस्प है कि जिनपिंग के करीबी वैंग क्विशान के नेतृत्व में सीसीडीआइ का अभियान गोपनीय नहीं है बल्कि खौफ पैदा करने के लिए यह अपने ऐक्शन का खूब प्रचार कर रहा है और भ्रष्टाचार को लेकर डरावनी चेतावनियां जारी कर रहा है. ग्लोबल निवेशकों की उलझन यह है कि जिनपिंग, निर्यात आधारित ग्रोथ मॉडल को जारी रखने को तैयार नहीं हैं. वे अर्थव्यवस्था से कालिख की सफाई को सुधारों के केंद्र में लाते हैं. पिछले नवंबर में जी20 शिखर बैठक के बाद बीजिंग लौटते ही जिनपिंग ने कम्युनिस्ट पार्टी की सेंट्रल इकोनॉमिक वर्क कॉन्फ्रेंस में नया आर्थिक सुधार कार्यक्रम तय किया था, जो कंपनियों का एकाधिकार खत्म करने, सही कीमतें तय करने, पूंजी व वित्तीय बाजारों के उदारीकरण, निजीकरण और सरकारी कामकाज में पारदर्शिता पर केंद्रित होगा.
मंदी से उबरने की जद्दोजहद में जुटी दुनिया के लिए चीन के ये शुद्धतावादी आग्रह मुश्किल बन रहे हैं. चीन दुनिया की सबसे बड़ी फैक्ट्री है जो ग्लोबल ग्रोथ को अपने कंधे पर लेकर चलती है और इस समय दुनिया में मांग व तेज विकास की वापसी का बड़ा दारोमदार चीन पर ही है. जबकि मूडीज के मुताबिक पारदर्शिता की इस मुहिम से शुरुआती तौर पर चीन में खपत, निवेश व बचत घटेगी. महंगे रेस्तरांओं की बिक्री गिर रही है, बैंकों में सरकारी कंपनियों का जमा कम हुआ है और अचल संपत्ति में निवेश घटा है. चीनी मीडिया में राष्ट्रपति की ऐसी टिप्पणियां कभी नहीं दिखीं कि वे 'भ्रष्टाचार की सेना’ से लडऩे को तैयार हैं और इसमें 'किसी व्यक्ति को जिंदगी-मौत अथवा यश-अपयश की फिक्र’ नहीं होनी चाहिए. लेकिन जिनपिंग की टिप्पणियों (भ्रष्टाचार पर उनके भाषणों का नया संग्रह इसी माह जारी) को देखकर यह समझा जा सकता है कि चीन के राष्ट्रपति इस तथ्य से पूरी तरह वाकिफ हैं कि भ्रष्टाचार महंगाई बढ़ाता है और अवसर सीमित करता है, इसलिए आर्थिक तरक्की का अगला दौर इसी स्वच्छता से निकलेगा और इसी राह पर चलकर चीन को महाशक्ति बनाया जा सकता है.
भ्रष्टाचार उन्मूलन अभियान, जिनपिंग की सबसे बड़ी ग्लोबल पहचान बन रहा है जैसे कि देंग श्याओ पेंग आर्थिक उदारीकरण से पहचाने गए थे. हू जिंताओ ने राष्ट्रपति के तौर पर अपने अंतिम भाषणों में चेताया था कि लोगों के गुस्से की सबसे बड़ी वजह सरकारी लूट है. जिनपिंग को पता है कि यह लूट रोककर न केवल ग्रोथ लाई जा सकती है बल्कि अकूत सियासी ताकत भी मिलेगी.
ग्लोबल कूटनीति और निवेश के संदर्भ में नरेंद्र मोदी का भारत और जिनपिंग का चीन कई मायनों में एक जैसी उम्मीदों व अंदेशों से लबरेज है. ओबामा ग्लोबल राजनीति से विदा होने वाले हैं, दुनिया की निगाहें अब मोदी और जिनपिंग पर हैं. आकाश छूती अपेक्षाओं के शिखर पर सवार मोदी, क्या पिछले नौ माह में ऐसा कुछ कर सके हैं, जो उन्हें बड़ा फर्क पैदा करने वाला नेता बना सके? दूरदर्शी नेता हमेशा युगांतरकारी लक्ष्य चुनते हैं. मोदी को अपने लक्ष्यों का चुनाव करने में अब देर नहीं करनी चाहिए.


Monday, October 27, 2014

कालिख छिपाने की रवायत

काले धन की बहस को नामों में उलझा कर सख्‍त गोपनीयता बनाये रखने का रास्‍ता तलाश लिया गया है। विदेशी खातों तक पहुंचने का रास्ता देश के भीतर पारदर्शिता से होकर जाता है, जिसे बनाने का दम-खम अभी तक नजर नहीं आया है. 

