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Monday, December 6, 2021

वाह सुधार, आह सुधार


इतिहास स्‍वयं को हजार तरीकों से दोहराता रह सक‍ता है. लेकि‍न संदेश हमेशा बड़े साफ होते हैं. इतने साफ क‍ि हम माया सभ्‍यता की स्‍मृ‍त‍ियों को भारत में कृषि‍ कानूनों की वापसी के साथ महसूस कर सकते हैं. अब तो पुराने नए सबकों का एक पूरा कुनबा तैयार है जो हमें  इस सच से आंख मिलाने की ताकत देता है क‍ि चरम सफलता व लोकप्र‍िता के बाद भी, शासक और सरकारें हकीकत से कटी पाई जा सकती हैं

स्‍पेनी हमलावर नायकों पेड्रो डी अल्‍वराडो और हरमन कोर्टेस को भले ही माया सभ्‍यता को मिटाने का तमगा या तोहमत म‍िला हो लेक‍िन  अल्‍वराडो 16 वीं सदी की शुरुआत में जब यूटेलटान (आज का ग्‍वाटेमाला) पहुंचा तब तक महान माया साम्राज्‍य दरक चुका था. शासकों और जनता के बीच व‍िश्‍वास ढहने  से इस सभ्‍यता की ताकत छीज गई थी.  माया नगर राज्‍यों में सत्‍ता के ज‍िस केंद्रीकरण ने भाषा, ल‍िप‍ि कैलेंडर, भव्‍य नगर व भवन के साथ यह चमत्‍कारिक सभ्‍यता (200 से 900 ईसवी स्‍वर्ण युग) बनाई थी उसी में केंद्रीकरण के चलते शासकों ने आम लोगों खासतौर पर क‍िसानों कामगारों से जुडे एसे फैसले क‍िये जिससे भरोसे का तानाबाना बिखर गया. इसके बाद माया सम्राट केइश को हराने में अल्‍वराडो और हरमन कोर्टेस को ज्‍यादा वक्‍त नहीं लगा. 

2500 वर्ष में एसा  बार बार होता रहा है क‍ि शासक और सरकारें अपनी पूरी सदाशयता के बावजूद वास्‍तविकतायें समझने में चूक जाती हैं, व्‍यवस्‍था ढह जाती हैं और बने बनाये कानून पलटने पड़ते हैं. एक साल बाद कृषि‍ कानूनों को वापस लेने की चुनावी व्‍याख्‍या तो कामचलाऊ है. इन्‍हें गहराई में जाकर देखने पर सवाल गुर्राता है क‍ि बड़े आर्थि‍क सुधारों से लोग सहमत क्‍यों नहीं हो रहे?

भारत में राजनीतिक खांचे इतने वीभत्‍स हो चुके हैं क‍ि नीत‍ियों की सफलता-व‍िफलता पर न‍िष्‍पक्ष शोध दुर्लभ हैं.  अलबत्‍ता इस  मोहभंग की वजहें तलाशी जा सकती हैं . बीते एक दशक से आईएमएफ यह समझने की कोशिश कर रहा है क‍ि उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं में सुधार पटरी से क्‍यों उतर जाते हैं. 

व‍िश्‍व बैंक और ऑक्‍सफोर्ड यून‍िवर्सिटी का  ताजा अध्‍ययन,  (श्रुति‍ खेमानी 2020 )  भारत में कृषि‍ सुधारों की पालकी लौटने के संदर्भ में बहुत कीमती है. इस अध्‍ययन ने पाया क‍ि दुन‍िया में सुधारों का पूरा फार्मूला केवल तीन उपायों में सि‍मट गया है. एक है न‍िजीकरण, दूसरा और कानूनों का उदारीकरण और  सब्‍सिडी खत्‍म करना. दुनिया के अर्थव‍िद इसे  हर मर्ज की संजीवनी समझ कर चटाते हैं.  मानो सुधारों का मतलब स‍िर्फ इतना ही हो.

