भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था इतनी गई
गुजरी है कि इसे राजनीतिक श्रेय लेने की होड़ के काबिल भी नहीं समझा जाता. इसकी
अहमियत सरकारी मेलों और तीर्थ यात्राओं जितनी भी नहीं है. यह बात 2018 में एक बड़े अफसर ने कही थी जो सेहत
का महकमा संभाल चुके थे और स्वाइन फ्लू की तबाही से लड़ रहे थे.
सरकारें हमें कभी अपने दायित्व नहीं
बतातीं, वे तो केवल श्रेय के ढोल पीटती हैं और
बहुतेरे उन पर नाच उठते हैं. तबाही, हाहाकार
और मौतों के बाद ही ये जाहिर होता है कि जिंदगी से जुड़ी जरूरतों को लेकर
योजनाबद्ध और नीतिगत गफलत हमेशा बनाए रखी जाती है.
हमें आश्चर्य होना चाहिए कि महामारी
की पहली लहर में जहां छोटे-छोटे बदलावों के आदेश भी दिल्ली से जारी हो रहे थे वहीं
ज्यादा भयानक दूसरी लहर के दौरान राज्यों को उनकी जिम्मेदारियां गिनाई जाने लगीं.
जबकि पहली से दूसरी लहर के बीच कानूनी तौर पर कुछ नहीं बदला.
बीते साल कोविड की शुरुआत के बाद
केंद्र ने महामारी एक्ट 1897/अध्यादेश
2020) और आपदा प्रबंधन कानून 2005 का इस्तेमाल किया था. इन दोनों
केंद्रीय कानूनों के साथ संविधान की धारा 256 अमल में आ गई और राज्यों के अधिकार
सीमित हो गए. इन्हीं कानूनों के तहत बीते बरस लॉकडाउन लगाया, बढ़ाया, हटाया गया और असंख्य नियम (केंद्र के 987 आदेश) तय हुए जिन्हें राज्यों ने एक
साथ लागू किया. यह स्थिति आज तक कायम है.
अब जबकि भयानक विफलता के बीच बीमार व
मरने वाले राजनीतिक सुविधा के मुताबिक राज्यों के तंबुओं में गिने जा रहे हैं तो
यह सवाल सौ फीसदी मौजूं है कि अगर आपका कोई अपना ऑक्सीजन की कमी से तड़पकर मर गया
या जांच, दवा, अस्तपाल नहीं मिला तो इसका दिल्ली जिम्मेदार
है या सूबे का प्रशासन?
भारत में स्वास्थ्य राज्य सूची का विषय
है लेकिन सेहत से जुड़ा प्रत्येक बड़ा फैसला केंद्र लेता है, स्वास्थ्य सेवाएं देना राज्यों की जिम्मेदारी
लेकिन वह कैसे दी जाएंगी यह केंद्र तय करता है. बीमारी नियंत्रण की स्कीमों, दवा के लाइसेंस, कीमतें, तकनीक के पैमाने, आयात, निजी अस्पतालों का प्रमाणन, अनेक वैज्ञानिक मंजूरियां, ऑक्सीजन आदि के लिए लाइसेंस, वैक्सीन की स्वीकृतियां सभी केंद्र के
पास हैं. तभी तो कोविड के दौरान जांच, इलाज से लेकर वैक्सीन तक प्रत्येक मंजूरी केंद्र से आई.
स्वास्थ्य पर कुल सरकारी खर्च का 70 फीसदी बोझ, राज्य उठाते हैं जो उनकी कमाई से बहुत
कम है इसलिए केंद्र से उन्हें अनुदान (15वां वित्त आयेाग-70,000 करोड़ रुपए पांच साल के लिए) और बीमारियों पर नियंत्रण के लिए बनी
स्कीमों के माध्यम से पैसा मिलता है. इस सबके बावजूद भारत में स्वास्थ्य पर सरकारी
खर्च जीडीपी का केवल 1.26% (प्रति व्यक्ति में श्रीलंका से कम) है.
हकीकत यह है कि अधिकांश लोगों की
जिंदगी निजी स्वास्थ्य ढांचा ही बचाता है. हमें उसकी लागत उठानी होती है जो हम उठा
ही रहे हैं. नेशनल हेल्थ पॉलिसी 2017 के
मुताबिक, भारत में स्वास्थ्य पर 70 फीसदी खर्च निजी (अस्पताल, उपकरण, दवा, जांच) क्षेत्र से आता है. केंद्र और
राज्य केवल टैक्स वसूलते हैं. सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं हेल्थ ब्यूरोक्रेसी को
पालने के लिए चलती हैं. सरकारें भी चाहती हैं कि कम से कम लोग उनसे सस्ता इलाज
मांगने आएं.
सरकारें बहुत कुछ कर नहीं सकती थीं, सिवाय इसके कि भारी टैक्स निचोड़ कर
फूल रहा हमारा निजाम आंकड़ों और सूचनाओं की मदद से कम से कम निजी क्षेत्र के जरिए
ऑक्सीजन, दवा, बेड की सही जगह, समय और सही कीमत पर आपूर्ति की अग्रिम
योजना बना लेता और हम बच जाते. इनसे इतना भी नहीं हुआ. लोग क्षमताओं की कमी से
नहीं सरकारों के दंभ और लापरवाही से मर रहे हैं.
अगर नसीहतें ली जानी होतीं तो कोविड के
बीच बीते बरस ही 15वें
वित्त आयोग ने सुझाया था कि स्वास्थ्य को लेकर समवर्ती सूची में नए विषय (अभी केवल
मेडिकल शिक्षा और परिवार नियोजन) जोड़े जाने चाहिए ताकि राज्यों को अधिकार मिलें
और वे फैसले लेने की क्षमताएं बना सकें. 2017 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने
जन स्वास्थ्य (महामारी प्रबंधन) अधिनियम का एक प्रारूप बनाया था जिसमें केंद्र और
राज्य की जिम्मेदारियां तय करने के प्रावधान थे. पता नहीं किस वजह से इसको फाइलों
में हमेशा के लिए सुला दिया गया.
हम ऐसी सरकारों के दौर में है जो दम
तोड़ती व्यवस्था से कहीं ज्यादा बुरे प्रचार से डरती हैं. श्मशानों पर भीड़, ऑक्सीजन की कमी से तड़पते लोग, ट्विटर पर जांच और दवा के लिए
गिड़गिड़ाते संदेश-प्रचार संसार के लिए मुसीबत हैं इसलिए तोहमतें बांटने का प्रचार
तंत्र सक्रिय हो गया है.
पश्चिम की तुलना में पूरब का सबसे बड़ा
फर्क यह है कि यहां के राजनेता गलतियां स्वीकार नहीं करते, नतीजतन पहले चरण में डेढ़ लाख मौतों के
बाद भी कुछ नहीं बदला. अब हम भारतीय राजनीति के सबसे वीभत्स चेहरे से मुखातिब हैं
जहां महामारी और गरीबी के महाप्रवास के बीच असफल सरकारों ने हमें राज्यों के
नागरिकों में बदलकर एडिय़ां रगड़ते हुए मरने को छोड़ दिया है.