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Friday, June 12, 2020

कल्याणकारी राज्य की त्रासदी



रेल की पटरियों पर रोटियों के साथ पड़ा गरीब कल्याण, महामारी के शिकार लोगों की तादाद में रिकॉर्ड बढ़ोतरी, चरमराते अस्पताल, लड़ते राजनेता, अरबों की सब्सिडी के बावजूद भूखों को रोटी-पानी के लिए लंगरों का आसरा... यही है न तुम्हारा वेलफेयर स्टेट या कल्याणकारी राज्य! जिसे भारी टैक्स, विशाल नौकरशाही और वीआइपी दर्जों और असंख्य स्कीमों के साथ गढ़ा गया था!

जान और जहान पर इस अभूतपूर्व संकट में कितना काम आया यह? इससे तो बाजार और निजी लोगों ने ज्यादा मदद की हमारी! यह कहकर गुस्साए प्रोफेसर ने फोन पटक दिया.

यह झुंझलाहट किसी की भी हो सकती है जिसने बीते तीन माह में केंद्र से लेकर राज्य तक भारत के वेलयफेयर स्टेट को बार-बार ढहते देखा है. इस महामारी में सरकार से चार ही अपेक्षाएं थीं. लेकिन महामारी जितनी बढ़ी, सरकार बिखरती चली गई.  

स्वास्थ्य सुविधाएं कल्याणकारी राज्य का शुभंकर हैं. लेकिन चरम संक्रमण के मौके पर निजाम ने लोगों को उनके हाल पर छोड़ कर नई सुर्खियों के आयोजन में ध्यान लगा दिया. इस सवाल का जवाब कौन देगा कि भारत जहां निजी स्वास्थ्य ढांचा सरकार से ज्यादा बड़ा है, उसे किस वजह से पूरी व्यवस्था से बाहर रखा गया? कोरोना के विस्फोट के बाद मरीज उन्हीं निजी अस्पतालों के हवाले हो गए जिन्हें तीन माह तक काम ही नहीं करने दिया गया.
सनद रहे कि यही निजी क्षेत्र है जिसने एक इशारे पर दवा उत्पादन की क्षमता बढ़ा दी, वैक्सीन पर काम शुरू हो गया. वेंटिलेटर बनने लगे. पीपीई किट और मास्क की कमी खत्म हो गई. 

दूसरी तरफ, सरकार भांति-भांति की पाबंदियां लगाने-खोलने में लगी रही लेकिन कोरोना जांच की क्षमता नहीं बना पाई, जिसके जरिए ज्यादा से ज्यादा लोगों को संक्रमण से बचाया जा सकता था.

भोजनदेश में बड़े पैमाने पर भुखमरी नहीं आई तो इसकी वजह वे हजारों निजी अन्नक्षेत्र हैं जो हफ्तों से खाना बांट रहे हैं. 1.16 लाख करोड़ रु. की खाद्य सब्सिडी के बावजूद जीविका विहीन परिवारों को सरकार दो जून की रोटी या भटकते मजदूरों को एक बोतल पानी तक नहीं दे सकी. राशन कार्ड व्यवस्था में झोल और सुस्त नौकरशाही के कारण सरकार का खाद्य तंत्र संसाधनों की लूट के काम आया, भूखों के नहीं.

लॉकडाउन के बीच घर पहुंचाने की व्यवस्था यानी संपर्क की जिम्मेदारी सरकार पर थी. जिस सामाजिक दायित्व के नाम पर रेलवे की अक्षमता को पाला जाता है, सड़क पर भटकते लाखों मजदूर, उसे पहली बार 1 मई को नजर आए. रेल मंत्रालय के किराए को लेकर राज्यों के साथ बेशर्म बहस का समय था लेकिन उसके पास भारत के विशाल निजी परिवहन तंत्र के इस्तेमाल की कोई सूझ नहीं थी, अंतत: गैर सरकारी लोगों ने इन्हीं निजी बसों के जरिए हजारों लोगों को घर पहुंचाया. रेलवे की तुलना में निजी दूरसंचार कंपनियों ने इस लॉकडाउन में वर्क फ्रॉम होम के दबाव को बखूबी संभाला.

