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Sunday, May 26, 2019

यह भी मुमकिन है!


 
लोकप्रिय नेता हमेशा साहसी सुधारक ही हों या बहुमत से गढ़ी सरकारें सुधारों की चैम्पियन ही साबित हों इसकी कोई गारंटी नहीं है!

सिर्फ यही दो पुरानी मान्यताएं बची हैंनरेंद्र मोदी को अब इन्हें  भी तोड़ देना चाहिए क्योंकि भारत के लोगों ने उनके लिए सरकारें चुनने का तौर-तरीका सिरे से बदल दिया है.

पिछले तीन-चार दशक के किसी भी काल खंड में ऐसा दौर नहीं मिलेगा जिसमें भारत की जटिल क्षेत्रीय और राजनैतिक अस्मिताएं किसी एक नेता में इस कदर घनीभूत हो गई होंजैसा कि मोदी के साथ हुआ है.

इतिहास गवाह है कि भारत के वोटर नाक पर मक्खी नहीं बैठने देतेमंदीबेकारीग्रामीण बदहाली के बाद अगले चुनाव में ही सरकारों को सिर के बल खड़ा कर देते हैं लेकिन इस बार लोगों ने दर्द और निराशा को दबाकर मोदी के पक्ष में पहले से बड़ी लहर बना दीकिसी राजनेता से उम्मीदों का यह अखिल भारतीय उछाहताजा राजनैतिक अतीत के लिए अजनबी है.

इनकार के लिए मशहूर भारतीय वोटरों का भव्य स्वीकार, 69 वर्षीय नरेंद्र मोदी को ऐसे मुकाम पर ले आया है जहां वे अब ऐसे नेता हो सकते हैं जो न केवल लोकप्रिय होते हैं बल्कि बड़े सुधारक भीरोनाल्ड रेगनली क्वान यूया मार्गरेट थैचर जैसेयानी कि अगले कई दशकों के लिए अपने देशों की दिशा बदलने वाले नेता.

अमेरिकी विचारक जेम्स फ्रीमैन कहते थे कि कि राजनेता अगले चुनाव के बारे में सोचते हैं और राष्ट्र नेता अगली पीढ़ी के बारे में.

2019 के बाद के नरेंद्र मोदी कोपिछले पांच साल के मोदी से अलहदा होना पड़ेगा. 2014 से 2019 तक नरेंद्र मोदीअपनी पार्टी के राष्ट्रव्यापी चुनावी अश्वमेध के नायक रहे हैंहर चुनाव हर कीमत पर जीतने का उनका अभियान 2019 में लोकसभा दोबारा जीतने के मकसद पर केंद्रित थायह मुहिम ही थी जिसके चलते मोदी का अपेक्षित सुधारकअवतार नहीं ले सकावे सुधारक और लोकलुभावन राजनीति के ध्रुवों के बीच तालमेल बनाते रह गए और पांच कीमती साल गुजर गए.

अभूतपूर्व लोकप्रियता के बाद मोदी को इतना बड़ा जन विश्वास फिर मिल गया है जिससे वे सभी बड़े सुधार संभव हैं जिनके बारे में उनके पूर्ववर्ती सोचकर रह जाया करते थेमोदी यकीनन अब विरासत खड़ी करना चाहेंगेकुछ ऐसा करना चाहेंगे जिससे उन्हें भारत के अंतरराष्ट्रीय नेता के बतौर याद किया जाए.

बड़े सुधारक हमेशा आर्थिक सुधारों से पहचाने जाते हैंव अपने देश के लोगों की आय बढ़ाकर जीवन स्तर बदलते हैं.

रोनाल्ड रेगन (1981-89) के बड़े टैक्स सुधारोंभव्य निजीकरणआर्थिक नियमों में ढीलसुरक्षा पर भारी निवेश और अर्थव्यवस्था की जड़ों तक पहुंचने वाली नीतियों के बाद अमेरिका में न केवल बेरोजगारी में निर्णायक गिरावट और जीडीपी में रिकॉर्ड बढ़त (महामंदी-1929-39 के बाद सर्वोच्चहुई बल्कि सबसे बड़ा बदलाव यह था कि सरकारी संस्थाओं में लोगों के विश्वास (क्राइसिस ऑफ कॉन्फीडेंस-जिमी कार्टर 1979) में उल्लेखनीय इजाफा हुआ.

