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Friday, April 16, 2021

घुटती सांसों का ‘उत्सव’

 


भारत के लिए चुनाव, कुंभ और महामारी में क्या अंतर या समानता है? बात इन आयोजनों के सुपर स्प्रेडर बनने के खतरे की नहीं है. हमें तो इस बात पर अचरज होना चाहिए कि जो मुल्क दुनिया का सबसे बड़ा और लंबा चुनाव करा लेता है, भरपूर कोविड के बीच कुंभ जैसे मेले और आइपीएल जैसे भव्य महंगे तमाशे जुटा लेता है वह महामारी की नसीहतों के बावजूद अपने थोड़े से लोगों को अस्पताल, दवाएं और ऑक्सीजन नहीं दे पाता.

डारोन एसीमोग्लू और जेम्स जे राबिंसन ने दुनिया के इतिहास, राजनीति और सरकारों के फैसले खंगालकर अपनी मशहूर कि‍ताब व्हाइ नेशंस फेल में बताया है कि दुनिया के कुछ देशों में लोग हमेशा इसलिए गरीब और बदहाल रहते हैं क्योंकि वहां की राजनैतिक और आर्थिक संस्थाएं बुनियादी तौर पर शोषक हैं, इन्हें लोगों के कल्याण की जिम्मेदारी और संवेदनशीलता के मूल्यों पर बनाया ही नहीं जाता, इसलिए संकटों में व्यवस्थाएं ही सबसे बड़ी शोषक बन जाती हैं.

कोविड की दूसरी लहर ने हमें बताया कि एसीमोग्लू और राबिंसन क्यों सही हैं? क्या हमारे पास क्षमताएं नहीं थीं? क्या संसाधनों का टोटा था? नहीं. शायद हमारा दुर्भाग्य हमारी संवेदनहीन सियासत और उसकी संस्थाएं लिख रही हैं.

कोविड की पहली लहर के वक्त स्वास्थ्य क्षमताओं की कमी सबसे बड़ी चुनौती थी. अप्रैल 2020 में 15,000 करोड़ रु. का पैकेज आया. दावे हुए कि बहुत तेजी से विराट हेल्थ ढांचा बना लिया गया है तो फिर कहां गया वह सब?

बहुत-से सवाल हमें मथ रहे हैं जैसे कि

अप्रैल से अक्तूबर तक ऑक्सीजन वाले बि‍स्तरों की संख्या 58,000 से बढ़ाकर 2.65 लाख करने और आइसीयू और वेंटीलेटर बेड की संख्या तीन गुना करने का दावा हुआ था. कहा गया था कि ऑक्सीजन, बडे अस्थायी अस्पताल, पर्याप्त जांच क्षमताएं, क्वारंटीन सेंटर और कोविड सहायता केंद्र हमेशा तैयार हैं. लेकिन एक बार फिर अप्रैल में जांच में वही लंबा समय, बेड, ऑक्सीजन, दवा की कमी पहले से ज्यादा और ज्यादा बदहवास और भयावह!!

कोविड के बाद बाजार में नौ नई वेंटीलेटर कंपनियां आईं. उत्पादन क्षमता 4 लाख वेंटीलेटर तक बढ़ी लेकिन पता चला कि मांग तैयारी सब खो गई है. उद्योग बीमार हो गया.

 भारत में स्वास्थ्य क्षमताएं बनी भी थीं या सब कुछ कागजी था अथवा कुंभ के मेले की तरह तंबू उखड़ गए? सनद रहे कि दुनिया के सभी देशों ने कोविड के बाद स्वास्थ्य ढांचे को स्थानीय बना दिया क्योंकि खतरा गया नहीं है.

स्वास्थ्यकर्मियों की कमी (1,400 लोगों पर एक डॉक्टर, 1,000 लोगों पर 1.7 नर्स) सबसे बड़ी चुनौती थी, यह जहां की तहां रही और एक साल बाद पूरा तंत्र थक कर बैठ गया.

क्षमताओं का दूसरा पहलू और ज्यादा व्याकुल करने वाला है.

बीते अगस्त तक डॉ. रेड्डीज, साइजीन और जायडस कैडिला के बाजार में आने के बाद (कुल सात उत्पादक) प्रमुख दवा रेमिडि‍सविर की कमी खत्म हो चुकी थी. अप्रैले में फैवीफ्लू की कालाबाजारी होने लगी. इंजेक्शन न मिलने से लोग मरने लगे.

