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Friday, May 27, 2022

सबसे सनसनीखेज मोड़

 


 

नाइट श्‍यामलन की मास्‍टर पीस फ‍िल्‍म सिक्‍थ सेंस (1999) एक बच्‍चे की कहानी है जिसे मरे हुए लोगों के प्रेत दिखते हैं. मशहूर अभिनेता ब्रूस विलिस इसमें मनोच‍िक‍ित्‍सक बने हैं जो इस बच्‍चे का इलाज करता है दर्शकों को अंत में पता चलता है कि मनोवैज्ञान‍िक डॉक्‍टर खुद में एक प्रेत है जो मर चुका है और उसे खुद इसका पता नहीं है. फिल्‍ के एंटी क्‍लाइमेक्‍स ने उस वक्‍त सनसनी फैला दी थी

सुप्रीम कोर्ट के ताजे फैसले से जीएसटी की कहानी में सनसनीखेज मोड आ गया है जो जीएसटी काउंसिल जो केंद्र राज्‍य संबंधों में ताकत की नई पहचान थी, सुप्रीम कोर्ट ने उसके अधिकारों सीमि‍त करते हुए राज्‍यों को नई ताकत दे दी है. अब एक तरफ राज्‍यों पर पेट्रोल डीजल पर वैट घटाकर महंगाई कम करने दबाव है दूसरी तरफ राज्‍य सरकारें अदालत से मिली नई ताकत के दम पर अपनी तरह से टैक्‍स लगाने की जुगत में हैं क्‍यों कि जून के बाद राज्‍य कों केंद्र से मिलने वाला जीएसटी हर्जाना बंद हो जाएगा

2017 में जब भारत के तमाम राज्‍य टैक्‍स लगाने के अधिकारों को छोड़कर जीएसटी पर सहमत हो रहे थे, तब यह सवाल खुलकर बहस में नहीं आया अध‍िकांश राज्‍य, तो औद्योग‍िक  उत्‍पादों  और सेवाओं उपभोक्‍ता हैं, उत्‍पादक राज्‍यों की संख्‍या  सीमित हैं. तो इनके बीच एकजुटता तक कब तक चलेगी. महाराष्‍ट्र और  बिहार इस टैक्‍स प्रणाली से  अपनी अर्थव्‍यवस्‍थाओं की जरुरतों के साथ कब तक न्‍याय पाएंगे?

अलबत्‍ता  जीएसटी की शुरुआत के वक्‍त यह तय हो गया था कि जब तक केंद्र सरकार राज्‍यों को जीएसटी होने वाले नुकसान की भरपाई करती रहेगी. , यह एकजुटता बनी रहेगी. नुकसान की भरपाई की स्‍कीम इस साल जून से बंद हो जाएगी. इसलिए दरारें उभरना तय है 

 

कोविड वाली मंदी से जीएसटी की एकजुटता को पहला झटका लगा था. केंद्र सरकार राज्‍यों को हर्जाने का भुगतान नहीं कर पाई. बड़ी रार मची. अंतत: केंद्र ने राज्‍यों के कर्ज लेने की सीमा बढ़ाई.  मतलब यह कि जो संसाधन राजस्‍व के तौर पर मिलने थे वह कर्ज बनकर मिले. इस कर्ज ने राज्‍यों की हालत और खराब कर दी.

इसलिए जब राज्‍यों को पेट्रोल डीजल सस्‍ता करने की राय दी जा रही तब  वित्‍त मंत्रालय व जीएसटी काउंस‍िल इस उधेड़बुन में थे कि जीएसटी की क्षत‍िपूर्ति‍ बंद करने पर राज्‍यों को सहमत कैसे किया जाएगा? कमजोर अर्थव्‍यवस्‍था वाले राज्‍यों का क्‍या होगा?

बकौल वित्‍त आयोग जीएसटी से केंद्र व राज्‍य को करीब 4 लाख करोड़ का  सालाना नुकसान हो रहा है. जीएसटी में भी प्रभावी टैक्‍स दर 11.4 फीसदी है जिसे बढ़ाकर 14 फीसदी किया जाना है, जो रेवेन्‍यू न्‍यूट्रल रेट है यानी इस पर सरकारों को नुकसान नहीं होगा.

