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Wednesday, June 22, 2016

सफेद हाथियों का शौक


सरकारी कंपनियों को बनाए रखने के आग्रह दलीय बाधाएं तोड़कर भारतीय राजनीति का संस्कार बन चुके हैं
रकारी कंपनियों की बिक्री (निजीकरण) का फैसला गंभीर है. यह मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति से पीछे हटना है. सरकारी उपक्रमों को बेचने से बजट में कुछ संसाधन आएंगे लेकिन यह तो सब्जी का बिल चुकाने के लिए घर को बेचने जैसा है. बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकार एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस को बेचने की सोच रही है. मैं कभी सोच भी नहीं सकता जो विमानन कंपनियां हमारा झंडा दुनिया में ले जाती हैं, उन्हें बेचा जाएगा."


यदि आपको लगता है कि यह किसी कॉमरेड का भाषण है तो चौंकने के लिए तैयार हो जाइए. यह पी.वी. नरसिंह राव हैं जो भारतीय आर्थिक सुधारों के ही नहीं, पब्लिक सेक्टर कंपनियों में सरकार की हिस्सेदारी बेचने की नीति के भी पहले सूत्रधार थे. यह भाषण वाजपेयी सरकार की निजीकरण नीति के खिलाफ था जो उन्होंने बेंगलूरू में कांग्रेस अधिवेशन (मार्च 2001) के लिए तैयार किया था. भाषण तो नहीं हो सका लेकिन अधिवेशन के दौरान उन्होंने जयराम रमेश से चर्चा में निजीकरण पर वाजपेयी सरकार की नीति के विरोध में गहरा क्षोभ प्रकट किया था. रमेश की किताब टु द ब्हिंक ऐंड बैकइंडियाज 1991 स्टोरी में यह संस्मरण और भाषणनुमा आलेख संकलित है. 

सरकारी उपक्रमों को लेकर नरसिंह राव के आग्रह दस साल चली मनमोहन सरकार को भी बांधे रहे. अब जबकि मोदी सरकार में भी घाटे में आकंठ डूबे डाक विभाग को पेमेंट बैंक में बदला जा रहा है या स्टील सहित कुछ क्षेत्रों में नए सार्वजनिक उपक्रम बन रहे हैं तो मानना पड़ेगा कि सरकारी कंपनियों को लेकर भारतीय नेताओं का प्रेम आर्थिक तर्कों ही नहीं, दलीय सीमाओं से भी परे है.

सरकार बैंक, होटल, बिजली घर ही नहीं चलाती, बल्कि स्टील, केमिकल्स, उर्वरक, तिपहिया स्कूटर भी बनाती है, और वह भी घाटे पर. सरकार के पास 290 कंपनियां हैं, जो 41 केंद्रीय मंत्रालयों के मातहत हैं. बैंक इनके अलावा हैं. 234 कंपनियां काम कर रही हैं जबकि 56 निर्माणाधीन हैं. सक्रिय 234 सरकारी कंपनियों में 17.4 लाख करोड़ रु. का सार्वजनिक धन लगा है. इनका कुल उत्पादन 20.6 लाख करोड़ रु. है. सक्रिय कंपनियों में 71 उपक्रम घाटे में हैं. सार्वजनिक उपक्रमों से मिलने वाला कुल लाभ करीब 1,46,164 करोड़ रु. है यानी इनमें लगी पूंजी पर लगभग उतना रिटर्न आता है जितना ब्याज सरकार कर्जों पर चुकाती है. 

सार्वजनिक उपक्रमों का दो-तिहाई मुनाफा कोयला, तेल, बिजली उत्पादन व वितरण से आता है जहां सरकार का एकाधिकार यानी मोनोपली है या फिर उन क्षेत्रों से, जहां निजी प्रतिस्पर्धा आने से पहले ही सरकारी कंपनियों को प्रमुख प्राकृतिक संसाधन या बाजार का बड़ा हिस्सा सस्ते में या मुफ्त मिल चुका था.

