सरकार जी !! आपकी साख को अचानक क्या हो गया है? सरकार तो संज्ञा (व्यक्तिवाचक, भाववाचक, जातिवाचक .. आदि ), सर्वनाम, क्रिया, विशेषण सभी कुछ है, इसलिए फिक्र कुछ ज्यादा है। माहौल और ताजे बदलाव बताते हैं कि इस सर्वशक्तिमान सरकार का जलवा, बाजार में कुछ घट रहा है। सरकार के नवरत्न यानी सार्वजनिक उपक्रम कितने भी बेशकीमती क्यों न हों लेकिन उनके पब्लिक इश्यू को बाजार में ग्राहक नहीं मिलते। बाद में साख बचाने के लिए सरकारी वित्तीय संस्थाओं को मोर्चे पर जूझना पड़ता है। भारत भले ही फोन सेवाओं के लिए मलाईदार बाजार हो, लेकिन दूरसंचार क्षेत्र में नया उदारीकरण दुनिया के टेलीकाम दिग्गजों में कोई दिलचस्पी नहीं जगाता। दूरसंचार तकनीकों की थ्री जी यानी तीसरी पीढ़ी की अगवानी के लिए केवल देसी कंपनियां आगे आती हैं और वह भी अनमने ढंग से। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप अर्थात निजी सार्वजनिक भागीदारी का मंत्र किसी को सम्मोहित नहीं करता। पीपीपी के नाम पर सिर्फ कागजी अनुबंध नजर आते हैं, वास्तविक परियोजनाएं नदारद हैं। निजी कंपनियां टेंडर-ठेके लेने में तो इच्छुक हैं, मगर सरकार के साथ मिलकर कुछ बनाने में नहीं। ..याद नहंी पड़ता कि सरकार की इतनी नरम साख पहले कब दिखी थी?
रत्नों के भी ग्राहक नहीं
सार्वजनिक उपक्रमों को सरकार ने जब नवरत्नों का आधिकारिक दर्जा दिया था, तब शायद ही उसने इस अंजाम के बारे में सोचा हो। कभी इन रत्नों को खरीदने के लिए निवेशक रुपयों से भरी थैली लिये बाजार में टहलते थे। सार्वजनिकउपक्रमों के शेयरों में निवेश को कमाई में बढ़ोतरी की गारंटी माना जाता था। इनके विनिवेश की चर्चा छिड़ने मात्र से शेयर बाजार बाग-बाग हो जाता था, लेकिन इस बार तो गजब हो गया। एक दो नहीं, बल्कि पांच सरकारी रत्नों के पब्लिक इश्यू शेयर बाजार में ग्राहकों को तरस गए। अंतत: सरकार को जीवन बीमा निगम यानी एलआईसी जैसे अपने वित्तीय दिग्गजों को मोर्चे पर लगाकर खरीद करानी पड़ी। बात हल्की फुल्की कंपनियों की नहीं, बल्कि देश की सबसे बड़ी ताप बिजली कंपनी एनटीपीसी, पनबिजली कंपनी एनएचपीसी, प्रमुख खनिज कंपनी एनएमडीसी और गांवों में बिजली का नेटवर्क बनाने वाली कंपनी आरईसी जैसे सरकारी जवाहरात की है। सिर्फ आयल इंडिया का इश्यू ही आंशिक सफल हुआ है। ये सरकारी कंपनियां शेयर बाजार की सरताज रही हैं क्योंकि इनके पास सुनिश्चित बाजार, मजबूत बैलेंस शीट अलावा सरकार की साख भी थी। मगर निवेशक तो निजी कंपनियों को ज्यादा भरोसेमंद मान रहे हैं। निजी कंपनियों के पब्लिक इश्यू सफल हो रहे हैं और सरकारी औंधे मुंह गिर रहे हैं। सार्वजनिक उपक्रम सतलुज जल विद्युत निगम का पब्लिक इश्यू टल चुका है, सेल, इंजीनियर्स इंडिया के इश्यू अधर में हैं और इंडियन आयल के पब्लिक इश्यू के बारे में पता नहीं है। .. सरकार जी, आसार अच्छे नहीं हैं। यही हाल रहा तो इन रत्नों के जरिए अगले साल विनिवेश के मद में 40,000 करोड़ रुपये कैसे आएंगे?