राजनीति‍ लोगों की नब्‍ज क्‍यों नहीं समझ पाती ? अर्थव‍िद अपने स‍िद्धांत कोटरों से बाहर क्‍यों नहीं न‍िकल पाते? सुधार उन्‍हीं को क्‍येां डराते हैं जिनको इनका फायदा मिलना चाह‍िए? जवाब के ल‍िए असंगति की  इस गुफा में गहरे पैठना जरुरी है. सुधारों की परिभाषा केवल जिद्दी तौर सीम‍ित ही नहीं हो गई है बल्‍क‍ि इनके केंद्र में आम लोग नजर नहीं आते. भले ही यह फैसले बाद में बडी आबादी को फायदा पहुंचायें   लेक‍िन इनके आयोजन और संवादों के मंच पर में  कं  पनियां‍ और उनके एकाध‍िकार दि‍खते हैं  जैसे क‍ि बैंकों के निजीकरण की चर्चाओं के केंद्र में जमाकर्ता या बैंक उपभोक्‍ता को तलाशना मुश्‍क‍िल है. कृष‍ि सुधारों का  आशय तो किसानों की आय बढाना था लेक‍िन उपायों के पर्चे पर नि‍जीकरण, कारपोरेट वाले चेहरे छपे थे. इसलिए सुधार ज‍िनके ल‍िए बनाये गए थे वही लोग बागी हो गए.

भारत ही नहीं अफ्रीका और एशि‍या के कई देशों में कृषि‍ सुधार सबसे कठ‍िन पाए गए हैं. कृषि‍ दुन‍िया की सबसे पुरानी नि‍जी आर्थ‍िक गति‍वि‍ध‍ि है. सद‍ियों से लोकमानस में यह संप त्‍ति‍ के मूलभूत अध‍िकार और व जीविका के अंति‍म आयोजन के तौर पर उपस्‍थि‍त है. उद्योग, सेवा या तकनीक जैसे किसी दूसरे आर्थ‍िक उत्‍पादन  की तुलना में खेती बेहद व्‍यक्‍त‍िगत, पार‍िवार‍िक और सामुदाय‍िक  आर्थ‍िक उपार्जन है. कृषि‍ सुधारों का सबसे सफल आयोजन चीन में हुआ लेक‍िन वहां भी इसलि‍ए क्‍यों क‍ि देंग श्‍याओ पेंग ने (1981)  कृषि‍ के उत्‍पादन व लाभ पर किसानों का अधिकार सुन‍िश्‍च‍ित कर दि‍या.

 

आर्थ‍िक सुधार  पहले चरण में  बहुत सारी नेमतें बख्शते हैं. जैसे क‍ि 1991 के सुधार से भारत को बहुत कुछ मिला. लेक‍िन प्रत्येक सुधार 1991 वाला नहीं होताआर्थि‍क सुधार दूसरे चरण में  कुर्बान‍ियां मांगते हैं.  इसके ल‍िए  सुधारों के विजेताओं और हारने वालों के ईमानदार मूल्‍यांकन चाह‍िए.   अर्थशास्‍त्री मार्केट सक्‍सेस की दुहाई देते हैं मगर मार्केट फेल्‍योर (बाजार की विफलताओं) पर चर्चा नहीं करते. जिसके गहरे तजुर्बे आम लोगों के पास हैं इसलिए सरकारी नीति‍यो के अर्थशास्‍त्र पर आम लोगों का अनुभवजन्‍य अर्थशास्‍त्र भारी पड़ने लगा है.

सुधारों से च‍िढ़ बढ़ रही है  क्‍यों क‍ि सरकारें इन पर बहसस‍िद्ध सहमत‍ि नहीं बनाना चाहतीं.  जीएसटी हो या कृषि‍ बिल सरकार ने उनके सवाल ही नहीं सुने जिनके ल‍िए इनका अवतार हुआ था. सनद रहे क‍ि लोगों को सवाल पूछने की ताकत देने की ज‍िम्‍मेदारी भी सत्‍ता की है. शासन को ही यह तय करना होता है कि ताकत का केंद्रीकरण किस सीमा तक क‍िया जाए और फैसलों में लोगों की भागीदारी क‍िस तरह सुन‍िश्‍चि‍त की जाए.

दूसरे रोमन सम्राट ट‍िबेर‍ियस (42 ईपू से 37 ई) ने फैसले लेने वाली साझा सभा को समाप्‍त  कर दि‍या और ताकत सीनेट को दे दी. इसके बाद ताकत का केंद्रीकरण इस कदर बढ़ा कि आम रोमवासी अपने संपत्‍ति‍ अध‍िकारो को लेकर आशंक‍ित होने लगे. अंतत: गृह युद्धों व बाहरी युद्धों से गुजरता हुआ रोमन साम्राज्‍य करीब 5वीं सदी में ढह गया ठीक उसी तरह जैसा क‍ि माया सभ्‍यता में हुआ था.

बीते ढाई दशक में लोगों में आर्थिक सुधारों के फायदों और नुक्सानों की समझ बनी हैमंदी से टूटे  लोग कमाई और जीवन स्तर में ठोस बेहतरी के प्रमाण व उपाय चाहते हैं.  यही वजह है क‍ि विराट प्रचार तंत्र के बावजूद सरकार लोगों को सुधारों के फायदे नहीं समझा पाती.  सुधारों की भाषा उनके ल‍िए ही अबूझ हो गई जिनके ल‍िए उन्‍हें  गढ़ा जा रहा  है . सरकारें और उनके अर्थशास्‍त्री जिन्‍हें सुधार बताते  हैं जनता उन्‍हें अब सत्‍ता का अहंकार समझने लगी है.

