इश्तिहार एक काम तो बाखूबी करते हैं। दीवार पर उनकी मौजूदगी कुछ वक्त के लिए दरारें छिपा
लेती है। सियासत इश्तिहारों पर भले झूम जाए मगर बात जब अर्थव्यवस्था की हो तो इशितहारों
में छिपी दरारें ज्यादा जोखिम भरी हो जाती हैं। भारत के इश्तिहारी आर्थिक सुधारों
ने ग्लोबल निवेशकों को रिझाने के बजाय कनफ्यूज कर दिया है। सुर्खियों में चमकने
वाले सुधारों के ऐलान, देश की आर्थिक सेहत के आंकड़े सामने आते ही सहम कर चुप हो
जाते हैं। केलकर और दीपक पारिख जैसी समितियों की रिपोर्टें तो सरकार की सुधार वरीयताओं की ही चुगली खाती हैं। सरकार
सुधारों के पोस्टर से
संकट की दरारों
को छिपाने में लगी है। सुधार एजेंडे का भारत
की ताजा आर्थिक चुनौतियों से कोई
तालमेल ही नहीं दिखता, इसलिए ताजा
कोशिशें भारतीय
अर्थव्यवस्था की व्यापक तस्वीर
को बेहतर करती नजर नहीं आती। उत्पादन, ग्रोथ, महंगाई, ब्याज
दरों, निवेश, खर्च, कर्ज का उठाव, बाजार में मांग और निर्यात
के आंकड़ों में उम्मीदों की चमक नदारद है। शेयर बाजार में तेजी और रुपये की
मजबूती के बावजूद किसी ग्लोबल निवेश या रेटिंग एजेंसी ने भारत को लेकर अपने
नजरिये में तब्दीली नहीं की है।
दरारों की कतार
वित्त
मंत्री की घोषणाओं और कैबिनेट से निकली ताजी सुधार सुर्खियों को अगर कोई केलकर
समिति की रिपोर्ट में रोशनी में पढ़े तो उत्साह धुआं हो जाएगा। केलकर समिति तो कह
रही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था तूफान में घिरी है। कगार पर टंगी है। भारत 1991
के जैसे संकट की स्थिति में खड़ा है। चालू खाते का घाटा जो विदेशी मुद्रा की आवक व निकासी में अंतर दिखाता है, वह जीडीपी के अनुपात में 4.3 प्रतिशत पर है जो कि 1991 से भी
ऊंचा स्तर है। विदेशी मुद्रा के मोर्चे पर 1991 जैसे संकट की बात अप्रैल में रिजर्व
बैंक गवर्नर डी सुब्बाराव ने भी कही थी। ग्लोबल
वित्तीय संकट, भारत के भारी आयात बिल और निवेशकों के अस्थिर रुख के कारण यह दरार
बहुत जोखिम भरी है। राजकोषीय
संतुलन के मामले में भारत अब गया कि तब