थ्री जी! माफ करिए जी
भारत ने अपना थ्री जी बाजार खोला तो दुनिया के दूरसंचार दिग्गजों ने मुंह मोड़ लिया। होती होगी थ्री जी रोमांचक दूरसंचार तकनीक । मिलती होगी इस पर डाटा, वीडियो की जबर्दस्त स्पीड। चलता होगा इस पर मोबाइल टीवी, मगर दुनिया के दूरसंचार दिग्गज यह सब कुछ देने भारत नहीं आ रहे हैं। उन्हें भारत के उभरते दूरसंचार बाजार ने जरा भी नहंी लुभाया। सरकार पिछले दो वर्षो से थ्री जी रत्न छिपाए बैठी थी। कितनी खींचतान, कितनी लामबंदी! कई बार अंतिम मौके पर आवंटन को टाला गया और जब माल बाजार में बिकने आया तो बड़े ग्राहक नदारद। थ्री जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में विदेशी दिग्गजों की अरुचि यह बताती है कि दूरसंचार क्षेत्र में उदारीकरण को लेकर कहीं न कहीं कुछ समस्या जरूर है। किसी को टू जी लाइसेंस के आवंटनों में उठे विवाद डरा रहे हैं तो किसी को स्पेक्ट्रम की किल्लत। तो किसी को लगता है कि पता नहीं कब नियम बदल जाएं। अब थ्री जी वाली नई तकनीक तो आएगी मगर वही देसी खिलाड़ी सेवा देंगे, जिनकी सेवाओं की गुणवत्ता व नेटवर्क की हालत अब सरदर्द बन चुकी है। सरकार जी ! थ्रीजी से न आपको मोटा राजस्व मिलने की उम्मीद है और न हम यानी उपभोक्ताओं को नई प्रतिस्पर्धा।
पीपीपी की पालकी
पीपीपी यानी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मतलब विकास के लिए निजी क्षेत्र व सरकार की दोस्ती। ..केंद्र से लेकर राज्यों तक उदारीकरण का यह सबसे नया, सबसे बड़ा और सबसे ज्यादा असफल नारा है। केंद्र करीब दो साल से पीपीपी की दुकान सजाए बैठा है, लेकिन निजी कंपनियां करीब फटकती तक नहीं। केंद्र को देख कर राज्यों ने भी अपनी दुकान सजा ली, मगर वहां भी ठन ठन गोपाल। दिखाने को कंपनियों ने दर्जनों अनुबंध तो कर लिये हैं, मगर उसके बाद आगे कुछ भी नहीं है। सरकार के दस्तावेजों में सिर्फ पीपीपी अनुबंधों का आंकड़ा चमकता है, वास्तविक निवेश की सूचना नदारद है। केंद्र के स्तर पर बिजली और सड़क क्षेत्रों में निजी क्षेत्र से दोस्ती दिखती है, लेकिन वह बहुत सीमित है और पीपीपी नहीं बल्कि टेंडरिंग, बीओटी (बिल्ट ओन आपरेट) जैसे वाणिज्यिक अनुबंधों के बूते है। निजी क्षेत्र अभी पीपीपी का गणित समझ नहीं पाया है। कहीं कानून रोड़ा हैं तो कहीं कानून लागू कराने वाले। नियमों का मकड़जाल इतना कठिन है कि कंपनी को टेंडर लेना आसान दिखता है, मगर सरकार के कंधे से कंधा मिलाना मुश्किल। सरकार जी, बताइए तो कि पीपीपी की पालकी उठाने के लिए निजी क्षेत्र कब आगे आएगा?