1970 के दशक के अंत में ब्रिटेन की बिखरती अर्थव्यवस्था और नीति शून्यता की पृष्ठभूमि में मार्गरेट थैचर ने ब्रिटेन की सत्ता संभाली थीलेकिन बदलाव 1983 के बाद आया जब भारी बेरोजगारी के बावजूद विभाजित विपक्ष के चलते थैचर को जबदरस्त जनादेश मिलाउन्होंने इस मौके का लाभ लेकर ब्रिटेन के वेलफेयर स्टेट को बदलकर मुक्त बाजार की राह खोलीमहंगाई पर नियंत्रण और निजी हाउसिंग के साथ थैचर ने ब्रिटेन का नया मध्यम वर्ग तैयार किया

1965 में मलेशिया से आजाद हुआ ली कुआन यू (1965-90) का सिंगापुर कुछ ही दशकों में मैन्युफैक्च‌‌रिंग और विदेशी निवेश उदारीकरण से ग्लोबल कंपनियों का केंद्र बन गयाभ्रष्टाचार पर नियंत्रण और सामाजिक नीतियों में सुधार के साथ यू ने सिंगापुर को विकसित मुल्कों की कतार में पहुंचा दिया.

रेगनथैचर और यू के सुधारों में मोदी के भावी एजेंडे का ब्लूप्रिंट मिल सकता हैये तीनों नेता राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर अपनी दो टूक नीतियों और कड़े फैसलों के‍ लिए भी जाने जाते हैं.

भारत में पिछले अधिकांश आर्थिक सुधार संकटों से बचने के लिए हुए हैंसिर्फ इनसे ही भारत कितना बदल गया हैअब अगर सुविचारित भविष्योन्मुखी ढांचागत बदलावों की शुरुआत हो तो अगले पांच साल भारत के अगले पंद्रह साल को सुरक्षित कर सकते हैं.

ताजा इतिहास में मोदी पहले ऐसे नेता हैं जिनके सामने कोई बड़ा संकट नहीं हैउम्मीद से उपजी लोकप्रियता ने उन्हें अभूतपूर्व अवसरों का आशीर्वाद दिया हैचुनावी इतिहास तो बन गया हैअब मोदी को सुधारों का इतिहास गढ़ना चाहिए.

सर्वश्रेष्ठ नेताओं की उपस्थिति महसूस ही नहीं होतीवे जब कुछ करते हैं तो लोग कहते हैं कि यह हमने खुद किया है.— लाओ त्सेप्राचीन चीनी दार्शनिक और लेखक


Monday, August 14, 2017

आजादी के बाद आजादी



आजादी के बाद क्या होता है?
देश के लोग अपनी सरकार बनाते हैं.
आजादी के बादआजादी को सबसे बड़ा खतरा किससे होता है?
सरकार से!

राजनीतिशास्त्र के एक प्रोफेसर ठहाके के साथ यह संवाद अक्सर दोहराते थे और सवालों का गुबार छोड़ जाते थे.

विदेशी ताकत की गुलामी से मुक्त होते हीकिसी भी देश के लिए आजादी के मतलब पूरी तरह बदल जाते हैं. गुलामी से निजात के बाद ''अपनीसरकारों को अपने लोगों की आजादी में लगातार बढ़ोतरी करनी होती है. लोगों की अपनी सरकारें उनकी आजादियों के जिस तरह सजाती संवारती है उसी अनुपात में नागरिकों का दायित्‍व बोध निखरता चला जाता है  

भारत के पास सामाजिकवैचारिक और आर्थिक स्वाधीनताओं की अनोखी परंपरा रही है उपनिवेशवाद ने जिसे सीमित किया था ताकि इस गतिमान देश पर शासन किया जा सके. अब जबकि हर प्रमुख राजनैतिक दल या विचारधारा की सत्ता में आवाजाही हो चुकी है तब आजादी के सत्तर साल के मौके पर यह देखना जरूरी है कि हमारे हाकिमों ने भारतीय समाज की ऐतिहासिक स्वाधीनताओं से क्या सीखा और उसे कितना बढ़ाया या संवारा है?