चौथी स्वाभाविक उम्मीद जीविका की थी लेकिन 30 लाख करोड़ रु. के बजट वाली सरकार को अब एहसास हुआ है कि करोड़ों असंगठित श्रमिकों के लिए उसके पास कुछ है नहीं. क्रिसिल के अनुसार, करीब 5.6 करोड़ किसान परिवार पीएम किसान के दायरे से बाहर हैं. कोविड के मारों (केवल 20.51 करोड़ महिला जनधन खातों में, कुल खाते 38 करोड़) को हर महीने केवल 500 रु. (तीन माह तक) की प्रतीकात्मक (तीन दिन की औसत मजदूरी से भी कम) मदद मिल सकी है. बेकारी का तूफान सरकार की चिंताओं का हिस्सा नहीं है.

ठीक कहते थे मिल्टन फ्रीडमैन, हम सरकारों की मंशा पर थाली-ताली पीट कर नाच उठते हैं, नतीजों से उन्हें नहीं परखते और हर दम ठगे जाते हैं. सड़कों पर भटकते मजदूर, अस्पतालों से लौटाए जाते मरीज भारत के कल्याणकारी राज्य का बदनुमा रिपोर्ट कार्ड हैं, जबकि उनकी मदद को बढ़ते निजी हाथ हमारी उम्मीद हैं.

स्कीमों और सब्सिडी के लूट तंत्र को खत्म कर सुविधाओं और सेवाओं का नया प्रारूप बनाना जरूरी है, जिसमें निजी क्षेत्र की पारदर्शी हिस्सेदारी हो. पिछले दो वर्षों में छह प्रमुख राज्यों (आंध्र, ओडिशा, तेलंगाना, हरियाणा, बंगाल, झारखंड) ने लाभार्थियों को नकद हस्तांतरण की स्कीमों को अपनाया है, जिन पर 400 करोड़ रु. से 9,000 करोड़ रु. तक खर्च हो रहे हैं.

यह सवाल अब हमें खुद से पूछना होगा कि इस महामारी के दौरान जिस वेलयफेर स्टेट से हमें सबसे ज्यादा उम्मीद थी वह पुलिस स्टेट (केंद्र और राज्यों के 4,890 आदेश जारी हुए) में क्यों बदल गया, जिसने इलाज या जीविका की बजाए नया लाइसेंस
और इंस्पेक्टर राज हमारे चेहरे पर छाप दिया.

लोकतंत्र में लोग भारी भरकम सरकारों को इसलिए ढोते हैं क्योंकि मुसीबत में राज्य या सत्ता उनके साथ खड़ी होगी नहीं तो थॉमस जेफसरसन ठीक ही कहते थे, हमारा ताजा इतिहास हमें सिर्फ इतना ही सूचित करता है कि कौन सी सरकार कितनी बुरी थी.
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Monday, October 2, 2017

हाथी की बीमारी बकरी का इलाज


सरकार के साथ सहानुभूति रखिए.

वह कभी-कभी सवालों के अनोखे जवाब ले आती है.

जैसे मंदी और बेकारी दूर करने के लिए गांवों में बिजली के खंभे लगाना. यह पानी की कमी दूर करने के लिए रेल की पटरी बिछाने जैसा है.
देश जब मंदी के इलाज का इंतजार कर रहा था जो किसी अंतरराष्ट्रीय आपदा के कारण नहीं बल्कि पूरी तरह सरकार के गलत फैसलों से आईतब मुफ्त में बिजली कनेक्शन बांटने की योजना का त्योहार शुरू हो गया. यह स्कीम उन राज्यों में लागू होगी जहां बिजली वितरण नेटवर्क बुरे हाल में हैबिजली बोर्ड घाटे में हैंकर्ज से उबरने की कोशिश कर रहे हैं और बिजली सप्लाई के घंटे गिने-चुने ही हैं. 

सरकारें अक्सर यह भूल जाती हैं कि अर्थव्यवस्था के मामले में आत्मविश्वास और दंभ की विभाजक रेखा बहुत बारीक होती है. देश में व्याप्त मंदी इसी गफलत की देन है. लेकिन दंभ के बाद अगर दुविधा आ जाए तो जोखिम कई गुना बढ़ जाते हैंक्योंकि तब घुटने की चोट के लिए आंख में दवा डालने जैसे अजीबोगरीब फैसले लिए जाते हैं. मंदी के मौके पर सब्सिडी का 'सौभाग्य' महोत्सव इसी दुविधा से निकला है.

सरकारी स्कीमों का हाल बुरा है. इसे खुद सरकार से बेहतर भला कौन जानता है. सरकार का एक मंत्रालय है जो स्कीमों के क्रियान्वयन का हिसाब-किताब रखता है. इस साल की शुरुआत में उसने जो रिपोर्ट जारी की थी उसके मुताबिकमोटे खर्च और बजट वाली सरकार की 12 प्रमुख स्कीमें 2016-17 में बुरी तरह असफल रहीं. मसलनग्रामीण सड़क योजना 14 राज्यों में लक्ष्य से पीछे रही. प्रधानमंत्री आवास योजना 27 राज्यों में पिछड़ गई.