दुनिया की वैक्सीन फार्मेसी में किल्लत हो गई क्योंकि अन्य देशों की सरकारों ने जरूरतों का आकलन कर दवा, वैक्सीन की क्षमताएं देश के लिए सुरक्षित कर लीं. कंपनियों से अनुबंध कर लिए. और हमने वैक्सीन राष्ट्रवाद का प्रचार किया?

इतना तो अब सब जानते हैं कि कोविड को रोकने के लिए एजेंसि‍यों के बीच संवाद, संक्रमितों की जांच और उनके जरिए प्रसार (कांटैक्ट ट्रेसिंग) को परखने का मजबूत और निरंतर चलने वाला तंत्र चाहिए लेकिन बकौल प्रधानमंत्री सरकारें जांच घटाकर और जीत दिखाने की होड़ में लापरवाह हो गईं. यह आपराधि‍क है कि करीब 1.7 लाख मौतों के बावजूद संक्रमण जांच, कांटैक्ट ट्रेसिंग और सूचनाओं के आदान-प्रदान का कोई राष्ट्रव्यापी ढांचा या तंत्र नहीं बन सका.

दवा, ऑक्सीजन, बेड के लिए तड़पते लोग, गर्वीले शहरों में शवदाह गृहों पर कतारें...वि‍‍श्व गुरु, महाशक्ति, डिजिटल सुपरपावर या दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता का यह चेहरा खौफनाक है. यदि हम ऐसे निर्मम उत्सवप्रिय देश में बदल रहे हैं जहां सरकारें एक के बाद एक भव्य महाकुंभ, महाचुनाव और आइपीएल करा लेती हैं लेकिन महामारी के बीच भी अपने लोगों को अस्पताल, दवाएं, आक्सीजन यहां तक कि शांति से अंतिम यात्रा के लिए श्मशान भी नहीं दिला पातीं तो हमें बहुत ज्यादा चिंतित होने की जरूरत है.

भारत में किसी भी वक्त अधि‍कतम दो फीसदी (बीमार, स्वस्थ) से ज्यादा आबादी संक्रमण की चपेट में नहीं थी लेकिन एक साल गुजारने और भारी खर्च के बाद 28 राज्यों और विशाल केंद्र सरकार की अगुआई में कुछ नहीं बदला. भरपूर टैक्स चुकाने और हर नियम पालन के बावजूद यदि हम यह मानने पर मजबूर किए जा रहे हैं कि खोट हमारी किस्मत में नहीं, हम ही गए गुजरे हैं (जूलियस सीजर-शेक्सपियर) तो अब हमें अपने सवाल, निष्कर्ष और आकलन बदलने होंगे क्योंकि अब व्यवस्था ही जानलेवा बन गई है.

Sunday, June 23, 2019

सबसे बड़ा तक़ाज़ा


अपनी गलतियों पर हम जुर्माना भरते हैं लेकिन जब सरकारें गलती करती हैं तो हम टैक्स चुकाते हैंइसलिए तो हम टैक्स देते नहींवे दरअसल हमसे टैक्स ‘वसूलते’ हैंरोनाल्ड रीगन ठीक कहते थे कि लोग तो भरपूर टैक्स चुकाते हैंहमारी सरकारें ही फिजूल खर्च हैं.

नए टैक्स और महंगी सरकारी सेवाओं के एक नए दौर से हमारी मुलाकात होने वाली हैभले ही हमारी सामान्य आर्थिक समझ इस तथ्य से बगावत करे कि मंदी और कमजोर खपत में नए टैक्स कौन लगाता है लेकिन सरकारें अपने घटिया आर्थिक प्रबंधन का हर्जाना टैक्स थोप कर ही वसूलती हैं.

सरकारी खजानों का सूरत--हाल टैक्स बढ़ाने और महंगी सेवाओं के नश्तरों के लिए माहौल बना चुका है.

·       राजस्व महकमा चाहता है कि इनकम टैक्स व जीएसटी की उगाही में कमी और आर्थिक विकास दर में गिरावट के बाद इस वित्त वर्ष (2020) कर संग्रह का लक्ष्य घटाया जाए.

