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Sunday, March 19, 2023

डर के आगे जीत है


 

 

इटली के धुर पश्‍च‍िम में सुरम्‍य टस्‍कनी में एक बंदरहगार शहर है ल‍िवोनो

यूरोप के बंदरगाहों पर कारोबारियों की पुरानी खतो किताबत में लिवोनो के बारे में एक अनोखी जानकारी सामने आई

17वीं सदी में  ल‍िवोनो एक मुक्‍त बंदरगाह था. यह शहर यहूदी कारोबार‍ियों का गढ़ था यह शहर जो भूमध्‍यसागर के जरिये पूरी दुनिया में कारोबार करते थे

इन्‍हीं कारोबा‍र‍ियों था इसाक इर्गास एंड सिल्‍वेरा ट्रेड‍िंग हाउस. यह इटली के और यूरोप के अमीरों के लिए भारतीय हीरे मंगाता था

इर्गास एंड सिल्‍वेरा ठीक वैसे ही काम करते थे जैसे आज की राल्‍स रायस कार कंपनी करती है जो ग्राहक का आर्डर आने के बाद उसकी जरुरत और मांग पर राल्‍स रायस कार तैयार करती है.

ल‍िवोनो के यहूदी कारोबारियों के इतिहास का अध्‍ययन करने वाले इतालवी विद्वान फ्रैनेस्‍का टिवोलाटो लिखते हैं कि इर्गास एंड सिल्‍वेरा भारत ग्राहकों की पसंद के आधार पर भारत में हीरे तैयार करने का ऑर्डर भेजते थे. भारतीय व्‍यापारी इटली की मुद्रा लीरा में भुगतान नहीं लेते थे. उन्‍हें मूंगे या सोना चांदी में भुगतान चाहिए थे

इर्गास एंड सिल्‍वेरा मूंगे या सोने चांदी को लिस्‍बन (पुर्तगाल) भेजते थे जहां से बडे जहाज ऑर्डर और पेमेंट लेकर भारत के लिए निकलते थे. मानसूनी हवाओं का मौसम बनते ही लिस्‍बन में जहाज पाल चढाने लगते थे. हीरों के ऑर्डर इन जहाजों के भारत रवाना होने से पहले नहीं पहुंचे तो फिर हीरा मिल पाने की उम्‍मीद नहीं थी.

डच और पुर्तगाली जहाज एक साल की यात्रा के बाद भारत आते थे जहां कारोबारी मूंगे और सोना चांदी को परखकर हीरे देते थे. जहाजों को वापस लिस्‍बन लौटने में फिर एक साल लगता था. यानी अगर तूफान आदि में जहाज न डूबा तो करीब दो साल बाद यूरोप के अमीरों को उनका सामान मिलता था. फिर भी यह दशकों तक यह कारोबार जारी रहा

भारत के सोने की चिड़‍िया था मगर वह बनी कैसे?

भारत में सोने खदानों का कोई इतिहास नहीं है ?

इस सवाल का जवाब लिवोनो के दस्‍तावेजों से  मिलता है.  14 ईसवी के बाद यूरोप और खासतौर पर रोम को भारत के मसालो और रत्‍नो की की लत लग गई थी. रोम के लोग विलास‍िता पर इतना खर्च करते थे  सम्राट टिबेर‍ियस को कहना पडा कि रोमन लोग अपने स्‍वाद और विलास‍िता के कारण देश का खजाना खाली करने लगे हैं. यूरोप की संपत्‍त‍ि भारत आने का यह यह क्रम 17 वीं 18 वीं सदी तक चलता रहा.

18 वीं सदी की शुरुआत में पुर्तगाली अफ्रीका और फिर लैट‍िन अमेरिका से सोना हासिल करने लगे थे. इतिहास के साक्ष्‍य बताते हैं कि 1712 से 1755 के बीच हर साल करीब दस टन सोना लिस्‍बन से एश‍िया खासतौर पर भारत आता था  जिसके बदले जाते थे मसाले, रत्‍न और कपड़े.

यानी भारत को सोने की च‍िड़‍िया के बनाने वाला सोना न तो भारत में निकला था और न लूट से आया था. भारत की समग्र एतिहासिक समृद्ध‍ि केवल विदेशी कारोबार की देन थी.

आज जब भारत में व्‍यापार के उदारीकरण, विदेशी निवेश और व्‍यापार समझौतों को लेकर असमंजस और विरोध देखते हैं तो अनायास ही सवाल कौंधता है कि हम अपने इतिहास क्‍या कुछ भी सीख पाते हैं. क्‍यों कि अगर सीख पाए होते मुक्‍त व्‍यापार संध‍ियों की तरफ वापसी में दस साल न लगते.

 

एक दशक का नुकसान

आखि‍री व्‍यापार समझौता फरवरी 2011 में मलेश‍िया के साथ हुआ था. 2014 में आई सरकार सात साल तक संरंक्षणवाद के खोल में घुस गई इसलिए अगला समझौता के दस साल बाद फरवरी 2022 में अमीरात के साथ हुआ. इस दौरान दुनिया में व्‍यापार की जहाज के बहुत आगे निकल गए.  कोविड के आने तक दुनिया में व्‍यापार का आकार दोगुना हो गया था.

 भारत जिस वक्‍त अपने दरवाजे बंद कर रहा था यानी 2013 के बाद मुक्‍त व्‍यापार से पीछे हटने के फैसले हुए उसके के बाद दशकों में दुनिया की व्‍यापार वृद्ध‍ि दर  तेजी से बढ़ी. अंकटाड की 2021 इंटरनेशनल ट्रेड रिपोर्ट बताती है कि कोविड आने तक दुनिया व्‍यापार में विकसति और विकासशील देशों का का हिस्‍सा लगभग बराबर हो गया था. चीन और रुस के ब्रिक्‍स देश इस बाजार में बड़े हिस्‍सेदार हो गए थे जबकि भारत बड़ा आयातक बनकर उभरा था

 देर आयद मगर दुरुस्‍त नहीं

बाजार बंद रखने का सबसे बडा नुकसान हुआ है. यह कई अलग अलग आंकड़ों में दिखता है निर्यात की दुनिया जरा पेचीदा है. इसमें अन्‍य देशों से तुलना करने कई पैमाने हैं. जैसे कि कि दुनिया के निर्यात में भारत का हिस्‍सा अभी भी केवल 2 फीसदी है. इसमें भी सामनों यानी मर्चेंडाइज निर्यात में हिस्‍सेदारी तो दो फीसदी से भी कम है. सामानों का निर्यात निवेश और उत्‍पादन का जरिया होता है.