इस रिपोर्ट में दीनदयाल ग्राम ज्योति योजना भी है जो 14 राज्यों में ठीक ढंग से नहीं चली. सौभाग्य योजना इसी का विसतार है. नोटबंदी के बाद जनधन को लकवा मार गया है. फसल बीमा योजना के बारे में तो सीएजी ने बताया है कि इसका फायदा बीमा कंपनियों ने उठा लियाकुदरत के कहर के मारे किसानों को कुछ नहीं मिला. 

गरीबों को मुफ्त गैस कनेक्शन देने वाली योजना उज्ज्वला भी अब दुविधा की शिकार है. केंद्रीय पेट्रो कंपनियों के कारण स्कीम की शुरुआत ठीक रही लेकिन सिलेंडर भरवाने के लिए 450 रुपए देना उज्ज्वला धारकों के लिए मुश्किल है. ग्रामीण इलाकों में मंदी के पंजे ज्यादा गहरे हैं. केरोसिन और लकड़ी हर हाल में एलपीजी से सस्ती है.

उत्तर प्रदेशमध्य‍ प्रदेशबिहारओडिशाराजस्थान जैसे राज्यों में एलपीजी धारकों की संख्या और एलपीजी की खपत में बड़ा झोल है. पेट्रो मंत्रालय के रिसर्च सेल की रिपोर्ट बताती है कि उज्ज्वला के बाद यहां जिस रफ्तार से कनेक्शन बढ़े हैंउस गति से एलपीजी की मांग या खपत नहीं बढ़ी.

सिर्फ आंकड़े ही नहींलोगों का नजरिया भी स्कीमों को लेकर बहुत उत्साहवर्धक नहीं है. इस साल अगस्त में इंडिया टुडे के 'देश का मिज़ाज सर्वे' ने बताया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का आंकड़ा जितना ऊंचा हैउनकी स्कीमों की अलोकप्रियता उतनी ही गहरी है. इनमें जन धनडिजिटल इंडिया जैसी बड़ी स्कीमें शामिल हैं. यह स्थिति तब है जबकि प्रधानमंत्री देश से लेकर विदेश तक लगभग हर दूसरे भाषण में इनका नाम लेते हैं और पिछले तीन साल में इन स्कीमों के प्रचार पर क्‍या खूब खर्च हुआ है ?

मोदी सरकार मनरेगा जैसे किसी बड़े करिश्मे की तलाश में है जिसकी पूंछ पकड़ कर चुनावों की लंबी वैतरणी पार हो सके. दिलचस्प है कि मनरेगा की सफलता उसके जरिए मिले रोजगारों में नहीं बल्कि उसके जरिए बढ़ी मजदूरी की दरों में थी. मनरेगा लागू होते समय आर्थिक विकास की गति तेज थी इसलिए मनरेगा के सहारे मजदूरी दरों का बाजार पूरी तरह श्रमिकों के माफिक हो गया. मजदूरों को गांव में भी ज्यादा मजदूरी मिली और शहरों में भी. अगर मंदी के दौर में मनरेगा आती तो शायद ये नतीजे नहीं मिलते.

दरअसलसरकारी स्कीमें गरीबी का समाधान हैं ही नहीं. 1994 से 2012 तक कुल आबादी में निर्धनों की तादाद 45 फीसदी से घटकर 22 फीसदी रह गई. 2005 से 2012 के बीच गरीबी घटने की रफ्तारइससे पिछले दशक की तुलना में तीन गुना तेज थी. ध्यान रखना जरूरी है कि यही वह दौर था जब भारत की आर्थिक विकास दर सबसे तेजी से बढ़ी.

हम इतिहास से यह सीखते हैं कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा. हम इतिहास से यह भी सीखते हैं कि नसीहतें न लेने के मामले में सरकारें सबसे ज्यादा जिद्दी होती हैं. वे ऐसे इलाज लाती हैं जिसमें हाथी की दवा चींटी को चटाई जाती है. तभी तो बेकारी दूर करने के लिए अब गांवों में एलईडी बल्ब टांगे जाएंगे.