·       घाटा छिपाने की कोशिश में बजट प्रबंधन की कलई खुल गई हैसीएजी ने पाया कि कई खर्च (ग्रामीण विकासबुनियादी ढांचाखाद्य सब्सिडीबजट घाटे में शामिल नहीं किए गएपेट्रोलियमसड़करेलवेबिजलीखाद्य निगम के कर्ज भी आंकड़ों में छिपाए गएराजकोषीय घाटा जीडीपी का 4.7 फीसद है, 3.3 फीसद नहींनई वित्त मंत्री घाटे का यह सच छिपा नहीं सकतींबजट में कर्ज जुटाने का लक्ष्य हकीकत को नुमायां कर देगा. 

·       सरकार को पिछले साल आखिरी तिमाही में खर्च काटना पड़ानई स्कीमें तो दूरकम कमाई और घाटे के कारण मौजूदा कार्यक्रमों पर बन आई है.

·       हर तरह से बेजारजीएसटी अब सरकार का सबसे बड़ा ‌सिर दर्द हैकेंद्र ने इस नई व्यवस्था से राज्यों को होने वाले घाटे की भरपाई की जिम्मेदारी ली हैजो बढ़ती ही जा रही है.

सरकारें हमेशा दो ही तरह से संसाधन जुटा सकती हैंएक टैक्स‍ और दूसरा (बैंकों सेकर्जमोदी सरकार का छठा बजट संसाधनों के सूखे के बीच बन रहा हैबचतों में कमी और बकाया कर्ज से दबेपूंजी वंचित बैंक भी अब सरकार को कर्ज देने की स्थिति में नहीं हैं.

इसलिए नए टैक्सों पर धार रखी जा रही हैइनमें कौन-सा इस्तेमाल होगा या कितना गहरा काटेगायह बात जुलाई के पहले सप्ताह में पता चलेगी.

        चौतरफा उदासी के बीच भी चहकता शेयर बाजार वित्त मंत्रियों का मनपसंद शिकार हैपिछले बजट को मिलाकरशेयरों व म्युचुअल फंड कारोबार पर अब पांच (सिक्यूरिटी ट्रांजैक्शनशॉर्ट टर्म कैपिटल गेंसलांग टर्म कैपिटल गेंसलाभांश वितरण और जीएसटीटैक्स लगे हैंइस बार यह चाकू और तीखा हो सकता है.

        विरासत में मिली संपत्ति (इनहेरिटेंसपर टैक्स आ सकता है.

        जीएसटी के बाद टैक्स का बोझ नहीं घटानए टैक्स (सेसबीते बरस ही लौट आए थेकस्टम ड्यूटी के ऊपर जनकल्याण सेस लगाडीजल-पेट्रोल पर सेस लागू है और आयकर पर शिक्षा सेस की दर बढ़ चुकी हैयह नश्तर और पैने हो सकते हैं यानी नए सेस लग सकते हैं.

        लंबे अरसे बाद पिछले बजटों में देसी उद्योगों को संरक्षण के नाम पर आयात को महंगा (कस्टम ड‍्यूटीकिया गयायह मुर्गी फिर कटेगी और महंगाई के साथ बंटेगी. 
    और कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत में कमी के सापेक्ष पेट्रोल-डीजल पर टैक्स कम होने की गुंजाइश नहीं है.

जीएसटी ने राज्यों के लिए टैक्स लगाने के विकल्प सीमित कर दिए हैंनतीजतनपंजाबमहाराष्ट्रकर्नाटकगुजरात और झारखंड में बिजली महंगी हो चुकी हैउत्तर प्रदेशमध्य‍ प्रदेशराजस्थान में करेंट मारने की तैयारी हैराज्यों को अब केवल बिजली दरें ही नहीं पानीटोलस्टॉम्प ड‍्यूटी व अन्य सेवाएं भी महंगी करनी होंगी क्योंकि करीब 17 बड़े राज्यों में दस राज्य, 2018 में ही घाटे का लाल निशान पार कर गए थे. 13 राज्यों पर बकाया कर्ज विस्फोटक हो रहा है. 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के बाद राज्यों का आधा राजस्व केंद्रीय संसाधनों से आता है.