विश्‍व न‍िर्यात में चीन अमेरिका और जर्मनी का हिस्‍सा 15,8 और 7 फीसदी है. छोटी सी अर्थव्‍यवस्‍था वाला सिंगापुर भी दुन‍िया के निर्यात हिस्‍सेदारी में भारत से ऊपर है. निर्यात को अपनी ताकत बना रहे इंडोनेश‍िया मलेश‍िया वियतनाम जैसे देश भारत के आसपास ही है. मगर एक बड़ा फर्क यह है कि इनकी

जीडीपी के अनुपात में  निर्यात 45 से 100 फीसदी तक हैं. दुनिया के 130 देशों में निर्यात जीडीपी का अनुपात औसत 43 फीसदी है भारत में यह औसत आधा करीब 20 फीसदी है. 

निर्यात के ह‍िसाब का एक और पहलू यह है कि किस देश के निर्यात  में मूल्‍य और मात्रा का अनुपात क्‍या है. आमतौर पर खन‍िज और कच्‍चे माल का निर्यात करने वाले देशों के निर्यात की मात्रा ज्‍यादा होती है. यह उस देश में निवेश और वैल्‍यूएडीशन की कमी का प्रमाण है. भारत के मात्रा और मूल्‍य दोनों में पेट्रो उत्‍पादों का नि‍र्यात सबसे बड1ा है लेक‍िन इसमें आयातित कच्‍चे माल बडा हिस्‍सा है

इसके अलावा ज्‍यादातर निर्यात खन‍िज या चावल, गेहूं आद‍ि कमॉडिटी का है. मैन्‍युफैक्‍चरिंग निर्यात तेजी से नहीं बढे हैं. बि‍जली का सामान प्रमुख फैक्‍ट्री निर्यात है. मोबाइल फोन का निर्यात ताजी भर्ती हैं लेक‍िन यहां आयाति‍त पुर्जों पर निर्भरता काफी ज्‍यादा है.

पिछले दशकों में निर्यात का ढांचा पूरी तरह बदल गया है. श्रम गहन (कपडा, रत्न जेवरात और चमड़ा) निर्यात पिछड़ रहे हैं. भारत ने रिफाइनिंग और इलेक्ट्रानिक्स में कुछ बढ़त ली है लेकिन वह पर्याप्त नहीं है और प्रतिस्पर्धा गहरी है.

कपड़ा या परिधान उद्योग इसका उदाहरण है जो करीब 4.5 करोड लोगों को रोजगार देता है और निर्यात में 15 फीसदी हिस्सा रखता है. 2000 से 2010 के दौरान वि‍श्व कपडा निर्यात में चीन ने अपना हिस्सा दोगुना (18 से 36%) कर लिया जबकि भारत के केवल 3 फीसदी से 3.2 फीसदी पर पहुंच सका. 2016 तक बंग्लादेश (6.4%) वियतनाम (5.5%) भारत (4%) को काफी पीछे छोड़ चुके थे.

शुक्र है समझ तो आया

इस सवाल का जवाब सरकार ने कभी नहीं दिया कि आख‍िर जब दुनिया को निर्यात बढ रहा तो हमने व्‍यापार समझौते करने के क्‍यों बंद कर दिये. भारत के ग्‍लोबलाइजेशन का विरोध करने वाले कभी यह नहीं बता पाए कि आख‍िर व्‍यापार समझौतों से नुकसान क्‍या हुआ

दुनिया के करीब 13 देशों साथ भारत के मुक्‍त व्‍यापार समझौते और 6 देशों के साथ वरीयक व्‍यापार संध‍ियां इस समय सक्रिय हैं. आरसीईपी में भारत संभावनाओं का आकलन करने वाली भल्ला समिति ने आंकड़ों के साथ बताया है कि सभी मुक्त  व्यापार  समझौते  भारत  के  लिए  बेहद  फायदेमंद रहे हैंइनके  तहत  आयात और निर्यात  ढांचा संतुलित है  यानी कच्चे माल का निर्यात और उपभोक्ता उत्पादों का आयात बेहद सीमित है.

जैसे कि 2009  आस‍ियान के साथ भारत का एफटीए सबसे सफल रहा है. फ‍िलि‍प्‍स कैपटिल की एक ताज रिपोर्ट बताती है कि देश के कुल निर्यात आस‍ियान का हिस्‍सा करीब 10 फीसदी है. आस‍ियान में सिंगापुर, मलेश‍िया इंडोनेश‍िया और वियतनाम सबसे बड़े भागीदार है. अब चीन की अगुआई वाले महाकाय संध‍ि आरसीईपी में इन देशों के शामिल होने के बाद भारत के निर्यात में चुनौती मिलेगी क्‍यों इस संध‍ि के देशों के बीच सीमा शुल्‍क रहित मुक्‍त व्‍यापार की शुरुआत हो रही है.

2004 का साफ्टा संधि जो दक्ष‍िण एश‍िया देशों साथ हुई उसकी हिस्‍सेदारी कुल निर्यात में 8 फीसदी है. यहां बंग्‍लादेश सबसे बडा भागीदार है.

 

कोरिया के साथ व्‍यापार संधि में निर्यात बढ़ रहा है लेक‍िन भारत जापान मुक्‍त व्‍यापार संध‍ि से निर्यात को बहुत फायदा नहीं हुआ. जापान जैसी विकस‍ित अर्थव्‍यवस्‍था को भारत का निर्यात बहुत सीमि‍त है.