सरकार की साख में ऐसी कमी अप्रत्याशित है। उम्मीद तो यह थी कि आर्थिक उदारीकरण के दो दशकों के बाद निवेशक ज्यादा मुतमइन होकर निवेश के लिए उत्सुक होंगे, लेकिन यहां तो उलटा हो गया है। सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण भी जब इस स्थिति की तरफ इशारा करता है तो यह सोचना पड़ता है कि नौकरशाही की सुस्त रफ्तार, नियमों को लेकर अनिश्चितता, जंग लगे कानून और भ्रष्टाचार की फलती-फूलती संस्कृति ने मिलकर कहीं सरकार नाम के मजबूत ब्रांड लोकप्रियता तो नहीं घटा दी है। सरकार जी! गंभीरता से सोचिए.. यह साख का सवाल है।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)
रत्नों के भी ग्राहक नहीं
सार्वजनिक उपक्रमों को सरकार ने जब नवरत्नों का आधिकारिक दर्जा दिया था, तब शायद ही उसने इस अंजाम के बारे में सोचा हो। कभी इन रत्नों को खरीदने के लिए निवेशक रुपयों से भरी थैली लिये बाजार में टहलते थे। सार्वजनिकउपक्रमों के शेयरों में निवेश को कमाई में बढ़ोतरी की गारंटी माना जाता था। इनके विनिवेश की चर्चा छिड़ने मात्र से शेयर बाजार बाग-बाग हो जाता था, लेकिन इस बार तो गजब हो गया। एक दो नहीं, बल्कि पांच सरकारी रत्नों के पब्लिक इश्यू शेयर बाजार में ग्राहकों को तरस गए। अंतत: सरकार को जीवन बीमा निगम यानी एलआईसी जैसे अपने वित्तीय दिग्गजों को मोर्चे पर लगाकर खरीद करानी पड़ी। बात हल्की फुल्की कंपनियों की नहीं, बल्कि देश की सबसे बड़ी ताप बिजली कंपनी एनटीपीसी, पनबिजली कंपनी एनएचपीसी, प्रमुख खनिज कंपनी एनएमडीसी और गांवों में बिजली का नेटवर्क बनाने वाली कंपनी आरईसी जैसे सरकारी जवाहरात की है। सिर्फ आयल इंडिया का इश्यू ही आंशिक सफल हुआ है। ये सरकारी कंपनियां शेयर बाजार की सरताज रही हैं क्योंकि इनके पास सुनिश्चित बाजार, मजबूत बैलेंस शीट अलावा सरकार की साख भी थी। मगर निवेशक तो निजी कंपनियों को ज्यादा भरोसेमंद मान रहे हैं। निजी कंपनियों के पब्लिक इश्यू सफल हो रहे हैं और सरकारी औंधे मुंह गिर रहे हैं। सार्वजनिक उपक्रम सतलुज जल विद्युत निगम का पब्लिक इश्यू टल चुका है, सेल, इंजीनियर्स इंडिया के इश्यू अधर में हैं और इंडियन आयल के पब्लिक इश्यू के बारे में पता नहीं है। .. सरकार जी, आसार अच्छे नहीं हैं। यही हाल रहा तो इन रत्नों के जरिए अगले साल विनिवेश के मद में 40,000 करोड़ रुपये कैसे आएंगे?