जीएसटी के बावजूद अरुण जेटली ने अपने पांच बजटों में कुल 1,33,203 करोड़ रुके नए टैक्स लगाए यानी करीब 26,000 करोड़ रुप्रति वर्ष और पांच साल में केवल 53,000 करोड़ रुकी रियायतें मिलीं. 2014-15 और 17-18 के बजटों में रियायतें थींजबकि अन्य बजटों में टैक्स के चाबुक फटकारे गएकरीब 91,000 करोड़ रुके कुल नए टैक्स के साथजेटली का आखिरी बजटपांच साल में सबसे ज्यादा टैक्स वाला बजट था.

देश के एक पुराने वित्त मंत्री कहते थेनई सरकार का पहला बजट सबसे डरावना होता हैसो नई वित्त मंत्री के लिए मौका भी हैदस्तूर भीलेकिन बजट सुनते हुए याद रखिएगा कि अर्थव्यवस्था की सेहत टैक्स देने वालों की तादाद और टैक्स संग्रह बढ़ने से मापी जाती हैटैक्स का बोझ बढ़ने से नहीं.



Sunday, February 11, 2018

टैक्स सत्यम्, बजट मिथ्या

सत्य कब मिलता है ?

लंबी साधना के बिल्कुल अंत में.

जब संकल्प बिखरने को होता है तब अचानक चमक उठता है सत्य. 

ठीक उसी तरह जैसे कोई वित्त मंत्री अपने 35 पेज के भाषण के बिल्कुल अंत में उबासियां लेते हुए सदन पर निगाह फेंकता है और बजट को सदन के पटल पर रखने का ऐलान करते हुए आखिरी पंक्तियां पढ़ रहा होता है, तब ...
अचानक कौंध उठता है बजट का सत्य.

टैक्स ही बजट का सत्य है, शेष सब माया है.

एनडीए सरकार के आखिरी पूर्ण बजट की सबसे बड़ी खूबी हैं इसमें लगाए गए टैक्स.

करीब 90,000 करोड़ रु. के कुल नए टैक्स के साथ यह पिछले पांच साल में सबसे ज्यादा टैक्स वाला बजट है.

पिछले पांच साल में अरुण जेटली ने 1,33,203 करोड़ रु. के नए टैक्स लगाए औसतन करीब 26,000 करोड़ रु. प्रति वर्ष. पांच साल में केवल 53,000 करोड़ रु. की रियायतें मिलीं. 2014-15 और 17-18 के बजटों में रियायतें थीं, जबकि अन्य बजटों में टैक्स के चाबुक फटकारे गए. जेटली के आखिरी बजट में टैक्सों का रिकॉर्ड टूट गया. 

टैक्स तो सभी वित्त मंत्री लगाते हैं लेकिन यह बजट कई तरह से नया और अनोखा है.

ईमानदारी की सजा

वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में जानकारी दी थी कि देश में आयकरदाताओं की तादाद 8.67 करोड़ (टीडीएस भरने वाले लेकिन रिटर्न न दाखिल करने वालों को मिलाकर) हो गई है. टैक्स बेस बढऩे से (2016-17 और 2017-18) में सरकार को 90,000 करोड़ रु. का अतिरिक्त राजस्व भी मिला. लेकिन हुआ क्या? ईमानदार करदाताओं का उत्साह अर्थात् टैक्स बेस बढऩे से टैक्स दर में कमी नहीं हुई.
याद रखिएगा कि इसी सरकार ने अपने कार्यकाल में कर चोरों को तीन बार आम माफी के मौके दिए हैं. एक बार नोटबंदी के बीचोबीच काला धन घोषणा माफी स्कीम लाई गई. तीनों स्कीमें विफल हुईं. कर चोरों ने सरकार पर भरोसा नहीं किया.
आर्थिक सर्वेक्षण ने बताया कि जीएसटी आने के बाद करीब 34 लाख नए करदाता जुड़े हैं लेकिन वह सभी जीएसटीएन को बिसूर रहे हैं और टैक्स के नए बोझ से हलकान हैं.

ताकि सनद रहे: टैक्स बेस में बढ़ोतरी यानी करदाताओं की ईमानदारी, सरकार को और बेरहम कर सकती है.  

