Tuesday, July 7, 2015
ग्रीक ट्रेजडी के भारतीय मिथक
Monday, March 25, 2013
साइप्रस का सच
Monday, June 18, 2012
यूरोप का खौफ खाता
Monday, July 25, 2011
साख की राख
Monday, June 20, 2011
विश्वत्रासदी का ग्रीक थियेटर
Friday, May 28, 2010
चाईनीज चेकर ....Chinese Checker
मगर चीन ही क्यों या चाइनीज चेकर ही क्यों.???... क्यों कि आने वाले दौर में चीन के कदम बहुत गौर से देखने चाहिए। चीन हर तरह से तैयार है। चीन नपे तुले दांव चलता है। चीन दिलचस्प है । चीन आर्थिक खबरों में कम दिखता है। मगर चीन चुपचाप छा जाता है। चीन अमीर, आक्रामक और अबूझ है। हर आर्थिक घटनाक्रम की ,पीछे दुनिया, अमेरिका और यूरोप को तलाशती है मगर इस गुल गपाड़े में चतुर चीन चुपचाप सम्मोहन फैला कर अपना काम कर जाता है। चाइनीज चेकर में आप समय समय पर पढ़ेंगे दुनिया की आर्थिक बिसात पर चीन की चालों का विश्लेषण। चीन के बारे में ताजा मालूम-नामालूम खबरों की रोशनी में।)
यह रहा पहला चाइनीज चेकर।....
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चीनी नुस्खे, खास यूरोप के लिए
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कर्ज की बीमारी से बुरी तरह कमजोर और टूटे यूरोप को अब क्या चीन की दवा चाहिए ? ... उसी चीन ,की जिसे 18-19 वीं सदी में ओपियम युद्ध हार कर यूरोप (ब्रिटेन) के सामने घुटने टेकने पड़े थे। मालूम है, डिफाल्ट होने के करीब पहुंच चुके ग्रीस को इस समय कौन मदद करने पहुंचा है ?....अपना पड़ोसी चीन। ग्रीस के प्रधानमंत्री जॉर्ज पापेंद्रो अपने देश को उबारने के लिए चीन की शरण में हैं। .... चीन खुशी खुशी तैयार है। चीन की सबसे बड़ी शिपिंग कंपनी कॉस्को ग्रीस के शिपिंग उद्योग को संकट के तूफान से निकाल कर किनारे तक लाएगी। लबालब भरी तिजोरियों के सहारे चीन की यह कंपनी ग्रीस के लिए 200 मिलियन यूरो की दवा लेकर पहुंच गई है। कॉस्को एथेंस के करीब चीन एक लॉजिस्टिक्स सेंटर बनाने वाली है। डूबते ग्रीस को यह निवेश बड़ा सहारा देगा।
ग्रीस के लिए शिपिंग नमक है और पर्यटन रोटी। ग्रीस के अमीरों की नई पीढ़ी अपनी शिपिंग कंपनी खोलने के सपने देखकर कर बड़ी होती है। लाजिमी भी है आखिर शिपिंग पर्यटन के बाद ग्रीस का दूसरा बड़ा उद्योग जो है। ग्रीस के जीडीपी में करीब पांच फीसदी का हिस्सेदार, करीब दो लाख लोगों को रोजगार देने वाला। एक देश के पास 3079 मालवाहक जहाज !!! हैरत की तो बात है ही। यह किसी एक देश के पास मालवाहक जहाजों का सबसे बड़ा बेड़ा है। ग्रीस दुनिया में टैंकर व बल्क कैरियर परिवहन में पहले नंबर पर है। प्राचीन यूनान से लेकर आज के ग्रीस तक दुनिया के जबर्दस्त जहाजी इसी मुल्क से आते हैं। दुनिया के सबसे एतिहासिक समुद्री मार्गों के चौराहे पर स्थित ग्रीस के लिए शिपिंग स्वाभाविक है इसलिए तभी तो ग्रीस के नए पुराने (गैलिक्सिडी, कोर्फू और मैसोलांग आदि) शहर समुद्री परिवहन में दुनिया की ताकत रहे हैं। इसके बाद बताने की जरुरत नहीं ग्रीस में शिपिंग टायकून्स की क्या हैसियत है और ग्रीस के लिए शिपिंग उद्योग कितना जरुरी है।
मगर बात तो हम ड्रैगन की कर रहे थे। दुनिया को पता भी नहीं चला और ड़ैगन ने बीते साल अकटूबर में चुपचाप एथेंस के बंदरगाह पाइरियस पर एक कंटेनर टर्मिनल खरीद लिया। यह मानो ग्रीस के सबसे अहम उद्योग पर दांत गड़ाने की तैयारी थी। अपनी जहाजी दुनिया में चीन के प्रवेश के एक साल के भीतर ही मंदी का मारा और कर्ज संकट से घिरा ग्रीस, शिपिंग उद्योग को लेकर ड़ैगन के सामने खड़ा है। दरअसल एक तरह से ग्रीस का शिपिंग उद्योग चीन का अहसानमंद है। बीते कुछ वर्षों में ग्रीस के इस सबसे अहम कारोबार को चीन ने ही पाला पोसा है। चीन ने ग्रीस की शिपिंग कंपनियों को लोहा अयस्क ढोने के बड़े बड़े ठेके दिये हैं, जिनके सहारे ग्रीस में शिपिंग रईसों की बाढ़ आ गई। यानी कि चीन ग्रीस से दूर जरुर है मगर सिर्फ नक्शे पर । ग्रीस की आर्थिक रीढ़, शिपिंग अब ड्रैगन की नई पसंद है। ....
800 आधुनिक जलयान, 400 मिलियन टन का परिवहन, 1500 बंदरगाहों से संपर्क और 160 देशों से कारोबार करने वाली चीन की महाकाय शिपिंग कंपनी कॉस्को इस समय ग्रीस के लिए रेस्क्यू बोट यानी जीवन रक्षक जहाज लेकर पहुंची है। यह दांव बड़ा गहरा है। चीन अच्छी तरह जानता है कि जो मौके पर मारे वही मीर.........
ड्रैगन बीमार यूरोप पर अपना मंत्र फेंक रहा है। .....
यूरोप में चीन की चालें बड़ी सधी और दिलचस्प होने वाली हैं.... गौर से देखियेगा !!
यही तो है चाइनीज चेकर !!