अमीरात के साथ मुक्‍त व्‍यापार समझौते के साथ दरवाजे फिर खुले हैं. यह भारत का तीसरा सबसे बडा व्‍यापार भागीदार है लेक‍िन निर्यात में बड़ा हिस्‍सा मिन‍िरल आयल , रिफाइनरी उत्‍पाद, रत्‍न -आभूषण और बिजली मशीनरी तक सीमित है.  इस समझौते के निर्यात का दायरा बड़ा होने की संभावना है

इसी तरह आस्‍ट्रेल‍िया जो भारत के न‍िर्यात भागीदारों की सूची में 14 वें नंबर पर है. उसके साथ ताजा समझौते के बाद  दवा, इंजीन‍ियर‍िंग चमड़े के निर्यात बढ़ने की संभावना है.

व्‍यापार समझौते सक्रिय होने और उनके फायदे मिलने में लंबा वक्‍त लगता है. भारत में इस राह पर चलने के असमंजस में पूरा एक दशक निकाल द‍िया है वियतनाम ने बीते 10 सालों में 15 मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) किये हैं जबकि 20 शीर्ष व्‍यापार भागीदारों में कवेल सात देशों के साथ भारत के मुक्‍त व्‍यापर समझौते हैं. बंगलादेश, इंडोनेश‍िया और वियतनाम से व्‍यापार में वरीयता मिलती है.  यूके कनाडा और यूरोपीय समुदाय के साथ बातचीत अभी शुरु हुई है

मौका भी जरुरत भी

वक्‍त भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को फिर एक बडे निर्णायक मोड़ पर ले आया है. बीते दो दशक की कोश‍िशों के बावजूद भारत में मैन्‍युफैक्‍चरिग में बहुत बड़ा निवेश नहीं हुआ. रोजगारों में बड़ा हिस्‍सा सेवाओं से ही आया फैक्‍ट्र‍ियों से नहीं. 2011 के बाद आम लोगों की कमाई में बढ़त धीमी पडती गई इसलिए जीडीपी में उपभोग चार्च का हिस्‍सा अर्से से 55 -60 फीसदी के बीच सीमित है.

अब भारत को अगर पूंजी निवेश बढ़ाना है तो उसे अपेन घरेलू बाजार में मांग चाहिए. मांग के लिए चाहिए रोजगार और वेतन में बढ़त.

मेकेंजी की रिपोर्ट बताती है कि  करीब छह करोड़ नए बेरोजगारों और खेती से बाहर निकलने वाले तीन करोड़ लोगों को काम देने के लिए भारत को 2030 तक करीब नौ करोड़ नए रोजगार बनाने होंगे. यदि श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी का असंतुलन दूर किया जाना है तो इनमें करीब 5.5 करोड़ अति‍रिक्त रोजगार महिलाओं को देने होंगे

2030 तक नौ करोड रोजगारों का मतलब है 2023 से अगले सात वर्ष में हर साल करीब 1.2 करोड़ रोजगारों का सृजन. यह लक्ष्य कितना बड़ा है इसे तथ्य की रोशनी में समझा जा सकता है कि 2012 से 2018 के बीच भारत में हर साल केवल 40 लाख गैर कृषि‍ रोजगार बन पाए हैं.

कृषि से इतर बड़े पैमाने पर   रोजगार (2030 तक नौ करोड़ गैर कृषि‍ रोजगार) पैदा करने के लिए अर्थव्यवस्था को सालाना औसतन 9 फीसद की दर से बढ़ना होगा. अगले तीन चार वर्षों में यह विकास दर कम से 10 से 11 फीसदी होनी चाहिए. 

 

यह विकास दर अकेले घरेलू मांग की दम पर हासिल नहीं हो सकती. भारत को ग्‍लोकल रणनीति चाहिए. जिसमें जीडीपी में निर्यात का हिस्‍सा कम से कम वक्‍त में दोगुना यानी 40 फीसदी करना होगा. मैन्‍युफैक्‍चरिंग का पहिया दुनिया के बाजार की ताकत चाहिए.

इस रणनीति के पक्ष में दो पहलू हैं

एक – रुस और चीन के ताजा रिश्‍तों के बाद अमेरिका और यूरोप के बाजारों में चीन को लेकर सतर्कता बढ़ रही है. यहां के बाजारों में भारत को नए अवसर मिल सकते हैं.

दूसरा – संयोग से भारत की मुद्रा यानी रुपया गिरावट के साथ भरपूर प्रतिस्‍पर्धात्‍मक हो गया है

आईएमएफ का मानना है कि भारत अगर ग्‍लोबलाइजेशन की नई मुहिम शुरु करे तो निर्यात को अगले दशक में निवेश और रोजगार का दूसरा इंजन बनाया जा सकता है.

भारत के लिए आत्मनिर्भरता का नया मतलब यह है कि दुनिया की जरुरत के हिसाब, दुनिया की शर्त पर उत्‍पादन करना. यही तो वह सूझ थी जिससे भारत सोने की चिड़‍िया बना था तो अब बाजार खोलने में डर किस बात का है?

 

 

ढोल में पोल


 


 

बीते पंद्रह साल में दुनिया में कहीं भी किसी जगह कंप्‍यूटर की पढ़ाई कर रहा कोई छात्र छात्रा अगर थक कर सो जाता था  तो उसका अवचेतन उसके जगा कर कहता था आराम मत करपढ़ क्‍यों कि गूगलफेसबुकट‍ि्वटरअमेजनमाइक्रोसॉफ्ट की नौकरी तेरा इंतजार कर रही है  और वह फिर उठ कर कोडिंग के मंत्र रटने लगता था.

