मुझे मालूम है कि मेरी उम्र के लोग राजनीति में दिलचस्पी नहीं लेते, मगर मैं जानना चाहता हूं कि सत्ता में आने के बाद आप मेरी जिंदगी में क्या फर्क पैदा करेंगे क्यों कि अपनी जिंदगी तो आप जी चुके हैं।.... बाइस साल के युवक ने जब यह सवाल दागा तो अमेरिकी संसद के निचले सदन के पूर्व स्पीकर व रिपब्लिकन प्रतयाशी 68 वर्षीय न्यूटन गिंगरिख को काठ मार गया। वाकया बीते सप्ताह न्यू हैम्पशायर की एक चुनाव सभा का है। जरा सोचिये कि यदि राहुलों, मुलायमों, मायावतियों, बादलों, उमा भारतीयों आदि की रैली में भी कोई ऐसा ही सवाल पूछ दे तो ??... तो, नेता जी के जिंदाबादी उसे विपक्ष का कारिंदा मान कर हाथ सेंकते हुए रैली से बाहर धकिया देंगे। न्यू हैम्पशायर जैसे सवाल तो नवाशहर, नैनीताल, हाथरस और हमीरपुर में भी तैर रहे हैं जो उदारीकरण के बीस सालों में ज्यादा पेचीदा हो गए हैं। इनकी रोशनी में उत्तर प्रदेश व पंजाब की चुनावी चिल्ल पों दकियानूसी नजर आती है। आजादी के बाद मतदाताओं की चौथी पीढ़ी, इन चुनावों में, सियासत की पहली या बमुश्किल दूसरी पीढ़ी को चुनेगी। नए वोटर देख रहे है कि नेताओं की यह दूसरी पीढी सियासत में पुरखों से ज्यादा रुढिवादी हैं, इसलिए नौ फीसदी ग्रोथ की बहस, नौ फीसदी आरक्षण की कलाबाजी में गुम हो गई है। फिर भी इन खुर्राट समीकरणबाज नेताओं से यह पूछना हमारा हक है कि उनकी सियासत से उत्तर प्रदेश और पंजाब के अगले दस सालों के लिए क्या उम्मीद निकलती है।
उत्तर प्रदेश – पाठा बनाम नोएडा
पिछले कुछ वर्षों में ग्रोथ की हवा पर बैठ कर उड़ीसा, उत्तराखंड व जम्मू कश्मीर ने भी सात से नौ फीसदी की छलांगे मारी हैं मगर उत्तर प्रदेश के कस बल तो छह फीसदी की ग्रोथ पर ही ढीले हो गए। वजह यह कि आंकड़ों ने नीचे छिपा एक जटिल, मरियल, कुरुप व बेडौल उत्तर प्रदेश ग्रोथ की टांग खींच रहा है। इस यूपी की चुनौती गाजियाबाद बनाम गाजीपुर या लखनऊ बनाम मऊ की है। यहां कालाहांडी जैसा बांदा, कनाट प्लेस जैसे नोएडा को बिसूरता है। 45 से 85000 की प्रति व्यक्ति आय वाले चुनिंदा समृद्ध जिलों (गाजियाबाद, नोएडा, मेरठ, आगरा आदि) में पूरा प्रदेश आकर धंस जाना चाहता है। एक राजय की सीमा के भीतर आबादी का यह प्रवास हैरतंगेज है जो यूपी के शहरों की जान निकाल रहा है। नेताओं से पूछना चाहिए कि शेष भारत जब उपज बढ़ाने की बहस में जुटा है तब यूपी की 35 फीसदी जमीन में एक बार से ज्यादा बुवाई (क्रॉपिंग इंटेसिटी) क्यों नहीं(कुछ शहरों की) और विकास (अधिकांश पिछड़ापन) के बीच फंस कर चिर गया है। इसके घुटनों में अगले एक दशक की जरुरतों का बोझ उठाने की ताकत ही नहीं बची है मगर सियासत इसे आरक्षण की अफीम चटा रही है।