Monday, May 24, 2010
शायलाकों से सौदेबाजी
....और सूद में चिडि़यों की बीट
कर्ज व्यक्ति पर हो या देश पर, वसूली गलादाब ही होती है। 1890 के करीब दक्षिण अमेरिकी मुल्क पेरु जब कर्ज चुकाने में चूका तो कर्जदारों से सौदा दो मिलियन टन गुआनो (चिडि़यों की उर्वर बीट), 66 साल के लिए रेलवे पर नियंत्रण और टिटिकाका झील में बोट चलाने के अधिकारों के बदले छूटा। दुनिया के ताकतवर महाजन अभी पिछली सदी के मध्य तक कर्जो के बदले दक्षिण अमेरिकी व अफ्रीकी देशों के रेलवे, नौवहन, टैक्स तंत्र जैसे आय के मुख्य स्रोत कुर्क करते रहे हैं। मैक्सिको कर्ज न चुकाने के कारण 1861 में फ्रांस के हमले (स्पेन व ब्रिटेन की मदद से) का शिकार होकर गुलाम बना था। वेनेजुएला के समुद्री परिवहन पर जर्मनी, ब्रिटेन व इटली का प्रतिबंध हो या निकारागुआ और डोमनिकन रिपब्लिक के सीमा शुल्क प्रशासन पर अमेरिका का कब्जा, पिछली सदी की इन चर्चित घटनाओं के मूल में संप्रभु कर्जो से चूकने की ही कहानी है। वैसे यह बातें कुछ पुरानी सी लगती हैं क्योंकि आधुनिक दुनिया अब कर्ज के बदले चिडि़यों की बीट और रेलवे पर कब्जे जैसे सौदे नहीं करती। मगर यकीन मानिए कि कर्ज में चूकने वालों के प्रति वह उतनी ही निर्मम है। यही वजह है कि देशों को दिए जाने वाले कर्ज के बाजार में आज भी महाजनों का ही राज है।
महाजनों के क्लब
यूरोप के पिग्स (पुर्तगाल, इटली, ग्रीस, स्पेन आदि) अगर कर्ज देने में चूके तो हो सकता है कि दुनिया को एक बार फिर संप्रभु कर्ज की समस्या के अंतरराष्ट्रीय तंत्र (सॉवरिन डेट रिस्ट्रक्चरिंग मेकेनिज्म-एसआरडीएम) की याद आए लेकिन हकीकत यह है कि पिछली दो सदियों से संप्रभु कर्ज के बाजार पर महाजनों का ही राज है। दुनिया चाहे जितनी काबिल हो गई हो लेकिन वह कर्ज के फेर में बर्बाद होने वाले देशों को पारदर्शी ढंग से कर्ज चुकाने का तंत्र नहीं दे सकी है। इसके बदले दुनिया को मिले हैं पेरिस क्लब और लंदन क्लब। यकीनन, यही नाम हैं कर्ज देने वाले पक्षों के दो समूहों के। लंदन क्लब सातवें दशक में बना, जबकि पेरिस क्लब उसे बीस साल पहले बन चुका था। यह समूह तदर्थ हैं। इनका कोई कानूनी आधार नहीं है लेकिन कर्ज देने वाले इनके जरिए ही सौदेबाजी करते रहे हैं। लंदन क्लब वाणिज्यिक कर्जो के लिए सौदेबाजी करता है। जबकि पेरिस क्लब सरकारों के स्तर से दिए गए संप्रभु कर्जो की। संप्रभु कर्ज के खेल में विश्व बैंक व आईएमएफ की भूमिका केवल परेशान देश को ऑक्सीजन देने तक है। कर्ज देने वाले अपनी शर्तो पर कर्ज का पुनर्गठन करते हैं। 2002 में अर्जेटीना के कर्ज संकट के बाद दुनिया संप्रभु कर्जो को लेकर कुछ सतर्क हुई है। संप्रभु बांड जारी करने वाले देशों के अधिकारों की फिक्र होने लगी है और निर्मम हेज फंड (वल्चर फंड) की मनमानी को रोकने के कुछ नए नियम बनाए गए हैं लेकिन यह सब कोई अंतरराष्ट्रीय संधि या कानून नहीं है। अर्जेटीना का इतिहास बताता है कि वह अपना 75 फीसदी कर्ज ही पुनर्गठित कर सका। 20 बिलियन डॉलर के मूलधन, 10 बिलियन डॉलर काब्याज और कुछ अन्य विवादित कर्ज दक्षिण अमेरिका के इस मुल्क के हलक में अभी भी फंसा है।
कर्ज का 'हेयरकट' साख का मुंडन
डिफॉल्टर देश जब कर्ज देने वालों के सामने लेन देन पूरा करने के लिए कर्ज घटाने का प्रस्ताव करता है तो उसे वित्तीय बाजार हेयरकट कहता है। मगर कर्ज पुनर्गठन की यह प्रक्रिया उस देश की साख का मुंडन कर देती है। अर्जेटीना के 141 बिलियन डॉलर के डिफॉल्ट में करीब 82 बिलियन डॉलर मूलधन था और हेयरकट कर्ज समायोजन प्रस्ताव का हिस्सा था। संप्रभु कर्ज के पुनर्गठन की लंबी व पेचीदा सौदेबाजी के बाद कर्जो की देनदारी आगे खिसकाई जाती है और कर्जदारों को नए बांड दिए जाते हैं, जिसमें कर्ज देने वाले पक्षों को नुकसान भी होता है। कई देश वाणिज्यिक कर्जदारों को अपनी कंपनियों में इक्विटी देकर स्वैप करते हैं। चिली इसका ताजा और सफल उदाहरण है। मगर पूरी प्रक्रिया डिफॉल्टर देश को वित्तीय बाजार में दागी कर देती है। अर्जेटीना ने इसी अप्रैल में अपने कर्जदारों को हेयरकट का नया प्रस्ताव दिया है। अर्जेटीना की पेशकश है कि कर्जदार पिछले कर्ज के बदले नए बांडों को डिस्काउंट पर खरीदकर बात नक्की करें। अर्जेटीना अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाजार में अभी भी कालेपानी की सजा झेल रहा है। वह निर्वासन दूर करने व सामान्य देश बनने के लिए गिड़गिड़ा रहा है।
शायलॉक याद है आपको? शेक्सपियर के मशहूर नाटक मर्चेट ऑफ वेनिस का खलनायक, सूदखोर (लोन शार्क) महाजन, जो एंटोनियो से कर्ज के बदले उसके शरीर का एक हिस्सा मांगता है। कर्ज की दुनिया शेक्सपियर के जमाने से आज तक लगभग वैसी ही बेढंगी है। यहां रंग और ढंग बदला है लेकिन तासीर नहीं। अब तो यूरोपीय सेंट्रल बैंक ने खुद बाजार से यूरोपीय देशों के कचरा रेटिंग वाले बांड (16 बिलियन डॉलर के सौदे) खरीद रहा है। यह यूरो जोन के केंद्रीय बैंक का (बाजार की भाषा में न्यूक्लियर ऑप्शन) ब्रह्मास्त्र है। इसके बावजूद वित्तीय बाजार मान रहा है कि यूरोपीय बैंक का मंत्र, आईएमएफ की मदद और जर्मनी की दया ग्रीस को उबार नहीं सकती। महाजनों की दुनिया, 130 बिलियन डॉलर के कर्जदार ग्रीस को कर्ज पुनर्गठन की कीलों भरी कुर्सी पर बैठाने के लिए बेताब है। स्पेन, पुर्तगाल भी शायद इसी कतार में हैं।
इतनी बारिश हो चुकी है रात इस दीवार पर
कल सुबह जो धूप निकली तो भी यह गिर जाएगी
Monday, May 17, 2010
ऐसा भी हो सकता है?