Monday, March 4, 2013

अलविदा गेम चेंजर



यह बजट आर्थिक विकास के उस मॉडल को आंकडा़शुदा श्रद्धांजलि है जिसने भारत का एक दशक बर्बाद कर दिया।

खेद प्रगट का करने इससे भव्‍य तरीका और क्‍या हो सकता है कि एक पूरे बजट को वी आर सॉरी का आयोजन में बदल दिया जाए। यूपीए का दसवां बजट पछतावे की परियोजना है। यह बजट आर्थिक विकास के उस मॉडल को आंकडा़शुदा श्रद्धांजलि है जिसने भारत का एक दशक बर्बाद कर दिया। प्रायश्चित तो मौन व सर झुकाकर होते हैं और इसलिए बजट से कोई उत्‍साह आवंटित नहीं हुआ। चिदंबरम खुल कर जो नहीं कह सके उसे आंकडों के जरिये बताया गया। यह बजट पिछले एक दशक के ज्‍यादातर लोकलुभावन प्रयोगों को अलविदा कह रहा है। वह स्‍कीमें जिन्‍हें यूपीए कभी गेम चेंजर मानती थी अंतत: जिनके कारण ग्रोथ व वित्‍तीय संतुलन का घोंसला उजड़ गया।

Monday, December 17, 2012

कैश फॉर वोट

नोट के बदले वोटसियासत में जीत का यह सबसे लोकप्रिय ग्‍लोबल फार्मूला है, जो परोक्ष रुप से दुनिया के हर देश में काम करता है। भारत में इसका प्रत्‍यक्ष और सरकारी अवतार एक जनवरी से प्रकट हो जाएगा। जनता को सीधे नकद पैसा देने की स्‍कीम यानी डायरेक्‍ट बेनीफिट ट्रांसफर पर जमीनी तैयारियां शुरु हो   चुकी हैं। आम जनता को सुविधाओं के बजाय बड़े पैमाने पर संगठित रुप से नकद पैसा देने की इस स्‍कीम में देश का सबसे विवादित राजनीतिक आर्थिक प्रयोग बनने की गुंजायश छिपी है। यह स्‍कीम राजनीतिक समर्थन के लिए बजट के खुले इस्तेमाल की एक ऐसी नई परंपरा शुरु कर सकता है जिसमें राज्‍य सरकारें लोककल्‍याणकारी राज्‍य को वोट कल्‍याणकारी राज्‍य में बदल देंगी। लोगों को नकद सब्सिडी देने के पैरोकार इस दो टूक निष्‍कर्ष के लिए माफ करेंगे लेकिन हकीकत यह है कि इससे सब्सिडी की बर्बादी रुकने और सही लोगों तक केंद्रीय स्‍कीमों का पैसा पहुंचने की कोई गारंटी नहीं है अलबत्‍ता इसका चुनावी इस्‍तेमाल होना शत प्रतिशत तय है। 
कंडीशनल की जगह डायरेक्‍ट    

जरुरतमंद लोगों को बडे पैमाने पर सरकारी बजट से नकद पैसा देने के प्रयोग पूरी दुनिया में विवादित और राजनीतिक तौर पर अस्‍वीकार्य रहे हैं। इस तरह के प्रयोगों में राजनीतिक लाभ का लेने का संदेह हमेशा छिपा होता है। यही वजह है कि दुनिया में कैश ट्रांसफर हमेशा इस शर्त पर होते हैं कि लाभार्थी स्‍वास्‍थ्‍य व शिक्षा की संस्‍थागत सुविधाओं को