- भारत एक था मगर एकरूप नहीं. ब्रितानीअपने राज के लिए इस जटिल देश को पीट-पाटकर एकरूप करने की कोशिश में लगे रहे. आजादी के बाद भी सरकारों ने एकरूपता (एकता नहीं) की जिद नहीं छोड़ी. किसी को यह विविधताएं विकास में बाधक लगीं तो किसी को राष्ट्रवाद में. क्षेत्रीय व स्थानीय अपेक्षाओं से कटी और ऊपर से थोपी गई नीतियों के कारण भारत गवर्नेंस की गफलतों का अजायबघर है.

-1950 से 2010 के बीच करीब 250 से अधिक से  सरकारी कंपनियां बनीं. आधी तो उदारीकरण के दौरान प्रकट हुईं. मुगल और ब्रिटिश राज के बीच भी अपनी स्वतंत्र उद्यमिता को बचाकर रखने वाला देश कभी यह नहीं समझ सका कि सरकारें आखिर कारोबार की पूरी आजादी क्यों नहीं देतीं. वह क्यों कारोबार करते रहना चाहती है या फिर कुछ खास अपनों को कारोबारी सफलता के अवसर देने में भरोसा रखती हैं. 

- सरकार को बड़ा करते जाने की सूझ लंदन वालों की विरासत थी. उन्हें शासन में मददगार लोग चाहिए थे. पिछले कुछ दशकों में ब्रिटेन में नौकरशाही छोटी होती गई लेकिन भारत में सरकारें मोटी होती गईं. इतिहास बताता है कि अधिकांश भारत ने (संकटों को छोड़कर) जीविका के लिए कभी राजा या सत्ता की तरफ नहीं देखा था. लेकिन फैलती सरकारें अपनी मुट्ठी भर नौकरियां लेकर आरक्षण की सियासत में उतर गईं.

-ब्रिटेन के लिए भारत कमाई का स्रोत था इसलिए उत्पादन और खपत पर टैक्स लगाने का सिलसिला 19वीं सदी के अंत में नमक और कपड़े पर टैक्स से शुरू हुआ. बीसवीं सदी के अंत में सभी उत्पादनों पर एक्साइज ड्यूटी लग गई. अगले दशकों में जब यूरोप मांगखपतउत्पादन और रोजगार बढ़ाने के लिए टैक्स घटा रहा था तब भारत सेवाओं पर भी टैक्स लगा रहा था. बढ़ती सरकार को पालने के लिए लोगों की जिंदगी महंगा करना जरूरी हो गया. जीएसटी ने इस परंपरा को पूरी पवित्रता के साथ जारी रखा है. जितना टैक्स हम चुकाते हैं यदि उतनी ही बड़ी सरकार हमें मिलने लगे तो पता नहीं तो क्या हाल होगा.

- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब पुराने कानूनों को खत्म कर रहे थे तो उनकी नजर उन बर्तानवी कानूनों पर भी गई होगी जो अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक के लिए बने थे. अपनी’ सरकारों ने इन्हें सत्तर सालों मे सहेजा और बढ़ाया है. सरकार अपने नागरिकों की निजता के अधिकार पर बुरी तरह असहज है. सवाल पूछते लोग हुक्मरानों को डराने लगे तो सूचना का अधिकार टिकाऊ साबित नहीं हुआ.

- ब्रिटिश शासकों को मालूम था कि भारत ऐतिहासिक तौर पर ताकतवर समाज वाला देश हैइस समाज के सभी पुराने आख्यान राजाओं की ताकत सीमित करने के संदेश देते हैं. ताकतवर और स्वतंत्र समाज से मुकाबले के लिएबर्तानवी शासकों ने सत्ता को अकूत शक्तियों से लैस किया था. आजादी के बाद आई सरकारों ने सत्ता की ताकत बढ़ाने का मौका नहीं चूका. सरकारें फैलती चली गईं और संवैधानिक संस्थाओं के बीच टकराव भारत का स्थायी भाव बन गया.

आजादी को सिर्फ बचाना ही नहींबढ़ाना भी होता है. अमेरिका ने गुलामी से मुक्ति के बाद आजादियां बढ़ाने के नए प्रयेाग किए जो दुनिया के लिए आदर्श बने. भारत के हुक्मरान अगर अमेरिका नहीं तो कम से कम अपने भव्य अतीत से तो सबक ले ही सकते हैं .  