कृषि कानूनों की दंभजन्‍य घोषणा पर ज‍ितनी चिंता थी उतनी ही फ‍िक्र  इनकी वापसी पर भी होनी चाह‍िए  जो सरकारों से विश्‍वास टूटने का प्रमाण है. भारत को सुधारों का क्रम व संवाद  ठीक करना होगा ताकि ईमानदार व पारदर्शी बाजार में भरोसा बना रहे. सनद रहे क‍ि गुस्साए लोग सरकार तो बदल सकते हैंबाजार नहींमुक्त बाजार पर विश्वास टूटा तो सब बिखर जाएगा क्योंकि कोई सरकार कितनी भी बड़ी होवह बाजार से मिल रहे अवसरों का विकल्प नहीं बन सकती.

 


Friday, December 25, 2020

हंगामा है यूं बरपा

 


अब से दो साल पहले दिसंबर 2018 में जब गूगल प्रमुख सुंदर पिचाई एकाधिकार के मामले में अमेरिकी कानून निर्माताओं के कठघरे में थे उस दौरान जारी हुए फोटो और वीडियो ने लोगों को चौंका दिया. कांग्रेस की सुनवाई के दौरान पिचाई के पीछे तीसरी पंक्ति में काली टोपी वाले मुच्छड़ रिच अंकल पेनीबैग्स नजर आ रहे थे जो मशहूर मोनोपली गेम के प्रतीक पुरुष हैं. उनकी मौजूदगी किसी फोटोशापीय कला का नमूना नहीं था. अमेरिका के एक वकील ग्रीडी मोनोपली मैन की वेशभूषा में, इस मामले की प्रत्येक सुनवाई में बाकायदा ठीक उस जगह मौजूद रहे थे जहां से वह तस्वीरों का हिस्सा बन सकें और लोगों को बाजार का विद्रूप और एकाधि‍कारवादी चेहरा नजर आता रहे. 

संयोग ही है कि बीते सप्ताह जब विश्व की सबसे बड़ी तकनीकी मोनोपली यानी गूगल और फेसबुक पर अमेरिका में ऐंटीट्रस्ट (प्रतिस्पर्धा खत्म करने) कानून की कार्रवाई शुरू हुई तब उसी दौरान भारत में भी बहुत से लोग सुधारों के फैसलों के पीछे किसी कॉर्पोरेट मुच्छड़ मैन का अक्स देख रहे थे. 

उदारीकरण और मुक्त बाजार ने भारत में सबसे कम समय में सर्वाधि‍क आबादी की गरीबी दूर की है, इसलिए इस पर उठते शक-शुबहे गहरी पड़ताल की मांग करते हैं. 

निजीकरण, निजी भागीदारी, मुक्त बाजार पर शक बेवजह नहीं है. बाजार पर भरोसा दो ही वजह से बनता है. एक, रोजगार यानी कमाई या आय बढ़ने से और दूसरा, उत्पादन का सही मूल्य मिलने से. इन्हीं दोनों वजह से पूंजीवाद को सबसे अधिक सफलता मिली है, इस व््यवस्था में बाजार सबको अवसर देता है और सरकार संकटों के समाधान करती है. बाजार इसके बदले कीमत वसूलता है और सरकार टैक्स. 

बाजारों के सबसे बुरे दिनों का नाम ही मंदी है. नौकरियां खत्म होती हैं. कर्ज डूबने लगते हैं और सरकार से राहत मांगी जाने लगती है. और तब बाजार लोगों का तात्कालिक शत्रु बन जाता है. भारत में भी बाजार इस समय खलनायक है लेकिन दंभ और आत्ममुग्धता में सरकार उसे संकटमोचक बनाकर पेश कर रही है. लोग बुरी तह चिढ़ रहे हैं.

भारत में कंपनियों के रिकॉर्ड मुनाफों के बीच रिकॉर्ड बेरोजगारी है. इसी बीच सरकार ने कंपनियों को नौकरियां लेने की ताकत से (श्रम सुधार) से लैस कर दिया. 

किसानों को आय में बढ़ोतरी के लिए सीधी मदद चाहिए न कि उन्हें उस बाजार के हवाले कर दिया जाए तो खुद मंदी का मारा है.

