क्या हम अब भी खेल रहे हैं?
एक अनोखा खेल,
जिसमें जिताऊ दांव कभी नहीं चला जाना है ...(प्रसिद्ध फिल्म वार गेम्स से)
आप सियासत पर हैरत से अधिक और कर भी क्या सकते हैं. इस सप्ताह जब, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और कोरियाई तानाशाह किम जोंग उस करीब छह दशक पुराने कोरियाई युद्ध को खत्म करने और परमाणु हथियारों की समग्र समाप्ति पर बात करने के लिए हनोई (वियतनाम) में जुटे थे, तब एशिया की दो परमाणु शक्तियां, भारत और पाकिस्तान युद्ध के करीब पहुंच गए.
यही वह ट्रंप हैं जो मेक्सिको सीमा पर दीवार खड़ी करने के लिए अपने देश में आर्थिक आपातकाल की नौबत ले आए और यह वही किम हैं जो दुनिया को कई बार परमाणु युद्ध के मुहाने तक पहुंचा चुके हैं. दूसरी तरफ भारत-पाकिस्तान के नेता हाल तक एक-दूसरे की शादी में शामिल होते रहे हैं.
उड़ी हमले के बाद भारत का जवाब अपवाद था. लेकिन पुलवामा की जवाबी कार्रवाई और इस पर पाकिस्तान का जवाब पूरे दक्षिण एशिया के लिए बड़ी नीतिगत करवट है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की विदेश नीति में तीन बड़े परिवर्तन किए हैं. बाजुएं फड़काने वाले माहौल से निकलकर ही हम इनके फायदे-जोखिम की थाह ले सकते हैं.
पहला: उड़ी और न ही पुलवामा सबसे बड़ी आतंकी वारदात है. लेकिन पहली बार भारत ने लगातार (दो बार) छद्म युद्ध का जवाब प्रत्यक्ष हमले से दिया है. पिछले दो साल में आतंकी रणनीति बदली है. कश्मीर से बाहर और आम लोगों पर हमलों की घटनाएं सीमित रही हैं. अब सुरक्षा बल निशाना हैं.
भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध स्तरीय पलटवार में क्या हम कुछ और भी पढ़ पा रहे हैं. चीन की छाया में पाकिस्तान की सेना भारत को लंबे ‘वार गेम’ में खींचने की कोशिश में सफल हो रही है जिसे हर कीमत पर टालने की कोशिश की गर्ई थी. कोई यकीन के साथ नहीं कह सकता कि पुलवामा आखिरी आतंकी हमला है तो फिर जवाब भी आखिरी नहीं...
दो: युद्ध, विदेश नीति की मृत्यु का ऐलान है. पाकिस्तान पर दो जवाबी कार्रवाइयां आतंक के खिलाफ लड़ाई की भारतीय नीति में निर्णायक मोड़ हैं. आतंक बेचेहरा युद्ध है. यह लड़ाई भूगोल की सीमा में नहीं लड़ी गई है. आतंक से प्रभावित दुनिया के सभी देशों ने इसे अपनी सामूहिक लड़ाई माना क्योंकि इससे घायल होने वाले दुनिया के सभी महाद्वीपों में फैले हैं. मुंबई और संसद पर हमले के बाद भी भारत जवाब देते-देते अंत में रुक गया था और कूटनीतिक अभियानों से पाकिस्तान को तोड़ा गया था.
क्या छद्म युद्ध के मुकाबले प्रत्यक्ष युद्ध, आतंक पर कूटनीतिक कोशिशों से ऊब का ऐलान है? क्या आतंक पर अंतरराष्ट्रीय एकजुटता से भारत को उम्मीद नहीं बची है? भारत-पाक के पलटवार पर दुनिया ने संयम की सलाह दी, पीठ नहीं थपथपाई. सनद रहे कि प्रत्येक युद्ध खत्म हमेशा समझौते की मेज पर ही होता है.
तीन: पाकिस्तान की राजनीति हमेशा से भारत या कश्मीर केंद्रित रही है, भारत की नहीं. ऐसा पहली बार हो रहा है जब सुरक्षा, युद्ध नीति, विदेश नीति किसी सरकार की चुनावी संभावनाओं को तय करने वाली हैं. भारतीय कूटनीति व सेना के पास, पाकिस्तान से निबटने की ताकत व तरीके (संदर्भ—बांग्लादेश बलूचिस्तान) हमेशा से मौजूद रहे हैं. लेकिन मोदी की मजबूरी यह है कि 2014 में उनका चुनाव अभियान पाकिस्तान के खिलाफ दांत के बदले जबड़े तोडऩे की आक्रामकता से भरा था इसलिए साल दर साल पाकिस्तान से दो टूक हिसाब करने के आग्रह बढ़ते गए हैं और 2019 के चुनाव से पहले उन्हें अविश्वसनीय पड़ोसी को घरेलू राजनीति के केंद्र में लाना पड़ा है. भारत में कोई चुनाव, पहली बार शायद पाकिस्तान के नाम पर लड़ा जाएगा.
चीनी जनरल, युद्ध रणनीतिकार और दार्शनिक सुन त्जु ने कहा था कि चतुर योद्धा शत्रु को अपने हिसाब से चलाते हैं. उसके हिसाब से आगे नहीं बढ़ते. वक्त बताएगा दक्षिण एशिया में कौन किसे चला रहा था. फिलहाल तो फिल्म वार गेम्स का यह संवाद भारत-पाक की सियासत समझने में काम आ सकता है.
फाल्कन: तुमने कट्टा-बिंदी (टिक-टैक-टो) खेली?
जेनिफर: हां.
फाल्कन: अब नहीं खेलते?
जेनिफर: नहीं.
फाल्कन: क्यों?
जेनिफर: यह बोरिंग है. इसमें हमेशा मुकाबला बराबरी पर छूटता है.
फाल्कन: यकीनन, इसमें कोई नहीं जीतता लेकिन वार रूम में बैठे लोग सोचते हैं कि वे परमाणु युद्ध जीत सकते हैं.