यह करोड़ों उम्‍मीदें अब माकायोशी सनोंसैम बैंकमैन फ्रायड (एफटीएक्‍स क्रिप्‍टो एक्‍सचेंज वाले) मार्क ज़कबरर्गोंजेफ बेजोसोंइलॉन मस्‍कोंसत्‍या नाडेलासुंदर पि‍चाइयोंबायजू रविद्रन आदि को किस नाम से बुलाना चाहेंगी...जिन्‍होंने मिलकर हजारों नौकर‍ियां खत्‍म कर दीं. इनके भारतीय सहोदर यानी चमकदार स्‍टार्ट अप सैंकडों कर्मचारियों का काम से निकाल चुके हैं र पठा चुके हैं. और उस पर तुर्रा यह कि बेरोजगारी की यह हैलोवीन पार्टी तो अभी शुरु हुई है

न्‍यू इकोनॉमी के यह  सितारे और दूरदर्श‍िता प्रेरणा पुंज इन निवेशकों के बीच किस नाम इन्‍हें पुकारेंगे जाएंगे ज‍िनकी भारी पूंजी इनमें से कई कंपनियों के शेयर खरीदकर स्‍वाहा हो गई.

क्‍या आप इन सब कीर्त‍ि कहानियों के नायकों को ठग कहना चाहेंगे

क्‍या आपने कारोबारों को विराट तमाशा कहना चाहेंगे जो दरअसल एक फर्जीवाड़ा है

ठह‍िरये

गुस्‍सा मत करिये

हम आपकी भावनायें समझते हैं

जॉन केनेथ गॉलब्रेथ नाम के बड़े अर्थशास्‍त्री गुज़रे हैं यह ठगी या फर्जीवाड़े  वाली थ्‍योरी हमें उन्‍हीं ने बताई थी

गॉलब्रेथ 1940 के दशक में फॉरच्‍यून पत्रि‍का के संपादक थे. वह  हार्वर्ड के प्रोफेसर थे. जॉन एफ केनेडी के एडवाइजर थे. उनका भारत से करीबी रिश्‍ता था. वह 1960 के दशक में भारत में अमेरिका राजदूत रहे थे

गॉलब्रेथ ने एक किताब ल‍िखी थी.  नाम है द ग्रेट क्रैश1929

गॉलब्रेथ ने इस किताब में बताया था कि कुछ ऐसे कारोबार हैं जिनकी एक कृत्रिम वैल्‍यू बनाई जाती है और लंबे वक्‍त तक लाखों लोग उसमें भरोसा करते रहे हैं. गॉलब्रेथ ने इस कारोबारी मॉडल के लिए ‘बेजल’ शब्‍द का प्रयोग किया . बेजल अंग्रेजी के ‘इंबेजलमेंट’ से बना है जिसका मतलब है ठगीगबन या पैसों का चोरी. अंग्रेजी शब्‍दकोषों में बेज़ल का भी अर्थ कुछ ठगी लूट जैसा ही मिलता है

क्‍या दुनिया की सबसे प्रख्‍यातसंभावनामय कंपरियां गॉलब्रेथ की बेजल थ्‍योरी को सच साबित कर रही हैं. ? मांग में जरा गिरावटआर्थ‍िक उठापटक का एक छोटा सा दौर या पूंजी की जरा सी महंगाई से इनकी चूलें क्‍यों हिल गईंक्‍या हमारी सदी के सबसे चमकदार कारोबार भीतर से इतने खोखले हैं कि हजारों की संख्‍या में नौकर‍ियां खत्‍म करने लगे?  क्‍या दरअसल इनके बिजनेस मॉडल दुनिया का सबसे दिलचस्‍प आर्थि‍क अपराध हैं जैसा कि बेजल ने कहा था ?

युद्ध और महंगाई के बीच अचानक फट पड़ी बेरोजगारी से बदहवास दुनिया समझने की कोशि‍श कर रही है उसे बताया गया है वह सच है या फिर जो छ‍िपाया गया था वही सच था.

आइये समझते हैं कि दुनिया को गॉलब्रेथ ही नहीं  वॉरेन बफे के साथी और बर्कशायर हैथवे  वाली चार्ली मुंगेर के भी कुछ सूत्र याद आ रहे है जो सामूहिक भ्रम में भुला दिये गए थे.

 

सबसे बड़ी उलटबांसी 

दुनिया को आर्थ‍िक संकटों का इतिहास भर तजुर्बा है. इन संकटों के दो परिवार हैं. पहला काल्‍पनिक मांग या कमॉड‍िटी की कीमतें चढ़ जाने से फूले गुब्‍बारे जैसे कि  17 वीं नीदरलैंड में ट्यूलिप खरीदने दौड़ पड़े कारोबारी हों या फिर  ब्रिटेन में साउथ सी कंपनी के शेयरों की तेजी या फिर असंख्‍य पोंजी स्‍कीमें या दूसरा जरुरत से कहीं ज्‍यादा निवेश जैसे 18 वीं सदी के यूरोप में रेलवे और कैनाल बबल से लेकर 1980 में जापान और 2006 में अमेरिका का रियल इस्‍टेट बबल और 2002 का डॉट कॉम बबल.. दोनों किस्‍म के संकटों के पीछे पूंजी बैंकों से या शेयर बाजार से आती है तो यही डूबते हैं

इस बार कुछ एसा हो रहा है जिसकी प्रकृति और तरीका देखकर सर चकरा जाता है. महामारी के दो साल के दौरान दुनिया इस बात मुतमइन पर हो चुकी थी कि टेकएज आ गई है. यानी तकनीकों का स्‍वर्ण युग शुरु हो गया है. यह युग तो महामारी से पहले से ही तैयार था लेक‍िन घरों में बंद लोगों के आर्थ‍िक और सामाजिक व्‍यवहार  बाद बीते साल तक अगर होई यह कहता कि स्‍टार्ट अप डूब जाएंगे या फेसबुक छंटनी करेगी तो शायद उसे सोशल मीडिया पर शहीद कर‍ दिया जाता

लेक‍िन 2022 के आख‍िरी महीने तरफ बढ़ रही दुनिया यह मान रही है कि तकनीकी उद्योग में डॉटकॉम बबल से बड़ा गुब्‍बारा फूट गया है. चौतरफा हाय तोबा मची है. कहीं क्रिप्‍टो एक्‍सचेंज डूब रहे हैं ड‍ि फाई यानी ड‍िसेंट्रालाइज फाइनेंस की मय्यत उठाई जा रही है तो कहीं ई वाहन वाली कंपनियों के माल‍िक फ्रॉड में पकड़े जा रहे हैं तो कहीं सॉफ्टवेयर क्‍या हार्डवेयर तक बनाने वाली कंपनियां नया निवेश बंद कर रही हैं. भारत के मशहूर यूनीकॉर्न पूंजी की कमी से कॉक्रोच में बदल रहे हैं.