थ्री जी! माफ करिए जी
भारत ने अपना थ्री जी बाजार खोला तो दुनिया के दूरसंचार दिग्गजों ने मुंह मोड़ लिया। होती होगी थ्री जी रोमांचक दूरसंचार तकनीक । मिलती होगी इस पर डाटा, वीडियो की जबर्दस्त स्पीड। चलता होगा इस पर मोबाइल टीवी, मगर दुनिया के दूरसंचार दिग्गज यह सब कुछ देने भारत नहीं आ रहे हैं। उन्हें भारत के उभरते दूरसंचार बाजार ने जरा भी नहंी लुभाया। सरकार पिछले दो वर्षो से थ्री जी रत्न छिपाए बैठी थी। कितनी खींचतान, कितनी लामबंदी! कई बार अंतिम मौके पर आवंटन को टाला गया और जब माल बाजार में बिकने आया तो बड़े ग्राहक नदारद। थ्री जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में विदेशी दिग्गजों की अरुचि यह बताती है कि दूरसंचार क्षेत्र में उदारीकरण को लेकर कहीं न कहीं कुछ समस्या जरूर है। किसी को टू जी लाइसेंस के आवंटनों में उठे विवाद डरा रहे हैं तो किसी को स्पेक्ट्रम की किल्लत। तो किसी को लगता है कि पता नहीं कब नियम बदल जाएं। अब थ्री जी वाली नई तकनीक तो आएगी मगर वही देसी खिलाड़ी सेवा देंगे, जिनकी सेवाओं की गुणवत्ता व नेटवर्क की हालत अब सरदर्द बन चुकी है। सरकार जी ! थ्रीजी से न आपको मोटा राजस्व मिलने की उम्मीद है और न हम यानी उपभोक्ताओं को नई प्रतिस्पर्धा।
पीपीपी की पालकी
पीपीपी यानी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मतलब विकास के लिए निजी क्षेत्र व सरकार की दोस्ती। ..केंद्र से लेकर राज्यों तक उदारीकरण का यह सबसे नया, सबसे बड़ा और सबसे ज्यादा असफल नारा है। केंद्र करीब दो साल से पीपीपी की दुकान सजाए बैठा है, लेकिन निजी कंपनियां करीब फटकती तक नहीं। केंद्र को देख कर राज्यों ने भी अपनी दुकान सजा ली, मगर वहां भी ठन ठन गोपाल। दिखाने को कंपनियों ने दर्जनों अनुबंध तो कर लिये हैं, मगर उसके बाद आगे कुछ भी नहीं है। सरकार के दस्तावेजों में सिर्फ पीपीपी अनुबंधों का आंकड़ा चमकता है, वास्तविक निवेश की सूचना नदारद है। केंद्र के स्तर पर बिजली और सड़क क्षेत्रों में निजी क्षेत्र से दोस्ती दिखती है, लेकिन वह बहुत सीमित है और पीपीपी नहीं बल्कि टेंडरिंग, बीओटी (बिल्ट ओन आपरेट) जैसे वाणिज्यिक अनुबंधों के बूते है। निजी क्षेत्र अभी पीपीपी का गणित समझ नहीं पाया है। कहीं कानून रोड़ा हैं तो कहीं कानून लागू कराने वाले। नियमों का मकड़जाल इतना कठिन है कि कंपनी को टेंडर लेना आसान दिखता है, मगर सरकार के कंधे से कंधा मिलाना मुश्किल। सरकार जी, बताइए तो कि पीपीपी की पालकी उठाने के लिए निजी क्षेत्र कब आगे आएगा?
सरकार की साख में ऐसी कमी अप्रत्याशित है। उम्मीद तो यह थी कि आर्थिक उदारीकरण के दो दशकों के बाद निवेशक ज्यादा मुतमइन होकर निवेश के लिए उत्सुक होंगे, लेकिन यहां तो उलटा हो गया है। सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण भी जब इस स्थिति की तरफ इशारा करता है तो यह सोचना पड़ता है कि नौकरशाही की सुस्त रफ्तार, नियमों को लेकर अनिश्चितता, जंग लगे कानून और भ्रष्टाचार की फलती-फूलती संस्कृति ने मिलकर कहीं सरकार नाम के मजबूत ब्रांड लोकप्रियता तो नहीं घटा दी है। सरकार जी! गंभीरता से सोचिए.. यह साख का सवाल है।
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)