जीएसटी काउंसिल 143 जरुरी उत्‍पादों टैक्‍स दर 18 फीसदी से 28 फीसदी करने पर विचार कर रही है ताकि राजस्‍व बढ़ाया जा सके.

 

इस हकीकत के बीच यह सवाल दिलचस्‍प हो गया है कि क्‍या केंद्रीय एक्‍साइज ड्यूटी में कमी के बाद राज्‍य सरकारें पेट्रोल डीजल पर टैक्‍स घटा पाएंगी? कुछ तथ्‍य पेशेनजर हैं

- 2018 से 2022 के बीच पेट्रो उत्‍पादों से केंद्र सरकार का राजस्‍व करीब 50 फीसदी बढ़ा लेक‍िन राज्‍यों के राजस्‍व में केवल 35 फीसदी की बढ़त हुई. यानी केंद्र की कमाई ज्‍यादा थी

-    2016 से 2022 के बीच केंद्र का कुल टैक्‍स संग्रह करीब 100 फीसदी बढ़ा लेक‍िन राज्‍यों इस संग्रह में हिस्‍सा केवल 66 फीसदी बढ़ा.  केंद्र के राजस्‍व सेस और सरचार्ज का हिस्सा 2012 में 10.4 फीसद से बढ़कर 2021 में 19.9 फीसद हो गया है. यह राजस्‍व राज्‍यों के साथ बांटा नहीं जाता है. नतीजतन राज्‍यों ने जीएसटी के दायर से से बाहर रखेग गए  उत्‍पाद व सेवाओं मसलन पेट्रो उत्‍पाद , वाहन, भूमि पंजीकरण आदि पर बार बार टैक्‍स बढ़ाया है    

-    केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी के लिए वित्‍त आयेाग के नए फार्मूले से केंद्रीय करों में आठ राज्यों (आंध्रअसमकर्नाटककेरलतमिलनाडुओडिशातेलंगाना और उत्तर प्रदेश) का हिस्सा 24 से लेकर 118 (कर्नाटक) फीसद तक घट सकता है (इंडिया रेटिंग्‍स रिपोर्ट)   

-    केंद्र से ज्‍यादा अनुदान के लिए राज्‍यों को शि‍क्षाबिजली और खेती में बेहतर प्रदर्शन करना होगा.  इसके लिए बजटों से खर्च बढ़ानाप पडेगा.

-    कोविड की मंदी के बाद राज्यों का कुल कर्ज जीडीपी के अनुपात में 31 फीसदी की र‍िकार्ड ऊंचाई पर है. पंजाब, बंगाल, आंध्र , केरल, राजस्‍थान जैसे राज्‍यों का कर्ज इन राज्‍यों जीडीपी (जीएसडीपी)  के अनुपात में 38 से 53 फीसदी तक है.

 भारत में केंद्र और राज्‍यों की अर्थव्‍यवस्‍थाओं के ताजा हालात तो बता रहे हैं  

-    जीएसटी की हर्जाना बंद होने से जीएसटी दरें बढ़ेंगी. केंद्र के बाद राज्‍यों ने पेट्रोल डीजल सस्‍ता किया तो जीएसटी की दरों में बेतहाशा बढ़ोत्‍तरी का खतरा है. जो खपत को कम करेगा

-    केंद्र और राज्‍यों का सकल कर्ज जीडीपी के अनुपात 100 फीसदी हो चुका है. ब्‍याज दर बढ़ रही है, अब राज्‍यों 8 फीसदी पर भी कर्ज मिलना मुश्‍क‍िल है

 

भारत का संघवाद बड़ी कश्‍मकश से बना था.  इतिहासकार ग्रेनविल ऑस्‍ट‍िन ल‍िखते हैं क‍ि यह बंटवारे के डर का असर था कि 3 जून 1947 को भारत के बंटवारे लिए माउंटबेटन प्लान की घोषणा के तीन दिन के भीतर ही भारतीय संविधान सभा की उप समिति ने बेहद ‌शक्तिशाली अधिकारों से लैस केंद्र वाली संवैधानिक व्यवस्था की सिफारिश कर दी.