सार्वजनिक उपक्रमों का कुल घाटा 1,19,230 करोड़ रु. है. यदि बैंकों के ताजा घाटे और फंसे हुए कर्ज मिला लें तो संख्या डराने लगती है. 863 सरकारी कंपनियां राज्यों में हैं जिनमें 215 घाटे में हैं. जब हमें यह पता हो कि निजी क्षेत्र के एचडीएफसी बैंक का कुल बाजार मूल्य एक दर्जन सरकारी बैंकों से ज्यादा है या रिलायंस इंडस्ट्रीज की बाजार की कीमत इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम, गेल और हिंदुस्तान पेट्रोलियम से अधिक है तो आर्थिक पैमानों पर सरकारी कंपनियों को बनाए रखने का ठोस तर्क नहीं बनता.  

सरकारी कंपनियों में महीनों खाली रहने वाले उच्च पद यह बताते हैं कि इनकी प्रशासनिक साज-संभाल भी मुश्किल है. रोजगार के तर्क भी टिकाऊ नहीं हैं. रोजगार बाजार में संगठित क्षेत्र (सरकारी और निजी) का हिस्सा केवल छह फीसदी है. केवल 1.76 करोड़ लोग सरकारी क्षेत्र में थे, जिनमें 13.5 लाख लोग सरकारी कंपनियों में हैं. विनिवेश व निजीकरण से रोजगार नहीं घटा, यह पिछले प्रयोगों ने साबित किया है. 

इन तथ्यों के बावजूद और अपने चुनावी भाषणों में मिनिमम गवर्नमेंट की अलख जगाने वाली मोदी सरकार नए सार्वजनिक उपक्रम बनाने लगती है तो हैरत बढ़ जाती है. जैसे डाक विभाग के पेमेंट बैंक को ही लें. 2015 में डाक विभाग का घाटा 14 फीसदी बढ़कर 6,259 करोड़ रु. पहुंच गया. खाता खोलकर जमा निकासी की सुविधा देने वाले डाक घर अर्से से पेमेंट बैंक जैसा ही काम करते हैं. केवल कर्ज नहीं मिलता जो कि नए पेमेंट बैंक भी नहीं दे सकते.

सरकारी बैंक बदहाल हैं और निजी कंपनियां पेमेंट बैंक लाइसेंस लौटा रही हैं. जब भविष्य के वित्तीय लेनदेन बैंक शाखाओं से नहीं बल्कि एटीएम मोबाइल और ऑनलाइन से होने वाले हों, ऐसे में डाक विभाग में 800 करोड़ रु. की पूंजी लगाकर एक नया बैंक बनाने की बात गले नहीं उतरती. असंगति तब और बढ़ जाती है जब नीति आयोग एयर इंडिया सहित सरकारी कंपनियों के विनिवेश के सुझावों पर काम कर रहा है.

सरकार को कारोबार में बनाए रखने के आग्रह आर्थिक या रोजगारपरक नहीं बल्कि राजनैतिक हैं. सत्ता के विकेंद्रीकरण और स्वतंत्र नियामकों के उभरने के साथ राजनेताओं के लिए विवेकाधीन फैसलों की जगह सीमित हो चली है. अधिकारों के सिकुडऩे के इस दौर में केवल सरकारी कंपनियां ही बची हैं जो राजनीति की प्रभुत्ववादी आकांक्षाओं को आधार देती हैं जिनमें भ्रष्टाचार की पर्याप्त गुंजाइश भी है. यही वजह है कि भारत को आर्थिक सुधार देने वाले नरसिंह राव निजीकरण को पाप बताते हुए मिलते हैं. मनमोहन सिंह दस साल के शासन में सार्वजनिक उपक्रमों का विनिवेश नहीं कर पाते हैं, जबकि निजी क्षेत्र की उम्मीदों के नायक नरेंद्र मोदी सरकारी कंपनियों के नए प्रणेता बन जाते हैं.

प्रधानमंत्रियों की इस सूची में केवल गठजोड़ की सरकार चलाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी ही साहसी दिखते थे. उन्होंने निजीकरण की नीति बनाई और लगभग 28 कंपनियों के निजीकरण के साथ यह साबित किया कि होटल चलाना या ब्रेड बनाना सरकार का काम नहीं है.

