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Friday, December 4, 2020

आंगन सूखा, घर में पानी

 

गोल्ड रश फिल्म में चार्ली चैप्लिन भूख के कारण जूता उबाल कर खाते हैं. उसका एक दृश्य है जिसमें सोने की तलाश में निकले (खनिक) चैप्लिन को बर्फीले बियाबान में एक साइनबोर्ड दिखता है. रास्ता भूल चुके चैप्लिन दौड़ कर उसके पास पहुंचते हैं तो उन्हें पता चलता कि वह दरअसल एक व्यक्तिके कब्र की सूचना है जो बर्फीले तूफान फंस कर मर गया था.

चैप्लिन कहते थे कि जिंदगी करीब से देखने पर त्रासदी है और दूर से देखने पर कॉमेडी. कोविड के बाद भारत में विकास के ताजे आंकड़े भी ऐसे ही हैं. मंदी आधिकारिक (लगातार दो तिमाहियों में नकारात्मक विकास दर) तौर आ चुकी है लेकिन कंपनियों के मुनाफों में ग्रोथ देखते बनती है. गांव-शहर के बाजारों में मांग की अंतहीन अमावस है अलबत्ता शेयर बाजार में चिरंतन धनतेरस जारी है.

जुलाई-सितंबर के दौरान अर्थव्यवस्था में कुछ चेतना लौटती दिखी लेकिन ठीक उसी तिमाही में बेरोजगारी (तिमाही और मासिक) ज्यादा गहरा गई. उसी तिमाही में शेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनियों का मुनाफा (सालाना आधार पर) 129 फीसद बढ़ा जो मंदियों के पिछले भारतीय इतिहास में सबसे ज्यादा है.

मांग के बिना ग्रोथ, मुनाफों के बावजूद भयानक बेकारी! क्या है यह उलटबांसी?

लॉकडाउन ने बड़ी कंपनियों की खूब मदद की. खर्च कम हो गए, कर्ज का भुगतान टाल दिया गया, टैक्स में रियायतें पहले से मिल रही थीं. कंपनियों की बिक्री नहीं बढ़ी (टॉपलाइन) यानी मांग लौटी लेकिन लॉकडाउन में हुई बचत और सरकारी रियायत से मुनाफे फूल गए यानी बॉटमलाइन बेहतर हो गई. रिकॉर्ड बेरोजगारी ने साबित किया कि कॉर्पोरेट मुनाफों और रोजगार के बीच कोई रिश्ता नहीं है.

सीएमआइई के अध्ययन के मुताबिक, कोविड की मार के बावजूद 2020-21 के पहले छह माह में सभी (शेयर बाजार सहित) कंपनियों के मुनाफे करीब 24 फीसद बढ़े अलबत्ता वेतन में बढ़ोतरी नगण्य थी. मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों ने सितंबर की तिमाही मुनाफे में करीब 18 फीसद बढ़त के बदले वेतन में कटौती की. बैंकिंग और सूचना तकनीक कंपनियों के अलावा सभी क्षेत्रों में जून और सितंबर की तिमाही में वेतन 9 और 6 फीसद गिरे.

नतीजतन अक्तूबर में 55 लाख नए बेरोजगार जुड़े. नवंबर में बेकारी दर नई ऊंचाई पर पहुंची. रोजगार मिलने की गति जून के बाद न्यूनतम हो गई. अक्तूबर में गांवों में अस्थायी रोजगार भी कम हुए (सीएमआइई). सनद रहे कि इसी दौरान दो करोड़ मध्य वर्गीय नौकरियां गईं.

भारत में श्रम लागत का हिस्सा है इसलिए कंपनियों ने नौकरियां-वेतन काटकर लागत में दोगुनी तक कमी दर्ज की है, जबकि अन्य देशों में सरकारों की सहायता से कंपनियों को रोजगार बचाए.

कर्मचारी अभागे थे निवेशक नहीं. हर तरह से मंदी के बावजूद इन कृत्रिम मुनाफों ने शेयर बाजारों को रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंचाया, अंतरिम लाभांश बांटे गए, कंपनियों ने अपने शेयर वापस (बाइ-बैक) किए और निवेशकों ने खूब मुनाफा कमाया.

