अब से दो साल पहले दिसंबर 2018 में जब गूगल प्रमुख सुंदर पिचाई एकाधिकार के मामले में अमेरिकी कानून निर्माताओं
के कठघरे में थे उस दौरान जारी हुए फोटो और वीडियो ने लोगों को चौंका दिया.
कांग्रेस की सुनवाई के दौरान पिचाई के पीछे तीसरी पंक्ति में काली टोपी
वाले मुच्छड़ रिच अंकल पेनीबैग्स नजर आ रहे थे जो मशहूर मोनोपली गेम के प्रतीक पुरुष
हैं. उनकी मौजूदगी किसी फोटोशापीय कला का नमूना नहीं था. अमेरिका के एक वकील ग्रीडी मोनोपली मैन की वेशभूषा में, इस मामले की प्रत्येक सुनवाई में बाकायदा ठीक उस जगह मौजूद रहे थे जहां से वह तस्वीरों का हिस्सा बन सकें और लोगों को बाजार का विद्रूप और एकाधिकारवादी चेहरा नजर आता रहे.
संयोग ही है कि बीते सप्ताह जब विश्व की सबसे बड़ी तकनीकी
मोनोपली यानी गूगल और फेसबुक पर अमेरिका में ऐंटीट्रस्ट (प्रतिस्पर्धा खत्म करने) कानून की कार्रवाई शुरू हुई तब उसी दौरान भारत में भी बहुत से लोग सुधारों
के फैसलों के पीछे किसी कॉर्पोरेट मुच्छड़ मैन का अक्स देख रहे थे.
उदारीकरण और मुक्त बाजार ने भारत में सबसे कम समय में सर्वाधिक आबादी की गरीबी दूर की है, इसलिए
इस पर उठते शक-शुबहे गहरी पड़ताल की मांग करते हैं.
निजीकरण,
निजी भागीदारी, मुक्त बाजार पर शक बेवजह नहीं है.
बाजार पर भरोसा दो ही वजह से बनता है. एक, रोजगार यानी कमाई या आय बढ़ने से और दूसरा, उत्पादन का
सही मूल्य मिलने से. इन्हीं दोनों वजह से पूंजीवाद को सबसे अधिक सफलता मिली है, इस व््यवस्था में बाजार सबको अवसर देता है और
सरकार संकटों के समाधान करती है. बाजार इसके बदले कीमत वसूलता
है और सरकार टैक्स.
बाजारों के सबसे बुरे दिनों का नाम ही मंदी है. नौकरियां खत्म होती हैं. कर्ज डूबने
लगते हैं और सरकार से राहत मांगी जाने लगती है. और तब बाजार लोगों
का तात्कालिक शत्रु बन जाता है. भारत में भी बाजार इस समय खलनायक
है लेकिन दंभ और आत्ममुग्धता में सरकार उसे संकटमोचक बनाकर पेश कर रही है. लोग बुरी तह चिढ़ रहे हैं.
► भारत
में कंपनियों के रिकॉर्ड मुनाफों के बीच रिकॉर्ड बेरोजगारी है. इसी बीच सरकार ने कंपनियों को नौकरियां लेने की ताकत से (श्रम सुधार) से लैस कर दिया.
► किसानों
को आय में बढ़ोतरी के लिए सीधी मदद चाहिए न कि उन्हें उस बाजार के हवाले कर दिया जाए तो खुद मंदी का मारा है.
► निजीकरण में कोई खोट नहीं लेकिन चौतरफा बेकारी के बीच जीविका को लेकर डर लाजिमी
है. खासतौर पर जब लोग देख रहे हैं कि कुछ निजी कंपनियां बाजारों पर कब्जा कर रही हैं.
महामंदी और महामारी एक साथ सबसे बड़ी मुसीबत है. महामारी सरकारों की साख पर भारी पड़ती है क्योंकि दुनिया
की कोई सरकार महामारियों से निबट नहीं सकती. महामंदी बाजार की
साख तोड़ देती है इसलिए दुनिया की तमाम सरकारें कंपनियों को रोजगार बचाने के लिए बजट
से पैसे दे रही हैं ताकि बाजार और लोगों के बीच विश्वास को बना रहे.
मशहूर अर्थविद् जॉन मेनार्ड केंज ने 1930 की महामंदी के दौरान अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट को लिखा थाः ‘आपकी चुनौती
दोहरी है. मंदी से भी उबारना है और सुधार भी होने हैं जो अर्से
से लंबित हैं. मंदी से मुक्ति के लिए तेज
और तत्काल नतीजे चाहिए. सुधारों में जल्दबाजी मंदी से उबरने की
प्रक्रिया को धीमा कर सकती, जिससे सरकार की नीयत पर शक बढ़ेगा
और लोगों का भरोसा टूटेगा.’
सरकार के सलाहकारों पता चले कि प्रत्येक सुधार 1991 वाला नहीं होता. बीते ढाई दशक
में लोगों में आर्थिक सुधारों के फायदों और नुक्सानों की समझ
बनी है. मंदी की चोट खाए लोग आय और जीवन स्तर में ठोस बेहतरी
समझ कर सुधार स्वीकार कर पाएंगे. इसके लिए सुधारों का क्रम ठीक
करना होगा.
भारत में बाजार और लोगों के रिश्ते बीते दो-तीन साल से काफी बदले हैं. जनवरी
2020 में एडलमैन के मशहूर ग्लोबल ट्रस्ट बैरोमीटर सर्वे ने बताया था
कि भारत, दुनिया के उन 28 प्रमुख बाजारों
में पहले नंबर पर था जहां सबसे बड़ी संख्या में (74 फीसद)
लोग बाजार और पूंजीवाद से निराश हैं. यानी कि कोरोना
की विपत्ति से पहले ही बाजार से लोगों का भरोसा उठने लगा था
जिसकी बड़ी वजह आय में कमी और बेकारी थी.
सनद रहे कि अच्छे सुधार बाजार को ताकत देते हैं जबकि खराब सुधार बाजार
की पूरी ताकत कुछ हाथों में थमा देते हैं. यह सुनिश्चित करना होगा कि सुधारों के पीछे वाल स्ट्रीट
मूवी का प्रसिद्ध गॉर्डन गीको नजर न आए जो कहता था कि लालच के लिए कोई दूसरा बेहतर
शब्द नहीं है इसलिए लालच अच्छा है.
भारत के आर्थिक सुधार संवेदनशील मोड़
पर हैं. 2020 बाजार के प्रति गुस्से के साथ बिदा हो रहा है.
मुक्त बाजार को खलनायक बनने से रोकना होगा. गुस्साए
लोग सरकार तो बदल सकते हैं, बाजार नहीं. मुक्त बाजार पर विश्वास टूटा तो सब बिखर जाएगा क्योंकि
कोई सरकार कितनी भी बड़ी हो, वह बाजार से मिल रहे अवसरों का विकल्प
नहीं हो सकती.