सोने के अंडे वाली मुर्गी

भारतीय शेयर बाजारों में अबाधित तेजी को पिछले चार साल की सबसे चमकदार उपलब्धि कहा जा सकता है. मध्य वर्ग ने अपनी छोटी-छोटी बचतों से एक नई निवेश क्रांति रच दी. म्युचुअल फंड के जरिए शेयर बाजार में पहुंची इस बचत ने केवल वित्तीय निवेश की संस्कृति का निर्माण नहीं किया बल्कि भारतीय बाजार पर विदेश निवेशकों का दबदबा भी खत्म किया.
इस बजट में वित्त मंत्री ने वित्तीय निवेश या बचत को नई रियायत तो नहीं उलटे शेयरों में निवेश पर लॉन्ग टर्म कैपिटल गेंस और म्युचुअल फंड पर लाभांश वितरण टैक्स लगा दिया. शेयरों व म्युचुअल फंड कारोबार पर अब पांच (सिक्यूरिटी ट्रांजैक्शन, शॉर्ट टर्म कैपिटल गेंस, लांग टर्म कैपिटल गेंस, लाभांश वितरण और जीएसटी) टैक्स लगे हैं. बाजार गिरने के लिए नए गड्ढे तलाश रहा है.

ताकि सनद रहे: वित्तीय निवेश को प्रोत्साहन नोटबंदी का अगला चरण होना चाहिए था. ये निवेश पारदर्शी होते हैं. भारत में करीब 90 फीसदी निजी संपत्ति भौतिक निवेशों में केंद्रित है. नए टैक्स के असर से बाजार गिरने के बाद अब लोग शेयरों से पैसा निकाल वापस सोना और जमीन में लगाएंगे जो दकियानूसी निवेश हैं और काले धन के पुराने ठिकाने हैं. 

लौट आए चाबुक

उस नेता को जरूर तलाशिएगा, जिसने यह कहा था कि जीएसटी के बाद टैक्स का बोझ घटेगा और सेस-सरचार्ज खत्म हो जाएंगे. इस बजट ने तो सीमा शुल्क में भी बढ़ोतरी की है, जो करीब एक दशक से नहीं बढ़े थे. नए सेस और सरचार्ज भी लौट आए हैं. सीमा शुल्क पर जनकल्याण सेस लगा है और डीजल-पेट्रोल पर 8 रु. प्रति लीटर का सेस. आयकर पर लागू शिक्षा सेस एक फीसदी बढ़ गया है. यह सब इसलिए कि अब केंद्र सरकार ऐसे टैक्स लगाना चाहती है जिन्हें राज्यों के साथ बांटना न पड़े. ऐसे रास्तों से 2018-19 में सरकार को 3.2 लाख करोड़ रु. मिलेंगे.

जीएसटी ने खजाने की चूलें हिला दी हैं. इसकी वजह से ही टैक्स की नई तलवारें ईजाद की जा रही हैं. जीएसटी के बाद सभी टैक्स (सर्विस, एक्साइज, कस्टम और आयकर) बढ़े हैं, जिसका तोहफा महंगाई के रूप में मिलेगा.


सावधान: टैक्स सुधारों से टैक्स के बोझ में कमी की गारंटी नहीं है. इनसे नए टैक्स पैदा हो सकते हैं. 

Monday, August 14, 2017

आजादी के बाद आजादी



आजादी के बाद क्या होता है?
देश के लोग अपनी सरकार बनाते हैं.
आजादी के बादआजादी को सबसे बड़ा खतरा किससे होता है?
सरकार से!

राजनीतिशास्त्र के एक प्रोफेसर ठहाके के साथ यह संवाद अक्सर दोहराते थे और सवालों का गुबार छोड़ जाते थे.

विदेशी ताकत की गुलामी से मुक्त होते हीकिसी भी देश के लिए आजादी के मतलब पूरी तरह बदल जाते हैं. गुलामी से निजात के बाद ''अपनीसरकारों को अपने लोगों की आजादी में लगातार बढ़ोतरी करनी होती है. लोगों की अपनी सरकारें उनकी आजादियों के जिस तरह सजाती संवारती है उसी अनुपात में नागरिकों का दायित्‍व बोध निखरता चला जाता है  

भारत के पास सामाजिकवैचारिक और आर्थिक स्वाधीनताओं की अनोखी परंपरा रही है उपनिवेशवाद ने जिसे सीमित किया था ताकि इस गतिमान देश पर शासन किया जा सके. अब जबकि हर प्रमुख राजनैतिक दल या विचारधारा की सत्ता में आवाजाही हो चुकी है तब आजादी के सत्तर साल के मौके पर यह देखना जरूरी है कि हमारे हाकिमों ने भारतीय समाज की ऐतिहासिक स्वाधीनताओं से क्या सीखा और उसे कितना बढ़ाया या संवारा है?

- भारत एक था मगर एकरूप नहीं. ब्रितानीअपने राज के लिए इस जटिल देश को पीट-पाटकर एकरूप करने की कोशिश में लगे रहे. आजादी के बाद भी सरकारों ने एकरूपता (एकता नहीं) की जिद नहीं छोड़ी. किसी को यह विविधताएं विकास में बाधक लगीं तो किसी को राष्ट्रवाद में. क्षेत्रीय व स्थानीय अपेक्षाओं से कटी और ऊपर से थोपी गई नीतियों के कारण भारत गवर्नेंस की गफलतों का अजायबघर है.

-1950 से 2010 के बीच करीब 250 से अधिक से  सरकारी कंपनियां बनीं. आधी तो उदारीकरण के दौरान प्रकट हुईं. मुगल और ब्रिटिश राज के बीच भी अपनी स्वतंत्र उद्यमिता को बचाकर रखने वाला देश कभी यह नहीं समझ सका कि सरकारें आखिर कारोबार की पूरी आजादी क्यों नहीं देतीं. वह क्यों कारोबार करते रहना चाहती है या फिर कुछ खास अपनों को कारोबारी सफलता के अवसर देने में भरोसा रखती हैं. 

- सरकार को बड़ा करते जाने की सूझ लंदन वालों की विरासत थी. उन्हें शासन में मददगार लोग चाहिए थे. पिछले कुछ दशकों में ब्रिटेन में नौकरशाही छोटी होती गई लेकिन भारत में सरकारें मोटी होती गईं. इतिहास बताता है कि अधिकांश भारत ने (संकटों को छोड़कर) जीविका के लिए कभी राजा या सत्ता की तरफ नहीं देखा था. लेकिन फैलती सरकारें अपनी मुट्ठी भर नौकरियां लेकर आरक्षण की सियासत में उतर गईं.

-ब्रिटेन के लिए भारत कमाई का स्रोत था इसलिए उत्पादन और खपत पर टैक्स लगाने का सिलसिला 19वीं सदी के अंत में नमक और कपड़े पर टैक्स से शुरू हुआ. बीसवीं सदी के अंत में सभी उत्पादनों पर एक्साइज ड्यूटी लग गई. अगले दशकों में जब यूरोप मांगखपतउत्पादन और रोजगार बढ़ाने के लिए टैक्स घटा रहा था तब भारत सेवाओं पर भी टैक्स लगा रहा था. बढ़ती सरकार को पालने के लिए लोगों की जिंदगी महंगा करना जरूरी हो गया. जीएसटी ने इस परंपरा को पूरी पवित्रता के साथ जारी रखा है. जितना टैक्स हम चुकाते हैं यदि उतनी ही बड़ी सरकार हमें मिलने लगे तो पता नहीं तो क्या हाल होगा.

- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब पुराने कानूनों को खत्म कर रहे थे तो उनकी नजर उन बर्तानवी कानूनों पर भी गई होगी जो अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक के लिए बने थे. अपनी’ सरकारों ने इन्हें सत्तर सालों मे सहेजा और बढ़ाया है. सरकार अपने नागरिकों की निजता के अधिकार पर बुरी तरह असहज है. सवाल पूछते लोग हुक्मरानों को डराने लगे तो सूचना का अधिकार टिकाऊ साबित नहीं हुआ.

- ब्रिटिश शासकों को मालूम था कि भारत ऐतिहासिक तौर पर ताकतवर समाज वाला देश हैइस समाज के सभी पुराने आख्यान राजाओं की ताकत सीमित करने के संदेश देते हैं. ताकतवर और स्वतंत्र समाज से मुकाबले के लिएबर्तानवी शासकों ने सत्ता को अकूत शक्तियों से लैस किया था. आजादी के बाद आई सरकारों ने सत्ता की ताकत बढ़ाने का मौका नहीं चूका. सरकारें फैलती चली गईं और संवैधानिक संस्थाओं के बीच टकराव भारत का स्थायी भाव बन गया.