खेती ने जीडीपी को पूरी तरह ध्वस्त होने से बचाया है. एग्री कंपनियों के मुनाफे और शेयर मूल्य नए कीर्तिमान बना रहे हैं. निवेशकों पर लक्ष्मी मेहरबान हैं और किसान सड़क पर हैं!

कंपनियां कमा रही हैं तो अगली तीन-चार तिमाहियों में जीडीपी उबरने की उम्मीद क्यों नहीं है? वजह देश के तिहाई रोजगार (11 करोड़) छाटे उद्योगों से आते हैं जो जीडीपी का 29 फीसद (फैक्ट्री उत्पादन में 45 और सर्विसेज में 25 फीसद) का हिस्सा रखते हैं.

आत्मनिर्भर पैकेज ने बताया कि सरकार की गारंटी के बावजूद छोटे उद्योग कर्ज लेने की हिम्मत नहीं जुटा सके. सनद रहे कि भारत में केवल 20 फीसद छोटे उद्योग की पहुंच बैंकों तक है.

तो आगे क्या होगा?

जीडीपी के सबसे बड़े आधार टूट गए हैं. छोटे उद्योगों के उत्पादन (रोजगार) और मध्य वर्ग के लिए संगठित क्षेत्र में नौकरियां में गिरावट के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था की रिकवरी बेहद धीमी होगी

बड़ी कंपनियां अकेले मांग को पटरी पर नहीं ला सकतीं इसलिए वे मुनाफे-बचत से अधिग्रहण के जरिए बाजार कब्जाएंगी

नुक्सान भरपाई लिए फैक्ट्री उत्पादों की कीमतें भी बढ़ने लगी हैं, यानी मरियल मांग और टूटती कमाई पर महंगाई का बोझ आ ही गया. इसलिए बाजार में खपत या मांग नहीं है.

चेकस्लोवाकिया के पूर्व राष्ट्रपति और लेखक वाक्लाव हॉवेल ने लिखा था कि यह हास्यबोध ही है जो हालात के बेतुके और विद्रूप आयामों को पढ़ने में हमारी मदद करता है. हम खुद पर और दूसरे पर हंस कर ही वक्त की पैरोडी और परिस्थितियों का व्यंग्य समझ सकते हैं.

अगले 9 से 12 महीनों तक विकास दर को पंख नहीं उगने वाले. अर्थव्यवस्था अपनी विसंगतियों, विद्रूपताओं और परस्पर विरोधी संकेतों से हमें चौकाएगी. गए हुए रोजगारों और वेतन कटौतियों की वापसी के बाद ही ग्रोथ की गिनती शुरू होगी. तभी मौसम में बदलाव महसूस होगा. तब सहना और हंसना हमारे वश में है.

Friday, November 6, 2020

ध्यान किधर है?

 

भारतीय सीमा में किसी केघुसे होने या न होनेकी उधेड़बुन के बीच जब मंत्री-अफसर हथियारों की खरीद के लिए मॉस्को-दिल्ली एक कर रहे थे अथवा टिकटॉक पर पाबंदी के बाद स्वदेशी नारेबाज चीन की अर्थव्यवस्था के तहस-नहस होने की आकाशवाणी कर रहे थे या कि डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका को चीन के खतरे से डरा रहे थे, उस समय चीन क्या कर रहा था?

यह सवाल विभाजित, बीमार और मंदी के शिकार अमेरिका में नए राष्ट्रपति के सत्तारोहण के बाद होने वाली सभी व्याख्याओं पर हावी होने वाला है.

इतिहासकारों के आचार्य ब्रिटिश इतिहासज्ञ एरिक हॉब्सबॉम ने लिखा था कि हमारा भविष्य सबसे करीबी अतीत से सबसे ज्यादा प्रभावित होता है, बहुत पुराने इतिहास से नहीं.

कोविड की महामारी और चीन की महाशक्ति संपन्नता ताजा इतिहास की सबसे बड़ी घटनाएं हैं. बीजिंग दुनिया की नई धुरी है. अमेरिकी राष्ट्रपति को भी चीन के आईने में ही पढ़ा जाएगा. इसलिए जानना जरूरी है कि कोविड के बाद हमें कैसा चीन मिलने वाला है. 