सार्वजनिक कंपनियों में नागरिकों का पैसा लगा है. जब ये कंपनियां घाटे में होती हैं तो सिद्धांततः यह राष्ट्रीय संपत्ति की हानि है. जैसा कि सरकारी बैंकों में दिख रहा है जहां बजट से गया पैसा भी डूब रहा है और जमाकर्ताओं का धन भी लेकिन अगर यह नुक्सान राजनैतिक प्रभुत्व के काम आता हो तो किसे फिक्र होगी? हमें यह मान लेना चाहिए कि सरकारी कंपनियों को बनाए रखने के आग्रह दलीय बाधाएं तोड़कर भारतीय राजनीति का संस्कार बन चुके हैं, जिससे जल्दी मुक्ति अब नामुमकिन है.

Tuesday, August 4, 2015

सियासी कबीले में कलाम


डा.कलाम की सहजता व वैज्ञानिकता असंदिग्ध रूप से श्रेष्ठ है लेकिन राष्ट्रपति के तौर पर उनका चुनाव और देश की राजनीति की मुख्यधारा में उनका छोटा-सा कार्यकाल  सियासत पर ज्यादा गहरी टिप्पणियां करता है.

" वाजपेयी जी, यह मेरे लिए बहुत बड़ा मिशन है. राष्ट्रपति पद पर मेरे नामांकन के लिए मैं, सभी दलों की सहमति चाहता हूं. '' वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने जब यह शर्त तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सामने रखी तब उन्हें यह सूचना मिले दो घंटे बीत चुके थे कि वे राष्ट्रपति पद के लिए एनडीए के प्रत्याशी होंगे. पहली सूचना भी वाजपेयी ने ही दी थी. दो घंटे के भीतर कलाम यह समझ चुके थे कि अगर बात बन सकती तो वे नहीं, बल्कि पी.सी. अलेक्जेंडर या उपराष्ट्रपति कृष्णकांत राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी होते. या फिर कौन जाने कि वाजपेयी खुद दौड़ में होते जैसा कि लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि रज्जू भैया वाजपेयी को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाना चाहते थे. अपनी उम्मीदवारी के लिए राजनैतिक सर्वानुमति की शर्त कलाम ने इसलिए रखी थी क्योंकि सर्वोच्च पदों को लेकर भारतीय राजनीति हमेशा से कबीलाई रही है, जिसमें कलाम जैसों के लिए जगह नहीं होती.
वे खुद को दलीय राजनीति के जवाबी कीर्तन में फंसने से बचाना चाहते थे. डॉ. कलाम की श्रेष्ठताओं के बावजूद सच यह है कि राजनीति की मुख्यधारा को फलांगते हुए एक टेक्नोक्रैट के राष्ट्रपति का प्रत्याशी बनने से भारतीय राजनीति का एक बड़ा खोल टूट गया था. सियासत उन्हें लेकर कभी स्वाभाविक नहीं रही इसलिए बाद में पूरी सियासी जमात ने मिलकर यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि कलाम का वाकया सरकार के अन्य क्षेत्रों में बड़े पदों पर परंपरा न बन जाए. कलाम की सहजता व वैज्ञानिकता असंदिग्ध रूप से श्रेष्ठ है लेकिन राष्ट्रपति के तौर पर चुनाव और देश की राजनीति की मुख्यधारा में उनका आगमन और छोटा-सा कार्यकाल (2002 से 2007) सियासत पर ज्यादा गहरी टिप्पणियां करता है. भारतीय राजनीति न केवल गहराई तक आनुवांशिक है बल्कि एक इसकी दूसरी पहचान यह भी है कि दलीय आग्रहों के बावजूद इसमें गजब की सामूहिकता है. प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या मुख्यमंत्री जैसे पद राजनेताओं या राजनैतिक जड़ों वाले लोगों को लिए आरक्षित हैं और पिछले साठ वर्ष में सभी दलों ने सजग रहकर इस अलिखित संधि का बेहद दृढ़ता के साथ पालन किया है और देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद तक पहुंचे सभी लोग राजनैतिक अतीत के साथ आगे बढ़े हैं. इस पैमाने पर अपनी समग्र वैज्ञानिक उपलब्धियों के बावजूद कलाम अधिकतम गवर्नर या राजदूत हो सकते थे. उनका राष्ट्रपति होना हजार संयोगों का एक साथ मिल जाना था. कलाम को राष्ट्रपति बनाने के लिए राजनीति की हिचक सिर्फ इसलिए भी टूट सकी क्योंकि वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, जो सियासत के रवायती संस्कारों को लेकर उतने आग्रही नहीं थे. अगर वाजपेयी ने कलाम के चुनाव को प्रतिष्ठा न बनाया होता तो शायद एनडीए किसी दूसरे राजनैतिक प्रत्याशी पर समझौता कर लेता. क्योंकि कलाम न केवल 1998 में वाजपेयी मंत्रिमंडल में शामिल होने की पेशकश ठुकरा चुके थे बल्कि अपना पेशेवर कार्यकाल पूरा कर अन्ना यूनिवर्सिटी में शिक्षक के तौर पर अपने सेवानिवृत्त जीवन की तैयारी शुरू कर चुके थे. यकीनन, वे सियासत की दहलीजों पर मत्था टेके बगैर देश के प्रथम नागरिक हो गए. लेकिन साथ ही यह भी सच है कि कलाम की प्रतिष्ठा को नया शिखर राष्ट्रपति बनने के बाद ही मिला और वे इतने लोकप्रिय होंगे इसका अंदाजा खुद एनडीए को भी नहीं था. कलाम का सफल वैज्ञानिक होना उनकी लोकप्रियता की शायद उतनी बड़ी वजह नहीं था. वे भारतीय मध्य वर्ग और युवाओं के चहेते इसलिए बन सके क्योंकि एक नितांत गैर सियासी टेक्नोक्रैट चौंकाने वाले अंदाज में भारतीय राजनीति की परंपरा को ध्वस्त करता हुआ, स्फुलिंग की तरह राष्ट्रपति पद पर पहुंच गया. उनकी इस उड़ान ने पहली बार भारत के लोगों को भरोसा दिया था कि एक गैर राजनैतिक व्यक्ति अपनी क्षमता के बूते सत्ता के गढ़ ढहाकर राष्ट्रपति तक हो सकता है, अलबत्ता कलाम का यही मॉडल सियासत के गले नहीं उतरा. कलाम के राष्ट्रपति बनने तक वाजपेयी सरकार का उत्तरार्ध शुरू हो गया था जबकि उनकी लोकप्रियता शिखर पर थी. उनका शेष कार्यकाल यूपीए के साथ बीता, जिसने एक क्षमतावान राष्ट्रपति की सक्रियता को सीमित कर दिया, जो भारत का ब्रांड एम्बेसडर हो सकता था. उस दौरान दिल्ली के सियासी गलियारों में यह किस्से आम थे कि किस तरह यूपीए ने कलाम की उड़ान को रोक दी है. उन्हें दूसरा कार्यकाल नहीं मिलना था क्योंकि तब तक पारंपरिक राजनीति कलाम जैसों को शिखर पर रखने का जोखिम समझ चुकी थी. अलबत्ता एक जनप्रिय पूर्व राष्ट्रपति का महज एक व्याख्याता बनकर रह जाना, उनकी क्षमताओं के साथ न्याय हरगिज नहीं था.
कलाम की जली सियासत प्रोफेशनलों को फूंक-फूंककर चुनने लगी. उनके बाद प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति भवन पहुंचते ही पुराना मॉडल वापस स्थापित हो गया और सत्ता में अन्य पदों पर गैर राजनेताओं के प्रवेश को लेकर सतर्कता पहले से ज्यादा बढ़ गई. मिसाइलमैन कलाम के राष्ट्रपति बनने के बाद के वर्षों में सर्वोच्च पदों पर किसी गैर राजनेता को लाने की जोखिम नहीं लिया गया. और जहां भी क्षमतावान गैर राजनेता या प्रोफेशनल लाने पड़े, वहां राजनैतिक नेतृत्व हमेशा सशंकित बना रहा. भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन और सरकार के रिश्ते इसका सबसे ताजा उदाहरण हैं.  कलाम का वैज्ञानिक और चिंतक होना नहीं बल्कि उनका राष्ट्रपति बनना भारत के राजनैतिक इतिहास की एक दुर्लभ घटना है, क्योंकि कलाम न तो आनुवांशिक नेता थे और न ही दलीय राजनीति में उनका कभी बपतिस्मा हुआ था. आदर्श परिस्थतियों में कलाम के राष्ट्रपति बनने को परंपरा बनाया जाना चाहिए था क्योंकि सत्ता के प्रमुख पदों पर विशेषज्ञों और पेशेवरों को लाने की हिचक खत्म हो गई थी. लेकिन जैसा कि रघुबीर सहाय ने लिखा है स्वाधीन इस देश में चौंकते हैं लोग/एक स्वाधीन व्यक्ति से! दरअसल कलाम की स्वाधीनता ने पारंपरिक सियासत को पर्याप्त मात्रा में चौंका दिया है. उम्मीद कम ही है कि निकट भविष्य में भारतीय राजनीति कलाम जैसी किसी दूसरी शख्सियत को सत्ता के शिखर पर लाने का साहस जुटा पाएगी.