आजादी को सिर्फ बचाना ही नहींबढ़ाना भी होता है. अमेरिका ने गुलामी से मुक्ति के बाद आजादियां बढ़ाने के नए प्रयेाग किए जो दुनिया के लिए आदर्श बने. भारत के हुक्मरान अगर अमेरिका नहीं तो कम से कम अपने भव्य अतीत से तो सबक ले ही सकते हैं .  

रोनाल्ड रीगन कहते थे सरकारें भौतिकी के क्रिया-प्रतिक्रिया नियम की तरह होती हैं. सरकार जितनी बड़ी होती जाती है आजादी उतनी ही छोटी होती जाती है.
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Sunday, November 22, 2015

मुश्किलों के अच्‍छे दिन


स्‍वच्‍छ भारत सेस लगाने के ताजा तरीके ने यह साबित किै कि सरकार में कुछ भी नहीं बदला है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस समय लंदन के वेंबले स्टेडियम में गरज रहे थे और भारत को कारोबार के लिए आदर्श जगह बता रहे थे, ठीक उसी समय देश के उद्यमी और व्यापारी स्वच्छ भारत सेस (उपकर) की गुत्थियों से उलझ रहे थे जो भारत में कारोबार को आसान बनाने को लेकर किए गए ताजा दावों की चुगली खाता है. अपनी अपारदर्शिता के चलते सेस यानी उपकर टैक्सेशन में सबसे निचले दर्जे के उपकरण हैं, ऊपर से इसे लगाने के ताजा तरीके ने यह साबित कर दिया है कि सरकार में कहीं कुछ नहीं बदला है. राज्यों को नरेंद्र मोदी सरकार का सेस राज्य चिंतित कर रहा है और रही बात उपभोक्ताओं की तो उनके लिए तो समझ से ही परे है कि महंगाई की मार के बीच सरकार इनडाइरेक्ट टैक्स बढ़ाकर क्या साबित और हासिल करना चाहती है.
सेस कभी भी ऐसे नहीं लगाए गए जैसे कि एनडीए सरकार स्वच्छ भारत सेस लेकर आई. सेस लगाने के समय और तरीके ने सरकार में सूझ की घोर कमी को साबित किया है. 6 नवंबर को सर्विस टैक्स पर 0.5 फीसदी स्वच्छ भारत सेस लगाने की अधिसूचना जारी हुई और 15 नवंबर से यह लागू हो गया. यह पता नहीं कौन-सी कारोबारी सहजता थी जो महीने के बीच से एक नया कर लगा दिया गया. उद्यमियों व व्यापारियों को बिलों व रिटर्न में इस सेस का अलग से हिसाब करना होगा लेकिन त्योहारी छुट्टियों के बीच उनके पास नई एकाउंटिंग की तैयारी का समय तक नहीं था, इस बीच स्वच्छ भारत सेस उनके सिर पर आकर खड़ा हो गया. इस सेस को लेकर तीन अलग-अलग अधिसूचनाएं जारी की गईं जो बला की भ्रामक थीं. इसके बाद एक लंबी प्रेस रिलीज जारी हुई और फिर आई एक विस्तृत प्रश्नोत्तरी. इस पूरी कवायद के बाद किसी को यह मुगालता नहीं रहा कि केंद्रीय सीमा व उत्पाद शुल्क बोर्ड ने इस सेस को लेकर कोई तैयारी नहीं की थी. शायद बिहार विधानसभा चुनाव खत्म होने का इंतजार था जिसके बाद इसे अचानक थोप दिया गया. बेचारे व्यापारी सर्विस टैक्स की दर में ताजा बढ़ोतरी के मुताबिक अपने बिल वाउचर ठीक कर पाते, इससे पहले ही उनके लिए नया मोर्चा खुल गया है.
स्वच्छ भारत सेस में स्वच्छता की बड़ी कमी है. इसे लगाने के बाद सर्विस टैक्स की दर करीब 14.50 फीसदी हो जाएगी. बजट में जब सर्विस टैक्स (एजुकेशन सेस सहित) की दर 12.36 फीसदी से बढ़ाकर 14 फीसदी की गई थी उसी वक्त इस सेस को जोड़ कर सर्विस टैक्स को 14.50 फीसदी किया जा सकता था या फिर सरकार अगले बजट तक रुक सकती थी, जिसमें अब केवल तीन माह बचे हैं. ध्यान रहे कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बजट में 2 फीसदी की दर से स्वच्छ भारत सेस लगाने का ऐलान किया है यानी अभी और सेस लगेगा या सर्विस टैक्स की दर को बढ़ाकर 16 या 18 फीसदी किया जाएगा. यदि सरकार जीएसटी के जरिए कारोबार को आसान करने का दावा कर रही है तो यह सेस उन दावों का बिल्कुल उलटा है, क्योंकि एनडीए सरकार के इस नए सेस राज से कारोबारियों के लिए कर नियमों के पालन की लागत (कंप्लायंस कॉस्ट) बुरी तरह बढऩे वाली है.
