बजट की फिक्र में दुबले होने से कोई
फायदा नहीं है. आम लोगों के बजट (खर्च) को बनाने या बिगाडऩे वाला बजट अब संसद के
बाहर जीएसटी काउंसिल में बनता है. दरअसल, बजट को लेकर अगर किसी को चिंतित होने की जरूरत है तो वह स्वयं संसद
है. लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था को इस बात की गहरी फिक्रहोनी चाहिए कि भारत की
आर्थिक-वित्तीय नीतियों के निर्धारण में उसकी भूमिका
किस तरह सिमट रही है ?
अमेरिका में सरकार का ठप होना अभी-अभी
टला है. सरकारी खर्च को कांग्रेस (संसद) की मंजूरी न मिलने से पूरे मुल्क की सांस
अधर में टंग गई. लोकतंत्र के दोनों संस्करणों (संसदीय और अध्यक्षीय) में सरकार के
वित्तीय और आर्थिक कामकाज पर जनप्रतिनिधियों की सर्वोच्च संस्थाओं
(संसद-विधानसभाओं) के नियंत्रण के नियम पर्याप्त स्पष्ट हैं.
सरकार के वित्तीय व्यवहार पर संसद-विधानसभाओं
का नियंत्रण दो सिद्धांतों पर आधारित हैः एक—प्रतिनिधित्व के बिना टैक्स नहीं और
दूसरा—सरकार के बटुए यानी खर्च पर जनता के नुमाइंदों का नियंत्रण. इसलिए भारत में
सरकारें (केंद्र व राज्य) संसद की मंजूरी के बिना न कोई टैक्स लगा सकती हैं और न
खर्च की छूट है. बजट (राजस्व व खर्च) की संसद से मंजूरी—विनियोग विधेयक, अनुदान मांगों, वित्त विधेयक, कंसोलिडेटेड फंड (समेकित निधि)—के जरिए
ली जाती है. भारत में सरकार संसद की मंजूरी के बिना केवल 500 करोड़ रु. खर्च कर सकती है और वह भी
आकस्मिकता निधि से, जिसका
आकार 2005 में 50 करोड़ रु. से बढ़ाकर 500 करोड़ रु. किया गया था.
पिछले एक दशक में सरकार के खर्च और
राजस्व का ढांचा बदलने से सरकारी वित्त पर संसद और विधानसभाओं का नियंत्रण कम होता
गया है. जीएसटी सबसे ताजा नमूना है.
- जीएसटी से पहले तक अप्रत्यक्ष कर वित्त
विधेयक का हिस्सा होते थे, संसद
में बहस के बाद इनमें बदलाव को मंजूरी मिलती थी. खपत पर टैक्स की पूरी प्रक्रिया, अब संसद-विधानसभाओं के नियंत्रण से
बाहर है. जीएसटी कानून को मंजूरी देने के बाद जनता के चुने हुए नुमाइंदों ने
इनडाइरेक्ट टैक्स पर नियंत्रण गंवा दिया. जीएसटी काउंसिल संसद नहीं है. यहां दो
दर्जन मंत्री मिलकर हर महीने टैक्स की दरें बदल देते हैं. इन बदलावों का क्या तर्क
है? इससे किसे फायदा है? जीएसटी काउंसिल में होने वाली चर्चा
सार्वजनिक क्यों नहीं होती? टैक्स
लगाने के लिए प्रतिनिधित्व की शर्त जीएसटी काउंसिल पर कितनी खरी उतरती है? जीएसटी के सदंर्भ में संसद और सीएजी की
क्या भूमिका होगी? संसद
और विधानसभाओं को इन सवालों पर चर्चा करनी चाहिए.
- भारत में सरकारों की खर्च बहादुरी
बेजोड़ है. कर्ज पर निर्भरता बढ़ने से ब्याज भुगतान हर साल नया रिकॉर्ड बनाते हैं.
कर्ज पर ब्याज की अदायगी बजट खर्च का 18 फीसदी है, जिस
पर संसद की मंजूरी नहीं (चाज्र्ड एक्सपेंडीचर) ली जाती. राज्य सरकारों, पंचायती राज संस्थाओं और अन्य
एजेंसियों के दिए जाने वाले अनुदान बजट खर्च में 28 फीसदी का हिस्सा रखते हैं. सीएजी की
पिछली कई रिपोर्ट बताती रही हैं कि करीब 20 फीसदी अनुदानों पर संसद में मतदान
नहीं होता यानी कि लगभग 38
फीसदी (ब्याज और अनुदान) खर्च संसद के नियंत्रण से बाहर है.
- रेल बजट के आम बजट में विलय (2017) से रेलवे का तो कोई भला नजर नहीं आया
लेकिन रेलवे बजट पर भी संसद का सीधा नियंत्रण खत्म हो गया. रेल का खर्च और राजस्व
किसी दूसरे विभाग की तरह बजट का हिस्सा है.
- पिछले तीन साल में वित्तीय फैसलों पर, राज्यसभा से कन्नी काटने के लिए मनी
बिल (सिर्फ लोकसभा) का इस्तेमाल खूब हुआ है. गंभीर वित्तीय फैसलों में अब पूरी
संसद भी शामिल नहीं होती.
उदारीकरण के बाद आर्थिक फैसलों में
पारदर्शिता के लिए संसद की भूमिका बढऩी चाहिए थी लेकिन...
- स्वदेशी को लेकर आसमान सिर पर उठाने
वाले क्या कभी पूछना चाहेंगे कि विदेशी निवेश के उदारीकरण के फैसलों में संसद की
क्या भूमिका है,
इन फैसलों को संसद कभी परखती क्यों
नहीं है.
- अंतरराष्ट्रीय निवेश, व्यापार और टैक्स रियायत संधियां तो
संसद का मुंह भी नहीं देखतीं. विश्व के कई देशों में इन पर संसद की मंजूरी ली जाती
है.
जब आर्थिक फैसलों में संसद की भूमिका
का यह हाल है तो विधानसभाओं की स्थिति क्या होगी? केंद्रीय बजट के करीब एक-तिहाई से
ज्यादा खर्च के लिए जब सरकार को संसद से पूछने की जरूरत न पड़े और एक तिहाई राजस्व
जुटाने के लिए टैक्स लगाने या बदलने का काम संसद के बाहर होता हो तो चिंता उन्हें
करनी चाहिए जो लोकतंत्र में संसद के सर्वशक्तिमान होने की कसमें खाते हैं.