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बहस अब यह नहीं है कि देश के लिए विकास का मॉडल क्या है अब तो यह तय होगा कि किस राज्य के विकास का मॉडल पूरे देश के लिए मुफीद है।
राज्यों के कामयाब क्षत्रपों को भारत में सत्ता
का शिखर शायद इसलिए नसीब नहीं हुआ क्यों कि पारंपरिक राजनीति एक अमूर्त राष्ट्रीय
महानायकवाद पर केंद्रित थी जो प्रशासनिक सफलता के रिकार्ड या तजुर्बे को कोई तरजीह
नहीं देता था। कद्दावर राजनीतिक नेतृत्व की प्रशासनिक कामयाबी को गर्वनेंस व विकास
की जमीन पर नापने का कोई प्रचलन नहीं था इसलिए किसी सफलतम मुख्यमंत्री के भी प्रधानमंत्री
बनने की कोई गारंटी भी नहीं थी। सभी दलों के मुख्यमंत्रियों को पिछले दो दशकों के
आर्थिक सुधार व मध्य वर्ग के उभार का आभारी होना चाहिए जिसने पहली बार गवर्नेंस व विकास को वोटरों के इंकार व
स्वीकार का आधार बना दिया और प्रशासनिक प्रदर्शन के सहारे मुख्यमंत्रियों को राष्ट्रीय
नेतृत्व की तरफ बढ़ने का मौका दिया। इस नए बदलाव की रोशनी में दिल्ली, मध्य
प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ का जनादेश न केवल विकास और गवर्नेंस की राजनीति के
नए अर्थ खोलता है और बल्कि संघीय राजनीति के एक नए दौर का संकेत भी देता है।
चारों राज्यों का जनादेश, विकास से वोट की थ्योरी
में दिलचस्प मोड़ है। विकास की सियासत का नया मुहावरा चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व
में नब्बे के दशक के अंत में आंध्र से उठा था। नायडू तो 2004 में कुर्सी से उतर
गए लेकिन 1999 से 2003 के बीच राज्यों के क्षत्रप पहली बार विकास की राजनीति पर गंभीर