रोनाल्ड रीगन कहते थे सरकारें भौतिकी के क्रिया-प्रतिक्रिया नियम की तरह होती हैं. सरकार जितनी बड़ी होती जाती है आजादी उतनी ही छोटी होती जाती है.
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Monday, December 12, 2016

8.11.16 बनाम 6.6.66 और 1.7.91


डिमॉनेटाइजेशन ने दुनिया में आर्थिक सुधारों का बुनियादी पैमाना ही बदल दिया है



दि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी डिमॉनेटाइजेशन के जरिए लोगों की जिंदगी में बड़े ठोस व प्रत्यक्ष बदलाव ला सके तो वे आधुनिक युग के पहले ऐसे राजनेता होंगेजिसने सुधारों का बुनियादी पैमाना ही बदल दिया. प्रत्यक्ष बदलावों से मतलब ऐसी तरक्की हैजो देंग श्याओपिंग (1978-84) के सुधारों के बाद चीन मेंरोनाल्ड रीगन (1981-89) के जरिए अमेरिका मेंमार्गरेट थैचर (1979-90) के जरिए ब्रिटेन में और 1991-1995 के सुधारों के बाद भारत में नजर आई. इन सुधारों से इन देशों के सामाजिक-आर्थिक ढांचे को लंबे समय के लिए अभूतपूर्व सकारात्मक ताकत हासिल हुई.  

अधिकांश आर्थिक परिवर्तनों की बुनियाद किसी तात्कालिक राजनैतिकआर्थिक या सामाजिक संकट से तैयार हुई है. इस पैमाने पर नरेंद्र मोदी पहले ऐसे नेता हैंजिन्होंने सुधार के लिए संकट को न्यौता दिया है. नोटबंदी एक बड़ा आर्थिक सुधार हैलेकिन फिलहाल इसके चलते विश्व की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था सबसे तेजी से सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था में बदल गई है और दौड़ता हुआ देश नौकरियांसुकून व आर्थिक आजादी गंवाकर बीच राह में खड़ा हो गया है.

देश के ताजा इतिहास में दो ऐसे फैसले मिलते हैं जो तत्कालीन परिस्थितियों और असर के आधार पर नरेंद्र मोदी के डिमॉनेटाइजेशन के समानांतर हैं. दोनों ही फैसलेसंकट से उपजे थे अलबत्ता नतीजे एक-दूसरे से विपरीत थे.

वह 6.6.66 ही थाजब इंदिरा गांधी ने रुपए का 35.5 फीसदी अवमूल्यन किया. लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बने कुछ ही महीने बीते थे. मंदी व सूखे और राजनैतिक चुनौतियों के बीच यह भूकंप जैसा फैसला इस उम्मीद के साथ हुआ कि विदेशी पूंजी आएगीनिर्यात बढ़ेगा और अमेरिका सहित अन्य देशों से मिलने वाली सहायता बढ़ जाएगी. अलबत्ता अवमूल्यन बड़ी भूल साबित हुआ. अंतरराष्ट्रीय सहयोग नहीं मिला और संकट बढ़ते चले गए.

इस सुधार के बाद देश का अर्थचक्र उलटा घूम गया. लाइसेंस परमिट राज आ गया. एमआरटीपी ऐक्ट बना और निजी बैंकों में जमा धन को जनता तक पहुंचाने के वादे के साथ बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया. यह अंधा युग 1991 में आर्थिक सुधारों के साथ खत्म हुआ.

भुगतान संकट और विदेश में गिरवी सोने की पृष्ठभूमि में 1 जुलाई, 1991 को प्रधानमंत्री नरसिंह रावजब रुपए का  अवमूल्यन कर रहे थे तो 6.6.66 उन्हें डरा रहा था. राव के नेतृत्व में पहला अवमूल्यन (7 फीसदी) 1 जुलाई को हुआ. दूसरा (9 फीसदी) 3 जुलाई को होना था. 1 जुलाई के फैसले पर प्रतिक्रिया के बाद प्रधानमंत्री राव हिचक गए. 3 जुलाई की सुबह उन्होंने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को बुलाकर अगला अवमूल्यन रोकने के लिए कहालेकिन तब तक रिजर्व बैंक गवर्नर सी. रंगराजन फैसला लागू कर चुके थे.