निजीकरण में कोई खोट नहीं लेकिन चौतरफा बेकारी के बीच जीविका को लेकर डर लाजिमी है. खासतौर पर जब लोग देख रहे हैं कि कुछ निजी कंपनियां बाजारों  पर कब्जा कर रही हैं.

महामंदी और महामारी एक साथ सबसे बड़ी मुसीबत है. महामारी सरकारों की साख पर भारी पड़ती है क्योंकि दुनिया की कोई सरकार महामारियों से निबट नहीं सकती. महामंदी बाजार की साख तोड़ देती है इसलिए दुनिया की तमाम सरकारें कंपनियों को रोजगार बचाने के लिए बजट से पैसे दे रही हैं ताकि बाजार और लोगों के बीच विश्वास को बना रहे. 

मशहूर अर्थविद् जॉन मेनार्ड केंज ने 1930 की महामंदी के दौरान अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट को लिखा थाःआपकी चुनौती दोहरी है. मंदी से भी उबारना है और सुधार भी होने हैं जो अर्से से लंबित हैं. मंदी से मुक्ति के लिए तेज और तत्काल नतीजे चाहिए. सुधारों में जल्दबाजी मंदी से उबरने की प्रक्रिया को धीमा कर सकती, जिससे सरकार की नीयत पर शक बढ़ेगा और लोगों का भरोसा टूटेगा.’

सरकार के सलाहकारों पता चले कि प्रत्येक सुधार 1991 वाला नहीं होता. बीते ढाई दशक में लोगों में आर्थिक सुधारों के फायदों और नुक्सानों की समझ बनी है. मंदी की चोट खाए लोग आय और जीवन स्तर में ठोस बेहतरी समझ कर सुधार स्वीकार कर पाएंगे. इसके लिए सुधारों का क्रम ठीक करना होगा.

भारत में बाजार और लोगों के रिश्ते बीते दो-तीन साल से काफी बदले हैं. जनवरी 2020 में एडलमैन के मशहूर ग्लोबल ट्रस्ट बैरोमीटर सर्वे ने बताया था कि भारत, दुनिया के उन 28 प्रमुख बाजारों में पहले नंबर पर था जहां सबसे बड़ी संख्या में (74 फीसद) लोग बाजार और पूंजीवाद से निराश हैं. यानी कि कोरोना की विपत्तिसे पहले ही बाजार से लोगों का भरोसा उठने लगा था जिसकी बड़ी वजह आय में कमी और बेकारी थी.

सनद रहे कि अच्छे सुधार बाजार को ताकत देते हैं जबकि खराब सुधार बाजार की पूरी ताकत कुछ हाथों में थमा देते हैं. यह सुनिश्चित करना होगा कि सुधारों के पीछे वाल स्ट्रीट मूवी का प्रसिद्ध गॉर्डन गीको नजर न आए जो कहता था कि लालच के लिए कोई दूसरा बेहतर शब्द नहीं है इसलिए लालच अच्छा है.

भारत के आर्थिक सुधार संवेदनशील मोड़ पर हैं. 2020 बाजार के प्रति गुस्से के साथ बिदा हो रहा है. मुक्त बाजार को खलनायक बनने से रोकना होगा. गुस्साए लोग सरकार तो बदल सकते हैं, बाजार नहीं. मुक्त बाजार पर विश्वास टूटा तो सब बिखर जाएगा क्योंकि कोई सरकार कितनी भी बड़ी हो, वह बाजार से मिल रहे अवसरों का विकल्प नहीं हो सकती.

 

Thursday, November 19, 2020

कारवां गुजर गया...

 


कहते हैं कि अमेजन वाले जेफ बेजोस और चीन के पास बदलती दुनिया की सबसे बेहतर समझ है. वे न सिर्फ यह जानते हैं कि क्या बदलने वाला है बल्कि यह भी जानते हैं कि क्या नहीं बदलेगा.

बेजोस ने एक बार कहा था कि कुछ भी बदल जाए लेकिन कोई उत्पादों को महंगा करने या डिलिवरी की रफ्तार धीमी करने को नहीं कहेगा. लगभग ऐसा ही ग्लोबलाइजेशन के साथ है जिससे आर्थिक तरक्की तो क्या, कोविड का इलाज भी असंभव है. चीन ने यह सच वक्त रहते भांप लिया है.

दुनिया जब तक यह समझ पाती कि डोनाल्ड ट्रंप की विदाई उस व्यापार व्यवस्था से इनकार भी है जो दुनिया को कछुओं की तरह अपने खोल में सिमटने यानी बाजार बंद करने के लिए प्रेरित कर रही थी, तब तक चीन ने विश्व व्यापार व्यवस्था का तख्ता पलट कर ग्लोबलाइजेशन के नए कमांडर की कुर्सी संभाल ली.