1946 से 1950 के बीच संविधान सभा में, केंद्र बनाम राज्‍य के अध‍िकारों पर लंबी बहस चली. (बलवीर अरोराग्रेनविल ऑस्टिन और बी.आरनंदा की किताबें) यह डा. आंबेडकर थे जिन्‍होंने ताकतवर केंद्र के प्रति संविधान सभा के आग्रह को संतुलित करते हुए ऐसे ढांचे पर सहमति बनाई जो संकट के समय केंद्र को ताकत देता था लेकिन आम तौर पर संघीय (राज्यों को संतुलित अधिकारसिद्धांत पर काम करता था.

संविधान लागू होने के बाद बनने वाली पहली संस्था वित्त आयोग (1951) थी जो आर्थि‍क असमानता के बीच केंद्र व राज्‍य के बीच टैक्‍स व संसाधनों के न्‍यायसंगत बंटवारा करती है  

2017 में भारत के आर्थ‍िक संघवाद के नए अवतार में राज्‍यों ने टैक्‍स लगाने के अध‍िकार जीएसटी काउंसिल को सौंप दिये थे. महंगाई महामारी और मंदी  इस सहकारी संघवाद पर पर भारी पड़ रही थी इस बीच  सुप्रीम कोर्ट जीएसटी की व्‍यवस्‍था में राज्‍यों को नई ताकत दे  दी है. तो क्‍या श्‍यामलन की फिल्‍म स‍िक्‍स्‍थ सेंस की तर्ज पर जीएसटी के मंच पर  केंद्र राज्‍य का रिश्‍तों का एंटी क्‍लाइमेक्‍स आने वाला है?

 

Thursday, December 16, 2021

आइने में आइना



ज‍िसका डर था बेदर्दी वही बात हो गईवारेन बफे के ओव‍ेर‍ियन लॉटरी वाले स‍िद्धांत को भारतीय नीति आयोग की मदद मिल गई है. यह फर्क अब कीमती है क‍ि आप भारत के किस राज्य में रहते हैं और तरक्‍की के कौन राज्‍य में शरण चाहिए. 

जन्म स्थान का सौभाग्य यानी ओवेरियन लॉटरी (वारेन बफे-जीवनी द स्नोबॉल) का स‍िद्धांत न‍िर्मम मगर व्‍यावहार‍िक है. इसक फलित यह है क‍ि अध‍िकांश लोगों की सफलता में (अपवादों को छोड़कर) बहुत कुछ इस बात पर निर्भर होता है क‍ि वह कहां पैदा हुआ है यानी अमेरिका में या अर्जेंटीना में !

अर्जेंटीना से याद आया क‍ि क‍ि वहां के लोग अब उत्‍तर प्रदेश या बिहार से सहानुभूति रख सकते हैं. मध्‍य प्रदेश झारखंड वाले, लैटिन अमेर‍िका या कैरेब‍ियाई देशों के साथ भी अपना गम बांट सकते हैं. गरीबी की पैमाइश के नए फार्मूले के बाद भारत की सीमा के भीतर आपको स्‍वीडन या जापान तो नहीं लेक‍िन अफ्रीकी गिन‍िया बिसाऊ और केन्‍या (प्रति‍ व्‍यक्‍ति‍ आय) से लेकर पुर्तगाल व अर्जेंटीना तक जरुर मिल जाएंगे.

बफे ने बज़ा फरमाते हैं क‍ि सफलता केवल प्रतिभा या क्षमता से ही तय नहीं होती है, जन्‍म स्‍थान के सौभाग्‍य से तय होती है. जैसे क‍ि  अर्जेंटीना की एक पूरी पीढ़ी दशकों से खुद पूछ रही है क‍ि यद‍ि यहां न पैदा न हुए होते तो क्‍या बेहतर होता?

अर्जेंटीना जो 19 वीं सदी में दुन‍िया के अमीर देशों में शुमार था उसका संकट इतनी बड़ी पहेली बन गया गया कि आर्थ‍िक गैर बराबरी की पैमाइश का फार्मूला (कुजनेत्‍स कर्व) देने वाले, जीडीपी के प‍ितामह सिमोन कुजनेत्‍स ने कहा था क‍ि दुनिया को चार हिस्‍सों - व‍िकस‍ित, अव‍िकस‍ित, जापान और अर्जेंटीना में बांटा जा सकता है.