जरा बताइए तो यह इशारा किन देशों की तरफ है???
स्पेन, पुर्तगाल, आयरलैंड !!!!
नहीं.. इनके बारे में तो सबको पता है
यह बात अमेरिका, यूके (ब्रिटेन), जापान और कुछ हद तक जर्मनी की है !!!
चौंक गए न? ग्रीस के तूफान ने मजबूत दिखने वाले बड़ों के नकाब खींच दिए हैं। वित्तीय बाजार अब रेत से सर निकालकर यह निर्मम सच बोलने की हिम्मत जुटा रहा है कि बड़े भीतर से बड़े खोखले हैं। अमीर देशों के क्लब जी 20 के आधा दर्जन महारथी ऋण संकट के टाइम बम पर बैठे हैं। इनके सरकारी कर्ज खतरे के हर निशान से ऊपर हैं। वित्तीय बाजार इन्हें नया कर्ज देने में हिचक रहा है। वित्तीय संस्थाएं जल्द ही ट्रिपल ए रेटिंग के अवसान का ऐलान कर सकती हैं। मतलब उस सुनहरी साख का खात्मा होने वाला है जो दिग्गज देशों के सरकारी (सावरिन) बांड्स को मिलती है और इन्हें हर तरह से सुरक्षित होने का तमगा देती है। बताने की जरूरत नहीं कि वित्तीय बाजार निहायत कायर है। खतरे के एक अलार्म पर यहां कोई किसी की चिंता नहीं करता, बस सारी भेड़ें खाई में कूद पड़ती हैं।
कितनी दूर तक जाएगी बात?
सरकारों पर तंज करने वाले कहते हैं कि आम लोग अगर सरकारों की तरह व्यवहार करने लगें तो आप पुलिस को बुला लेंगे.. बात भी ठीक है, खाली जेब हो तो कोई कर्ज नहीं देता, लेकिन सरकारें खूब ऐसा करती हैं। अंतरराष्ट्रीय पैमाने के मुताबिक अगर किसी देश का कर्ज जीडीपी से 60 फीसदी ऊपर हो और ऊपर से वह विदेशी कर्ज हो तो उस मुल्क को कर्ज संकट रोग कभी भी पकड़ सकता है। मगर मूडी के आकलन के मुताबिक सिर्फ 2007 से 2009 के बीच दुनिया के जीडीपी के अनुपात में सरकारों का संप्रभु कर्ज 62 फीसदी से बढ़कर 85 फीसदी हो गया है। इनमें भी जी 20 के सदस्य नौ प्रमुख देशों में सात का संप्रभु कर्ज उनके जीडीपी की तुलना में दस फीसदी बढ़ गया है। जब कि इस दौरान जी 20 में औसत बजट घाटे एक फीसदी से बढ़कर करीब आठ फीसदी हो गए। निवेशकों को खतरा साफ दिख रहा है और संप्रभु डिफाल्ट तो छूत का रोग है। इसे देखते ही वित्तीय बाजार नाक मुंह पर सतर्कता का मास्क बांध लेता है।
इनका हाल तो देखो!
न्यूयार्क के मैनहट्टन में सिक्स्थ एवेन्यू पर लगी अमेरिका की राष्ट्रीय कर्ज घड़ी में नौ अक्टूबर, 2008 को कर्ज की वास्तविक स्थिति दिखाने के लिए अंक कम पड़ गए थे। अमेरिका के कर्ज ने तब दस ट्रिलियन डालर के आंकड़े को पार किया था। यह शायद अमेरिका में कर्ज संकट की उलटी गिनती की शुरुआत थी। यह घड़ी 16 मई रविवार को करीब 12.9 ट्रिलियन डालर का सार्वजनिक कर्ज दिखा रही थी। अमेरिका में केंद्रीय स्तर पर भले ही सब कुछ ढंका छिपा हो, मगर नीचे तो शुरुआत हो चुकी। अमेरिका का सबसे बड़ा राज्य, अर्नाल्ड श्वार्जनेगर का कैलिफोर्निया कर्ज चुकाने में चूकने वाला है और ओबामा से मदद की गुहार कर रहा है। 2009 में अमेरिकी नगर निकायों ने दीवालियेपन के 11000 मामले दायर किए हैं। जबकि 1937 से अब तक ऐसे केवल 600 मामले आए थे। चर्चा हैरिसबर्ग व डेट्रायट जैसे शहरी निकायों के दीवालिया होने की भी है। इससे 2800 बिलियन डालर का म्युनिसिपल बांड बाजार गर्त में है। अमेरिकी की फेडरल सरकार का संप्रभु कर्ज जीडीपी का करीब 85 फीसदी है और सकल कर्ज 150 फीसदी पर है। अमेरिका को इस साल बाजार से 1.6 ट्रिलियन डालर जुटाने हैं, वित्तीय बाजार डरा हुआ है, कोई नहीं जानता कि कैलिफोर्निया का हाल देख लोगों को अंकल सैम के बांडों पर कब तक भरोसा रहेगा।
और इनका क्या होगा?