Tuesday, January 13, 2015

संयम की नियंत्रण रेखा

भारत ग्लोबल कूटनीति में जब निर्णायक करवट की दहलीज पर खड़ा हैतब पाकिस्तान सबसे बड़ी दुविधा बन गया है।

पाकिस्तान को लेकर मोदी का आशावाद, उनकी सरकार के शपथ ग्रहण के साथ ही खत्म हो जाना स्वाभाविक ही था. हैरत तो, दरअसल, उस वक्त हुई जब पाकिस्तान को लेकर मोदी, अटल बिहारी वाजपेयी साबित नहीं हुए. कश्मीर के अलगाववादी नेता शब्बीर शाह और पाकिस्तानी राजदूत अब्दुल बासित के बीच मुलाकात के बाद अगस्त में दोनों मुल्कों की सचिव स्तरीय वार्ताएं न केवल रोक दी गईं बल्कि सरकार ने रिश्तों की रूल बुक यानी शिमला समझौते व लाहौर घोषणा को सामने रखते हुए सख्ती के साथ स्पष्ट कर दिया कि कश्मीर पर भारत और पाकिस्तान ही बात करेंगे, कोई तीसरा पक्ष नहीं रहेगा. मोदी सरकार का रुख साफ था कि इस अहमक पड़ोसी को लेकर न तो कांग्रेस की परंपरा चलेगी और न वाजेपयी की. पाकिस्तान को उसकी भाषा में जवाब देने की नीति तय करने के बाद मोदी ग्लोबल अभियान पर निकल गए थे क्योंकि उम्मीद थी कि पाकिस्तान बदलाव को समझते हुए संतुलित रहेगा. लेकिन पिछले छह माह में पाकिस्तान के पैंतरों ने भारत को चौंकाया है. कूटनीतिक व प्रतिरक्षा नियंता लगभग मुतमईन हैं कि पाकिस्तान, भारत को लंबे वार गेम में उलझना चाहता है. पसोपेश यह है कि ऐसे में सरकार के संयम की नियंत्रण रेखा क्या होनी चाहिए? वाजपेयी या कांग्रेस की तरह प्रतिरक्षात्मक रहना कितना कारगर साबित होगा?
भारत -पाक रिश्तों के इतिहास में भाजपाई नेतृत्व वाला हिस्सा छोटा जरूर है लेकिन बेहद निर्णायक रहा है. इसकी तुलना में राजीव-बेनजीर समझौते यानी अस्सी के दशक के बाद कांग्रेस के नेतृत्व में, दोतरफा रिश्तों का रसायन ठंडा ही रहा. वाजपेयी वैचारिक रूप से पाकिस्तान बनाने के सिद्धांत के विपरीत थे लेकिन पड़ोसी को लेकर उनकी सदाशयता और सकारात्मकता ने उन्हें कभी दो-टूक नहीं होने दिया, जिसका नुक्सान भी हुआ. फरवरी 1999 में वाजपेयी के नेतृत्व में अमन की बस लाहौर पहुंची तो दोस्ती के गीत बजे लेकिन मई आते आते करगिल हो गया और पूरा देश पाकिस्तान के खिलाफ घृणा से भर गया. 2001 में आगरा की शिखर बैठक में दोस्ती की एक असफल कोशिश हुई लेकिन 2002 में संसद पर हमले के बाद माहौल और बिगड़ गया. वह पहला मौका था जब वाजपेयी दो-टूक हुए, भारतीय सेना सीमा की तरफ बढ़ी और मुशर्रफ ने नरम पड़ते हुए, आतंक पर रोकथाम का वादा किया जो कभी पूरा नहीं हुआ
मोदी के शपथग्रहण में नवाज शरीफ की मौजूदगी, वाजपेयी मॉडल का हिस्सा थी लेकिन जब अगस्त में दो-टूक तेवरों के साथ पाकिस्तान से वार्ता रोकी गई तो साफ हो गया कि मोदी खुद को वाजपेयी की तरह पाकिस्तान से उलझए नहीं रखेंगे. पाकिस्तान से रिश्ते, उनकी ग्लोबल डिजाइन का एक छोटा-सा हिस्सा हैं.