इस अवमूल्यन के नतीजे 1966 की तुलना में पूरी तरह विपरीत थे. भारत को तुरंत विदेशी मदद मिलीलेकिन इसका वास्तविक असर 1995 के बाद नजर आया जब भारत डब्ल्यूटीओ का हिस्सा बना. 1996 से 2000 के बीच आयात से प्रतिबंध हटाए गए. इसके बाद अर्थव्यवस्था खुलतीफैलती गई और लोगों की आय बढ़ती चली गई. 8 नवंबर को प्रधानमंत्री मोदी जब डिमॉनेटाइजेशन कर रहे थेतब ग्लोबल मंदी के बीच भारत दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था थी जिसकी बुनियाद इन्हीं सुधारों ने बनाई थी.

उथल-पुथल पैदा करने वाले आर्थिक सुधारों का इतिहास दो बड़े निष्कर्ष लेकर आता है. 

पहलाज्यादातर सफल सुधारों ने अंततः नागरिकों को आजादी और ताकत बख्शी है और नया मध्य वर्ग तैयार किया. रीगन के सुधार सरकारी नियंत्रण कम करनेमुद्रास्फीति थामने और निजी उद्यमिता को बढ़ाने पर केंद्रित थे. इसका नतीजा अस्सी के दशक की तेज ग्रोथनए रोजगारों और तेज खपत में नजर आया.
लेबर यूनियन और समृद्ध तबके के बीच बंटे तत्कालीन ब्रिटेन में थैचर का पैकेज भी मुक्त बाजारसरकारी कंपनियों के निजीकरणमहंगाई पर नियंत्रण और सरकार को सीमित रखने पर आधारित थाजिसने ब्रिटेन में थैचर समर्थक नया मिडिल क्लास तैयार किया.
चीन में देंग श्याओपिंग के सुधार विशाल आबादी की आय बढ़ाने के मकसद से शुरू हुए. इन सुधारों ने चीन को दुनिया की बेजोड़ आर्थिक ताकत बनाया और 70 करोड़ लोगों को गरीबी से निजात देकर दुनिया का सबसे बड़ा मध्य वर्ग बना दिया.

दूसराज्यादातर सुधार आर्थिक और सामाजिक जरूरतों की देन थे जिनके राजनैतिक लाभ बाद में नजर आए.

डिमॉनेटाइजेशन भारत में आजादी के बाद की सबसे बड़ी आर्थिक उथल-पुथल हैजो प्रधानमंत्री की तरफ से तय सीमा के मुताबिक अपने आखिरी चरण में पहुंच रही है. इसके तात्कालिक नतीजों में राहत कम और चुभन ज्यादा है.
  • इस सुधार ने आम लोगों की आर्थिक आजादी को सीमित कर दिया है.
  • मोदी के सत्ता में आने से पहले एक मध्य वर्ग तैयार हो चुका था जो रोजगारआयखर्च और खपत में बढ़ोतरी को लेकर बेचैन है. वह इस सुधार के रॉबिन हुड मॉडल (अमीरों को सजागरीबों को राहत) से रोमांचित तो है लेकिन बढ़ते दर्द के साथ आशंकाओं और अमूर्त उम्मीदों के बीच झूल रहा है.
  • इस सुधार से अर्थव्यवस्था पर सरकारी नियंत्रण बढऩे का खतरा है.
  • इस सुधार के राजनैतिक लक्ष्य तो दिखते हैंप्रत्यक्ष आर्थिक फायदों की तस्वीर अभी तैयार होनी है.

वक्‍त बताएगा कि नरेंद्र मोदी मार्गरेट थैचर या रोनाल्ड रीगन साबित हुए या नहींलेकिन अगर डिमॉनेटाइजेशन ने पांच वर्ष बाद भी भारत को 1991 के सुधारों जैसे नतीजे दिए तो इतिहास इस तथ्य के साथ लिखा जाएगा कि समाज व अर्थव्यवस्था को नई ताकत देने के लिए उसे कमजोर करने में कोई हर्ज नहीं है.