दुनिया के अगुआ बांड हाउस पिमोको के ब्रिटेन के बाजार से हाथ खींचने की चर्चा लंदन के वित्तीय बाजारों में ठीक उस समय उभरी, जब ब्रितानी सरकार चुनाव से इंच भर दूर थी और करीब 200 बिलियन पौंड सरकारी कर्ज कार्यक्रम सर पर खड़ा था। पिमोको जैसे कई अन्य निवेशक भी यूके की हालत देख कर उखड़ रहे हैं। 1.5 ट्रिलियन पौंड का कुल सरकारी कर्ज और पूरे यूरोपीय समुदाय में सबसे ऊंचा बजट घाटा (जीडीपी के मुकाबले 12 फीसदी) किसी भी निवेशक को डरायेगा। ब्रिटेन यूरो जोन से बाहर है, इसलिए वह मुद्रा का अवमूल्यन कर रहा है, जो हालत और खराब करेगी। इस अमीर मुल्क को अगले तीन साल में 550 बिलियन पौंड का कर्ज चाहिए, लेकिन वित्तीय बाजार तो उसकी ट्रिपल ए रेटिंग वापस लेने की चर्चा कर रहा है। जर्मनी भी जीडीपी के अनुपात में करीब 78 फीसदी कर्ज के साथ खतरे के निशान से ऊपर है। वहां कई राज्यों में कर्ज का हाल कैलिफोर्निया से पांच गुना ज्यादा बुरा है।
पूरब तक फैला अंधियारा
दुनिया के अर्थशास्त्री इस समय इस बहस में जुटे हैं कि पहले यूके डिफाल्ट होगा या जापान। दरअसल जापान कुछ ज्यादा ही नाजुक हालत में है। आईएमएफ मानता है कि वहां इस साल सरकार का कर्ज जीडीपी की तुलना में 227 फीसदी पर पहुंच जाएगा। जापान को 213 ट्रिलियन येन के कर्ज चुकाने के लिए इस साल नया कर्ज चाहिए। पूरब के इस दिग्गज मुल्क में बचत दर नवें दशक के 15 फीसदी से घटकर अब दो फीसदी पर आ गई है। जापान के लोग सरकार के बांडों में पैसा लगाने की स्थिति में नहीं हैं। जापान का स्टेट पेंशन फंड (दुनिया का सबसे बड़ा पेंशन फंड) सरकारी बांड बेच रहा है। बैंकिंग उद्योग पहले से बेहाल है। आर्थिक विकास दर बहुत कमजोर है। दुनिया को मालूम है कि जापान का इतिहास भयंकर आर्थिक भूलों से भरा है।
यह सारा ब्यौरा अगर आपको किसी हारर स्टोरी की तरह लगे तो माफ करिएगा। लेकिन हकीकत छिपाने से फायदा भी क्या? सिटी ग्रुप के अर्थशास्त्री विलियम ब्यूटर तो और भी मुंहफट हैं। वह कहते हैं कि ''कुत्तों की जो नस्लें आज सबसे अच्छी मानी जा रही हैं, वह कभी दुनिया की सबसे खराब नस्लों में गिनी जाती थीं।'' उनका इशारा बड़ों के हाल की तरफ है, वित्तीय पैमानों पर दुनिया के कई पिछड़े मुल्क आज इन अगड़ों से ज्यादा बेहतर हैं। दिसंबर में हमने इसी स्तंभ में लिखा था महासंकट की उलटी गिनती शुरू होने वाली है। ग्रीस से शुरू होकर यह अपशकुन अब दुनिया के कई मुल्कों का दरवाजा खटखटाने लगा है। हर अमीर मुल्क कर्ज का डायनामाइट लपेटे नाच रहा है और भारी घाटों व राजस्व में कमी का पलीता हाथ में है। कोई नहीं जानता कौन किसका कितना कर्ज चुका पाएगा और जनता से क्या-क्या वसूला जाएगा? इलाज की कोशिशें भी जारी हैं, मगर इलाज भी संकट जितना ही भारी है। .. दानिशमंदों (बुद्धिमानों ) की नादानी दुनिया को अक्सर बहुत महंगी पड़ी है। यह संकट इसी की नजीर है।
बूदो बाश क्या पूछो लोगों हम उस शहर से आए हैं
नादानी दानाई जहां है दानाई नादानी है .. फिराक
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Monday, May 10, 2010
महात्रासदी का ग्रीक कोरस
जब देश डूबते हैं..!!
अंतरिक्ष में मानव की पहली उड़ान (अपोलो 8) के कमांडर फ्रैंक बोरमैन मजाक में कहते थे कि नर्क की संकल्पना के बिना जैसे ईसाइयत नहीं रह सकती, ठीक उसी तरह दीवालियेपन के बिना पूंजीवाद भी मुश्किल है। अमेरिकी मानते रहें कि व्यक्ति के लिए दीवालिया होना नई शुरुआत का मौका है, मगर जरा ग्रीस से पूछिए वह किस नई शुरुआत के बारे में सोच रहा है? किसी देश के लिए संप्रभु कर्ज संकट दरअसल घोर नर्क है जो देश की वित्तीय साख, उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति, वित्तीय तंत्र की मजबूती और देश में निवेश की उम्मीदें आदि सब कुछ लील जाता है। दरअसल जब देश डिफाल्टर होते हैं, और वह भी विदेशी बाजारों से लिए गए कर्जो में तो ग्रीस जैसे उदाहरण बनते हैं। एक बार बस बाजार को पता भर चले कि देश की हालत नरम-गरम है तो कर्ज की रेटिंग गिरने लगती है और बात नए कर्जो पर रोक, बैंकों की बर्बादी से होती मुद्रा अवमूल्यन, दीवालियेपन तक तक आ जाती है। अंतत: अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी संस्थाएं अनुदान देती हैं और देश संकट की एक लंबी सुरंग में चला जाता है। इस महाव्याधि का इलाज भी कम मारक नहीं होता, लेकिन उस पर चर्चा फिर कभी। फिलहाल तो यह देखें कि ग्रीस ने यह नया इतिहास कैसे बनाया?
ग्रीक व्यथा की अंतर्कथा
यूरोप में कहावत है कि ग्रीस अपनी क्षमता से अधिक इतिहास बनाता है। संप्रभु दीवालियेपन की शायद सबसे पहली घटना ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में ग्रीस में ही घटी थी, जब इसकी दस नगरपालिकाएं कर्ज चुकाने में चूक गई थी। वैसे ग्रीस के ताजा इतिहास में ज्यादा रोमांच है। अमीर देशों में शुमार ग्रीस 2000 से 2007 तक यूरो जोन की सबसे तेज दौड़ती (4.2 फीसदी विकास दर) अर्थव्यवस्थाओं में एक था। मगर 2008 की मंदी ने ग्रीस के दो सबसे बड़े उद्योगों पर्यटन व शिपिंग को तोड़ दिया और सरकार का राजस्व बुरी तरह घट गया। पर इसमें अचरज क्या? यह तो लगभग हर देश के साथ हुआ था, दरअसल ग्रीस में असली लोचा यहीं पर था। घाटा बढ़ने के बावजूद ग्रीस कर्ज लेता रहा और अपना वित्तीय सच दुनिया से छिपाता रहा। पिछले साल के अंत में दुनिया को पता चला कि ग्रीस में घाटे व कर्ज के आंकड़े झूठ हैं। इस मुल्क ने 216 बिलियन यूरो का कर्ज ले रखा है, जो कि उसके जीडीपी का 120 फीसदी है। दुनिया को पता था कि ग्रीस सरकार के बांडों में 70 फीसदी निवेश विदेशी है, इसलिए 2009 के अंत से ग्रीस में महासंकट की उलटी गिनती शुरू हो गई थी। इस साल मार्च में जब ग्रीस की सरकार ने वित्तीय पाबंदियों का कानून बनाकर खतरे का बटन दबाया तो वित्तीय बाजार में ग्रीस के बांडों की रेटिंग जंक यानी कचरा होने लगी और दुनिया समझ गई कि ग्रीस तो अब गया।
फिर भी तो नहीं सीखते !!