मोदी की वैश्विक महत्वाकांक्षाएं रहस्य नहीं हैं. उन्होंने घरेलू गवर्नेंस की अनदेखी का जोखिम उठा कर खुद को विश्व मंच पर स्थापित करने की कोशिश की है. अलबत्ता उनकी कोशिशों में पड़ोसी ही बाधा बने हैं. चीन ने आंख में आंख डालकर घुसपैठ की और पाकिस्तान ने तो बारूदी मोर्चा ही खोल दिया. गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि के तौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा, मोदी के नए नवेले ग्लोबल कूटनीतिक अभियान का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव है और मोदी इसे हर तरह से भव्य व निरापद रखना चाहते थे. लेकिन यह आयोजन आतंक, असुरक्षा और अंदेशों का साये में आ ही गया है जो पाकिस्तान की डिजाइन का मकसद है. दरअसल, मोदी ने जब अगस्त में पाकिस्तान से वार्ताएं रोकीं थीं तब तक न तो उनकी ग्लोबल योजनाएं स्पष्ट थीं और न ही ओबामा के भारत आने का कार्यक्रम था. लेकिन अब जब भारत अपनी ग्लोबल कूटनीति में निर्णायक करवट की दहलीज पर खड़ा है, तब विदेश और प्रतिरक्षा संवादों से गुजरते हुए यह महसूस किया जा सकता है कि पाकिस्तान को लेकर भारत की दो-टूक रणनीति को दुविधाओं ने घेर लिया है.
 पाकिस्तान को लेकर मोदी के तेवर उनके चुनाव अभियान के माफिक हैं, जो पिछली सरकार की पाकिस्तान नीति को लचर साबित करता था. यही वजह है कि जब पाकिस्तान की हरकतों से मोदी की सख्त छवि सवालों में घिरी, तो सीमा पर प्रतिरक्षा तंत्र ने ऐलानिया जवाबी कार्रवाई की. रक्षा और गृह मंत्रियों के बेलाग लपेट बयान भी यह बताते हैं कि रक्षा तंत्र, कांग्रेस व वाजपेयी के दौर की प्रतिरक्षात्मक रणनीति से आगे निकल आया है. अरब सागर में आग लगने के बाद डूबी नौका में आतंकी थे या नहीं, यह बात दीगर है लेकिन इसे लेकर सुरक्षा बलों ने जो सक्रियता दिखाई वह बताती है कि करगिल व 26/11 के बाद रक्षा बल किसी तरह का जोखिम लेने को तैयार नहीं हैं. कूटनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि अगर ओबामा की यात्रा से पहले या बाद में भी, पाकिस्तान प्रेरित बड़ा दुस्साहस होता है तो भारत के लिए फैसले की कठिन घड़ी होगी क्योंकि सीमा पर बात काफी आगे बढ़ चुकी है. 
 मोदी ने वहीं से शुरुआत की है जहां वाजपेयी ने छोड़ा था. वाजपेयी का अंतिम बड़ा निर्णय आक्रामक ही था जब संसद पर हमले के बाद सेना को सीमा की तरफ बढ़ाया गया था. वाजपेयी से मोदी तक आते पाकिस्तान ज्यादा आक्रामक, विघटित और अविश्वसनीय हो गया है. पाकिस्तान को लेकर वाजपेयी जैसी सदाशयता मोदी की, ग्लोबल महत्वाकांक्षाओं के माफिक है और  घरेलू राजनीति में लोकप्रिय बने रहने के लिए इंदिरा गांधी वाला हॉट परस्यूट कारगर है.  दोनों विकल्पों के अपने नुक्सान हैं लेकिन मोदी कांग्रेस की तरह बीच में नहीं टिक सकते, क्योंकि पाकिस्तान से उनके रिश्तों की शुरुआत दो-टूक हुई है. उन्हें वाजपेयी बनना होगा या इंदिरा गांधी. 2015 में मोदी के इस चुनाव का नतीजा भी आ ही जाएगा और देश को उसके असर के लिए तैयार रहना होगा.