चीन, पहली बार किसी व्यापार समूह का हिस्सा बना है. आरसीईपी (रीजन कॉम्प्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप) जीडीपी के आधार पर दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारिक (30 फीसद आबादी) गुट है, जिसमें दक्षिण-पूर्व एशिया (आसियान) के देश, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड के अलावा एशिया की पहली (चीन), दूसरी (जापान) और चौथी (कोरिया) सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं शामिल हैं. आरसीईपी अगले दस साल में आपसी व्यापार में 90 फीसद सामान पर इंपोर्ट ड‍्यूटी पूरी तरह खत्म कर देगा.

आरसीईपी के गठन का मतलब है कि

चीन जो विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में सबसे देर से दाखिल हुआ था, उसने उदारीकरण को ग्लोबल कूटनीति की मुख्य धारा में फिर बिठा दिया है. मुक्त व्यापार की बिसात पर आरसीईपी चीन के लिए बड़ा मजबूत दांव होने वाला है.

अमेरिका के नेतृत्व में ट्रांस पैसिफिक संधि‍, (ट्रंप ने जिसे छोड़ दिया था) को दुनिया की सबसे बड़ा आर्थिक व्यापारिक समूह बनना था. आरसीईपी के अब अमेरिका, लैटिन अमेरिका, कनाडा और यूरोप को अपनी संधिखड़ी करनी ही होगी.

छह साल तक वार्ताओं में शामिल रहने के बाद, बीते नवंबर में भारत ने अचानक इस महासंधिको पीठ दिखा दी. फायदा किसे हुआ यह पता नहीं लेकिन सरकार को यह जरूर मालूम था कि आरसीईपी जैसे बड़े व्यापारिक गुट का हिस्सा बनने पर भारत के जीडीपी में करीब एक फीसद, निवेश में 1.22 फीसद और निजी खपत में 0.73 फीसद  की बढ़ोतरी हो सकती थी (सुरजीत भल्ला समिति 2019). वजह यह कि आरसीईपीमें शामिल आसियान, दक्षिण कोरिया और जापान के साथ भारत के मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) हैं. इन समझौतों के बाद (आर्थिक समीक्षा 2015-16) इन देशों से भारतीय व्यापार 50 फीसद बढ़ा. निर्यात में बढ़ोतरी तो 25 फीसद से ज्यादा रही.

आत्मनिर्भरता के हिमायती स्वदेशीचिंतकमान रहे थे कि भारत के निकलने से आरसीईपी बैठ जाएगा पर किसी ने हमारा इंतजार नहीं किया. यही लोग अब कह रहे हैं कि धीर धरो, आरसीईपी में शामिल देशों से भारत के व्यापार समझौतों पर इस महासंधिका असर नहीं होगा. जबकि हकीकत यह है कि आरसीईपी के सदस्य दोतरफा और बहुपक्षीय व्यापार में अलग-अलग नियम नहीं अपनाएंगे. दस साल में यह पूरी तरह मुक्त व्यापार (ड‍्यूटी फ्री) क्षेत्र होगा. भारत को चीन से निकलने वाली कंपनियों की अगवानी की उम्मीद है लेकिन तमाम प्रोत्साहनों के चलते वे अब इस समझौते के सदस्यों को वरीयता देंगी. यानी कि भारत के और ज्यादा अलग-थलग पड़ने का खतरा है.

आरसीईपी के साथ उदार बाजार (ग्लोबाइलाइजेशन) पर भरोसा लौट रहा है. कारोबारी हित जापान और चीन को एक मंच पर ले आए हैं. नई व्यापार संधियां बनने में लंबा वक्त लेती हैं इसलिए आरसीईपी फिलहाल अगले एक दशक तक दुनिया में बहुपक्षीय व्यापार का सबसे ताकतवर समूह रहेगा. ‍

भविष्य जब डराता है तो लोग सबसे अच्छे दिन वापस पाना चाहते हैं. जीडीपी में बढ़त, गरीबी में कमी, नई तकनीकें, अंतरराष्ट्रीय संपर्क ताजा इतिहास में सबसे अच्छे दिन हैं जो ग्लोबलाइजेशन और उदारीकरण ने गढ़े थे. आज कोविड वैक्सीन और दवा पर अंतरराष्ट्रीय विनिमय इसी की देन है.

बीते दो दशक में मुक्त व्यापार और ग्लोबलाइजेशन ने भारत की विकास दर में करीब पांच फीसद का इजाफा किया. यानी गरीबी घटाने वाली ग्रोथ काचमत्कारदुनिया से हमारी साझेदारी का नतीजा था. इसे दोहराने के लिए अब हमें पहले से दोहरी मेहनत करनी होगी.