2010 का पहला सूरज चढ़ने तक दुनिया यह जान गई थी कि ग्रीस डूबेगा, लेकिन यह अब भी एक रहस्य है कि डूबते ग्रीस के बांड इस साल की शुरुआत में ओवरसब्सक्राइब कैसे हो गए? दरअसल दुनिया ने कभी वक्त पर उस पूर्व चेतावनी तंत्र की नहीं सुनी है, जिसे इतिहास कहा जाता है। वित्तीय बाजार के विस्तार के साथ देशों का कर्ज में चूकना तेजी से बढ़ा है। 1824 से 2006 के बीच दुनिया में संप्रभु दीवालियेपन की 257 घटनाएं हुई थीं, लेकिन अकेले 1981 से 1990 के बीच देशों के कर्ज में चूकने की 74 और 1998 से 2004 के बीच 16 घटनाएं हुई। 1500 से 1900 ईसवी के बीच फ्रांस आठ बार और स्पेन 13 बार दीवालिया हुआ। हालांकि इतना पीछे जाने की जरूरत नहीं है। अर्जेटीना, मेक्सिको, रूस, थाइलैंड इस मर्ज के सबसे ताजे उदाहरण हैं। पिछले करीब 220 साल में छह बार दीवालिया हुआ अर्जेटीना तो दुनिया के अर्थशास्त्रियों के बीच मजाक का विषय है। देशों के दीवालियेपन पर आर्थिक शोध का अंबार लगा है, लेकिन इसे पढ़े बिना भी यह जाना जा सकता है कि यह आर्थिक नर्क जब भी बना है तब बेतहाशा खर्च, राजकोषीय असंतुलन और वित्तीय अपारदर्शिता व विदेशी बाजारों से अंधाधुंध कर्ज इसके मूल में रहे हैं। शोध बताते हैं कि बैंकों व मुद्राओं के संकट अंतत: देशों को दीवालियेपन पर आकर रुके हैं। अर्जेटीना, उरुग्वे, यूक्रेन, इंडोनेशिया और ग्रीस के ताजे संकट इसकी नजीर हैं। जानकार कहेंगे कि ग्रीस तकनीकी तौर पर डिफाल्टर नहीं है, क्योंकि वह आईएमएफ की आक्सीजन पर है, लेकिन बाजार मुतमइन है कि ग्रीस व्यावहारिक रूप से डिफाल्टर है। जैसे ही ग्रीस अपने कर्ज की देनदारी को टालेगा या कर्जो का पुनर्गठन करेगा। उस पर आधिकारिक डिफाल्टर की मुहर लग जाएगी।
ग्रीस की रंगमंचीय परंपरा में दशकों से मार्च अप्रैल के महीनों में थियेटरों में ट्रेजडी का मंचन का होता है। ..ग्रीस ने अपनी यह परंपरा नहीं छोड़ी, इस समय वहां एक सुपर ट्रेजडी का मंचन हो रहा है। यह बात दीगर कि ग्रीस के लोग इस त्रासदी का हिस्सा बनना कतई नहीं चाहते थे, लेकिन वह करें भी क्या? सरकारें हमेशा मनमाना कर गुजरती हैं, बाद में आम जनता मरती व भरती है। ग्रीस जैसे संकट की कल्पना भी किसी देश के लिए डरावनी है, लेकिन हकीकत बड़ी जालिम है। वित्तीय बाजार ग्रीस को महात्रासदी का पहला अध्याय मान रहे हैं। ग्रीस यूरोप में अकेला बीमार नहीं है और जो दूसरे बीमार हैं उन्होंने ही ग्रीस को कर्ज भी दे रखा है। यानी कि त्रासदी के लिए अगले मंच तैयार हो रहे हैं, ऊपर से इस संप्रभु कर्ज संकट का इलाज भी किसी आपदा से कम नहीं है। यूरोप के समृद्ध मुल्क कर्ज के खेल में देशों की बर्बादी को तीसरी दुनिया की आपदा बताते थे, मगर इस अपशकुन ने अब उनका घर भी देख लिया है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद पहली बार कोई अमीर देश इस तरह डूब रहा है। ..मेरे डूब जाने का बाइस तो पूछो, किनारे से टकरा गया था सफीना।
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( विनम्र संदर्भ: इसी स्तंभ में आठ दिसंबर 2009 में लिखा गया था कि महासंकट की उलटी गिनती प्रारंभ हो गई है। तब भारत में इसकी चर्चा मुश्किल से सुन पड़ती थी। वह तो बजट के कयास और मंदी खत्म होने खूबूसरत ख्यालों का मौसम था। ग्रीक की समस्या के साथ सॉवरिन डिफाल्ट की महात्रासदी शुरु हो गई है। आंच हम तक आ रही है। .............. और मजा देखिये कि आज 10 मई 2010 के अखबारों में सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु कह रहे हैं कि यूरोप का संकट भारत के पूंजी बाजार में विदेशी निवेश की बाढ़ लाने वाला है। 12 अप्रैल 2010 को आप पढ़ चुके हैं कि सुरक्षित होने के खतरे सर पर हैं। ..... आमीन.!!!! दोनों स्तंभ बायें तरफ आर्काइव में हैं। )
Monday, April 26, 2010
झूठ के पांव
सरकारी झूठ की ग्रीकगाथा
सरकारें जब सच छिपाती हैं तो कयामत आती है। ग्रीस के दीवालियेपन और बदहाली की संकट कथा का निचोड़ यही है। ग्रीस को यूरोमुद्रा अपनाने वाले देशों के संगठन में इस शर्त पर प्रवेश मिला था कि वह घाटे और कर्ज को निर्धारित स्तर पर रखने की शर्ते (ग्रोथ एंड स्टेबिलिटी पैक्ट) पूरी करेगा। ग्रीसने यह सब शर्ते पूरी करने के लिए सच पर पर्दा डाल दिया। ताजा आर्थिक संकट आने के बाद दुनिया को पता चला कि ग्रीस ने खातों में खेल किया था। 2009 में देश का घाटा जीडीपी के अनुपात में 12.5 फीसदी पाया गया, जबकि सरकार ने अपने पहले आकलन में इसे 3.7 फीसदी माना था। यूरोपीय समुदाय के आधिकारिक आंकड़ा संगठन (यूरोस्टैट) ने ग्रीस के इस फरेब को प्रमाणित कर दिया कि वहां की सरकार ने कई तरह के ब्याज भुगतान, कर्जो की माफी, स्वास्थ्य सब्सिडी आदि को अपने नियमित खातों से छिपाया और सब घाटे को नियंत्रित दिखाते हुए बाजार से कर्ज उठाया। यह झूठ बहुत बड़ा था, इसलिए अब ग्रीस की साख खत्म हो गई है। देश पूरी तरह दीवालिया है और यूरोजोन के नियामकों का सर शर्म से झुक गया है। ग्रीस की जनता इस झूठ की कीमत नए टैक्स, गरीबी, महंगाई और संकट से ठीक उसी तरह चुकाएगी जैसा कि आइसलैंड में हुआ है। बैंकों के झूठ के कारण दुनिया के सबसे समृद्ध देशों में एक आइसलैंड देखते-देखते राहत का भिखारी हो गया। पूरे संकट की जांच करने वाले आइसलैंड के ट्रुथ कमीशन की हाल में आई रिपोर्ट बताती है कि केंद्रीय बैंक के पास केवल 1.2 अरब डालर का विदेशी मुद्रा भंडार था, लेकिन बैंकों ने 14 अरब डालर का विदेशी कर्ज ले डाला। हकीकत खुली तो वित्तीय बाजारों में बैंकों और देश की साख कचरा और प्रतिभूतियां मिट्टी हो गई। इस बर्बादी का बिल देश की जनता टैक्स देकर चुका रही है।
