सरकार क्या चाहती है लोग बचाएं या खर्च करें?
नेता-मंत्रियों के पास इस सीधे सवाल का जवाब नहीं है. जॉन मेनार्ड केंज का बचत अंतरविरोध (पैराडॉक्स ऑफ थ्रिफ्ट) नीतिगत सूझ को घेर कर बैठ गया है. बचत बढ़े तो खपत घटती है लेकिन अगर बचत घटे तो देश और लोगों, दोनों का भविष्य असुरक्षित! बचत ही बैंकों और बीमा आदि के जरिए कर्ज में बदलकर सरकारों और कंपनियों तक पहुंचती है.
महामारी और मंदी में भारत के अधिकांश परिवार त्रिशंकु बन गए हैं. नौकरियां जाने, वेतन कटने, धंधे बंद होने से खपत-खर्च की कहानी ही खत्म हो गई है. तेल की कीमतों और महंगे इलाज ने 94 फीसद लोगों की आय सिकोड़ कर खर्च तोड़ दिया.
ऐसे में बची बचत, लेकिन उसका बियाबान, खर्च के सूखे से कहीं ज्यादा जोखिम भरा है.
2013-14 के बाद परिवारों की औसत कमाई (गांव और शहर) में तेज बढ़त नहीं हुई. इसलिए शुद्ध वित्तीय बचतें (कर्ज के बाद) जो 2005 में जीडीपी का 10.5 फीसद थीं,
2018-19 में 7.2 और 2019-20 में 8 फीसद रह गईं. महामारी और मंदी में बचतें टूटीं हैं यानी इस अनुपात में और कमी होनी है.
पांच साल में बचत दोगुनी!
सरकारी बैंक का ऐसा विज्ञापन आपने आखिरी बार कब देखा था?
सस्ते कर्ज के साथ बचतों के दुर्दिन शुरू हुए. सरकार समझ ही नहीं पाई कि सस्ता कर्ज लेने वाले बचत नहीं करते और बचत करने वाले कर्ज नहीं लेते. कोविड आने तक बचत खातों पर ब्याज तीन फीसद और फिकस्ड डिपॉजिट पर 5 से 6.5 फीसद (अलग-अलग जमा अवधि) आ गया था. बैंकों में जमा का अब 12 साल में भी दोगुना होना असंभव था.
बचत के लिए टैक्स प्रोत्साहन खत्म हो चुके थे. फिकस्ड रिटर्न वाले बचत विकल्पों (बैंक जमा) में घाटा ही घाटा ही था. अब जोखिम के लिए बिना बचत को (महंगाई के मुकाबले) नुक्सान से बचाने का कोई रास्ता नहीं बचा था.
इस बीच विदेश से आई सस्ती पूंजी ने शेयर बाजारों को चमका दिया था. किसी भी दूसरे निवेश (सोना, जमीन, मकान) से ज्यादा रिटर्न शेयर बाजार में था, सो परिवारों की छोटी बचतें म्युचअल फंड पर सवार होकर शेयर बाजारों में पहुंचने लगीं. मई 2014 से मई 2021 के बीच म्युचुअल फंड में निवेश (एसेट अंडर मैनेजमेंट) 10 से 33 लाख करोड़ रु. हो गया.
वित्तीय बचतों का 51.7 फीसद हिस्सा अभी भी बैंकों में है लेकिन 6.7 फीसद बचतें म्युचुअल फंड या शेयर बाजार में हैं जो कोऑपरेटिव बैंकों में डिपॉजिट से 2.5 फीसद ज्यादा और घरों में रखी नकदी का आधा है.—आरबीआइ, मार्च
2021
जोखिम की उलटी गिनती यहीं से शुरू होती है
बीते दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था ने कोई बड़ा ढांचागत चमत्कार नहीं किया, इसके बावजूद शेयर बाजार झूमते रहे क्योंकि
● 2008 (108 डॉलर प्रति बैरल) खासतौर पर 2014 के बाद कच्चा तेल सस्ता और भारत के लिए जोखिम कम होता गया. पेट्रो ईंधनों पर भरपूर टैक्स लगाकर सरकारों ने खूब कमाई की.
● 2008 में बैंकिंग संकट के बाद पूरी दुनिया में ब्याज दरें घटीं. सस्ती पूंजी की पाइप खुल गई और शेयर बाजार नहाने लगे. विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ता गया, जिससे रुपया डॉलर विनिमय दर नियंत्रण में रही.
● महंगाई कम होने (2014 से 2019 औसत सालाना 5 फीसद) से कर्ज भी सस्ता होता गया.
● अर्थव्यवस्था का मूल ढांचा दरकने से कई छोटी कंपनियां बंद हुईं तो बड़ी कंपनियों के एकाधिकार बढ़े और इनके शेयर चमकते रहे.
यही वजह थी कि नोटबंदी, बैंक कर्ज संकट, कई कंपनियों के डूबने और कोविड वाली मंदी के बावजूद शेयर बाजारों का उत्सव चलता रहा. छोटे निवेशक रीझते रहे.
शेयर बाजार उम्मीदों पर दांव लगाते हैं, जहां जोखिम बढ़ रहा है. अमेरिका में 2023 से कर्ज महंगा होगा यानी सस्ती पूंजी सिमटेगी. सस्ते तेल की पार्टी खत्म हो रही है. अमेरिका सहित सभी उत्पादक फ्यूड ऑयल को 72-75 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर रखना चाहते हैं
कंपनियों के बढ़ते एकाधिकार की दम पर बाजार कहां तक खड़े हो पाएंगे जब अर्थव्यवस्था की बुनियादी ताकत (कमाई और खपत) टूट गई है.
शेयर बाजार अब हर्षद या केतन पारेख वाले दौर में नहीं है. यह अब केवल सटोरियों या मोटी जेब वालों का शगल नहीं रह गया है. यहां लाखों परिवारों की बचत लगी है. याद रहे कि मार्च 2020 की एक गिरावट कई म्युचुअल फंड और उनके निवेशकों को डुबा गई.
बाजार का मिजाज संभालना सरकार के बस का नहीं है, अलबत्ता गैर शेयर बाजार बचतों को प्रोत्साहन देकर जोखिम संभाला जा सकता है. फिकस्ड रिटर्न वाले नए उपकरण और कम आय वालों लिए नए बचत विकल्प बनाने होंगे.
कमाई में बढ़त और खपत में तेजी जल्दी नहीं लौटेगी. बचतों को मदद देकर ही गरीबी को और बढ़ने से रोका जा सकता है. हमारे कुछ सबसे अच्छे साल स्याह हो गए हैं लेकिन भविष्य तो है जिसे गढ़ने व बचाने के लिए अब परिवारों और सरकारों, दोनों को बचतों का ही सहारा है.