Monday, March 26, 2012

इन्‍क्‍लूसिव (ग्रोथ) बोझ

तीत कभी वापस नहीं लौटता। जिस ज्ञानी गुणी ने यह सिद्धांत दिया होगा उसे यह अंदाज नहीं होगा कि भारत की सरकारें ऐसा बजट बना सकती हैं जो अतीत को खीच कर वापस वर्तमान में खड़ा कर दें। भारी सब्सिडी, फिजूल की स्‍कीमें, बेसिर पैर के खर्च वाला पुराना समाजवादी नुस्‍खा। भारी टैक्‍स व मनमानी रियायतों का बोदा फार्मूला। वही भयानक घाटा, कर्जदार सरकार, बर्बाद होते बैंक। कुछ खास लोगों को सब कुछ देने वाला पुराना भ्रष्‍ट लाइसेंस राज। लगता है कि जैसे आर्थिक सुधारों से पहले वाला बंद, अंधेरा, सीलन भरा लिजलिजा सरकारी दौर जी उठा है। समावेशी विकास यानी इन्‍क्‍लूसिव ग्रोथ की कांग्रेसी सियासत ने हमें उलटी गाड़ी में चढ़ा दिया है। यूपीए की दो सरकारों के कथित समावेशी विकास की नीतियों ने पूरे बजटीय अनुशासन का श्राद्ध कर कर दिया और ग्रोथ लाने वाले खर्च का गला घोंट दिया। अद्भुत स्‍कीम प्रेम में आर्थिक सुधारों फाइलें बंद हो गई जबकि गांवों तक भ्रष्‍टाचार की दुकानें खुल गई। इन्‍क्‍लूसिव ग्रोथ की सूझ अब सबसे बड़ा बोझ बन गई है।
समावेशी संकट
बजट को आंकड़ा दर आंकड़ा खंगालते हुए कोई भी एक अजीब किस्‍म के डर से भर जाएगा। समावेशी विकास की अंधी सूझ हम पर बहुत भारी पड़ी। समस्‍याओं की शुरुआत आर्थिक नीतियों में उस करवट से हुई है जहां सरकार की नीतियों का फोकस बदला और समावेशी विकास के नाम पर सब कुछ मुफ्त बांटने की पुरानी सियासत शुरु हो गई। 2005-06 में बजट का कुल खर्च पांच लाख करोड़ रुपये था जो छह साल के भीतर करीब 15 लाख करोड़ (इस बजट में) हो गया। (छठे वेतन आयोग के अलावा) इतना अधिक खर्च किस पर बढ़ा ? पिछले आठ वर्षों में सरकार ने देश में कोई नई परियोजनाए नहीं लगाईं। सरकार के खर्च से कोई बडा बुनियादी ढांचा नहीं बना। यह बढ़ा हुआ खर्च दरअसल उस नए राजनीतिक अर्थशास्‍त्र

Monday, March 5, 2012

सरकार गारंटी योजना

जट से कुछ महंगा सस्‍ता होता है क्‍या? टैक्‍स में कमी बेशी का रोमांच भी अब कितना बचा है ?  घाटे की खिच खिच भी बेमानी है। बारह का बजट इन पुराने पैमानों का बजट होगा ही नहीं। इस बजट में तो पूरी दुनिया भारत की वह सरकार ढूंढेगी जो पिछले तीन साल में कहीं खो गई है और सब कुछ ठप सा हो गया है। देश में गरीबों की तादाद, उद्योगों के लिए जमीन मिलने में देरी, टैक्‍स हैवेन में रखा पैसा, हसन अलियों का भविष्‍य, हाथ पर हाथ धरे बैठी नौकरशाही, नए कानूनों का टोटा, नियामकों की नाकामी, नीतियों का शून्‍य !!!.. यही नामुराद सवाल ही इस साल का असली बजट हैं। क्‍येां कि हमारी ताजी मुसीबतों की पृष्‍ठभूमि पूरी तरह से गैर बजटीय है। कुछ पुरानी गलतयिां नई चुनौतियों से मिल कर बहुआयामी संकट गढ रही हैं। इससे बहुत फर्क नहीं पड़ेगा कि यह बजट सरकारी स्‍कीमों में मुंह में कितना चारा रखता है अंतर से बात से पड़ेगा कि वित्‍त मंत्री सरकार (गवर्नेंस) गारंटी योजना कितनी ठोस नीतियो का आवंटन करते हैं। या सरकार के साखकोषीय घाटे के कम करने के लिए क्‍या फार्मूला लाते हैं। यह राजकोष का बजट है ही नहीं यह तो राजकाज यानी नीतियों का बजट है।
साख की मद
हमारी ताजी मुसीबतें बजट के फार्मेट से बाहर पैदा हो रही हैं। कोयले की कमी कारण प्रधानमंत्री के दरबार मे बिजली कंपनियों की गुहार, जमीन अधिग्रहण कानून के कारण लटकी परियोजनायें , पर्यावरण मंजूरी में फंसे निवेश, राज्‍य बिजली बोर्डों को कर्ज देकर डूबते बैंक, फारच्‍यून 500 कंपनी ओनएजीसी के लिए निवेशको का टोटा.............. इनमें से एक भी मुसीबत बजट के किसी घाटे से पैदा नहीं हुईं। 2जी पर अदालत के फैसले के बाद सरकार आवंटन की प्रक्रिया शुरु करनी चाहिए थी मगर सरकार एक साल का वकत मांग रही है यानी एक लंबी अनिश्चितता की बुनियाद रखी जा रही है। भूमि अधिग्रहण, खानों के आवंटन, औद्योगिक पुनर्वास जैसे तमाम कानून अधर में हैं। समझदार निवेशक भारत में कानून के राज पर भरोसा