कम से कम यह टेकएज तो नहीं जिसका सपना देखते हुए दुनिया महामारी का भवसागर पार कर आई है.

टेक एज की नई सुर्ख‍ियां

दुनिया में बहुत से लोग यह मानते थे कार कंपनियां बंद हो सकती हैं , सिनेमाघरों का वक्‍त खत्‍म हो सकता हैकिसी मौसम की फसल कहीं भी उगाई जा सकती है लेक‍िन तकनीकों की दुनिया में कभी मंदी नहीं आएगी. यह उद्योग फ्यूचर प्रूफ है यानी भविष्‍य की गारंटी है. अब यहां कुछ एसी सुर्ख‍ियां बन रही हैं

-    अमेरिका की हर बड़ी तकनीक कंपनी या तो रोजगार में छंटनी कर रही है या नही भर्त‍ियां बंद कर चुकी है.  केवल अक्‍टूबर महीने‍ में अमेरिका को आईटी उद्योग में करीब 50000 नौकर‍ियां गईं है. इनमें से कई लोग एसे हैं जिन्‍हें दो महीने पहले ही नौकरी में रखा गया था. फेसबुक टि‍्टवरअमेजनटेस्‍लानेटफ‍ि्लक्‍स , कई क्रिप्‍टो एक्‍चेंजईवेहक‍िन कंपनियां नौकर‍ियां खत्‍म कर रही हैं भारत में भी सभी बड़े स्‍टार्ट अप छंटनी कर रही हैं. अब तक  20000 लोगों को गुलाबी पर्ची थमाई जा चुकी है

-    क्रिप्‍टो की दुनिया डूब रही है. वॉयजल और सेल्‍स‍ियस के बाद तीसरा बडा एक्‍सचेंज एफटीएक्‍स दीवालिया हो गया है. इसके मालिक सैम बैंकमैन फ्रायड को पत्र‍िकाओं ने नए युग का जे पी मोर्गन कहा था. जिन्‍होंने 1907 अमेरिका की सरकार को कर्ज देकर संकट से उबारा था.  

-    मासायोशी सन के सॉफबैंक को इस साल अप्रैल जून की त‍िमाही में 913 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है. मासायोशी सन ने स्‍टार्ट अप निवेश से तौबा कर ली है. कई कंपनियों में वह अपनी हिस्‍सेदारी बेचना चाहते हैं. सन का सॉफ्बैंक वेंचर कैपिटल बाजार के आव‍िष्‍कारक था. उसने सिल‍िकॉन वैली स्‍टार्ट अपर 100 अरब डॉलर के साथ  स्‍टार्ट अप इन्‍वेस्‍ट‍िंग का नया युगशुरु कर दिया था.  बहुतों ने सन को वन मैन बबल मेकर की उपाध‍ि से नवाजा था. यह उपाध‍ि अब सही साबित हो रही है.  

-    2022 की तीसरी तिमाही में वेंचर कैपिटल फंड‍िंग बीते साल के मुकाबले 53 फीसदी और पिछली त‍िमाही से 33 फीसदी घटी है. इस सितंबर तक भारत में स्‍टार्ट अप फंडिंग बीते साल की तुलना में 80 फीसदी कम हो गई है

 

-    पूरी दुनिया में यूनीकॉर्न की संख्‍या कम हो रही है. जो मौजूद हैं वह बुरी तरह लहूलुआन हैं. भारत में ओयो प्रति मिनट 76000 रुपयेपेटीएम 60000 रुपयेस्‍व‍िगी करीब 25000 रुपयेपीबी फिनटेक करीब 22000 रुपये और जोमाकोकार ट्रेड नायकमोबीक्‍व‍िक 2000 से 5000 रुपये प्रति म‍िनट का नुकसान उठा रहे हैं.

-    तकनीकी शेयरों का प्रतिनिध‍ि अमेरिकी सूचकांक नैसडैक गहरी मंदी में है. यह बीते बरस से 35 फीसदी टूट चुका है. बीते साल दस साल में यह सबेस तेज गिरावट है.  

क्‍या बदल गया अचानक?

बीते दो साल में दो बड़े बदलाव हुए और आश्‍चर्य है कि इनका सबसे ज्‍यादा असर उस क्षेत्र पर हो रहा है जो शायद मंदी की संभावना से परे था

पहला - अब तक यह रहस्‍य नहीं रह गया है कि दुनिया में कर्ज महंगा होने से पूंजी की आपूर्ति कम हुई है.  2010 के बाद आमतौर पर कर्ज दरें न्‍यूनतम रहीं. बीच एक बार कुछ बढ़त आई तो प्राइवेट फंड आना शुरु हो गए. सस्‍ती पूंजी अब लौटने के साथ प्राइवेट फंड भी लौटने लगे हैं

 

 

 

दूसरा -  ऑनलाइन कारोबारों को नियम बदल रहे हैं या नियामकों की सख्‍ती कर रहे हैं. क्र‍िप्‍टो फिनटेक इसकी नजीर हैं. अमेर‍िका से लेकर भारत तक अमेजनगूगलफेसबुक आदि के बाजार एकाध‍िकार पर निर्णायक कार्रवाई शुरु हो गइ है. यूरोपीय जीडीपीडीआर उपभोक्‍ताओं को राइट टू बी फॉरगॉटेन दे रहा है यानी उसकी सूचना सिस्‍टम में नहीं रहनी चाहिए.    सूचना तकनीक कंपन‍ियों को इस बात के लिए बाध्‍य किया जा रहा है वह उपभोक्‍ताओं को इस बात का अध‍िकार दें कि उन्‍हें ट्रैक किया जा या नहीं

इसका नतीजा यह है कि  न्‍यू इकोनॉमी दुनिया बदल रही है. टारगेटेड विज्ञापन जो डाटा मार्केटिंग की बुनियाद है अब वही डगमगा गई है. मेकेंजी का मानना है कि  कुकीज और  आइडेंट‍िफायर फॉर एडवरटाइजर्स (आईडीएफ) के बंद होने के बादइस सेवाओं का इस्‍तेमाल करने वाली कंपनियों को मार्केट‍िंग पर 10 से 20 फीसदी ज्‍यादा खर्च करना होगा.