Monday, December 22, 2014

2002 बनाम 2014


मोदी ने उग्र हिंदुत्व को खारिज कर गवर्नेंस के ठोस एजेंडे पर तत्काल अमल शुरू नहीं किया तो उनके परिवार के योगीसाक्षी और साध्वी उन्हें अगले कुछ महीनों में ही 2002 का वाजपेयी बना देंगे.

रेंद्र मोदी सरकार सिर्फ अच्छी गवर्नेंस की उम्मीदों का मुकुट पहन कर ही सत्ता में नहीं पहुंची थी. सरकार बनते ही बीजेपी परिवार में दो प्रतिस्पर्धाएं एक साथ शुरू हुई हैं. एक तरफ सुशासन का परचम है, तेज आर्थिक प्रगति का उछाह है तो दूसरी तरफ उग्र हिंदुत्व की उम्मीदें भी कम ऊंची नहीं थीं. होड़ यह थी कि इनमें से कौन-सा एजेंडा अपनी धाक व धमक पहले कायम करता है. सरकार के छह माह बीतते-बीतते सुशासन के निर्गुण-निराकार आह्वानों पर उग्र हिंदुत्व का ठोस एजेंडा भारी पड़ता दिखता है. बीजेपी की पीठ पर लदा यह वेताल इतनी जल्दी सामने आ जाएगा, इसका अंदाजा खुद शायद मोदी को भी नहीं था लेकिन उग्र हिंदुत्व के पैरोकारों ने वाजपेयी सरकार के दौरान मिले अनुभवों का इस्तेमाल करते हुए अपने एजेंडे पर अमल की शुरुआत में देरी नहीं की है जबकि सरकार वाजपेयी की गवर्नेंस के तजुर्बों से सबक नहीं ले पाई. इसलिए, मोदी सरकार अपनी भोर में ही उस उलझन में फंसती दिख रही है, वाजपेयी सरकार अपनी प्रौढ़ावस्था में जिस असमंजस से दो चार हुई थी.
मोदी अच्छी गवर्नेंस दे सकते हैं, इस पर किसी को शक नहीं है. लेकिन यह संदेह वाजिब है कि क्या मोदी, कट्टर हिंदुत्व के वेताल को संभाल सकते हैं जो हमेशा से बीजेपी की पीठ पर सवार है और ग्रोथ का एजेंडा पटरी से उतारने की कुव्वत रखता है? इस अक्तूबर में विहिप की स्वर्ण जयंती तैयारियों को परखते हुए हमें यह एहसास हुआ था कि भगवा समूह अपने लक्ष्यों और कार्यक्रमों को लेकर ज्यादा स्पष्ट है जबकि गवर्नेंस को लेकर मोदी की मंजिलें धुंधली व खोखली हैं. वाजपेयी, अपनी सरकार के शुरुआती दौर में इस उग्र परिवार से निबटने में ज्यादा चतुर नजर आए थे. गठजोड़ की सरकार में सहयोगी दलों के दबाव ने भी उन्हें उग्र हिंदुत्व से बचने का मौका दिया था लेकिन शायद ज्यादा मदद, उन्हें उस न्यूनतम साझा कार्यक्रम से मिली, जो चुनाव से पहले बन गया था. हिंदुत्व और स्वदेशी के जिद्दी आग्रह घोषित तौर पर इस कार्यक्रम से बाहर थे और आर्थिक सुधारों व गवर्नेंस के लक्ष्य निर्धारित थे. इसलिए सत्ता में बैठते ही सरकार ने रफ्तार पकड़ ली और उग्र हिंदुत्व जब तक दस्तक देता, तब तक सुधारों की राह पर कई कदम उठ चुके थे.
आदर्श रूप से मोदी को सत्ता में आते ही सुधार और गवर्नेंस के ठोस लक्ष्य तय कर देने चाहिए थे. संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले सुशासन का रोड मैप चर्चा में आ जाना चाहिए था ताकि भगवा विमर्श की आवाज दबी रहती. लेकिन बयानों, फैसलों व कदमों में असंगति ने सरकार की वरीयताएं बुरी तरह गड्डमड्ड कर दी हैं. संस्कृत को तीसरी भाषा बनाने का लक्ष्य पहले जरूरी था या शिक्षा में ठोस बदलावों का? बैंकों की हालत सुधारना जरूरी था या जन धन? बंद पड़े बिजली घरों को कोयला मिलना पहली जरूरत था या पचास स्कीमों से लदे-फदे गांवों पर एक और स्कीम लादना? मोदी सरकार की शुरुआती घोषणाएं हवा में लटकी हैं, संसाधनों की बुनियाद नदारद है. गवर्नेंस में उभरती थकान व यथास्थिति उग्र हिंदुत्व की बहस शुरू करने के माफिक है. प्रधानमंत्री भी अब ऐक्शन मैन की जगह उपदेशक व काउंसलर की भूमिका में आ गए हैं जो सुधारों का एजेंडा नहीं बताता बल्कि नशीली दवाएं छोड़ने की सलाह देता है.
मोदी का चुनाव अभियान अच्छी गवर्नेंस की उम्मीद और उग्र हिंदुत्व के एजेंडे का चतुर सामंजस्य था, जिसके हस्ताक्षर प्रत्याशियों के चयन से लेकर प्रचार अभियान और नतीजों तक, हर जगह मौजूद थे. सरकार में आने के बाद मोदी कुछ निश्चिंत से हो गए जबकि उग्र हिंदुत्व के पैरोकारों ने अपने लक्ष्यों को साधना शुरू कर दिया. यही वजह है कि सरकार के पहले छह माह में ही लव जेहाद, धर्मांतरण व मंदिर जैसे मुद्दे बीजेपी के मंच व नेताओं के बयानों में नजर आने लगे. इससे न केवल विकास की बहस भटक रही है बल्कि बेतरह कमजोर विपक्ष को संसद रोकने की ताकत भी मिल गई. अगर 300 अरब डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार के बावजूद रुपया कमजोर है, कंपनियां मेक इन इंडियापर भरोसा नहीं कर पा रही हैं, महंगाई घटने के बाद भी उपभोक्ता खर्च नहीं बढ़ रहा है तो उसकी वजहें केवल ग्लोबल नहीं हैं. दरअसल, नई सरकार कुछ बड़ा किए बगैर ही ठिठक गई है और उग्र हिंदुत्व का वेताल बड़ा होने लगा है.