खातों में खेल की ललित कला
क्रिएटिव अकाउंटिंग ???... ग्रीस से लेकर अमेरिका तक इस शब्द का अब एक ही अर्थ है- खातों में खेल और सच पर पर्दा। यूरोप में चर्चा है कि ग्रीस की सरकार को खातों में स्याह सफेद करने की ललित कला गोल्डमैन सैक्श ने सिखाई थी। पता नहीं कि इस प्रतिष्ठित निवेश बैंक ने दुनिया को और क्या-क्या सिखाया है? गोल्डमैन पिछले साल आए वित्तीय संकट पर अपने झूठ को लेकर कठघरे में है। अमेरिकी सरकार और गोल्डमैन सैक्श में ठन चुकी है। अमेरिका में सेबीनुमा और बेहद ताकतवर सरकारी नियामक सिक्योरिटी एक्सचेंज कमीशन ने हाल में गोल्डमैन पर निवेशकों को आने वाले संकट से धोखे में रखकर प्रतिभूतियां बेचने का आरोप लगाया है। ब्रिटेन व जर्मनी के वित्तीय नियामक और अमेरिका की सरकारी बीमा कंपनी एआईजी भी गोल्डमैन को कठघरे में खड़ा करने की तैयारी कर रही है। यह निवेश बैंकिंग उद्योग लिए नए संकट की शुरुआत है। निवेश बैंकों पर उनका झूठ अब भारी पड़ने लगा है। लेकिन निवेश बैंक ही क्यों खातों में खेल निजी कंपनियों का भी पुराना शगल रहा है, बीसीसीआई बैंक, जेराक्स, एनरान, सीआरबी से लेकर सत्यम तक खातों में खेल की कलाओं के तमाम उदारहण हमारे इर्द-गिर्द हैं। आईपीएल भी इसी वित्तीय झूठ का नमूना है, जिसमें क्रिकेट का खेल मैदान में हो रहा था मगर असली खेल पेंचदार कंपनियों, बेनामी निवेश, विदेश में लेन-देन और काले धन के निवेश का था।
पहरेदारों की लंबी नींद
अपनी बेईमानी को स्वाभाविक (बकौल मैकियावेली) मानते हुए आदमी ने ही तमाम नियामक बनाए हैं कि ताकि वे उसकी बेइमानी पकड़ें और पारदर्शिता तय करें, लेकिन इन नियामकों में भी भी तो मैकियावेली वाले आदमी ही हैं न? सो इनकी नींद ही नहीं टूटती। दुनिया में ज्यादातर वित्तीय घोटाले, खातों में गफलत और हिसाब किताब में हेरफेर या तो किसी संकट के बाद सामने आया है या फिर उस खेल और घोटाले में शामिल किसी खिलाड़ी ने ही पर्दा उठाया है। अमेरिका के नियामक ऊंघते रहे और मेरिल लिंच जैसे बैंकर झूठ बेचकर पैसा कूटते रहे। ग्रीस व आइसलैंड जब अपने खाते स्याह सफेद कर रहे थे, तब यूरोपीय नियामक सपनों में तैर रहे थे। वित्तीय फरेब की एनरान व सत्यम जैसी कथाएं प्राइस वाटर हाउस, आर्थर एंडरसन जैसे आडिटरों की निगहबानी में लिखी गई हैं। आयकर विभाग, कंपनी मामलों के मंत्रालय व तमाम नियामकों के सामने आईपीएल ने एक विराट झूठ का संसार रच दिया, जो अब ढह रहा है और वित्तीय धोखेबाजी का हर दांव इसमें चमकता दिख रहा है।
पूरी दुनिया में इस समय बड़े बडे़ झूठ खुलने का मौसम है, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। इस समय भी जब आप यह पढ़ रहे हैं, तब भी दुनिया में कहीं न कहीं कोई वित्तीय बाजीगरी, खातों में कोई खेल चल रहा होगा और झूठ अपने पांव जमाने की कोशिश कर रहा होगा। झूठ रचने वाले हमेशा हिटलर का यह मंत्र साधते हैं कि झूठ बड़ा हो और बार बार कहा जाए तो लोग विश्वास कर लेते हैं। ..हिटलर सच था .. आम लोगों ने बड़े झूठ पर हमेशा भरोसा किया है और बाद में उसकी कीमत भी चुकाई है। .जब ग्रीस चमक रहा था, आइसलैंड अमीरी दिखा रहा था, गोल्डमैन गरज रहा था और आईपीएल झूम रहा था तब लोग कैसे जान पाते कि यह सब वित्तीय झूठ के करिश्मे हैं। ..दरअसल फरेब का फैशन बड़ा मायावी है और आम लोग बहुत भोले हैं। ..वह झूठ बोल रहा था इस कदर करीने से, कि मैं एतबार न करता तो और क्या करता?
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http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच, सातोरी)
Monday, April 12, 2010
सुरक्षित होने के खतरे
ग्रीक ट्रेजडी, डालर कामेडी
