वह कभी-कभी सवालों के अनोखे जवाब ले आती है.
जैसे मंदी और बेकारी दूर करने के लिए गांवों में बिजली के खंभे लगाना. यह पानी की कमी दूर करने के लिए रेल की पटरी बिछाने जैसा है.
देश जब मंदी के इलाज का इंतजार कर रहा था जो किसी अंतरराष्ट्रीय आपदा के कारण नहीं बल्कि पूरी तरह सरकार के गलत फैसलों से आई, तब मुफ्त में बिजली कनेक्शन बांटने की योजना का त्योहार शुरू हो गया. यह स्कीम उन राज्यों में लागू होगी जहां बिजली वितरण नेटवर्क बुरे हाल में है, बिजली बोर्ड घाटे में हैं, कर्ज से उबरने की कोशिश कर रहे हैं और बिजली सप्लाई के घंटे गिने-चुने ही हैं.
सरकारें अक्सर यह भूल जाती हैं कि अर्थव्यवस्था के मामले में आत्मविश्वास और दंभ की विभाजक रेखा बहुत बारीक होती है. देश में व्याप्त मंदी इसी गफलत की देन है. लेकिन दंभ के बाद अगर दुविधा आ जाए तो जोखिम कई गुना बढ़ जाते हैं, क्योंकि तब घुटने की चोट के लिए आंख में दवा डालने जैसे अजीबोगरीब फैसले लिए जाते हैं. मंदी के मौके पर सब्सिडी का 'सौभाग्य' महोत्सव इसी दुविधा से निकला है.
सरकारी स्कीमों का हाल बुरा है. इसे खुद सरकार से बेहतर भला कौन जानता है. सरकार का एक मंत्रालय है जो स्कीमों के क्रियान्वयन का हिसाब-किताब रखता है. इस साल की शुरुआत में उसने जो रिपोर्ट जारी की थी उसके मुताबिक, मोटे खर्च और बजट वाली सरकार की 12 प्रमुख स्कीमें 2016-17 में बुरी तरह असफल रहीं. मसलन, ग्रामीण सड़क योजना 14 राज्यों में लक्ष्य से पीछे रही. प्रधानमंत्री आवास योजना 27 राज्यों में पिछड़ गई.
इस रिपोर्ट में दीनदयाल ग्राम ज्योति योजना भी है जो 14 राज्यों में ठीक ढंग से नहीं चली. सौभाग्य योजना इसी का विसतार है. नोटबंदी के बाद जनधन को लकवा मार गया है. फसल बीमा योजना के बारे में तो सीएजी ने बताया है कि इसका फायदा बीमा कंपनियों ने उठा लिया, कुदरत के कहर के मारे किसानों को कुछ नहीं मिला.
गरीबों को मुफ्त गैस कनेक्शन देने वाली योजना उज्ज्वला भी अब दुविधा की शिकार है. केंद्रीय पेट्रो कंपनियों के कारण स्कीम की शुरुआत ठीक रही लेकिन सिलेंडर भरवाने के लिए 450 रुपए देना उज्ज्वला धारकों के लिए मुश्किल है. ग्रामीण इलाकों में मंदी के पंजे ज्यादा गहरे हैं. केरोसिन और लकड़ी हर हाल में एलपीजी से सस्ती है.
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, ओडिशा, राजस्थान जैसे राज्यों में एलपीजी धारकों की संख्या और एलपीजी की खपत में बड़ा झोल है. पेट्रो मंत्रालय के रिसर्च सेल की रिपोर्ट बताती है कि उज्ज्वला के बाद यहां जिस रफ्तार से कनेक्शन बढ़े हैं, उस गति से एलपीजी की मांग या खपत नहीं बढ़ी.
सिर्फ आंकड़े ही नहीं, लोगों का नजरिया भी स्कीमों को लेकर बहुत उत्साहवर्धक नहीं है. इस साल अगस्त में इंडिया टुडे के 'देश का मिज़ाज सर्वे' ने बताया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का आंकड़ा जितना ऊंचा है, उनकी स्कीमों की अलोकप्रियता उतनी ही गहरी है. इनमें जन धन, डिजिटल इंडिया जैसी बड़ी स्कीमें शामिल हैं. यह स्थिति तब है जबकि प्रधानमंत्री देश से लेकर विदेश तक लगभग हर दूसरे भाषण में इनका नाम लेते हैं और पिछले तीन साल में इन स्कीमों के प्रचार पर क्या खूब खर्च हुआ है ?
मोदी सरकार मनरेगा जैसे किसी बड़े करिश्मे की तलाश में है जिसकी पूंछ पकड़ कर चुनावों की लंबी वैतरणी पार हो सके. दिलचस्प है कि मनरेगा की सफलता उसके जरिए मिले रोजगारों में नहीं बल्कि उसके जरिए बढ़ी मजदूरी की दरों में थी. मनरेगा लागू होते समय आर्थिक विकास की गति तेज थी इसलिए मनरेगा के सहारे मजदूरी दरों का बाजार पूरी तरह श्रमिकों के माफिक हो गया. मजदूरों को गांव में भी ज्यादा मजदूरी मिली और शहरों में भी. अगर मंदी के दौर में मनरेगा आती तो शायद ये नतीजे नहीं मिलते.
दरअसल, सरकारी स्कीमें गरीबी का समाधान हैं ही नहीं. 1994 से 2012 तक कुल आबादी में निर्धनों की तादाद 45 फीसदी से घटकर 22 फीसदी रह गई. 2005 से 2012 के बीच गरीबी घटने की रफ्तार, इससे पिछले दशक की तुलना में तीन गुना तेज थी. ध्यान रखना जरूरी है कि यही वह दौर था जब भारत की आर्थिक विकास दर सबसे तेजी से बढ़ी.
हम इतिहास से यह सीखते हैं कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा. हम इतिहास से यह भी सीखते हैं कि नसीहतें न लेने के मामले में सरकारें सबसे ज्यादा जिद्दी होती हैं. वे ऐसे इलाज लाती हैं जिसमें हाथी की दवा चींटी को चटाई जाती है. तभी तो बेकारी दूर करने के लिए अब गांवों में एलईडी बल्ब टांगे जाएंगे.