यह सेस राज नए किस्म के अपारदर्शी इनडाइरेक्ट टैक्स सिस्टम की आहट है, जिसकी उम्मीद मोदी सरकार से तो नहीं थी जो यह मानती रही है कि परतदार करों का मकडज़ाल, महंगाई की सबसे बड़ी वजह है. प्राथमिक शिक्षा व उच्च शिक्षा सेस, पेट्रोलियम पर रोड डेवलपमेंट सेस, निर्यातों पर सेस पहले कायम हैं. इसी बजट में सरकार ने कोयले पर क्लीन एनर्जी सेस की दर दोगुनी कर दी है. इसके बाद स्वच्छ भारत सेस के साथ वित्त मंत्री ने सेस परिवार में नया सदस्य जोड़ दिया है. मोदी सरकार के पहले दो बजट अप्रत्यक्ष करों से भरपूर रहे हैं. सरकार का अप्रत्यक्ष कर संग्रह बेहतर रफ्तार दिखा रहा है इसलिए नए टैक्स टाले जा सकते थे. सरकार को यह सोचना पड़ेगा कि क्या मंदी से जूझती अर्थव्यवस्था इनडाइरेक्ट टैक्स की इतनी मार झेल सकती है और क्या टैक्स राज के जरिए महंगाई की आंच बढ़ाकर सरकार अपने लिए राजनैतिक मुसीबत नहीं न्योत रही है?
सरकार का सेस राज जीएसटी पर सहमति की राह में भी बाधा बनने को तैयार है. मोदी सरकार ने केंद्रीय करों में राज्यों का हिस्सा बढ़ाने की वित्त आयोग की सिफारिश मानने के बाद राजस्व में कमी को पूरा करने के लिए सेस और सरचार्ज की बारिश कर दी है. सभी तरह के सेस व सरचार्ज से केंद्र सरकार को करीब 1.15 लाख करोड़ रु. का राजस्व मिलने का अनुमान है. राज्य सरकारें यह सवाल जरूर उठाएंगी कि केंद्र सरकार बुनियादी टैक्स ढांचे से किनारा करते हुए सेस व सरचार्ज के जरिए राजस्व जुटा रही है जो वित्तीय संघवाद के माफिक नहीं है. मोदी सरकार जब जीएसटी पर राज्यों को सहमत करने की कोशिश कर रही है तो इस तरह की राजस्व चालाकी से बचना चाहिए था. यह सेस राज न केवल उद्योगों, उपभोक्ताओं की मुसीबत है बल्कि राज्यों के बीच केंद्र की साख को भी कम करेगा.
टैक्सेशन को लेकर मोदी सरकार के अठारह महीनों का कामकाज यह बताता है कि या तो सरकार में एक हाथ को यह पता नहीं है कि दूसरा हाथ क्या कर रहा है अथवा फिर कहीं कोई योजना ही नहीं है और व्यवस्था ज्यों की त्यों है. भारत में कारोबारी सहजता का परचम लेकर दुनिया में घूम रहे प्रधानमंत्री इस तथ्य से अनभिज्ञ कैसे हो सकते हैं कि उनकी सरकार का टैक्स प्रशासन भारत में धंधे को मुश्किल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है. पहले इनकम टैक्स, मैट के फैसलों ने निवेशकों की उम्मीदें तोड़ी थीं और अब एक्साइज व सर्विस टैक्स की बारी है.
क्या प्रधानमंत्री व वित्त मंत्री कुछ ठहर कर यह जांचने की कोशिश करेंगे कि उनके वादों और हकीकत के बीच अंतर नहीं बल्कि एक खाई तैयार हो चुकी है जो सरकार की साख को हर दिन निगल रही है? उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि बदलाव के अवसरों की भी उलटी गिनती शुरू हो चुकी है.