भगवा सेना के सामने मोदी का ताजा असमंजस 2001 के वाजपेयी जैसा है, जब अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर सरकार व विहिप के बीच मोर्चा खुला था. 2002 की शुरुआत होने तक, शिला पूजन को लेकर टकराव बढ़ गया, तनाव का पारा चढ़ा, गोधरा में ट्रेन जली, गुजरात के दंगे हुए और पूरा माहौल विषाक्त हो गया. वाजपेयी ने 2002 और ’03 में आर्थिक सुधारों की भरसक कोशिश की. 2003 के अंत में तीन विधानसभाएं भी जीतीं लेकिन देश को सबसे अच्छी गवर्नेंस व सबसे तेज ग्रोथ देने वाली सरकार 2004 में वापस नहीं लौट सकी. शायद 2002 के तनाव व दंगों से उभरी असुरक्षा, वाजपेयी सरकार की बेजोड़ परफॉर्मेंस पर भारी पड़ी थी. भगवा ब्रिगेड की धमक, ग्रोथ, रोजगार और गवर्नेंस की उम्मीदों के लिए जोखिम भरी है. अगर मोदी ने उग्र हिंदुत्व को खारिज कर गवर्नेंस के ठोस एजेंडे पर तत्काल अमल शुरू नहीं किया तो उनके परिवार के योगी, साक्षी और साध्वी उन्हें अगले कुछ महीनों में ही 2002 का वाजपेयी बना देंगे.