भारत दुनिया के सोने-चांदी की भट्टी बन गया है. सारी रोमन संपत्ति खिंच कर वहां जा रही है.’’—प्लिनी द एल्डर (77 ईस्वी) यह लिखने से पहले मुजरिस (कोचीन के निकट) में भारतीय समृद्धि का जलवा देखकर लौटा था. अगले दशकों में रोम की इतनी संपत्ति भारत आ गई कि शक सम्राट कनिष्क ने रोमन सिक्कों को ढाल कर अपनी मुद्राएं चला दीं. अंतत: रोमन सम्राट सेप्टिमस (193-211 ई.) ने अपने सिक्कों में सोने की मात्रा कम कर दी. यह इतिहास में मुद्रा के आधार मूल्य में कमी (डिबेसमेंट) का पहला उदाहरण था.
प्लिनी जैसी ही शिकायत 16वीं सदी में पुर्तगालियों को और 17वीं सदी में अंग्रेजों को हुई थी कि भारत दुनिया भर की समृद्धि खींच लेता है.
अलबत्ता प्लिनी के 2000 साल बाद, भारत में संपत्ति की आवाजाही का ताजा इतिहास लिखने वाला यह बताने को मजबूर होगा कि 21वीं सदी में भारत की समृद्धि खिंच कर अमेरिका, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया जाने लगी. यह काला धन नहीं था जो अवैध रास्तों से विदेश जाता था. यह तो उद्यमियों की जायज संपत्ति या मुनाफा था जो उन्होंने भारत में कारोबार से कमाया था लेकिन वे इसका संग्रह दुनिया के दूसरे देशों में कर रहे थे.
इस बजट में सुपर रिच यानी दो करोड़ से पांच करोड़ रुपए से अधिक ऊपर की आय वालों पर 42.7 फीसद टैक्स के बाद हमारे वामपंथी कलेजों पर भले ही ठंडक पड़ गई हो, हम यह कह सकते हों कि चीन, जापान, कनाडा, फ्रांस, यूके की तरह हम भी अपने अमीरों पर भरपूर टैक्स लगा रहे हैं. दरअसल, हमने अपने पैर पर ‘बजट’ मार लिया है.
हमारी टैक्स नीति का दकियानूसीपन अमीरों पर ज्यादा टैक्स वाले देशों से काफी फर्क रखता है. इस टैक्स से सरकार को एक साल में बमुश्किल 8,000 करोड़ रुपए मिलेंगे लेकिन कहीं ज्यादा संपत्ति इसके कारण उन देशों में चली जाएगी जहां टैक्स की दर कम है यानी औसतन 20 फीसद. इस अहम फैसले से संपत्ति को वैध ढंग से भी भारत से बाहर ले जाने की होड़ बढ़ेगी. अवैध रास्ते तो पहले से ही खुले थे.
एफ्रेशिया बैंक के ग्लोबल माइग्रेशन रिव्यू 2018 के मुताबिक, बीते बरस दुनिया में करीब 1.08 लाख अमीरों ने अपने पते बदले यानी कि वह जिन देशों में थे, उन्हें छोड़ गए. 2017 की तुलना में यह संख्या 14 फीसदी ज्यादा है. करीब 12,000 अमीरों ने ऑस्ट्रेलिया और 10,000 ने अमेरिका को ठिकाना बनाया. 4,000 के करीब कनाडा में, दो हजार स्विट्जरलैंड और अमीरात (प्रत्येक) और एक हजार, न्यूजीलैंड, ग्रीस, इज्राएल, पुर्तगाल और स्पेन (प्रत्येक) में बस गए.
समृद्धि गंवाने वाले मुल्कों में भारत तीसरे नंबर पर है. करीब 5,000 धनाड्य बीते बरस भारत छोड़ गए. 15,000 चीनियों और 12,000 रूसियों ने अपने वतन को अलविदा कहा. 2018 में तुर्की, फ्रांस, यूके और ब्राजील से 2,000 से 4,000 सुपर रिच बोरिया-बिस्तर बांधकर उड़ गए.
इससे पहले 2017 में करीब 7,000 भारतीय सुपर रिच विदेश में बस गए थे. मोर्गन स्टेनले ने बीते बरस अपने एक अध्ययन में बताया था कि 2014 के बाद करीब 23,000 समृद्ध लोग या परिवार भारत छोड़कर विदेश में जा बसे.
यानी कि ताजा बजट में नए टैक्स का कहर टूटने से पहले ही औसतन 7,000-8,000 सुपर रिच हर साल भारत छोड़ रहे थे.
यह नीरव मोदी, विजय माल्या या मेहुल चोकसी जैसा आपराधिक पलायन नहीं है बल्कि वैध समृद्धि का सुविचारित प्रवास है. अमीरी के प्रति पूर्वाग्रह छोड़कर इसे समझना जरूरी है.
भारत छोड़कर जाने वाले सुपर रिच अपना कारोबार बंद नहीं कर रहे हैं. वे यहीं से संपत्ति कमाएंगे. अपने कारोबार पर टैक्स भी देंगे लेकिन निजी संपत्ति को किसी ऐसे देश में एकत्र करेंगे जहां टैक्स कम है या संपत्ति के निवेश के वैध रास्ते उपलब्ध हैं.
कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी भी ऐसा ही करती है. जैसे कि अमेजन का भारतीय कारोबार करीब 16 अरब डॉलर का है लेकिन इसके मालिक और दुनिया के सबसे अमीर उद्यमी, जेफ बेजोस की संपत्ति से भारत को कुछ नहीं मिलता.
भारत के सुपर रिच आमतौर पर अपने कारोबार से खूब कमाते हैं क्योंकि रिटर्न काफी अच्छे हैं. अजीम प्रेम जी जैसे कुछ एक को छोड़कर कोई बहुत बड़ा जन कल्याण नहीं करते. उन्हें लोककल्याण में लगाने के लिए सरकार को कानूनी और प्रोत्साहनपरक उपाय करने होते हैं.
टैक्स की मार के कारण इनका देश छोड़ना नीतिगत विफलता है. सरकार इनकी संपत्ति को संजोने, निवेश करने या उपभोग के अवसर ही नहीं बना पाती ताकि भारत से कमाया पैसा भारत में ही रहे.
भारत की संस्कृति समृद्धि को अभिशाप नहीं मानती बल्कि इसकी आराधना करती है. चाणक्य बताकर गए हैं कि संपत्ति के बिना संपत्ति प्राप्त करना असंभव है, चाहे जितना प्रयास कर लिया जाए. जैसे हाथी को खींचने के लिए हाथी की जरूरत होती है ठीक उसी तरह संपत्ति अर्जित करने के लिए संपत्ति चाहिए.
क्या हम समृद्धि गंवाकर समृद्ध होना चाहते हैं?