बधाई! हमने अपने बजट की पुरानी मुसीबतों को फिर खोज लिया है। सब्सिडी का वही स्यापा, सरकारी स्कीमों के असफल होने का खानदानी मर्ज, खर्च बेहाथ होने का बहुदशकीय रोना और बेकाबू घाटे का ऐतिहासिक दुष्चक्र। लगता हैं कि हम घूम घाम कर वहीं आ गए हैं करीब बीस साल पहले जहां से चले थे। उदारीकरण के पूर्वज समाजवादी बजटों का दुखदायी अतीत जीवंत हो उठा है। हमें नास्टेल्जिक (अतीतजीवी) होकर इस पर गर्व करना चाहिए। इसके अलावा हम कर भी क्या कर सकते हैं। बजट के पास जब अच्छा राजस्व, राजनीतिक स्थिरता, आम लोगों की बचत, आर्थिक उत्पादन में निजी निवेश आदि सब कुछ था तब हमारे रहनुमा बजट की पुरानी बीमारियों से गाफिल हो गए इसलिए असंतुलित खर्च जस का तस रहा और जड़ो से कटीं व नतीजो में फेल सरकार स्कीमों में कोई नई सूझ नहीं आई । दरअसल हमने तो अपनी ग्रोथ के सबसे अच्छे वर्ष बर्बाद कर दिये और बजट का ढांचा बदलने के लिए कुछ भी नया नहीं किया। हमारे बजट का सूझ-कोषीय घाटा, इसके राजकोषीय घाटे से ज्यादा बड़ा है।
बजट स्कीम फैक्ट्री
बजट में हमेशा से कुछ बड़े और नायाब टैंक रहे हैं। हर नई सरकार इन टैंकों पर अपने राजनीतिक पुरखों के नाम का लेबल लगा कर ताजा पानी भर देती है। यह देखने की फुर्सत किसे है इन टैंकों की तली नदारद है। इन टंकियों को सरकार की स्कीमें कह सकते हैं। बजट में ग्रामीण गरीबी उन्मूलन व रोजगार, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल और ग्रामीण आवास को मिलाकर कुल पांच बड़ी टंकियों, माफ कीजिये, स्कीमों का कुनबा है। देश में जन कल्याण की हर स्कीम की तीन पीढिय़ा बदल गईं हैं मगर हर स्कीम असफलता व घोटाले में समाप्त हुई। गरीब उन्मूलन और ग्रामीण रोजगार स्कीमें तो असफल प्रयोगों का अद्भुत इतिहास