आरसीईपी को भारत की नहीं बल्किबल्कि भारत को दुनिया के बाजार की ज्यादा जरूरत है. कोविड की मंदी के बाद घरेलू मांग के सहारे 6 फीसद की विकास दर भी नामुमकिन है. अब विदेशी बाजारों के लिए उत्पादन (निर्यात) के बिना अर्थव्यवस्था खड़ी नहीं हो सकती.

एशिया में मुक्त व्यापार का कारवां, भारत को छोड़कर चीन की अगुआई में नई व्यवस्था की तरफ बढ़ गया है. भारत को इस में अपनी जगह बनानी होगी, उसकी शर्तों पर व्यवस्था नहीं बदलेगी.

Monday, September 10, 2018

बाजार बीमार है !


सेबी के चेयरमैन म्युचुअल फंड उद्योग की बैठक में मानो आईना लेकर गए थे. यह उद्योग अब 23.5 लाख करोड़ रुपए (2013 में केवल 5 लाख करोड़ रु.) की निवेश संपत्तियों को संभालता है. इस उत्सवी बैठक में सेबी अध्यक्ष ने पूछा, इस कारोबार में केवल चार म्युचुअल फंड 47 फीसदी निवेश क्यों संभाल रहे हैं जबकि (एसेट मैनेजमेंट) कंपनियां तो 38 हैं. 
कारोबार तो बढ़ा पर प्रतिस्पर्धा क्यों नहीं बढ़ी?
नियामकों को ठीक ऐसे ही सवाल पूछने चाहिए. 
लेकिन टीआरएआइ चेयरमैन ने यही सवाल टेलीकॉम कंपनियों से क्यों नहीं पूछा जहां प्रतिस्पर्धा घिसते-घिसते तीन ऑपरेटरों तक सीमित हो गई है. कभी हर सर्किल में तीन ऑपरेटर थे. अब 135 करोड़ के देश में तीन मोबाइल कंपनियां हैं.  

क्या पेट्रोलियम मंत्रालय यह पूछेगा कि पूरा बाजार तीन सरकारी पेट्रोल कंपनियों के पास ही क्यों है?

2015 में एक दर्जन से अधिक ई-कॉमर्स कंपनियों से गुलजार भारत का बाजार अब पूरी तरह दो अमेरिकी कंपनियों के पास चला गया है. सबसे बड़े ई-रिटेलर फ्लिपकार्ट को अमेरिकी ग्लोबल रिटेल दिग्गज वालमार्ट ने उठा लिया. अब वालमार्ट का मुकाबला ई-कॉमर्स बाजार की सबसे बड़ी कंपनी अमेजन से है जो भारत में पहले से है. यानी देसी ई- कॉमर्स कंपनियों का सूर्य डूब रहा है.
क्या भारत की मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था एडिय़ां रगडऩे लगी है?

प्रतिस्पर्धा जमने से पहले ही बेदखल होने लगी है?

नए बाजारवादी एकाधिकार उभर रहे हैं?

क्या बाजार चुनिंदा हाथों में केंद्रित हो रहा है?

दरअसल, जो सेबी चेयरमैन ने म्युचुअल फंड उद्योग से पूछा, अगर उसका विस्तार किया जाए तो ऊपर लिखे सच को स्वीकारना होगा.
क्या सरकार बताना चाहेगी कि ऐप आधारित टैक्सी सेवा में केवल दो ही कंपनियां क्यों हैं? जेट एयरवेज अगर बीमार हुई तो विमान सेवाओं के अधिकांश बाजार पर तीन (दो निजी, एक सरकारी) कंपनियों का एकाधिकार हो जाएगा! 

स्टील, दुपहिया वाहन, प्लास्टिक रॉ मटीरियल, एल्युमिनियम, ट्रक और बसें, कार्गो, रेलवे, कोयला, सड़क परिवहन, तेल उत्पादन, बिजली वितरण, कुछ प्रमुख उपभोक्ता उत्पाद सहित करीब एक दर्जन प्रमुख क्षेत्रों का अधिकांश बाजार एक से लेकर तीन कंपनियों (निजी या सरकारी) के हाथ में केंद्रित है. केवल कार, कंप्यूटर, फार्मास्यूटिकल्स, मोबाइल का बाजार ही ऐसा है जहां पर्याप्त प्रतिस्पर्धा दिखती है.
उदारीकरण के करीब दो दशक बाद प्रतिस्पर्धा बढऩे, मंदी के झटके, नई तकनीकों की आमद, नए अवसरों की तलाश और पूंजी की कमी से बाजार में पुनर्गठन शुरू हुआ. कंपनियों के अधिग्रहण और विलय हुए. वोडाफोन-आइडिया, वालमार्ट-फ्लिपकार्ट, अडानी-रिलायंस एनर्जी, मिंत्रा-जबांग, एमटीएस-रिलायंस कम्युनिकेशंस, रिलायंस-एयरसेल, कोटक-बीएसएस माइक्रोफाइनांस, फ्लिपकार्ट-ई बे, बिरला कॉर्प-रिलायंस सीमेंट... फेहरिस्त लंबी है.