बस इतने से हिल गया सब ?

कुछ परेशान करने वाले सवाल हैं      

पहला - क्‍या ब्‍याज दर बढ़ना इतना बड़ा बदलाव था जिससे फेसबुक जैसों का पूरा कारोबार ही लडखड़ा जाए. इन कंपन‍ियों को प्रति कर्मचारी राजस्‍व और मुनाफे में अग्रणी माना जाता है. जैसे कि 2021 में फेसबुक का प्रति कर्मचारी मुनाफा पांच लाख डॉलर था और राजस्‍व करीब 16 लाख डॉलर.

 

  

दूसरा – कंपनियों को पहले से पता था कानून बदलेंगे. पूरी दुनिया के नियामक बीते एक पांच छह साल से सूचना तकनीक कंपन‍ियों को  निजता के अधकिारों की सुरक्षा से लैस करने की कोशि‍श कर रहे हैं. भविष्‍य की तैयारी करने वाली कंपनियों के लिए नियमों का बदलाव इतना बड़ा झटका था कि सब बिखर जाए

यहां हम वापस जॉन केनेथ गॉलब्रेथ की तरफ लौटते हैं. उनकी बेजेल थ्‍योरी कहती है कि किसी संपत्‍त‍ि कारोबार का संभावना या कृत्रि‍म कीमत को बढ़ाने का फर्जीवाड़ा लंबा चल सकता है. क्‍यों कि इससे यह कारोबारी मॉडल इसके नियंता को मुनाफा देता है जबक‍ि गंवाने वाले नुकसान को महसूस नहीं कर पाते.  यही बेजल है. यानी इंबेजलमेंट.

यह सबको पता था है कि बीते एक दशक में  65 फीसदी वेंचर कैपिटल निवेश डूब गए (कोर‍िलेशन वेंचर्स का अध्‍ययन) डूब गए. केवल 2 से 3 फीसदी निवेश पर दस से बीस गुना रिटर्न दियाकेवल एक फीसदी से 20 फीसदी से ज्‍यादा और आधा फीसदी ने 50 गुना या अध‍िक रिटर्न दिया है. 2014 तक कुल वेंचर कैपिटल फाइनेंस 482 अरब डॉलर था जिसमें केवल दस कंपनियों के पास का वैल्‍यूएशन 213 अरब डॉलर था यानी कुल निवेश का आधा.

बाकी केवल बेजल है ?

तकनीकी शेयरों के सूचकांक नैसडक का करीब 51 फीसदी रिटर्न केवल पांच कंपनियों से आता है. जबकि केवल 25 कंपनियां इस सूचकांक के कुल 75 फीसदी रिटर्न की जिम्‍मेदार हैं.

बाकी स‍ब क्‍या बेजल है ?

गालब्रेथ कहते थे कि इस पूरे प्रपंच कुछ बडे संकट छिपे रहते हैं जो बाद में फटते हैं जैसे कि  क्रिप्‍टो कंपनियों और एक्‍सचेंज के एदीवालिया होने का अंदाज नहीं है जब दिन अच्‍छे होते हैंकारोबारों का सही मूल्‍य छ‍िपा रहता है. प्राइस डिस्‍कवरी नहीं होती. लोग समझते हैं कि पूंजी तो आ‍ती रहेगी. जब वक्‍त का पह‍िया दूसरी तरफ जाता है तो सच उभरते हैं. जांच पड़ताल होती है कारोबारी नैतिकता के सवाल उठते हैं.

बेजल का गुब्‍बारा फूट जाता है.

अदर पीपुल्‍स मनी के लेखक जॉन के कहते हैं यह बेजल बड़ा मजेदार है इसमें कई लोग एक साथ एक ही संपत्‍त‍ि का इस्‍तेमाल करते रहते हैं. उन्‍हे पता भी नहीं होता कोई दूसरा भी यही कर रहा है.

क्‍या पूरे सूचना तकनीक कारोबार में यही होता रहा है

किसे नहीं पता था कि

क्‍यों कि चैनलों चर्चाओं में सुर्ख‍ियों में रहने वाले सभी आईटी सूरमाओं को  पता था कि डिज‍टिल अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा हिस्सा तो हमारे खाने-पीनेपहनने-ओढ़नेखरीदने-बेचनेतलाशने-मिटानेसुनने कहने की खरबों की सूचनाओं पर केंद्रित हैइन्‍हीं की वजह से यह सेवायें मुफ्त थीं मगर हम बेचे जा रहे थे और इस कारोबार के आकाश छूते वैल्‍यूएशन बताये जा रहे थे.

यह पूरा आभासी कारोबार वास्‍तव‍िक खरीद को बढ़ाने पर केंद्र‍ित था. ताकि ज्‍यादा से ज्‍यादा लोग खरीद कर सकें. अब मांग ही नहीं होगी यात्रा ही घट जाएगीाहोटल ही नहीं बुक होंगे तो इन्‍हे इन्‍हें लेकर हमारी  सूचनाओं का क्‍या होगा.