Image – Kujnets Curve and Simon Kujnets

कुजनेत्‍स होते तो, भारत भी एसा ही पहेलीनुमा दर्जा देते. जहां भारत की उभरती अर्थव्‍यवस्‍था वाली तस्‍वीर भीतरी तस्‍वीर की बिल्‍कुल उलटी है. भारत में गरीबी की नई नापजोख बताती है क‍ि तेज ग्रोथ के ढाई दशकों, अकूत सरकारी खर्च, डबल इंजन की सरकारों के बावजूद अध‍िकांश राज्‍यों 10 में 2.5 से 5 पांच लोग बहुआयामी गरीबी के शिकार हैं. यह हाल तब है कि नीति‍ आयोग की पैमाइश में कई झोल हैं.

गरीबी की बहुआयामी नापजोख नया तरीका है जो संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के जर‍िये दुन‍िया को मिला है. इसमें गरीबी को केवल कमाई के आधार पर नहीं बल्‍क‍ि सामाजिक आर्थ‍िक विकास के 12 पैमानों पर मापा जाता है. इनमें पोषण, बाल और किशोर मृत्यु दर, गर्भावस्‍था के दौरान देखभाल, स्कूली शिक्षा, स्कूल में उपस्थिति और खाना पकाने का साफ ईंधन, स्वच्छता, पीने के पानी की उपलब्धता, बिजली, आवास और बैंक या पोस्ट ऑफ़िस में खाते को शाम‍िल किया गया है

इस नापजोख में पेंच हैं. जैसे क‍ि इसके तहत मोबाइल फ़ोन, रेडियो, टेलीफ़ोन, कम्प्यूटर, बैलगाड़ी, साइकिल, मोटर साइकिल, फ़्रिज  में से कोई दो उपकरण (जैसे साइकिल और रेडियो) रखने वाले परिवार गरीब नहीं है घर मिट्टी, गोबर से नहीं बना है, तो गरीब नहीं. बिजली कनेक्‍शन, केरोस‍िन या एलपीजी के इस्‍तेमाल और परिवार में किसी भी सदस्य के पास बैंक या पोस्ट ऑफ़िस में अकाउंट होने पर उसे गरीब नहीं माना गया है. इसल‍िए अधि‍कांश शहरी गरीब को सरकार के ल‍ि‍ए गरीब नहीं हैं. तभी तो दिल्‍ली में गरीबी 5 फीसदी से कम बताई गई.

सरकारें आमतौर पर गरीबी छि‍पाती हैं, नतीजतन इस रिपोर्ट की राजनीत‍िक चीरफाड़ स्‍वाभाविक हैं, फिर भी हमें इस आधुन‍िक पैमाइश से जो निष्‍कर्ष मिलते हैं वे कोई तमगे नहीं है जिन पर गर्व किया जाए.

-    इस फेहर‍िस्‍त में जो पांच राज्‍य समृद्ध की श्रेणी में है पंजाब श्रीलंका या ग्‍वाटेमाला जैसी और तमि‍लनाडु अर्जेंटीना या पुर्तगाल जैसी अर्थव्‍यवस्‍थायें (उनमें जीडीपी महंगाई सहि‍त और पीपीपी) हैं. इसी कतार में आने वाले  केरल को अधिकतम जॉर्डन या चेक गणराज्‍य, सि‍क्‍क‍िम को बेलारुस और गोवा को एंटीगा के बराबर रख सकते हैं.

-    यद‍ि विश्‍व बैंक के डॉलर क्रय शक्‍ति‍ पैमाने से देखें को उत्‍तर प्रदेश, पश्‍च‍िम अफ्रीकी देश बेन‍िन और बिहार गिन‍िया बिसाऊ होगा. जीडीपी के पैमानों पर उत्‍तर प्रदेश पेरु और बिहार ओमान जैसी अर्थव्‍यवस्‍था हो सकती है. महाराष्‍ट्र, पश्‍च‍िम बंगाल, कर्नाटक, राजस्‍थान, आंध्र, मध्‍य प्रदेश तेलंगाना जैसे मझोले राज्‍य भी सर्बिया, थाइलैंड, ईराक, कजाकस्‍तान या यूक्रेन जैसी अर्थव्‍यवस्‍थायें हैं. इनमें कोई भी किसी विकस‍ित देश जैसा नहीं है.