मई में जब अमेरिका में कोविड से मौतों का आंकड़ा एक लाख से ऊपर निकल रहा था और भारत में लाखों मजदूर सड़कों पर भटक रहे थे, उस समय चीन सुन त्जु की यह सीख मान चुका था कि दुनिया की सबसे मजबूत तलवार भी नमकीन पानी में जंग पकड़ लेती है.

मई में चीन ने चोला बदल सुधारों की बुनियाद रखते हुए सालाना आर्थिक कार्ययोजना में जीडीपी को नापने का पैमाना बदल दिया. हालांकि मई-जून तक यह दिखने लगा था कि चीन सबसे तेजी से उबरने वाली अर्थव्यवस्था होगी लेकिन अब वह तरक्की की पैमाइश उत्पादन में बढ़ोतरी (मूल्य के आधार पर) से नहीं करेगा.

चीन में जीडीपी की नई नापजोख रोजगार में बढ़ोतरी से होगी. कार्ययोजना के 89 में 31 लक्ष्य रोजगार बढ़ाने या जीविका से संबंधित हैं, जिनमें अगले साल तक ग्रामीण गरीबी को शून्य पर लाने का लक्ष्य शामिल है.

चीन अब छह फीसद ग्रोथ नहीं बल्कि  जनता के लिए छह गारंटियां (रोजगार, बुनियादी जीविका, स्वस्थ प्रतिस्पर्धी बाजार, भोजन और ऊर्जा की आपूर्ति, उत्पादन आपूर्ति तंत्र की मजबूती और स्थानीय सरकारों को ज्यादा ताकत) सुनिश्चित करेगा.

चीन अपने नागरिकों को प्रॉपर्टी, निवास, निजता, अनुबंध, विवाह और तलाक व उत्तराधिकार के नए और स्पष्ट अधिकारों से लैस करने जा रहा है. 1950 से अब तक आठ असफल कोशिशों के बाद इसी जून में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने कानूनी नागरिक अधिकारों की समग्र संहिता को मंजूरी दे दी. यह क्रांतिकारी बदलाव अगले साल 1 जनवरी से लागू होगा.

चीन की विस्मित करने वाली ग्रोथ का रहस्य शंघाई या गुआंग्जू की चमकती इमारतों में नहीं बल्कि किसानों को खुद की खेती करने व उपज बेचने के अधिकार (ऐग्री कम्यून की समाप्ति) और निजी उद्यम बनाने की छूट में छिपा था. आबादी की ताकत के शानदार इस्तेमाल से वह निर्यात का सम्राट और दुनिया की फैक्ट्री बन गया. जीविका, रोजगार और कमाई पर केंद्रित सुधारों का नया दौर घरेलू खपत और मांग बढ़ाकर अर्थव्यवस्था की ताकत में इजाफा करेगा.

चीन की वैश्विक महत्वाकांक्षाएं गोपनीय नहीं हैं. नए सुधारों की पृष्ठभूमि में विशाल विदेशी मुद्रा भंडार, दुनिया में सबसे बड़ी उत्पादन क्षमताएं, विशाल कंपनियां, आधुनिक तकनीक और जबरदस्त रणनीतिक पेशबंदी मौजूद है. लेकिन उसे पता है कि बेरोजगार और गरीब आबादी सबसे बड़ी कमजोरी है. दुनिया पर राज करने के लिए अपने करोड़ों लोगों की जिंदगी बेहतर करना पहली शर्त है, वरना तकनीक से लैस आबादी का गुस्सा सारा तामझाम ध्वस्त कर देगा.

कोविड के बाद दुनिया को जो अमेरिका मिलेगा वह पहले से कितना फर्क होगा यह कहना मुश्किल है लेकिन जो चीन मिलने वाला है वह पहले से बिल्कुल अलग हो सकता है. अपनी पहली छलांग में चीन ने पूंजीवाद का विटामिन खाया था. अब दूसरी उड़ान के लिए उसे लोकतंत्र के तौर-तरीकों से परहेज नहीं है. नया उदार चीन मंदी के बोझ से घिसटती दुनिया और विभाजित अमेरिका के लिए रोमांचक चुनौती बनने वाला है.

