अभी खुदरा महंगाई सोलह महीने के सबसे निचले स्तर पर है और थोक महंगाई
चार महीने के न्यूनतम स्तर पर लेकिन..
· महंगाई में कमी और जीएसटी दरें कम होने के
बावजूद खपत में कोई बढ़त नहीं है.
· बिक्री में लगातार गिरावट के बावजूद कार
कंपनियां कीमत बढ़ा रही हैं
· जीएसटी में टैक्स कम होने के बावजूद
सामान्यतः खपत खर्च में घरेलू सामान की खरीद का हिस्सा 50 फीसदी रह गया है, जो दस साल पहले 70 फीसदी होता था
· जीएसटी के असर से उपभोक्ता उत्पादों या
सेवाओं की कीमतें नहीं घटी
हैं. कुछ कंपनियों ने लागत बढऩे की वजह से कीमतें बढ़ाई
ही हैं
· पर्सनल लोन की मांग जनवरी 2018 से लगातार
घट रही है
· उद्योगों को कर्ज की मांग में कोई बढ़त
नहीं हुई क्योंकि नए निवेश नहीं हो रहे हैं
· महंगाई में कमी का आंकड़ा अगर सही है तो
ब्याज दरें मुताबिक कम नहीं हुई हैं बल्कि बढ़ी ही हैं
इतनी कम महंगाई के बाद अगर लोग खर्च नहीं कर रहे तो क्या बचत बढ़ रही
है?
लेकिन मार्च 2017 में बचत दर पांच साल के न्यूनतम स्तर पर थी. अब
इक्विटी
म्युचुअल फंड में निवेश घट रहा है.
महंगाई कम होना तो राजनैतिक नेमत है. इससे मध्य वर्ग प्रसन्न होता है.
लेकिन तेल की कीमतों में ताजा बढ़त और रुपए की कमजोरी के बावजूद महंगाई नहीं बढ़ी
है.
अर्थव्यवस्था जटिल हो चुकी है और सियासत दकियानूसी. महंगाई दुधारी
तलवार है. अब लगातार घटते जाना अर्थव्यवस्था को गहराई से काट रहा है. महंगाई के न बढ़ने के
मतलब मांग, निवेश, खपत में कमी, लागत के
मुताबिक कीमत न मिलना होता है. महंगाई में यह गिरावट इसलिए और भी जटिल है क्योंकि
दैनिक खपत वस्तुओं में स्थानीय महंगाई कायम है. यानी आटा, दाल, सब्जी, तेल की कीमत औसतन बढ़ी है जिसके स्थानीय कारण हैं.
पिछले चार साल में वित्त मंत्रालय यह समझ ही नहीं पाया कि उसकी चुनौती
मांग और खपत में कमी है न कि महंगाई. किसी अर्थव्यवस्था में मांग को निर्धारित
करने वाले चार प्रमुख कारक होते है.
एक —निजी उपभोग खर्च जिसका जीडीपी में हिस्सा 60 फीसदी होता था, वह घटकर अब 54 फीसदी के आसपास है. 2015 के बाद से शुरू हुई यह गिरावट
अभी जारी है, यानी कम महंगाई और कथित तौर पर टैक्स कम
होने के बावजूद लोग खर्च नहीं कर रहे हैं.
दो—अर्थव्यवस्था में पूंजी निवेश खपत की मांग से बढ़ता है. 2016-17 की
पहली तिमाही से इसमें गिरावट शुरू हुई और 2017-18 की दूसरी तिमाही में यह जीडीपी
के अनुपात में 29 फीसदी पर आ गया. रिजर्व बैंक मान रहा है कि मशीनरी का उत्पादन ठप
है. उत्पादन क्षमताओं का इस्तेमाल घट रहा है. दिसंबर तिमाही में निवेश 14 साल के
निचले स्तर पर है. ऑटोमोबाइल उद्योग इसका उदाहरण है.
तीन— निर्यात मांग को बढ़ाने वाला तीसरा कारक है. पिछले चार साल से
निर्यात में व्यापक मंदी है. आयात बढ़ने के कारण जीडीपी में व्यापार घाटे का
हिस्सा दोगुना हो गया है.
चार—100 रुपए जीडीपी में केवल 12 रुपए का खर्च सरकार करती है. इस खर्च
में बढ़ोतरी हुई लेकिन 88 फीसदी हिस्से में तो मंदी है. खर्च बढ़ाकर सरकार ने घाटा
बढ़ा लिया लेकिन मांग नही बढ़ी.
गिरती महंगाई एक तरफ किसानों को मार रही है, जिन्हें बाजार में समर्थन मूल्य के बराबर कीमत मिलना मुश्किल है.
खुदरा कीमतें भले ही ऊंची हों लेकिन फल-सब्जियों की थोक कीमतों का सूचकांक पिछले
तीन साल से जहां का तहां स्थिर है. दूसरी ओर, महंगाई में कमी जिसे मध्य वर्ग लिए वरदान माना जाता है वह आय-रोजगार
के स्रोत सीमित कर रही है.
आय, खपत और महंगाई के बीच एक नाजुक संतुलन
होता है. आपूर्ति का प्रबंधन आसान है लेकिन मांग बढ़ाने के लिए ठोस सुधार चाहिए.
2012-13 में जो होटल, ई कॉमर्स, दूरसंचार, ट्रांसपोर्ट जैसे उद्योग व सेवाएं मांग का
अगुआई कर रहे थे, पिछले वर्षों में वे भी सुस्त पड़ गए. मोदी
सरकार को अर्थव्यवस्था में मांग का प्रबंधन करना था ताकि लोग खपत करें और आय व
रोजगार बढ़ें लेकिन नोटबंदी ने तो मांग की जान ही निकाल दी.
2009 में आठ नौ फीसदी की महंगाई के बाद भी यूपीए इसलिए जीत गया
क्योंकि मांग व खपत बढ़ रही थी और सबसे कम महंगाई की छाया में हुए ताजा चुनावों में
सत्तारूढ़ दल खेत रहा. तो क्या बेहद कम या नगण्य महंगाई 2019 में मोदी सरकार की
सबसे बड़ी चुनौती है, न कि महंगाई का बढ़ना?