धीमी पड़ती विकास दर, बढ़ते बजट घाटों और ढांचागत चुनौ‍त‍ियों की रोशनी में यह पैमाइश हमें कुछ बेहद तल्‍ख नतीजों की तरफ ले जाती है जैसे क‍ि

-    बीते दो दशकों में भारत की औसत विकास दर छह फीसदी रही, जो इससे पहले के तीन दशकों के करीब दोगुनी है. अलबत्‍ता सुधारों के 25 सालों में तरक्‍की की सुगंध सभी राज्‍यों तक नहीं पहुंची. सीएमआईई और रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक बीते बीस सालों में सबसे अगड़े और पिछड़े राज्‍यों में आय असमानता करीब 337 फीसदी बढ गई यानी क‍ि उत्‍तर प्रदेश आय के मामले में कभी भी स‍िक्‍कि‍म या पंजाब नहीं हो सकेगा.

-    औसत से बेहतर प्रदर्शन करने वाले ज्‍यादातर राज्‍य व केंद्रशास‍ित प्रदेश छोटे हैं यानी क‍ि उनके पास प्रवासि‍यों को काम देने की बड़ी क्षमता नहीं हैं. उदाहरण के ल‍िए अकेले बिहार या उत्‍तर प्रदेश में गरीबों की तादाद, नीति आयोग की गणना में ऊपर के पायदान पर खड़े नौ राज्‍यों में संयुक्‍त तौर पर कुल गरीबों की संख्‍या से ज्‍यादा है. यानी क‍ि बिहार यूपी के लोग जन्‍म स्‍थान दुर्भाग्‍य का चि‍रंतन सामना करेंगे.   

-    समृद्ध राज्‍यों की तुलना में पि‍छड़े राज्‍य श‍िक्षा स्‍वास्‍थ्‍य पर कम खर्च करते हैं लेक‍िन अगर सभी राज्‍यों पर कुल बकाया कर्ज का पैमाना लगाया जाए तो सबसे आगे और सबसे पीछे के राज्‍यों पर बकायेदारी लगभग बराबर ही है.

आर्थ‍िक राजनीत‍िक और सामाज‍िक तौर पर चुनौती अब शुरु हो रही है. भारत के विकास के सबसे अच्‍छे वर्षों में जब असमानता नहीं भर पाई तो तो आगे इसे भरना और मुश्‍क‍िल होता जाएगा. गरीबी नापने के नए पैमाने और वित्‍त आयोग की सि‍फार‍िशें बेहतर राज्‍यों को ईनाम देने की व्‍यवस्‍था दते हैं है जबक‍ि केंद्रीय सहायता में बड़ा हिस्‍सा गरीब राज्‍यों को जाता है.

अगड़े राज्‍य अपने बेहतर प्रदर्शन के लिए इनाम मांगेगे, संसाधनों में कटौती नहीं. यह झगड़ा जीएसटी पर भी भारी पड़ सकता है क्‍यों क‍ि निवेश को आकर्षि‍त करने ‍के लिए राज्‍यों को टैक्‍स र‍ियायत देने की आजादी चाहिए.

सरकारों को नीतियों का पूरा खाका ही बदलना होगा. स्‍थानीय अर्थव्‍यवस्‍थाओं के क्‍लस्‍टर बनाने होंगे और छोटों के ल‍िए बड़े प्रोत्‍साहन बढ़ाने होंगे, नहीं तो रोजगारों के ल‍िए अंतरदेशीय प्रवास पर राजनीति शुरु होने वाली है. हरियाणा और झारखंड एलान कर चुके हैं क‍ि रोजगार पर पहला हक राज्य के निवासियों का है.

