घोटालों के कीचड़ के बीच भी क्या हम उम्मीद के कुछ अंखुए तलाश सकते हैं? भ्रष्टाचार के कलंक की आंधी के बीच भी क्या कुछ बनता हुआ मिल सकता है? यह मुमकिन है। जरा गौर से देखिये घोटालों के धुंध के बीच हमारी संवैधानिक संस्थाओं की ताकत लौट रही है। कानूनों की जंग छूट रही है और आजादी के नए पहरुए नए ढंग से अलख जगा रहे हैं। घोटालों के अंधेरे के किनारों से झांकती यह रोशनी बहुत भली लगती है। यह रोशनी सिर्फ लोकतंत्र का सौभाग्य है।
संविधान की सत्ता
डा. अंबेडकर ने संविधान बनाते समय कैग (नियंत्रक व महालेखा परीक्षक) को देश के वित्तीय अनुशासन की रीढ़ कहा था मगर व्यावहारिक सच यही है कि पिछले छह दशक के इतिहास में, कैग एक उबाऊ, आंकड़ाबाज और हिसाबी किताबी संस्थान के तौर पर दर्ज था। ऑडिट रिपोर्ट बोरिंग औपचारिकता थीं और कैग की लंबी ऑडिट टिप्पणियों पर सरकारी विभाग उबासी लेते थे। कारगिल युद्ध के दौरान ताबूत खरीद, विनिवेश पर समीक्षा के कुछ फुटकर उदाहरण छोड़ दिये जाएं तो देश को यह पता भी नहीं था कि कैग के पास इतने पैने दांत हैं। एक ऑडिट एजेंसी को, मंत्रियों को हटवाते (राजा व देवड़ा), प्रधानमंत्री की कुर्सी हिलाते और मुख्यमंत्रियों (सीडब्लूजी) के लिए सांसत बनते हमने कभी नहीं देखा था। कैग अब भ्रष्टाचारियों को सीबीआई