सन 2000 में चार्ली मुंगेर ने कहा था कि अगर किसी संपत्‍ति‍ का कृत्रि‍म बाजार मूल्‍य उसके वास्‍तविक आर्थ‍िक मूल्‍य से ज्‍यादा बढाते हुए इस सीमा तक ले जाया जाता है जहां उसे रखने वाले खुद को अमीर मानने लगे. स्‍टार्ट अप में यही हुआ है. मुंगेर इसे ‘फेबजल’ कहा था है. किसी कारोबार की संभावनाओं का एक मूल्‍य हो सकता है लेक‍िन जब वास्‍तविक अर्थव्‍यवस्‍था से यह पूरी तरह कट जाता है तो फिर यह पोंजी में बदल जाता है. क्र‍िप्‍टो इसका उदाहरण बन रहा है

 

सूचना तकनीक बाजार में नौक‍र‍ियों का जो कत्‍ले आम मचा है. कंपनियां जिस तरह अपने कारोबारी विस्‍तार रोक रही हैं उसके बाद असल‍ियत से बाबस्‍ता होने का वक्‍त आ गया है. देा बडे बदलाव सामने दिख रहे हैं

एक – सूचना तकनीक सेवाओं के मुफ्त का युग खत्‍म होगा. इलॉन मस्‍क यही करने जा रहे हैं. महंगाई के बीच कौन कौन ई मेल या सोशल मीड‍िया सेवाओं को पैसा देगा इससे इन कारोबारों की वास्‍तविक वैल्‍यू तय होगी. यानी गालब्रेथ और मुंगेर इनकी कारेाबारे में जमीनी आर्थि‍क सच का असर दिखेगा

दूसरा- दुनिया को बहुत जल्‍दी इस सवाल का जवाब तलाशना होगा कि क्‍या कारोबार के इस तौर तरीके और कृत्र‍िम वैल्‍यूएशन से जीडीपी को बढ़ाकर दिखाया गया. अब अगर स्‍टार्ट डूबेंगे तो क्‍या दुनिया की आर्थ‍िक विकास दर और गिरेगी?

 

तकनीकी कारोबारों की दुनिया का नया युग शुरु होता है अब ..  

 

 


Monday, September 12, 2022

मेरी रेवड़ी अच्‍छी उसकी खराब,

 




मैं हमेशा सच बोलता हूं अगर मैं झूठ भी बोल रहा हूं तब भी वह सच ही है.

भारत की राजनीति आजकल रेवड़‍ियों यानी लोकलुभान अर्थशास्‍त्र पर एसे  ही अंतरविरोधी बयानों से हमारा मनोरंजन कर रही है.

वैसे ऊपर वाला संवाद प्रस‍िद्ध हॉलीवुड फिल्‍म स्‍कारफेस (1983) का है. ब्रायन डी पाल्‍मा की इस फिल्‍म में अल पचीनो ने  गैंगस्‍टर टोनी मोंटाना का बेजोड़ अभिनय किया था. इस फिल्‍म ने गैंगस्‍टर थीम पर बने  सिनेमा को  कई पीढ़‍ियों तक प्रभावित कि‍या.

सरकार के अंतरव‍िरोध देख‍िये

नीति आयोग ने बीते साल  कहा कि खाद्य सब्‍सिडी का बिल कम करने के लिए  राष्‍ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के लाभार्थ‍ियों की संख्‍या को करीब 90 करोड से घटाकर 72 करोड पर लाना चाहिए. इससे सालाना 47229 करोड़ रुपये बचेंगे.

दूसरा, इसी साल जून में नीति आयोग ने कहा कि इलेक्‍ट्र‍िक वाहनों पर सरकारी की सब्‍सि‍डी 2031 तक जारी रहनी चाहिए. ताकि बैटरी की लागत कम हो सके.च्

आप कौन की सब्‍सि‍डी चुनेंगे?

इस वर्ष अप्रैल में केंद्र ने राज्‍यों को सुझाया कि कर्ज और सब्‍स‍िडी कम करने के लिए  सरकारी  सेवाओं को महंगा किया जाना चाहिए.

मगर घाटा तो केंद्र का भी कम नहीं है तो उद्योगों को करीब 1.11 लाख करोड़ रुपये की टैक्‍स रियायतें क्‍यों दी गईं ?

कौन सी रेवड़ी विटामिन है कौन सी रिश्‍वत?

68000 करोड़ रुपये की सालाना किसान सम्‍मान न‍िधि‍ को किस वर्ग में रखा जाए?

14 उद्योगों को 1.97 करोड़ रुपये के जो प्रोडक्‍शन लिंक्‍ड इंसेट‍िव हैं उनको क्‍या मानेंगे हम ?

रेवड‍ियों का बजट

वित्‍त वर्ष 2022-23  में केंद्र सरकार का सब्‍स‍िडी बिल करीब 4.33 लाख करोड़ होगा. इनके अलावा करीब 730 केंद्रीय योजनाओं पर  इस याल 11.81 लाख करोड़ खर्च होंगे. इनमें से कई के रेवड़ि‍त्‍वपर बहस हो सकती है.

केंद्र प्रयोजित योजनायें दूसरा मद हैं जिन्‍हें केंद्र की मदद से राज्‍य लागू करते हैं. इस साल के बजट में इनकी संख्‍या 130 से घटकर 70 रह गई है लेक‍िन आवंटन बीते साल के 3.83 लाख करोड़ रुपये से बढकर 4.42 लाख करोड़ रुपये हो गया है.

राज्‍यों में रेवड़ी छाप योजनाओं की रैली होती रहती है.  इनसे अलग  2020-21 में राज्‍यों का करीब 2.38 लाख करोड़ रुपये स्‍पष्‍ट रुप से सब्‍स‍िडी के वर्ग आता था जो  2018-19 के मुकाबले करीब 12.7 फीसदी बढ़ा है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार  बीते बरस राज्‍यों के राजस्‍व में केवल एक फीसदी की बढ़त हुई. राज्‍यों के  राजस्‍व में सब्सिडी का हिस्‍सा अब बढ़कर 19.2 फीसदी हो गया है  

कितना फायदा कितना नुकसान

मुफ्त तोहफे बांटने की बहसें जब उरुज़ पर आती हैं तो किसी सब्‍स‍िडी को उससे मिलने वाले फायदे से मापने का तर्क दिया जाता है.