यह असमानतायें भारत को एक दुष्‍चक्र में खींच लाई हैं जिसका खतरा गुन्‍नार मृदाल ने हमें 1944 ( क्‍युम्‍युलेटिव कैजुएशन) में ही बता दिया था.

मृदाल के मुताबिक अगर वक्‍त पर सही संस्‍थायें आगे न आएं तो शुरुआती तेज विकास बाद में बड़ी असमानताओं में बदल जाता  है. भारत में यही हुआ है, सुधारों के शुरुआती सुहाने नतीजे अब गहरी असमानताओं में बदलकर सुधारो के लि‍ए ही खतरा बन रहे हैं. ठीक एसा ही लैटि‍न अमेर‍िका के देशों के साथ हुआ है.  

भारतीय राजनीत‍ि अपनी पूरी ताकत लगाकर भी यह असमानतायें नहीं पाट सकती. वह एक बड़ी आबादी को ओवेर‍ियन लॉटरी की सुवि‍धा नहीं दे सकती. अलबत्‍ता इन अंतराराज्‍यीय असमानताओं बढ़ने से रोक द‍िया जाए क्‍यों क‍ि यह दरार बहुत चौड़ी है. नीति आयोग की रिपोर्ट को घोंटने पर पता चलता है क‍ि 1.31 अरब की कुल आबादी 28.8 करोड़ गरीब गांव में रहते हैं और केवल 3.8 करोड़ शहरों में.

यानी क‍ि गाजीपुर बनाम गाजियाबाद या चंडीगढ़ बनाम मेवात वाली स्‍थानीय असमानताओं की बात तो अभी शुरु भी नहीं हुई है.

 


Friday, January 31, 2020

29 बजटों का सवाल


 केंद्र सरकार का अकेला बजट मंदी का भाड़ फोड़ सकता होता तो फिर छहशानदारबजटों के बावजूद हम औंधे मुंह धंस गए होते? अथवा टैक्स या कर्ज रियायतों के ताजे पैकेज (ऑटोमोबाइल, हाउसिंग, कॉर्पोरेट के टैक्स में कमी, एनबीएफसी, लघु उद्योग) सिर के बल खड़े हो जाते.

2020-21 का बजट कुछ ऐसी वजहों से संवेदनशील होने वाला है जो अर्थव्यवस्था और सियासत, दोनों के लिए कीमती हैं. बजट जैसे ही संसद की दहलीज पार करेगा, एक बिल्कुल नई जद्दोजहद दिल्ली से निकलकर राज्यों की राजधानियों तक फैल जाएगी. राज्यों में विपक्ष का उभार, मंदी और केंद्र सरकार की राजकोषीय ढलान केंद्र और राज्यों के आर्थिक रिश्तों का नक्शा बदलने जा रही हैं. यह बजट उस नए मानचित्र की भूमिका हो सकता है.

बजट के समानांतर तीन बड़े प्रस्ताव वित्त मंत्रालय और वित्त आयोग के गलियारों में टहल रहे हैं, जो अगर लागू होने की तरफ बढ़ते हैं तो राजकोषीय गणि भी बदल जाएगा और देश की सियासत का समीकरण भी.

केंद्र सरकार राज्यों के केंद्रीय करों के सामूहिक संग्रह में मिलने वाले हिस्से (42 फीसद) को कम करना चाहती है. केंद्र का घाटा संभल नहीं रहा है. तर्क यह होगा कि राज्यों को जीएसटी से होने वाले घाटे की भरपाई की जा रही है.

केंद्रीय करों में राज्यों के हिस्से से राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक नया कोष बनाने की तैयारी है. यह कोष भारत की समेकित निधि‍ (कंसॉलिडेटेड फंड) से अलग होगा.

केंद्र प्रायोजित स्कीमों की संख्या में कमी का प्रस्ताव है. इन स्कीमों की संख्या सौ के करीब है. केंद्र-राज्य मिलकर इनका वित्त पोषण करते हैं. इनके विलय और समापन से 20,000 करोड़ रुपए काटे जाएंगे. इससे राज्यों को केंद्र से मिलने वाले संसाधनों में कमी आएगी.

मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री बनने वाले नरेंद्र मोदी की सरकार ने शुरुआत योजना आयोग को खत्म करने के साथ की थी जिसका मतलब राज्यों को आजादी और ताकत देना था लेकिन हुआ दरअसल उसका उलटा ही. 2015 में 14वें वित्त आयेाग की सिफारिश मानकर केंद्रीय करों के पूल में राज्यों का हिस्सा 32 से बढ़ाकर 42 फीसद तो कर दिया गया लेकिन इसके बदले

केंद्र से राज्यों को जाने वाले अनुदान संसाधनों में कटौती शुरू हो गई

केंद्र सरकार के कुछ बड़े मिशन राज्यों के गले बांध दिए गए, जिससे राज्यों की अपनी योजनाएं पिछड़ गईं

जीएसटी गया जिससे टैक्स लगाने की राज्यों की ताकत सीमित हो गई

और केंद्र ने सेस यानी उपकर के जरिए टैक्स जुटाना शुरू कर दिया, जिनको राज्यों के साथ बांटा नहीं जाता

2015 के बाद राज्यों ने अपने विकास (पूंजी) खर्च में बढ़ोतरी की जबकि केंद्र का व्यय कम होता गया. 2018 में पूंजी खर्च में राज्यों का हिस्सा 43 फीसद (2010 में 32 फीसद) हो गया है. अलबत्ता जीएसटी के साथ टैक्स लगाने के विकल्प सीमित हो गए लेकिन राजस्व संग्रह गिरने के कारण जीएसटी से नुक्सान की भरपाई (केंद्र से) नहीं हुई इसलिए कर्ज पर निर्भरता बढ़ती चली गई. 2018 में छह बडे़ राज्य कर्ज के खतरनाक बोझ में हैं जबकि करीब 15 राज्य राजकोषीय घाटे की निर्धारित सीमा पार कर चुके हैं. किसान कर्ज माफी और उदय स्कीम के तहत बिजली बोर्ड के घाटे बजट पर लेने से बजटों की हालत और खराब हो चुकी है. नतीजतन केंद्र और राज्यों का साझा राजकोषीय घाटा जीडीपी के अनुपात में दस फीसद पर है.

केंद्र सरकार जब वित्तीय ताकत अपने हाथ में समेट रही थी तब शायद सवाल इसलिए नहीं उठे क्योंकि राज्यों में भाजपा के मुख्यमंत्री थे अब जबाकि चार बड़े राज्यों (गुजरात, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और बिहार) को छोड़कर शेष देश में विपक्ष का राज है तो अब राज्य वापस अपनी वित्तीय ताकत पाने की जद्दोजहद शुरू करेंगे. पिछली जीएसटी काउंसिल बैठक में मतविभाजन इसका सबूत है.

2020 के बजट के बाद आर्थि सियासत में एक नई रस्साकशी शुरू होने वाली है जिसमें केंद्र सरकार को यह तय करना होगा कि वह मंदी दूर करने के लिए राज्यों को ताकत देगी या फिर अपनी आर्थिक ताकत बढ़ाने का सिलसिला बनाए रखेगी. यही जद्दोजहद अगले एक साल में केंद्र राज्यों के रिश्तों का नया रसायन बनाएगी.

कभी-कभी कुछ चीजें करीब से देखने पर बहुत बड़ी लगती हैं जैसे कि केंद्र सरकार का बजट जो देश के विराट जीडीपी के ऊंट में मुंह में जीरा है. केंद्र का कुल समग्र खर्च जीडीपी में महज 13 फीसद का हिस्सेदार है लेकिन सुर्खियां ऐसे खाता है मानो यह हर मर्ज की शर्तिया दवा हो, जबकि मंदी से उबरने की राह राज्यों के 29 बजटों से निकलेगी जो केंद्र के साथ मिलकर जीडीपी में 27 फीसद खर्च के हिस्सेदार हैं.

मंदी दूर करने के लिए केंद्र को अपनी ताकत से समझौता करना होगा और सियासत के आग्रह छोड़कर राज्यों को मुहिम की कमान देनी होगी नहीं तो भारत के संघीय ढांचे मे आने वाली दरारें मंदी की सबसे बड़ी ताकत बन जाएंगी.