चीन के इस बदलाव में भारत के लिए क्या नसीहत है?
सुन त्जु कहते हैं कि दुश्मन को जानने के लिए पहले अपना दुश्मन बनना पड़ता है यानी अपनी कमजोरियां स्वीकार करनी होती हैं. निर्मम ग्रोथ सब कुछ मानने वाला चीन भी अगर तरक्की की बुनियाद बदल रहा है तो फिर भयानक संकट के बावजूद हमारी सरकार नीतियों, लफ्फाजियों, नारों, प्रचारों का पुराना दही क्यों मथ रही है, जिसमें मक्खन तो दूर महक भी नहीं बची है.
 

इतिहास बड़ी घटनाओं से नहीं बल्किउन पर मानव जाति की प्रतिक्रियाओं से बनता है. महामारी और महायुद्ध बदलाव के सबसे बड़े वाहक रहे हैं. लेकिन बड़े परिवर्तन वहीं हो सकते हैं जहां नेता अगली पीढ़ी की फिक्र करते हैं, अगले चुनाव की नहीं.

सनद रहे कि अब हमारे पास मौके गंवाने का मौका भी नहीं बचा है.

Saturday, September 28, 2019

मंदी की जड़


·       भारत में सबसे ज्यादा निजी निवेश उस वक्त आया जब कॉर्पोरेट इनकम टैक्स की दर 39 से 34 फीसद के बीच (2000 से 2010) थीसनद रहे कि कंपनियां मांग देखकर निवेश करती हैंटैक्स तो वे उपभोक्ताओं के साथ बांट देती हैं

·       पिछले चार साल में खपत को विश्व रिकॉर्ड बनाना चाहिए था क्योंकि महंगाई रिकॉर्ड न्यूनतम स्तर पर है

·       ऊंचा टैक्सअगरलोगों को खरीद से रोकता है तो फिर जीएसटी के तहत टैक्स में कटौती के बाद मांग कुलांचे भरनी चाहिए थी

·       जनवरी 2016 में वेतन आयोग, 2018-19 में लोगों के हाथ में तीन लाख करोड़ रुपए (डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफरबीते बरस से 60 फीसद ज्यादादिए और नकद किसान सहायता व मनरेगामगर मांग नहीं बढ़ी 

·       कर्ज पर ब्याज की दर पिछले एक साल से घटते हुए अब पांच साल के न्यूनतम स्तर पर है

·       2014-19 के बीच केंद्र का खर्च 17 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर करीब 24 लाख करोड़ रुपए हो गयावित्त आयोग की सिफारिशों के तहत राज्यों को ज्यादा संसाधन मिले

·       बकौल प्रधानमंत्रीपिछले पांच साल में रिकॉर्ड विदेशी निवेश हुआ हैशेयर बाजारों में ‌बड़े पैमाने पर विदेशी पूंजी आई है

... लेकिन 2017 में भारत की अर्थव्यवस्था जो 8.2 फीसद से दौड़ रही थी अब पांच फीसद पर है.

ताजा मंदी कठिन पहेली बन रही हैपिछले छह-सात वर्ष में आपूर्ति के स्तर पर वह सब कुछ हुआ है जिसके कारण खपत को लगातार बढ़ते रहना चाहिए थालेकिन 140 करोड़ उपभोक्ताओं के बाजार की बुनियाद यानी  मांग टूट गई है.

कार-मकान को उच्च मध्य वर्ग की मांग मानकर परे रख दें तो भी साबुन-तेल-मंजन की खपत में 15 साल की (क्रेडिट सुइस रिपोर्टसबसे गहरी मंदीक्यों?

उत्पादों की बिक्रीटैक्सजीडीपी और आम  लोगों की कमाई के आंकड़ों का पूरा परिवार गवाह है कि यह मंदी विशाल ग्रामीणकस्बाई अर्थव्यवस्था में आय और रोजगार में अभूतपूर्व गिरावट से निकली है.