Monday, February 27, 2012

सूझ कोषीय घाटा

धाई! हमने अपने बजट की पुरानी मुसीबतों को फिर खोज लिया है। सब्सिडी का वही स्यापा, सरकारी स्कीमों के असफल होने का खानदानी मर्ज, खर्च बेहाथ होने का बहुदशकीय रोना और बेकाबू घाटे का ऐतिहासिक दुष्चक्र। लगता हैं कि हम घूम घाम कर वहीं आ गए हैं करीब बीस साल पहले जहां से चले थे। उदारीकरण के पूर्वज समाजवादी बजटों का दुखदायी अतीत जीवंत हो उठा है। हमें नास्टेल्जिक (अतीतजीवी) होकर इस पर गर्व करना चाहिए। इसके अलावा हम कर भी क्या कर सकते हैं। बजट के पास जब अच्छा राजस्व, राजनीतिक स्थिरता, आम लोगों की बचत, आर्थिक उत्पादन में निजी निवेश आदि सब कुछ था तब हमारे रहनुमा बजट की पुरानी बीमारियों से गाफिल हो गए इसलिए असंतुलित खर्च जस का तस रहा और जड़ो से कटीं व नतीजो में फेल सरकार स्कीमों में कोई नई सूझ नहीं आई । दरअसल हमने तो अपनी ग्रोथ के सबसे अच्छे वर्ष बर्बाद कर दिये और बजट का ढांचा बदलने के लिए कुछ भी नया नहीं किया। हमारे बजट का सूझ-कोषीय घाटा, इसके राजकोषीय घाटे से ज्यादा बड़ा है।
बजट स्कीम फैक्ट्री
बजट में हमेशा से कुछ बड़े और नायाब टैंक रहे हैं। हर नई सरकार इन टैंकों पर अपने राजनीतिक पुरखों के नाम का लेबल लगा कर ताजा पानी भर देती है। यह देखने की फुर्सत किसे है इन टैंकों की तली नदारद है। इन टंकियों को सरकार की स्कीमें कह सकते हैं। बजट में ग्रामीण गरीबी उन्मूलन व रोजगार, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल और ग्रामीण आवास को मिलाकर कुल पांच बड़ी टंकियों, माफ कीजिये, स्कीमों का कुनबा है। देश में जन कल्याण की हर स्कीम की तीन पीढिय़ा बदल गईं हैं मगर हर स्कीम असफलता व घोटाले में समाप्त हुई। गरीब उन्‍मूलन और ग्रामीण रोजगार स्कीमें तो असफल प्रयोगों का अद्भुत इतिहास

Monday, December 13, 2010

साख नहीं तो माफ करो!

अर्थार्थ
साख नहीं तो माफ करो! .. दुनिया का बांड बाजार अर्से बाद जब इस दो टूक जबान में बोला तो लंदन, मैड्रिड, रोम, ब्रसेल्स और न्यूयॉर्क, फ्रैंकफर्ट, बर्लिन और डबलिन में नियामकों व केंद्रीय बैंकों की रीढ़ कांप गई। दरअसल जिसका डर था वही बात हो गई है। वित्तीय बाजारों के सबसे निर्मम बांड निवेशकों ने यूरोप व अमेरिका की सरकारों की साख पर अपने दांत गड़ा दिए हैं। घाटे से घिरी अर्थव्यवस्थाओं से निवेशक कोई सहानुभूति दिखाने को तैयार नहीं हैं। ग्रीस व आयरलैंड को घुटनों के बल बिठाकर यूरोपीय समुदाय से भीख मंगवाने के बाद ये निवेशक अब स्पेन की तरफ बढ़ रहे हैं। स्पेन, यूरोप की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, क्या आयरलैंड व ग्रीस की राह पर जाएगा? सोच कर ही यूरोप की सांस फूल रही है। लेकिन यह बाजार तो स्पेन के डेथ वारंट पर दस्तखत करने लगा है, क्योंकि इस क्रूर बाजार में बिकने वाली साख यूरोप की सरकारों के पास नहीं है और तो और, इस निष्ठुर बाजार ने अमेरिका की साख को भी खरोंचना शुरू कर दिया है।
खतरे की खलबली
पूरी दुनिया में डर की ताजा लहर बीते हफ्ते यूरोप, अमेरिका व एशिया के बांड बाजारों से उठी, जब सरकारों की साख पर गहरे सवाल उठाते हुए निवेशकों ने सरकारी बांड की बिकवाली शुरू कर दी और सरकारों के लिए कर्ज महंगा हो गया। बीते मंगलवार अमेरिकी सरकार के (दस साल का बांड) बाजार कर्ज की लागत सिर्फ कुछ घंटों में

Wednesday, February 17, 2010

बजट में जादू है !!

