ऐसा अक्सर नहीं होता जब प्रत्येक उदारीकरण और विदेशी मेलजोल पर बिदकने
वाले स्वदेशी और अर्थव्यवस्था को खोलने के परम पैरोकार उदारवादी एक ही घाट पर डुबकी
लगाते नजर आएं.
मोदी सरकार का फैसला है कि भारत अब बॉन्ड के जरिए विदेशी बाजारों से कर्ज
लेगा. ये बॉन्ड भारत की संप्रभु साख (सॉवरिन
रेटिंग) पर आधारित होंगे. इससे पहले ऐसा
कभी नहीं हुआ था. सरकार के विचार परिवार वाले रूढ़िवादी स्वदेशियों को लगता है कि इससे आसमान फट पड़ेगा और उदारवादियों को लगता
है कि सुर्खियां बटोरने के शौक में मोदी सरकार एक गैर-जरूरी कोशिश
कर रही है जो मुश्किल में डालेगी.
दोनों ही बेमतलब डरा रहे हैं. जबकि इस डर के आगे जीत है. यहां से एक बड़े सुधार की
शुरुआत हो सकती है.
विदेशी कर्ज भारत के लिए नया नहीं है. सरकार को बहुपक्षीय संस्थाओं (विश्व बैंक, एडीबी) और देशों (जैसे बुलेट ट्रेन
के लिए जापान) से कर्ज मिलता रहा है. यह
कर्ज देशों या संस्था और देश के बीच होता है. कर्ज बाजार का इस
पर कोई असर नहीं होता. भारतीय कंपनियां अपनी साख के बदले दुनिया
भर से कर्ज लेती हैं, जो सरकार के खाते में दर्ज नहीं होता.
सरकार के अधिकांश कर्ज देश के भीतर से आते हैं और रुपए में होते हैं. यह कर्ज डॉलर में होगा और डॉलर में ही चुकाना होगा.
डॉलर महंगा होने से यह कर्ज बढ़ेगा.
दुनिया के अन्य देशों की तरह, जो विश्व के बाजारों से कर्ज लेते हैं, भारत की साख की
रेटिंग होगी. भारत के बॉन्ड दुनिया के बाजारों में सूचीबद्ध होंगे.
भारत शुरुआत में केवल कुल दस अरब डॉलर जुटाना चाहता है. फायदा यह कि यह कर्ज घरेलू बाजार की तुलना में लगभग आधी
लागत पर मिलेगा. इस बॉन्ड के बाद देशी बाजार से सरकार कुछ कम
कर्ज लेगी.
इस पहल से भारत को तत्काल कोई खतरा नहीं है. इस तरह के विदेशी कर्ज, जोखिम के
जिन पैमानों पर मापे जाते हैं, उनमें भारत की स्थिति बेहतर है.
जीडीपी के अनुपात में भारत का कुल संप्रभु विदेशी कर्ज केवल
3.8 फीसद है. विदेशी मुद्रा (428 अरब डॉलर) कर्ज अनुपात भी 75 फीसद
के बेहतर स्तर पर है.
इस तरह के बॉन्ड के मामले में भारत की तुलना ब्राजील, चीन, इंडोनेशिया, मेक्सिको, फिलीपींस और थाईलैंड से होनी चाहिए.
भारत की कुल आय के अनुपात में विदेशी कर्ज 19.8 फीसद (इंडोनेशिया, मेक्सिको
35 फीसद से ज्यादा) है. इसमें
संप्रभु गांरटी पर लिया गया विदेशी कर्ज तो चीन व थाईलैंड की तुलना में बहुत कम है.
स्वदेशी और वामपंथी तो 1991 और 95 में भी डरा रहे थे लेकिन भारत अगर उदारीकरण न करता
तो ज्यादा बड़ा नुक्सान होता. डराने वालों को खबर हो कि भारत
में भरपूर विदेशी पूंजी पहले से है. शेयर बाजारों में विदेशी
निवेश (433 अरब डॉलर) और प्रत्यक्ष विदेशी
निवेश यानी एफडीआइ (325 अरब डॉलर), दरअसल
सरकार (309 अरब डॉलर) और कंपनियों पर कुल
विदेशी कर्ज (104 अरब डॉलर) से भी ज्यादा है.
इसलिए दस अरब डॉलर के सॉवरिन कर्ज से प्रलय नहीं आ जाएगी, बल्कि अगर मोदी सरकार इस फैसले पर आगे बढ़ती है तो एक
बड़ी आर्थिक पारदर्शिता उभरेगी. भारत को पहली बार ग्लोबल डॉलर
सूचकांक का हिस्सा बनना होगा. इस दर्जे की बड़ी कीमत है और जोखिम
भी.
भारत सरकार को अपने सभी वित्तीय आंकड़े पारदर्शी करने होंगे और घाटा या
कर्ज छिपाने की आदत छोड़नी होगी. सरकार हमें केंद्र और
राज्यों के कर्ज व घाटे की आधी अधूरी तस्वीर दिखाती है. बैंकों
के एनपीए, एनबीएफसी का कर्ज, बजट से बाहर
रखे जाने वाले कर्ज जैसे छोटी बचत स्कीमें या सरकारी कंपनियों पर लदा कर्ज,
क्रेडिट कार्ड आदि के कर्ज, सरकारी कंपनियों का
घाटा...दुनिया के निवेशकों अब आर्थिक सेहत की कोई भी जानकारी
छिपाना महंगा पड़ेगा.
इस बॉन्ड से मिलने वाली राशि नहीं बल्कि यह महत्वपूर्ण होगा कि भारत अपने
जोखिम का प्रबंधन कैसे करता है अब पूरी दुनिया को वित्तीय पारदर्शिता का विश्वास दिलाना
होगा जिसके आधार पर भारत की संप्रभु साख तय होगी जो बताएगी कि दुनिया के बाजार में
हम कहां खड़े हैं. जो रेटिंग हमें विदेश
में मिलेगी, देश का बाजार भी उसी हिसाब से कर्ज देगा.
ग्रीस, तुर्की, अर्जेंटीना, थाईलैंड, ब्राजील के
जले निवेशक अब किसी को बख्शते नहीं हैं. बदहाल आर्थिक प्रबंधन
के कारण इन मुल्कों को बॉन्ड बाजार में बड़ी सजा झेलनी पड़ी. सनद रहे कि ग्रीस इसलिए डूबा क्योंकि उसने अपना घाटा छिपाया था. बॉन्ड बाजार झूठ से सबसे ज्यादा बिदकता है.
अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के सलाहकार जेम्स कारविल कहते थे कि अगर
मुझे दोबारा अवतार मिले तो मैं राष्ट्रपति या पोप नहीं बल्कि बॉन्ड मार्केट बनूंगा, जो हर किसी को डरा सकता है.
बॉन्ड आने दीजिए, दुनिया का डर ही भारत
सरकार को अपने तौर-तरीके बदलने में मदद करेगा.