डालर की कामेडी बड़ी मजेदार है। डालर खुद खोखला है, लेकिन प्रतिस्पर्धी मुद्रा इतनी मरियल है कि डालर में ताकत दिख रही है। संकट शुरू हुआ था डालर की दुनिया से, लेकिन बन आई यूरो पर। डालर के आसपास भी जोखिमों का घेरा है लेकिन उसकी तुलना में यूरो की स्याही ज्यादा गाढ़ी है, इसलिए बुनियादी रूप से कमजोर होते हुए भी डालर यूरो के मुकाबले मजबूत है। पिछले दो तीन माह में डालर ने अर्से से मजबूत यूरो को पछाड़ दिया है। यूरोजोन में ग्रीक ट्रेजडी किसी भी वक्त घट सकती है। यूरोप के बड़े मुल्क मदद को तैयार नहीं हैं अर्थात भारी कर्ज में दबे पिग्स देशों (पुर्तगाल, आयरलैंड, ग्रीस व स्पेन) में पहला हादसा होने को है। बाजार ने इसे कायदे से सूंघ लिया है। यूरो की सेहत बिगड़ रही है। ग्रीस का डिफाल्टर होना दक्षिण यूरोप के अन्य परेशान हाल देशों की किस्मत भी लिख देगा। पिछले एक सप्ताह में यूरोजोन के बाजार लगातार टूटे हैं। लेकिन इसके ठीक विपरीत उभरते बाजारों में तेजी का त्यौहार है। भारी विदेशी निवेश के सहारे पिछले एक पखवाड़े में उभरते बाजारों की कई मुद्राओं ने अपने एक साल के सर्वोच्च स्तर छू लिये हैं। दुनिया के निवेशकों को यूरो से तो उम्मीद है ही नहीं और डालर पर भी उनका भरोसा सीमित ही है, क्योंकि अमेरिका भी जीडीपी के अनुपात में 10.6 फीसदी के राजकोषीय घाटे (1.56 खरब डालर) पर बैठा है। जापान और ब्रिटेन भी भारी सरकारी कर्ज से हलाकान हैं। इसलिए डालर, येन या पौंड पर ज्यादा लंबे दांव लगाने वाले वाले लोग कम हैं। नतीजतन सबकी उम्मीदें उभरते बाजारों में उभर रहीं है, जहां मंदी का अंधेरा भी छंटने लगा है।
निवेशकों के काफिले
खरबों डालर को समेटे दुनिया की वित्तीय पाइपलाइनें इन नए सितारों की तरफ मुड़ गई हैं। इक्विटी निवेशक, हेज फंड, पेंशन फंड के काफिले भारत समेत पूर्वी एशियाई और लैटिन अमेरिकी देशों में पड़ाव डालने लगे हैं। भारत की स्थिति तो बड़ी दिलचस्प है। मार्च में विदेशी निवेशक इक्विटी में करीब 4 अरब डालर और ऋण बाजार में 2.2 अरब डालर लगा चुके हैं। इससे पहले दिसंबर तक पिछले कैलेंडर साल में 17.64 अरब डालर काविदेशी निवेश आ चुका है। विदेश से सस्ता पैसा लाकर भारत में ब्याज कमाने (आरबिट्रेज) का पूरा कारोबार भी काफी गुलजार है। संकट से उबरने और मंदी दूर करने के लिए दुनिया भर के बैंकों ने ब्याज दरें घटाकर बाजार में धन की नदियां बहा दीं। विश्व के बाजारों में कम ब्याज दर पर भारी पैसा उपलब्ध है, लेकिन निवेश के विकल्प कम हैं। दरअसल दुनिया के निवेशकों को यह अंदाज नहीं था कि अमेरिका का वित्तीय संकट यूरोजोन को तोड़ देगा। वह तो यूरोजोन को निवेश की नई उम्मीद के तौर पर देख रहे थे, लेकिन अमेरिका के साथ यूरोपीय उम्मीद भी बिखर गई। इसलिए पैसे की गठरी उठाए निवेशक भारत जैसे उभरते बाजारों में मंडरा रहे हैं। भारत में मंदी का असर अभी बाकी है, महंगाई है, ऊंचा राजकोषीय घाटा है, फिर भी विदेशी निवेशकों के लिए यह बाजार हर हाल में यूरोजोन से अच्छा है।
अनोखी आफत
उभरती अर्थव्यवस्थाओं के पास इस नए आकर्षण पर इतराने का वक्त नहीं है, क्योंकि चुनौतियां बिल्कुल फर्क हैं। भारत में इस अनोखी आफत ने पैमाने ही बदल दिए हैं। 1990-91 के संकट के बाद भारत में पहली बार चालू खाते का घाटा जीडीपी के अनुपात में तीन फीसदी पर आया है। कोई दूसरा वक्त होता तो इस चिंताजनक घाटे के कारण रुपया जमीन सूंघ रहा होता, लेकिन 280 अरब डालर के जबर्दस्त विदेशी मुद्रा भंडार के कारण उलझनों की गणित तब्दील हो गई है। अब समस्या इन डालरों को संभालने, लगाने और इनकी भरमार के असर से निबटने की है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति भी विदेशी निवेश की इस चमक पर अपनी आशंका जाहिर कर चुकी है। रिजर्व बैंक के लिए इन डालरों को खरीद कर विदेश में निवेश करना घाटे का सौदा है, क्योंकि दुनिया में ब्याज दरें कम हैं। इधर देश में डालर लाने वाले निवेशकों को ऊंचा ब्याज मिलता है। दूसरी तरफ बाजार से डालर खरीदने के बदले छोड़ा जाने वाला रुपया महंगाई की आग भड़का देता है, लेकिन अगर रिजर्व बैंक डालर न खरीदे तो रुपये की ताकत निर्यातकों को निचोड़ देगी। देशी बाजार में इन डालरों को खपाने का विकल्प नहीं है, क्योंकि परियोजनाएं उपलब्ध नहीं हैं। रिजर्व बैंक ने पिछले साल दिसंबर में विदेशी मुद्रा बाजार से किनारा कर लिया था, लेकिन अब चर्चा है कि 45 रुपये पर पहुंचा डालर उसे बाजार में उतरने और डालर खरीदने पर बाध्य कर रहा है।
छप्पर फाड़कर मिलना अच्छा है, मगर उस मिले हुए को सहेजने के लिए दूसरे ठिकाने तो होने ही चाहिए। निवेश के नए स्वर्गो की यही दिक्कत है कि उनके पास इस भेंट को सहेजने के रास्ते जरा कम हैं। नतीजतन विदेशी निवेश की यह अनोखी आमद इनके यहां मुद्रास्फीति से लेकर, अचल संपत्ति की कीमतों में कृत्रिम तेजी और बाजारों में सट्टेबाजी जैसी बुराइयां ला सकती है। ऊपर से यह निवेश डरे हुए व परेशान निवेशकों का है, इसलिए इसके टिकाऊ होने की गारंटी भी जरा कम है। लेकिन इस निवेश पर रोक लगाना और बड़ी चुनौती है। उभरती अर्थव्यवस्थाएं यकीनन शेष दुनिया से बेहतर, सुरक्षित और अच्छी हैं। भविष्य बताएगा कि इन्हें इस बेहतरी का क्या ईनाम मिला, फिलहाल वर्तमान तो यह बता रहा है कि इन्हें निवेश की शरणार्थी समस्या के निबटने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। ..शाख से तोड़े गए फूल ने हंस करके कहा, अच्छा होना भी बुरी बात है इस दुनिया में।
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अन्यर्थ के लिए
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)
Tuesday, December 8, 2009
महासंकट की उलटी गिनती!