बगैर तली वाले बर्तन में पानी भरने का अपना ही रोमांच है..जादू जैसा? बर्तन में पानी जाता हुआ तो दिखता है मगर अचानक गायब। वित्त मंत्री हर बजट में यह जादू करते हैं। हर बजट में खर्च के कुछ बड़े आंकड़े वित्त मंत्रियों के मुंह से झरते हैं और फिर मेजों की थपथपाहट के बीच लोकसभा की वर्तुलाकार दीवारों में खो जाते हैं। पलट कर कौन पूछता है कि आखिर खर्च की इन चलनियों में कब कितना दूध भरा गया, वह दूध कहां गया और उसे लगातार भरते रहने का क्या तुक था? वित्त मंत्री ने पिछले साल दस लाख करोड़ रुपये का जादू दिखाया था और खर्च के तमाम अंध कूपों में अरबों रुपये डाल दिए थे। इस साल उनका जादू बारह लाख करोड़ रुपये का हो सकता है या शायद और ज्यादा का?
तिलिस्मी सुरंग में अंधे कुएं
खर्च बजट की तिलिस्मी सुरंग है। कोई वित्त मंत्री इसमें आगे नहीं जाता। खो जाने का पूरा खतरा है। खर्च का खेल सिर्फ बड़े आंकड़ों को कायदे से कहने का खेल है। पिछले दस साल में सरकार का खर्च पांच गुना बढ़ा है। 1999-2000 में यह 2 लाख 68 हजार करोड़ रुपये पर था मगर बीते बजट में यह दस लाख करोड़ रुपये हो गया। कभी आपको यह पता चला कि आखिर सरकार ने इतना खर्च कहां किया? बताते तो यह हैं कि पिछले एक दशक के दौरान सरकार अपनी कई बड़ी जिम्मेदारियां निजी क्षेत्र को सौंप कर उदारीकरण के कुंभ में नहा रही है। दरअसल खर्च में पांच गुना वृद्घि को जायज ठहराने के लिए सरकार के पास बहुत तर्क नहीं हैं। यह खर्च कुछ ऐसे अंधे कुओं में जा रहा है, जो गलतियों के कारण खोद दिए गए मगर अब उनमें यह दान डालना अनिवार्य हो गया है। दस साल पहले केंद्र सरकार 88 हजार करोड़ रुपये का ब्याज दे रही थी मगर आज ब्याज भुगतान 2 लाख 25 हजार करोड़ रुपये का है। यानी कि दस लाख करोड़ के खर्च का करीब 22 फीसदी हिस्सा छू मंतर। दूसरा ग्राहक सब्सिडी है। दस साल पहले सब्सिडी थी 22 हजार करोड़ रुपये की और आज है एक लाख 11 हजार करोड़ रुपये की। यानी बजट का करीब 11 फीसदी हिस्सा गायब। ब्याज और सब्सिडी मिलकर सरकार के उदार खर्च का 30-31 फीसदी हिस्सा पी जाते हैं। मगर जादू सिर्फ यही नहंी है और भी कुछ ऐसे तवे हैं जिन पर खर्च का पानी पड़ते ही गायब हो जाता है। तभी तो कुल बजट में करीब सात लाख करोड़ रुपये का खर्च वह है जिसके बारे में खुद सरकार यह मानती है कि इससे अर्थव्यवस्था की सेहत नहीं ठीक होती मगर फिर भी यह रकम अप्रैल से लेकर मार्च तक खर्च की तिलिस्मी सुरंग में गुम हो जाती है। सरकार के मुताबिक उसके बजट का महज 30 से 32 फीसदी हिस्सा ऐसा है जो विकास के काम का है। आइये अब जरा इस काम वाले खर्च की स्थिति देखें।
चलनियों का चक्कर
देश मे करीब 35 करोड़ ग्रामीण गरीबी की रेखा से नीचे हैं। एक दशक पहले भी इतने ही लोग गरीब थे। (जनसंख्या के अनुपात में कमी के आंकड़े से धोखा न खाइये, गरीबों की वास्तविक संख्या हर पैमाने पर बढ़ी है।) अभी भी दो लाख बस्तियों में कायदे का पेयजल नहीं है। इसे आप पुराना स्यापा मत समझिये, बल्कि यह देखिये कि सरकार ने पिछले एक दशक में सिर्फ गांव में गरीबी मिटाने की स्कीमों पर 78 हजार करोड़ रुपये खर्च किये हैं और गांवों को पीने का पानी देने की योजनाओं पर कुल 36 हजार करोड़। यानी