2017 में भारत में 46.5 अरब डॉलर के निवेश से कंपनियां बेची और खरीदी गईं. यह विलय व अधिग्रहण अगले साल 53 अरब डॉलर से ऊपर निकल जाएगा.

बैंक कर्ज में फंसी कंपनियों की बिक्री और बंदी भी प्रतिस्पर्धा को मार रही है. करीब 34 निजी बिजली कंपनियां कर्ज में दबी हैं. कर्ज की वसूली उन्हें बंदी या बिक्री के कगार पर ले आएगी. यानी बिजली बाजार में भी कुछ ही कंपनियां ही बचेंगी.

प्रतिस्पर्धा कम होने से मोबाइल सेवाओं, स्टील, ई-कॉमर्स, विमानन में रोजगार में खासी कमी आई है. उपभोक्ताओं पर मनमानी या खराब सेवाएं थोपी जा रही हैं. प्रतिस्पर्धा की कमी से कई उत्पादों में नए प्रयोग भी सीमित हो रहे हैं. 

मुक्त बाजार में सरकारों और नियामकों की जिम्मेदारी होती है कि वे बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ाएं, नई कंपनियों के प्रवेश का रास्ता खोलें, कार्टेल और एकाधिकार समाप्त करें. 

गूगल-फेसबुक वाली नई दुनिया की सबसे ताजा चिंता बाजार पर निजी एकाधिकार हैं. अमेरिका की 100 प्रमुख कंपनियां देश की आधी अर्थव्यवस्था पर काबिज हैं. 1955 में अमेरिका की अर्थव्यवस्था में  फॉच्र्यून 500 कंपनियों का हिस्सा 35 फीसदी था, आज यह 72 फीसदी है.

ताकत और अवसरों का केंद्रीकरण राजनीति और बाजार, दोनों जगह खतरनाक है. लोकतंत्र में सरकार और बाजार को एक दूसरे की यह ताकत तोड़ते रहना चाहिए लेकिन अब तो राजनीति (सरकार) बाजार में एकाधिकारों को पोस रही है और बदले में बाजार राजनीति को सर्वशक्तिमान बना रहा है. यह गठजोड़ हर तरह की आजादी के लिए, शायद सबसे बड़ा खतरा है.

Monday, January 22, 2018

भारत, एक नई होड़



तकरीबन डेढ़ दशक बाद भारत को लेकर दुनिया में एक नई होड़ फिर शुरू हो रही है. पूरी दुनिया में मंदी से उबरने के संकेत और यूरोप में राजनैतिक स्थिरता के साथ अटलांटिक के दोनों किनारों पर छाई कूटनीतिक धुंध छंटने लगी है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कूटनीतिक चश्मा कमोबेश साफ हो गया है. ब्रिटेन की विदाई (ब्रेग्जिट) के बाद इमैनुअल मैकरॉन और एंजेला मर्केल के नेतृत्व में यूरोपीय समुदाय आर्थिक एजेंडे पर लौटना चाहते हैं. एशिया के भीतर भी दोस्तों-दुश्मनों के खेमों को लेकर असमंजस खत्‍म हो रहा है.  


मुक्त व्यापार कूटनीति के केंद्र में वापस लौट रहा है, जिसकी शुरुआत अमेरिका ने की है. पाकिस्तान को अमेरिकी सहायता पर ट्रंप के गुस्से के करीब एक सप्ताह बाद अमेरिका ने भारत के सामने आर्थिक- रणनीतिक रिश्तों का खाका पेश कर दिया. ट्रंप के पाकिस्तान वाले ट्वीट पर भारत में पूरे दिन तालियां गडग़ड़ाती रहीं थी लेकिन जब भारत में अमेरिकी राजदूत केनेथ जस्टर ने दिल्ली में एक पॉलिसी स्पीच दी तो दिल्ली के कूटनीतिक खेमों में सन्नाटा तैर गया, जबकि यह हाल के वर्षों में भारत से रिश्तों के लिए अमेरिका की सबसे दो टूक पेशकश थी.

