गोल्ड रश फिल्म में चार्ली चैप्लिन भूख के कारण जूता उबाल कर खाते हैं. उसका एक दृश्य है जिसमें सोने की तलाश में निकले (खनिक) चैप्लिन को बर्फीले बियाबान में एक साइनबोर्ड दिखता है. रास्ता भूल चुके चैप्लिन दौड़ कर उसके पास पहुंचते हैं तो उन्हें पता चलता कि वह दरअसल एक व्यक्ति के कब्र की सूचना है जो बर्फीले तूफान फंस कर मर गया था.
चैप्लिन कहते थे कि जिंदगी करीब से देखने पर त्रासदी है और दूर से देखने
पर कॉमेडी. कोविड के बाद भारत में विकास के ताजे
आंकड़े भी ऐसे ही हैं. मंदी आधिकारिक
(लगातार दो तिमाहियों में नकारात्मक विकास दर) तौर आ चुकी है लेकिन कंपनियों के मुनाफों में ग्रोथ देखते बनती है.
गांव-शहर के बाजारों में मांग की अंतहीन अमावस
है अलबत्ता शेयर बाजार में चिरंतन धनतेरस जारी है.
जुलाई-सितंबर के दौरान अर्थव्यवस्था
में कुछ चेतना लौटती दिखी लेकिन ठीक उसी तिमाही में बेरोजगारी (तिमाही और मासिक) ज्यादा गहरा गई. उसी तिमाही में शेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनियों का मुनाफा (सालाना आधार पर) 129 फीसद बढ़ा जो मंदियों के पिछले भारतीय
इतिहास में सबसे ज्यादा है.
मांग के बिना ग्रोथ, मुनाफों के बावजूद भयानक
बेकारी! क्या है यह उलटबांसी?
लॉकडाउन ने बड़ी कंपनियों की खूब मदद की. खर्च कम हो गए, कर्ज का भुगतान टाल
दिया गया, टैक्स में रियायतें पहले से मिल रही थीं. कंपनियों की बिक्री नहीं बढ़ी (टॉपलाइन) यानी मांग लौटी लेकिन लॉकडाउन में हुई बचत और सरकारी रियायत से मुनाफे फूल
गए यानी बॉटमलाइन बेहतर हो गई. रिकॉर्ड बेरोजगारी ने साबित किया कि कॉर्पोरेट मुनाफों और रोजगार के बीच कोई रिश्ता नहीं है.
सीएमआइई के अध्ययन के मुताबिक, कोविड की मार के बावजूद 2020-21 के पहले छह माह में सभी
(शेयर बाजार सहित) कंपनियों के मुनाफे करीब
24 फीसद बढ़े अलबत्ता वेतन में बढ़ोतरी नगण्य थी. मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों ने सितंबर की तिमाही मुनाफे में करीब 18 फीसद बढ़त के बदले वेतन में कटौती की. बैंकिंग और सूचना
तकनीक कंपनियों के अलावा सभी क्षेत्रों में जून और सितंबर की तिमाही में वेतन
9 और 6 फीसद गिरे.
नतीजतन अक्तूबर में 55 लाख नए बेरोजगार जुड़े.
नवंबर में बेकारी दर नई ऊंचाई पर पहुंची. रोजगार
मिलने की गति जून के बाद न्यूनतम हो गई. अक्तूबर में गांवों में
अस्थायी रोजगार भी कम हुए (सीएमआइई). सनद
रहे कि इसी दौरान दो करोड़ मध्य वर्गीय नौकरियां गईं.
भारत में श्रम लागत का हिस्सा है इसलिए कंपनियों ने नौकरियां-वेतन काटकर लागत में दोगुनी तक कमी दर्ज की है,
जबकि अन्य देशों में सरकारों की सहायता से कंपनियों को रोजगार बचाए.
कर्मचारी अभागे थे निवेशक नहीं. हर तरह से मंदी के बावजूद इन कृत्रिम मुनाफों ने शेयर बाजारों को रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंचाया, अंतरिम लाभांश बांटे गए,
कंपनियों ने अपने शेयर वापस (बाइ-बैक) किए और निवेशकों ने खूब मुनाफा कमाया.
खेती ने जीडीपी को पूरी तरह ध्वस्त होने से बचाया है. एग्री कंपनियों के मुनाफे और शेयर मूल्य नए कीर्तिमान
बना रहे हैं. निवेशकों पर लक्ष्मी मेहरबान हैं और किसान सड़क
पर हैं!
कंपनियां कमा रही हैं तो अगली तीन-चार
तिमाहियों में जीडीपी उबरने की उम्मीद क्यों नहीं है? वजह देश
के तिहाई रोजगार (11 करोड़) छाटे उद्योगों
से आते हैं जो जीडीपी का 29 फीसद (फैक्ट्री
उत्पादन में 45 और सर्विसेज में 25 फीसद)
का हिस्सा रखते हैं.
आत्मनिर्भर पैकेज ने बताया कि सरकार की गारंटी के बावजूद छोटे उद्योग कर्ज
लेने की हिम्मत नहीं जुटा सके. सनद रहे कि भारत में केवल
20 फीसद छोटे उद्योग की पहुंच बैंकों तक है.
तो आगे क्या होगा?
• जीडीपी के सबसे बड़े आधार टूट गए हैं. छोटे उद्योगों के उत्पादन (रोजगार) और मध्य वर्ग के लिए संगठित क्षेत्र में नौकरियां में गिरावट के कारण भारतीय
अर्थव्यवस्था की रिकवरी बेहद धीमी होगी
• बड़ी कंपनियां अकेले मांग को पटरी पर नहीं ला सकतीं इसलिए
वे मुनाफे-बचत से अधिग्रहण के जरिए बाजार
कब्जाएंगी
• नुक्सान भरपाई लिए फैक्ट्री उत्पादों की कीमतें भी बढ़ने
लगी हैं, यानी मरियल मांग और टूटती कमाई पर महंगाई का बोझ आ ही
गया. इसलिए बाजार में खपत या मांग नहीं है.
चेकस्लोवाकिया के पूर्व राष्ट्रपति और लेखक वाक्लाव हॉवेल ने लिखा था कि
यह हास्यबोध ही है जो हालात के बेतुके और विद्रूप आयामों को पढ़ने में हमारी मदद करता
है. हम खुद पर और दूसरे पर हंस कर ही वक्त की पैरोडी और परिस्थितियों का व्यंग्य समझ सकते हैं.
अगले 9 से 12 महीनों तक विकास दर को पंख नहीं उगने वाले. अर्थव्यवस्था
अपनी विसंगतियों, विद्रूपताओं और परस्पर विरोधी संकेतों से हमें
चौकाएगी. गए हुए रोजगारों और वेतन कटौतियों की वापसी के बाद ही
ग्रोथ की गिनती शुरू होगी. तभी मौसम में बदलाव महसूस होगा.
तब सहना और हंसना हमारे वश में है.