ब्रह्म को काले धन की भांति अनुभव करो। अदृश्य, निराकार काला धन हमारे भीतर परम सत्ता की तरह धड़कता है।....जिज्ञासु भक्त बाबा के वचनों से कृतार्थ हुआ और ब्रह्म को छोड़ काले धन के जुगाड़ में लग गया। क्योंक कि इस कालिख को जानने लिए किसी तप की जरुरत नहीं है, यह तो सरकार है जो काला धन तलाशने के लिए समितियां छोड़ रही है। हमें खुद पर तरस आना चाहिए कि सरकार उस ऐलानिया सच पर आजादी के चौंसठ साल बाद, अब कसमसा रही है जो नागरिक, प्रशासनिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन के पोर पोर में भिद कर हमारी लत बन चुका है। मत कोसिये लाइसेंस परमिट राज को, काले धन की असली ग्रोथ स्टोरी उस बदनाम दौर के बाद लिखी गई है। मत बिसूरिये बंद अर्थव्यवस्था को, उदार आबो हवा ने कालिख को पंख लगा सर्वव्यापी कर दिया है। मत रहिए इस गफलत में कि ग्रोथ और आय बढ़ना हर मुश्किल का हल है, विकास के साथ लूट भी बढ़ती है। भारत में काले धन की पैदावार के लिए तरक्की का मौसम ज्यादा माफिक बैठा है। कानून काला धन पैदा कराते हैं। बाजार इसे छिपाता है और न्याय का तंत्र इसे पोसता है। हम अब चिंदी चोर तरीकों से लेकर बेहद साफ सुथरे रासतों तक से काला धन बनाने में महारथ रखते हैं। काला धन तो कब का अपराध, शर्म या समस्या की जगह सुविधा, स्वभाव, संस्कार और आवश्यकता बन चुका है।
किल्लत की कालिख
भारत की 99.5 फीसदी आबादी कोटा, लाइसेंस, परमिट नहीं चाहती। सांसद विधायक मंत्री, राजदूत बनने की उसे तमन्ना नहीं है। उसे तो सही कीमत व समय पर बुनियादी सुविधायें और जीविका व बेहतरी के न्यायसंगत मौके चाहिए जिनकी सबसे ज्यादा किल्लत है। भारत का अधिकांश भ्रष्टाचार सेवाओं की कमी से उपजता है। उदारीकरण में सुविधाओं और सेवाओं की मांग बढ़ी, आपूर्ति नहीं। रेलवे रिजर्वेशन से लेकर अनापत्ति प्रमाण पत्र तक, सकूल दाखिले से लेकर, इलाज तक हर जगह मांग व आपूर्ति में भयानक अंतर है, जो कुछ लोगों के हाथ में देने और कुछ को उसे खरीदने की कुव्वत दे देता है। हमारी 76 फीसदी रिश्वतें