जायज कामों के लिए स्विस बैंकों का इस्तेमाल करने वाले अमेरिकी भी अब एक हलफनामा भरते हैं जिसके आधार पर अमेरिकी टैक्स प्रशासन से सूचनाएं साझा की जाती हैं. दुनिया के धनकुबेरों की रैंकिंग करने वाली एक प्रतिष्ठित पत्रिका के मुताबिक ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि अमेरिकी सरकार ने बेहद आक्रामक ढंग से स्विस बैंकों से अमेरिकी लोगों के काले धन की जानकारियां निकाल ली हैं और बैंकों को सख्त शर्तों से बांध दिया है जिसके बाद अमेरिका के लिए स्विस बैंकों की मिथकीय गोपनीयता का खात्मा हो गया है.
काले धन की जन्नतों के परदे नोचने का यही तरीका है. भारत के लोग जब अपनी नई सरकार से इसी तरह के दम-खम की अपेक्षा कर रहे थे तब सरकार सुप्रीम कोर्ट में काले धन के विदेशी खातों का खुलासा करने से मुकरते हुए गोपनीयता के उस खोल में घुस गई, जिससे उसे ग्लोबल स्तर पर जूझना है. सूचनाएं छिपाना काले धन के कारोबार की अंतरराष्ट्रीय ताकत है, जिसे तोड़ने के लिए विकसित देशों के बीच कर सूचनाओं के आदान-प्रदान का नया तंत्र तैयार है. भारत को गोपनीयता के आग्रह छोड़कर इस का हिस्सा बनने की मुहिम शुरू करनी थी, ताकि काले धन के विदेशी खातों तक पहुंचा जा सके. 

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Monday, December 30, 2013

तीसरे रास्‍तों की रोशनी


मगध में शोर है कि मगध में शासक नहीं रहे, जो थे वे मदिरा, प्रमाद और आलस्य के कारण इस लायक नहीं रहे कि हम उन्‍हें अपना शासक कह सकें।

ब बंधे बंधायें विकल्‍पों के बीच चुनाव को बदलाव मान लिया जाता है, तब परिवर्तन को एक नए मतलब की जरुरत होती है। नए रास्‍तों की खोज भी तब ही शुरु होती है जब मंजिल अपनी जगह बदल लेती है और एक वक्‍त के बाद सुधार भी तो सुधार मांगने लगते हैं। लेकिन परिवर्तन, सुधार और विकल्‍प जैसे घिसे पिटे शब्‍दों को नए सक्रिय अर्थों से भरने के लिए जिंदा कौमें को एक जानदार संक्रमण से गुजरना होता है। ऊबता, झुंझलाता, चिढ़ता, सड़कों पर उतरता, बहसों में उलझता भारत पिछले पांच वर्ष से यही संक्रमण जी रहा है। यह जिद्दोजहद  उन तीसरे रास्‍तों की तलाश ही है, जो राजनीति, समाज व अर्थनीति की दकियानूसी राहों से अलग बदलाव की दूरगामी उम्मीदें जगा सकें। इस बेचैन सफर ने 2013 के अंत में उम्‍मीद की कुछ रोशनियां पैदा कर दी हैं। दिल्‍ली में एक अलग तरह की सरकार राजनीति में तीसरे रास्‍ते का छोटा सा आगाज है। स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं व अदालतों की जुगलबंदी न्‍याय का नया दरवाजा  खोल रही है और नियामक संस्‍थाओं की नई पीढ़ी रुढि़वादी सरकार व बेलगाम बाजार के बीच संतुलन व गवर्नेंस का तीसरा विकल्‍प हैं। इन प्रयोगों के साथ भारत का संक्रमण नए अर्थों की रोशनी से जगमगा उठा है।
किसे अनुमान थी कि आर्थिक-राजनीतिक भ्रष्‍टाचार से लड़ते हुए एक नई पार्टी सत्‍ता तक पहुंच जाएगी। यहां तो किसी राजनीतिक दल के चुनाव घोषणापत्र में भ्रष्टाचार मिटाने रणनीति कभी नहीं लिखी गई। पारदर्शिता तो विशेषाधिकारों का स्वर्ग उजाड़ देती है इसलिए 2011 की संसदीय बहस में पूरी सियासत एक मुश्‍त लोकपाल को बिसूर रही थी। लेकिन दिल्‍ली के जनादेश की एक घुड़की