2019 में कृषि‍ जीडीपी 15 साल के न्यूनतम स्तर पर (3 फीसदपर आ गयानोटबंदी ने गांवों को तोड़ दिया. 2016 के बाद से फसलों के वाजिब दाम नहीं मिलेमहंगाई के आंकड़ों में उपज की कीमतें दस साल के निचले स्तर पर हैंअनाजों की उपज कृषि‍ जीडीपी में केवल 18 फीसद की‍ हिस्सेदार हैंइसलिए समर्थन मूल्य बढ़ने का असर सीमित रहा.

2016 के बाद से ग्रामीण आय (14 करोड़ खेतिहर श्रमिककेवल दो फीसद बढ़ी जबकि शेष अर्थव्यवस्था में 12 फीसदनतीजतन गांवों में आय बढ़ने की दर दस साल के सबसे निचले स्तर पर है.

जीडीपी की नई शृंखला (ग्रॉस वैल्यू एडिशनके मुताबिक,  2012-17 के बीच खेती में बढ़ी हुई आय का केवल 15.7 फीसद हिस्सा श्रम करने वालों को मिला जबकि 84 फीसद उनके पास गया जिनकी पूंजी खेती में लगी थीइस दौरान हुई पैदावार का जितना मूल्य बढ़ा उसका केवल 2.87 फीसद हिस्सा मजदूरी बढ़ाने पर खर्च हुआइंडिया रेटिंग्स मानती है कि इस दौरान गरीबी बढ़ी है.

2012-18 के बीच भारत में कम से कम 2.9 करोड़ रोजगार बनने चाहिए थेजो खेतीरोजगार गहन उद्योगों (भवन निर्माणकपड़ाचमड़ाव्यापारसामुदायिक सेवाएंसे आने थेइस बीच नोटबंदी और जीएसटी ने छोटी-मझोली (कुल 585 लाख प्रतिष्ठान—95.5 फीसद में पांच से कम कामगारछठी आर्थिक जनगणना 2014) असंगठित अर्थव्यवस्था को तोड़ दियाजो भारत में लगभग 85 फीसद रोजगार देता हैगांवों को शहरों से जाने वाले संसाधन भी रुक गएजबकि शहरों से बेकार लोग गांव वापस पहुंचने लगे

कर्ज में फंसनेप्रतिस्पर्धा सिकुड़ने और नियमों में बदलाव (ईकॉमर्सके कारण बड़ी कंपनियों के बंद होने से नगरीय मध्य वर्ग भी बेकारी में फंस गयायही वजह थी कि 2017-18 में बेकारी की दर 6.1 फीसद यानी 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर (एनएएसओपर पहुंच गई जबकि जीडीपी 7.5 फीसद की ऊंचाई पर था.

भारत का श्रम बाजार अविकसित हैवेतन-मजदूरी कम हैजीडीपी (जीवीएके ताजा आंकड़ों के मुताबिकअर्थव्यवस्था में जितनी आय बनती है उसका केवल एक-तिहाई वेतन और मजदूरी में जाता हैग्रामीण और अर्धनगरीय उपभोक्ता बढ़ती मांग का आधार हैंउनकी अपेक्षाओं पर बैठकर कंपनियां नए उत्पाद लाती हैंकमाई घटने के बाद नकद बचतें टूटीं क्योंकि जमीन का बाजार पहले से मंदी में थाजहां ज्यादातर बचत लगी है.

यह मंदी नीचे से उठकर ऊपर तक यानी (कार-मकान की बिक्री और सरकार के टैक्स में गिरावटतक पहुंची हैकॉर्पोरेट टैक्स में कटौती के बाद अब कंपनियों के मुनाफे तो बढ़ेंगे लेकिन रोजगारमांग या खपत नहींघाटे की मारी सरकार अब खर्च भी नहीं कर पाएगी.

अगर सरकारें अपनी पूरी ताकत आय बढ़ाने वाले कार्यक्रमों में नहीं झोकतीं तो बड़ी आबादी को निम्न आय वर्ग में खिसक जाने का खतरा है यानी कम आय और कम मांग का दुष्चक्रजो हमें लंबे समय तक औसत और कमजोर विकास दर के साथ जीने पर मजबूर कर  सकता है.