दुबई तो नमूना है
वित्तीय बाजार कह रहा है कि दुनिया का एक बड़ा देश जल्द ही अपने कर्जो में डिफाल्टर होने वाला है? यह रूस है या फिर ब्रिटेन या कोई और? तकरीबन एक सप्ताह पहले मोर्गन स्टेनले दुनिया को यह विश्लेषण पेश कर दुनिया को चौंका दिया कि वर्ष 2010 में ब्रिटेन ऋण संकट में फंस सकता है। मोर्गन तो सिर्फ आशंका जाहिर कर रहा था, मगर स्टैंडर्ड एंड पुअर ने तो ब्रिटेन की साख को लेकन अपने आकलन को नकारात्मक कर दिया। वित्तीय बाजारों का सूत्रधार ब्रिटेन और रेटिंग एजेंसियों की नजर में साख नकारात्मक? ..हैरतअंगेज या सनसनीखेज? विशेषणों की कमी पड़ जाएगी। रूस भी कर्जो के जबर्दस्त दबाव में है खासतौर पर छोटी अवधि के कर्ज जो उसने तेल कीमतों में तेजी के दौर में अपनी चमकती साख के वक्त लिये थे, इनका भुगतान सर पर है। जर्मनी पर कर्ज का बोझ यूरोपीय बाजारों की सांस रोकने लगा है। जब बड़ों का यह हाल है तो फिर छोटों की कौन कहे? दरअसल दुबई का तूफान पश्चिम और पूरब के कई देशों की वित्तीय बदहाली को उघाड़ गया है। आयरलैंड की अर्थव्यवस्था कर्ज के तूफान में घिर रही है। बाल्टिक देश तो कर्ज के गर्त के सबसे करीब हैं। लाटविया शायद ही मुश्किलों से बचे। एस्टोनिया और लिथुआनिया पर विदेशी कर्ज उनके जीडीपी से ज्यादा हो गया है। बुल्गारिया और हंगरी भी इन्हीं देशों की जमात में हैं। इन छोटे देशों की हालत को हलके में मत लीजिए, एक दुबई की बर्बादी ने दुनिया की चूलें हिला दी हैं इनमें एक देश भी अगर अपनी संप्रभु देनदारियों में चूका तो वित्तीय बाजारों में हाहाकार मच जाएगा।
संकट की सुनामी
संकटों के वक्त हमेशा कुछ सर रेत में धंस जाते हैं। इस मौके पर भी ऐसा ही हो रहा है। दुनिया को मंदी से उबरने की मरीचिका दिखाई जा रही है, लेकिन वित्तीय बाजार में तो संकट की सुनामी बनती दिख रही है। यह संकट दरअसल पिछले कुछ वर्षो की उदार मौद्रिक नीतियों, वित्तीय अपारदर्शिता और बाजार में बहे अकूत पैसे से उपजा है। दुनिया जब सुखी थी या सुखी दिखने का नाटक कर सकती थी, तब सरकारों ने और सरकार की गारंटियों के सहारे कंपनियों ने वित्तीय बाजार से अंधाधुंध पैसा उठाया। मंदी आई तो रिटर्न के स्रोत सूख गए। इसलिए जब कर्ज की पहली देनदारी निकली तो बाजार ने दुबई जैसों को ज्यादा वक्त देने से मना कर दिया। कल बाजार औरों से किनारा करेगा। पूरी दुनिया में ब्याज दरें बढ़ने वाली हैं अर्थात देनदारियों को चुकाने के लिए नया कर्ज महंगा और मुश्किल होगा। इसलिए दुबई के बाद पूरी दुनिया में देशों की रेटिंग उलट-पलट गई है। दुनिया के कर्ज और कर्ज की दुनिया के बारे में दिलचस्पी रखते हैं, तो विश्व के के्रडिट डिफाल्ट स्वैप (के्रडिट डिफाल्ट स्वैप अर्थात सीडीएस वित्तीय बाजार के जाने पहचाने उपकरण हैं। यह एक तरह का बीमा है जो कि एक कर्ज देने वाली संस्था किसी दूसरी संस्था से लेती है। ताकि अगर लेनदार डिफाल्टर हो तो पैसा न डूबे। इसके लिए कर्ज देने वाला स्वैप देने वाले को प्रीमियम देता है।) बाजार की ताजी तस्वीर देखिए। छोटों की कौन कहे यहां तो बड़ों की साख पर बन आई है। चीन के सीडीएस छह फीसदी, रूस के 19 फीसदी, इंडोनिशया के 28 फीसदी महंगे हो गए हैं। दांतों तले उंगली दबाइए क्योंकि फ्रंास, जर्मनी, इटली, जापान, ब्रिटेन, स्पेन और यहां तक अमेरिका भी कर्ज बाजार के ऋण जोखिम के सूचकांकों पर खतरे वाली श्रेणियों में चमकने लगे हैं। इन मुल्कों में कर्ज और जीडीपी का अनुपात खतरनाक हो गया है। जर्मनी का कुल कर्ज अगले साल उसके उत्पादन के 77 फीसदी के बराबर हो जाएगा। ब्रिटेन में यह 80 फीसदी है तो जापान में यह 200 फीसदी पर पहुंच रहा है। अमेरिका में ट्रेजरी यानी सरकार के कुल कर्ज का करीब 44 फीसदी हिस्सा अगले एक साल में चुकाया जाना है। तभी तो दुनिया विशेष ऋण बाजार में अमेरिका की साख को मिली ट्रिपल ए रेटिंग पर हैरत के साथ हंस रही है।
बचाएगा कौन?
कर्ज संकटों के इतिहास से वाकिफ कोई व्यक्ति कह सकता है कि आईएमएफ किस दिन काम आएगा। मगर देशों के कर्ज संकट के दो पहलू हैं, एक विदेशी कर्ज और दूसरादेशी। लाटविया, एस्टोनिया जैसे देशों पर विदेशी कर्ज है। आईएमएफ इन्हें विदेशी मुद्रा देकर कुछ समय के लिए बचा सकता है। अलबत्ता आईएमएफ का इलाज लेने वाले देशों की वित्तीय साख का कचरा बन जाता है। अर्जेटीना इसकी ताजी नजीर है। आईएमएफ की मदद लेने वाले देशों की कंपनियां दुनिया के बाजार में अछूत बन जाती हैं। हो सकता है ब्रिटेन, जापान, जर्मनी को आईएमएफ की जरूरत न पड़े, लेकिन इनके संकट आईएमएफ सुलझा भी नहीं सकता। ये देश घरेलू कर्ज की जकड़ में हैं। इन्हें ज्यादा घरेलू मुद्रा छापकर कर्ज पाटना होगा या फिर टैक्स बढ़ाना और खर्च घटाना होगा। इनमें से हर कदम खतरों भरा है। भारी राजकोषीय घाटे और नोटों की छपाई देशी मुद्रा का अवमूल्यन करती है और सरकार को अपने बांड खरीदने वाले भी नहीं मिलते। कर बढ़ाना और खर्च घटाना, मांग कम करता है और कर चोरी बढ़ाता है।
और भारत ?. आप कह सकते हैं कि कुछ सुरक्षित है या कुछ अर्थो में कतई सुरक्षित नहीं है। सरकार भले ही कर्जदार न हो, लेकिन वित्तीय बाजार तो दुनिया से जुड़ा है, इसलिए संकट की सुनामी हमें डुबाए भले न, लेकिन झकझोर जरूर देगी। हमारे लिए इतना ही काफी है। देशों के ऋण संकट वित्तीय बीमारियों की फेहरिस्त में सबसे भयानक हैं। इसके इलाज आर्थिक शरीर को बुरी तरह तोड़ देते हैं और अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो जाती है। अर्जेंटीना छह साल बाद आज भी घिसट रहा है और मेक्सिको को पुरानी रौ में आने में वक्त लगेगा। कभी-कभी यह लगता है कि दुनिया का वित्तीय एकीकरण फायदे से ज्यादा नुकसान का सौदा साबित हो रहा है। अर्जेटीना की सुनामी ने केवल लैटिन अमेरिका के बाजारों को हिलाया था मगर अब जो सुनामी बन रही है, वह पूरे भूमंडल के वित्तीय बाजारों को लपेट सकती है। वजह यह कि उदारीकरण के लाभ भले ही सामूहिक न हों, मगर गलतियां और नुकसान सामूहिक रहे हैं। इसलिए 2012 की फिक्र छोडि़ए.. 2010 वित्तीय बाजारों पर बहुत भारी पड़ सकता है।
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