दिल्ली में तैनाती से पहले राष्ट्रपति ट्रंप के उप आर्थिक सलाहकार रहे राजदूत जस्टर ने कहा कि भारत को अमेरिकी कारोबारी गतिविधियों का केंद्र बनने की तैयारी करनी चाहिए, ता‍कि भारत को चीन पर बढ़त मिल सके. अमेरिकी कंपनियों को चीन में संचालन में दिक्कत हो रही है. वे अपने क्षेत्रीय कारोबार के लिए दूसरा केंद्र तलाश रही हैं. भारत, एशिया प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी कारोबारी हितों का केंद्र बन सकता है.

व्हाइट हाउस, भारत व अमेरिका के बीच मुक्त व्यापार संधि (एफटीए) चाहता है, यह संधि व्यापार के मंचों पर चर्चा में रही है लेकिन यह पहला मौका है जब अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर दुनिया की पहली और तीसरी शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं के बीच एफटीए की पेश की है. ये वही ट्रंप हैं जो दुनिया की सबसे महत्वाकांक्षी व्यापार संधि, ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) को रद्दी का टोकरा दिखा चुके हैं.

अमेरिका और भारत के बीच व्यापार ब्ल्यूटीओ नियमों के तहत होता है. दुनिया में केवल 20 देशों (प्रमुख देश—कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, इज्राएल, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, मेक्सिको) के साथ अमेरिका के एफटीए हैं. इस संधि का मतलब है कि दो देशों के बीच निवेश और आयात-निर्यात को हर तरह की वरीयता और निर्बाध आवाजाही. 

ट्रंप अकेले नहीं हैं. मोदी के नए दोस्त बेंजामिन नेतन्याहू भी भारत के साथ मुक्त व्यापार संधि चाहते हैं. गणतंत्र दिवस पर आसियान (दक्षिण पूर्व एशिया) के राष्ट्राध्यक्ष भी कुछ इसी तरह का एजेंडा लेकर आने वाले हैं. भारत-आसियान मुक्त व्यापार संधि पिछले दो दशक का सबसे सफल प्रयोग रही है.

मार्च में फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैकरॉन भी भारत आएंगे. भारत और यूरोपीय समुदाय के बीच एफटीए पर चर्चा कुछ कदम आगे बढ़कर ठहर गई है. यूरोपीय समुदाय से अलग होने के बाद ब्रिटेन को भारत से ऐसी ही संधि चाहिए. प्रधानमंत्री थेरेसा मे इस साल दिल्ली आएंगी तो व्यापारिक रिश्ते ही उनकी वरीयता पर होंगे.

पिछली कई सदियों का इतिहास गवाह है कि दुनिया जब भी आर्थिक तरक्की के सफर पर निकली है, उसे भारत की तरफ देखना पड़ा है. पिछले दस-बारह साल की मंदी के कारण बाजारों का उदारीकरण जहां का तहां ठहर गया और भारत का ग्रोथ इंजन भी ठंडा पड़ गया. कूटनीतिक स्थिरता और ग्लोबल मंदी के ढलने के साथ व्यापार समझौते वापसी करने को तैयार हैं और भारत इस व्यापार कूटनीति का नया आकर्षण है.

अलबत्ता इस बदलते मौसम पर सरकार के कूटनीतिक हलकों में रहस्यमय सन्नाटा पसरा है. शायद इसलिए कि उदार व्यापार को लेकर मोदी सरकार का नजरिया बेतरह रूढ़िवादी रहा है. विदेश व्यापार नीति दकियानूसी स्वदेशी आग्रहों की बंधक है. पिछले तीन साल में एक भी मुक्त व्यापार संधि नहीं हुई है. यहां तक कि निवेश संधियों का नवीनीकरण तक लंबित है. स्वदेशी और संरक्षणवाद के दबावों में सिमटा वणिज्य मंत्रालय मुक्त व्यापार संधियों की आहट पर सिहर उठता है.


ध्यान रखना जरूरी है कि भारत की अर्थव्यवस्था के सबसे अच्छे दिन भारतीय अर्थव्यवस्था के ग्लोबलाइजेशन के समकालीन हैं. दुनिया से जुड़कर ही भारत को विकास की उड़ान मिली है. थकी और घिसटती अर्थव्यवस्था को निवेश व तकनीक की नई हवा की जरूरत है. भारतीय बाजार के आक्रामक उदारीकरण के अलावा इसका कोई और रास्ता नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय कूटनीति में क्रांतिकारी बदलाव के एक बड़े मौके के बिल्कुल करीब खड़े हैं.