लोकतंत्र का एक नया संस्करण देश को हताश कर रहा है जहां आर्थिक आजादी कुछ सैकड़ा कंपनियों पास बंधक है और राजनीतिक अवसर कुछ सौ परिवारों के पास
मुख्यमंत्री ग्रोथ के मॉडल बेच रहे हैं
और देश की ग्रोथ का गर्त में है! रोटी,
शिक्षा से लेकर सूचना तक, अधिकार बांटने की झड़ी लगी है लेकिन लोग राजपथ घेर लेते
हैं! नरेंद्र मोदी के दिलचस्प दंभ और राहुल
गांधी की दयनीय दार्शनिकता के बीच खड़ा देश अब एक ऐतिहासिक असमंजस में है। दरअसल, भारतीय
लोकतंत्र का एक नया संस्करण देश को हताश कर रहा है जहां आर्थिक आजादी कुछ सैकड़ा
कंपनियों पास बंधक है और राजनीतिक अवसर कुछ सैकडा परिवारों के पास। इस नायाब तंत्र
के ताने बाने, सभी राजनीतिक दलों को आपस में जोडते हैं अर्थात इस हमाम के आइनों
में, सबको सब कुछ दिखता है इसलिए राजनीतिक बहसें खोखली और प्रतीकात्मक होती जा
रही हैं जबकि लोगों के क्षोभ ठोस होने लगे हैं।
यदि ग्रोथ की संख्यायें ही सफलता का मॉडल
हैं तो गुजरात ही क्यों उडीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, त्रिपुरा, उत्तराखंड,
सिक्किम भी कामयाब हैं अलबत्ता राज्यों के आर्थिक आंकड़ों पर हमेशा से शक रहा
है। राष्ट्रीय ग्रोथ की समग्र तस्वीर का राज्यों के विपरीत होना आंकड़ों
में संदेह को पुख्ता करता है। दरअसल हर
राज्य में उद्यमिता कुंठित है, निवेश सीमित है, तरक्की के अवसर घटे हैं, रोजगार
नदारद है और लोग निराश हैं। ग्रोथ के आंकड़े अगर ठीक भी हों तो भी यह सच सामने
नहीं आता कि भारत का आर्थिक लोकतंत्र लगभग विकलांग हो गया है।
उदारीकरण से सबको समान अवसर मिलने थे
लेकिन पिछले एक दशक की प्रगति चार-पांच सौ कंपनियों की ग्रोथ में