दोनों पर करीब 11 हजार करोड़ रुपये हर साल। ... दरअसल यह कुछ नमूने हैं उन चलनियों के, जिनमें सरकार अपने योजना बजट का दूध भरती है। इन पर गांधी, नेहरू, इंदिरा, राजीव जैसे बड़े नाम चिपके हैं, इसलिए सिर्फ नाम दिखते हैं काम नहीं। पिछले एक दशक में गरीबी उन्मूलन की स्कीमों में खर्च को लेकर जितने सवाल उठे हैं, उनमें आवंटन उतना ही बढ़ गया है। स्कीमों का नरेगा मनरेगा परिवार इस समय सरकार के स्कीम बजट का सरदार है। वैसे चाहे वह पढ़ाने लिखाने वाली स्कीमों का कुनबा हो या सेहतमंद बनाने वाली स्कीमों का, यह देखने की सुध किसे है कि 200 के करीब सरकारी स्कीमों की चलनियों में जाने वाला दूध नीचे कौन समेट रहा है? सीएजी से लेकर खुद केंद्रीय मंत्रालयों तक को इनकी सफलता पर शक है। लेकिन हर बजट में वित्त मंत्री इन्हें पैसा देते हैं तालियां बटोरते हैं। बेहद महंगे पैसे के आपराधिक अपव्यय से भरपूर यह स्कीमें सरकारी भ्रष्टाचार का जीवंत इतिहास बन चुकी हैं मगर यही तो इस बजट का रोमांच है।
थैले की करामात
बजट का अर्थ ही है थैला। मगर असल में यह कर्ज का थैला है। सरकार देश में कर्जो की सबसे बड़ी ग्राहक है और सबसे बड़ी कर्जदार भी। वह तो सरकार है इसलिए उसे कर्ज मिलता है नहीं तो शायद इतनी खराब साख के बाद किसी आम आदमी को तो बैंक अपनी सीढि़यां भी न चढ़ने दें। बजट के थैले से स्कीमें निकलती दिखतीं हैं, खर्च के आंकड़े हवा में उड़ते हैं मगर थैले में एक दूसरे छेद से कर्ज घुसता है। इस थैले की करामात यही है कि सरकार हमसे ही कर्ज लेकर हमें ही बहादुरी दिखाती है। सरकार के पास दर्जनों क्रेडिट कार्ड हैं यह बांड, वह ट्रेजरी बिल, यह बचत स्कीम, वह निवेश योजना। पैसा बैंक देते हैं क्योंकि हमसे जमा किये गए पैसे का और वे करें भी क्या? मगर इस थैले का खेल अब बिगड़ गया है। सरकार का कर्ज कुल आर्थिक उत्पादन यानी जीडीपी का आधा हो गया है। अगले साल से सरकार के दरवाजे पर बैंकों के भारी तकाजे आने वाले हैं। यह उन कर्जो के लिए होंगे जो पिछले एक दशक में उठाये गए थे। ऐसी स्थिति में हर वित्त मंत्री अपना सबसे बड़ा मंत्र चलाता है। वह है नोट छापने की मशीन जो रुपये छाप कर घाटा पूरा करने लगती है। कुछ वर्ष पहले तक यह खूब होता रहा है। हमें तो बस यह देखना है कि इस बजट में यह मंतर आजमाया जाएगा या नहीं?
सरकार के खर्च में वृद्घि से ईष्र्या होती है। काश देश के अधिकांश लोगों की आय भी इसी तरह बढ़ती, सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता भी इसी तर्ज पर बढ़ जाती। बुनियादी सुविधायें भी इतनी नहंी तो कम से कम थोड़ी भी बढ़ जातीं, तो मजा आ जाता। लेकिन वहां सब कुछ पहले जैसा है या बेहतरी नगण्य है। इधर बजट में खर्च फूल कर गुब्बारा होता जा रहा है और सरकार का कर्ज बैंकों की जान सुखा रहा है लेकिन इन चिंताओं से फायदा भी क्या है? बजट तो खाली खजाने से खरबों के खर्च का जादू है और जादू में सवालों की जगह कहां होती है? वहां तो सिर्फ तालियों सीटियों की दरकार होती है, इसलिए बजट देखिये या सुनिये मगर गालिब की इस सलाह के साथ कि .. हां, खाइयो मत, फरेब -ए- हस्ती / हरचंद कहें, कि है, नहीं है।
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