भारत के लिए चुनाव, कुंभ और महामारी में क्या अंतर या
समानता है? बात इन आयोजनों के सुपर स्प्रेडर बनने
के खतरे की नहीं है. हमें तो इस बात पर अचरज होना चाहिए कि जो मुल्क दुनिया का
सबसे बड़ा और लंबा चुनाव करा लेता है, भरपूर कोविड के बीच कुंभ जैसे मेले और आइपीएल जैसे भव्य महंगे तमाशे
जुटा लेता है वह महामारी की नसीहतों के बावजूद अपने थोड़े से लोगों को अस्पताल, दवाएं और ऑक्सीजन नहीं दे पाता.
डारोन एसीमोग्लू और जेम्स जे राबिंसन
ने दुनिया के इतिहास, राजनीति
और सरकारों के फैसले खंगालकर अपनी मशहूर किताब व्हाइ नेशंस फेल में बताया है कि
दुनिया के कुछ देशों में लोग हमेशा इसलिए गरीब और बदहाल रहते हैं क्योंकि वहां की
राजनैतिक और आर्थिक संस्थाएं बुनियादी तौर पर शोषक हैं, इन्हें लोगों के कल्याण की जिम्मेदारी
और संवेदनशीलता के मूल्यों पर बनाया ही नहीं जाता, इसलिए संकटों में व्यवस्थाएं ही सबसे
बड़ी शोषक बन जाती हैं.
कोविड की दूसरी लहर ने हमें बताया कि
एसीमोग्लू और राबिंसन क्यों सही हैं? क्या हमारे पास क्षमताएं नहीं थीं? क्या संसाधनों का टोटा था? नहीं. शायद हमारा दुर्भाग्य हमारी
संवेदनहीन सियासत और उसकी संस्थाएं लिख रही हैं.
कोविड की पहली लहर के वक्त स्वास्थ्य
क्षमताओं की कमी सबसे बड़ी चुनौती थी. अप्रैल 2020 में 15,000 करोड़ रु. का पैकेज आया. दावे हुए कि
बहुत तेजी से विराट हेल्थ ढांचा बना लिया गया है तो फिर कहां गया वह सब?
बहुत-से सवाल हमें मथ रहे हैं जैसे कि
● अप्रैल से अक्तूबर तक ऑक्सीजन वाले बिस्तरों
की संख्या 58,000 से बढ़ाकर 2.65 लाख करने और आइसीयू और वेंटीलेटर बेड
की संख्या तीन गुना करने का दावा हुआ था. कहा गया था कि ऑक्सीजन, बडे अस्थायी अस्पताल, पर्याप्त जांच क्षमताएं, क्वारंटीन सेंटर और कोविड सहायता
केंद्र हमेशा तैयार हैं. लेकिन एक बार फिर अप्रैल में जांच में वही लंबा समय, बेड, ऑक्सीजन, दवा की कमी पहले से ज्यादा और ज्यादा
बदहवास और भयावह!!
● कोविड के बाद बाजार में नौ नई
वेंटीलेटर कंपनियां आईं. उत्पादन क्षमता 4 लाख वेंटीलेटर तक बढ़ी लेकिन पता चला
कि मांग तैयारी सब खो गई है. उद्योग बीमार हो गया.
● भारत में स्वास्थ्य क्षमताएं बनी भी थीं या सब कुछ कागजी था अथवा कुंभ के मेले की
तरह तंबू उखड़ गए? सनद
रहे कि दुनिया के सभी देशों ने कोविड के बाद स्वास्थ्य ढांचे को स्थानीय बना दिया
क्योंकि खतरा गया नहीं है.
● स्वास्थ्यकर्मियों की कमी (1,400 लोगों पर एक डॉक्टर, 1,000 लोगों पर 1.7 नर्स) सबसे बड़ी चुनौती थी, यह जहां की तहां रही और एक साल बाद
पूरा तंत्र थक कर बैठ गया.
क्षमताओं का दूसरा पहलू और ज्यादा
व्याकुल करने वाला है.
● बीते अगस्त तक डॉ. रेड्डीज, साइजीन और जायडस कैडिला के बाजार में
आने के बाद (कुल सात उत्पादक) प्रमुख दवा रेमिडिसविर की कमी खत्म हो चुकी थी.
अप्रैले में फैवीफ्लू की कालाबाजारी होने लगी. इंजेक्शन न मिलने से लोग मरने लगे.
● दुनिया की वैक्सीन फार्मेसी में किल्लत
हो गई क्योंकि अन्य देशों की सरकारों ने जरूरतों का आकलन कर दवा, वैक्सीन की क्षमताएं देश के लिए
सुरक्षित कर लीं. कंपनियों से अनुबंध कर लिए. और हमने वैक्सीन राष्ट्रवाद का
प्रचार किया?
इतना तो अब सब जानते हैं कि कोविड को
रोकने के लिए एजेंसियों के बीच संवाद, संक्रमितों की जांच और उनके जरिए प्रसार (कांटैक्ट ट्रेसिंग) को
परखने का मजबूत और निरंतर चलने वाला तंत्र चाहिए लेकिन बकौल प्रधानमंत्री सरकारें
जांच घटाकर और जीत दिखाने की होड़ में लापरवाह हो गईं. यह आपराधिक है कि करीब 1.7 लाख मौतों के बावजूद संक्रमण जांच, कांटैक्ट ट्रेसिंग और सूचनाओं के
आदान-प्रदान का कोई राष्ट्रव्यापी ढांचा या तंत्र नहीं बन सका.
दवा, ऑक्सीजन, बेड के लिए तड़पते लोग, गर्वीले शहरों में शवदाह गृहों पर कतारें...विश्व गुरु, महाशक्ति, डिजिटल सुपरपावर या दुनिया की सबसे
पुरानी सभ्यता का यह चेहरा खौफनाक है. यदि हम ऐसे निर्मम उत्सवप्रिय देश में बदल रहे हैं
जहां सरकारें एक के बाद एक भव्य महाकुंभ, महाचुनाव और आइपीएल करा लेती हैं लेकिन महामारी के बीच भी अपने लोगों
को अस्पताल, दवाएं, आक्सीजन यहां तक कि शांति से अंतिम
यात्रा के लिए श्मशान भी नहीं दिला पातीं तो हमें बहुत ज्यादा चिंतित होने की
जरूरत है.
भारत में किसी भी वक्त अधिकतम दो
फीसदी (बीमार,
स्वस्थ) से ज्यादा आबादी संक्रमण की
चपेट में नहीं थी लेकिन एक साल गुजारने और भारी खर्च के बाद 28 राज्यों और विशाल केंद्र सरकार की
अगुआई में कुछ नहीं बदला. भरपूर टैक्स चुकाने और हर नियम पालन के बावजूद यदि हम यह
मानने पर मजबूर किए जा रहे हैं कि खोट हमारी किस्मत में नहीं, हम ही गए गुजरे हैं (जूलियस
सीजर-शेक्सपियर) तो अब हमें अपने सवाल, निष्कर्ष और आकलन बदलने होंगे क्योंकि अब व्यवस्था ही जानलेवा बन गई
है.