2016 में एनआईपीएफपी ने अपने एक अध्‍ययन में बताया था कि खाद्य शि‍क्षा और स्‍वास्‍थ्‍य के अलावा सभी सब्‍स‍िडी अनुचित हैं. वही सोशल ट्रांसफर उचित हैं जिनसे मांग और बढ़ती हो.  इस पुराने अध्‍ययन के अनुसार 2015-16 में समग्र गैर जरुरी (नॉन मेरिट)  सब्‍स‍िडी जीडीपी के अनुपात में 4.5 फीसदी थीं. कुल सब्‍स‍िडी में इनका हिस्‍सा आधे से ज्‍यादा है और राज्‍यों में इनकी भरमार है.

आर्थ‍िक समीक्षा (2016-17) बताती है कि करीब 40 फीसदी लक्षित लोगों को राशन प्रणाली और 65 फीसदी जरूरतमंदों को मनरेगा का लाभ नहीं मिलता. छह प्रमुख स्कीमों (आवास योजनासर्व शिक्षामिड डे मीलग्राम सड़कमनरेगास्वच्छ भारत) के सबसे कम फायदे उन जिलों को मिले जहां सबसे ज्यादा गरीब आबादी थी.  

यदि शिक्षा और स्‍वास्‍थ्‍य को सामाजिक जरुरत मान लिया जाए तो उसके नाम पर लग रहे टैक्‍स  और सेस के बावजूद अधि‍कांश आबादी निजी क्षेत्र से शिक्षा और स्‍वास्‍थ्‍य खरीदती है.

सनद रहे कि कंपनियों को मिलने वाली टैक्‍स रियायते, सब्‍स‍िडी की गणनाओं में शामिल नहीं की जातीं.

ब‍िजली का स्‍यापा

ि‍बजली सब्‍स‍िडी भारत का सबसे विद्रूप सच है. उदय स्‍कीम के तहत ज्‍यादातर राज्‍य बिजली बिलों की व्‍यवस्‍था सुधारने  और वितरण घटाने के लक्ष्‍य नहीं पा सके. 31 राज्‍यों और केंद्रशास‍ित प्रदेशों में 2019 के बाद से ब‍िजली की आपूर्ति लागत में सीधी बढत दर्ज की गई.

बिजली दरों का ढांचा पूरी तरह सब्‍स‍िडी केंद्रि‍त है. इसमें सीधी सब्‍स‍िडी भी है उद्योगों पर भारी टैरिफ लगाकर बाकी दरों को कम रखने वाली क्रॉस सब्‍स‍िडी भी.  27 राज्‍यों ने 2020-21 में करीब 1.32 लाख करोड़ रुपये की बिजली सब्‍स‍िडी दी, इसमें 75 फीसदी सब्‍स‍िडी किसानों के नाम पर है.

बिजली वितरण कंपनियां (डिस्‍कॉम) 2.38 लाख करोड की बकायेदारी में दबी हैं. इन्‍हें यह  पैसा बिजली बनाने वाली कंपनियों को देना है. डिस्‍कॉम के खातों में सबसे बड़ी बकायेदारी राज्‍य सरकारों की है जिनके कहने पर वह सस्‍ती बिजली बांट कर चुनावी संभावनायें चमकाती हैं

तो होना क्‍या चाहिए

सरकार रेवड़‍ियों पर बहस चाहती है तो सबसे पहले   केंद्रीय और राज्‍य स्‍कीमों, सब्‍स‍िडी और कंपनियों को मिलने वाली रियायतों की पारदर्शी कॉस्‍ट बेनीफ‍िट एनाल‍िसिस हो  ताकि पता चला कि किस स्‍कीम और सब्‍स‍िडी से किस लाभार्थी वर्ग को ि‍कतना फायदा हुआ.

और जवाब मिल सकें इन सवालों के

कि क्‍या किसानों को सस्‍ती खाद, सस्‍ती बिजली, सस्‍ता कर्ज और एमएसपी सब देना जरुरी है?

सरकारी स्‍कीमों से शिक्षा स्‍वास्‍थ्‍य या किसी दूसरी सेवा की गुणवत्‍ता और फायदों में कितना इजाफा हुआ ?

कंपनियों को मिलने वाली किस टैक्‍स रियायत से कितने रोजगार आए?

अगर सस्‍ती श‍िक्षा और मुफ्त किताबें रेवडी नहीं हैं तो डिजिटल शिक्षा के लिए लैपटॉप या मोबाइल रेवड़ी क्‍यों माने जाएं?

इस सालाना  विश्‍लेषण के आधार पर जरुरी और गैर जरुरी सब्‍स‍िडी  के नियम तय किये जा सकते हैं.

इस गणना के बाद राज्‍यों के लिए राजकोषीय घाटे की तर्ज  रेवड़ी खर्च की सीमा तय की जा सकती है.  राज्‍य सरकारें बजट नियमों के तहत तय करें कि उन्‍हें क्‍या देना है और क्‍या नहीं.

सनद रहे‍ कि कमाना और बचाना तो हमारे लिए जरुरी है संप्रभु सरकारें पैसा छाप सकती हैं, टैक्‍स थोप सकती हैं  और बैंकों से हमारी जमा निकाल कर मनमाना खर्च कर सकती है . यही वजह है कि भारत के बजट दशकों के सब्‍स‍िडी के  एनीमल फॉर्म (जॉर्ज ऑरवेल) में भटक रहे हैं जहां "All animals are equal, but some are more equal than others. इस सबके बीच  सुप्रीम कोर्ट की कृपा से अगर देश को इतना भी पता चल जाए कि कौन सा सरकारी दया रेवड़ी है और कौन सी रियायत वैक्‍सीन तो कम से कम हमारे ज़हन तो साफ हो जाएंगे.