विक्रम अपना मास्क संभाल ही रहा था कि वेताल कूद कर पीठ पर लद गया और बोला राजा बाबू ज्ञान किस को कहते हैं? विक्रम नेश्मशान की तरफ बढ़ते हुए कहा, युधिष्ठिर ने यक्ष को बताया था कि यथार्थ का बोध हीज्ञान है.
वेताल उछल कर बोला, तो फिर बताओ कि लॉकडाउन के बाद भारत में बेकारी का सच क्या है? विक्रम बोला, प्रेतराज, लॉकडाउन ने हमारी सामूहिक याददाश्त पर असर किया है. जल्दी ही लोगों को यह बताया जाएगा कि मांग, निवेश या उत्पादन बढ़े बगैर कमाई और रोजगार आदि कोविड से पहले की स्थिति में लौट आए हैं. इसलिए कोविड के बाद बेकारी की तस्वीर को देखने के लिए कोविड के पहले की बेकारी को देखते चलें तो ठीक रहेगा.
बेकारीः कोविड से पहले
एनएसएसओ के मुताबिक, 2017-18 में बेकारी की दर 6.1 फीसद यानी 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर थी. फरवरी 2019 में यह 8.75 फीसद के रिकॉर्ड ऊंचाई पर आ गई (सीएमआइई).
कोविड से पहले तक पांच साल में, आर्थिक उदारीकरण के बाद पहली बार, संगठित और असंगठित, दोनों क्षेत्रों में एक साथ बड़े पैमाने पर रोजगार खत्म हुए.
2015 तक संगठित क्षेत्र की सर्वाधिक नौकरियां कंप्यूटर, टेलीकॉम, बैंकिंग सेवाएं, ई-कॉमर्स, कंस्ट्रक्शन से आई थीं. मंदी और मांग में कमी, कर्ज में डूबी कंपनियों का बंद होने और नीतियों में अप्रत्याशित फेरबदल से यहां बहुत सी नौकरियां गईं.
असंगठित क्षेत्र, जो भारत में लगभग 85 फीसद रोजगार देता है, वहां नोटबंदी (95 फीसद नकदी की आपूर्ति बंद) और जीएसटी के कारण बेकारी आई. भारत में 95.5 फीसद प्रतिष्ठानों में कर्मचारियों की संख्या पांच से कम है.
इसलिए भारत में बेकारी की दर (6.1 फीसद) देश की औसत विकास दर (7.6 फीसद) के करीब पहुंच गई. यानी विकास दर बढ़ने से बेकारी भी बढ़ी जो अप्रत्याशित था. 2014 से पहले के दशक में बेकारी दर 2 फीसद थी और विकास दर 6.1 फीसद.
बेकारीः कोविड के बाद
लॉकडाउन बाद मिल रहे आंकडे़, भारत में रोजगारों की पेचीदगी का नया संस्करण हैं. एनएसएसओ के आंकड़ो के मुताबिक, भारत में 52 फीसद कामगार आबादी स्वरोजगार यानी अपने काम धंधे में है, 25 फीसद दैनिक मजदूर हैं और 23 फीसद पगार वाले. सीएमआइई के आंकड़ों में बेकारी की दर जो अप्रैल मई में 24 फीसद थी, वह अब वापस 8 फीसद यानी कोविड से पहले वाले स्तर पर है.
लेकिन यह कहानी इतनी सीधी नहीं है. इन आंकड़ों के भीतर उतरने पर नजर आता है कि बेकारी की दर घटी है लेकिन रोजगार मांगने वालों में भी 8 फीसद की (कोविड पूर्व) कमी आई है यानी एक बड़ी आबादी काम न होने से नाउम्मीद होकर श्रम बाजार से बाहर हो गई है.
रोजगारों की संख्या नहीं बल्कि अब रोजगारों की प्रकृति को करीब से देखना जरूरी है. लॉकडाउन के बाद गैर कृषि रोजगार टूटे हैं, जहां उत्पादकता कृषि की तीन गुनी है, वेतन भी ज्यादा. ज्यादातर बेकारों ने या तो मनरेगा में शरण ली है या फिर बहुत छोटे स्वरोजगार यानी रेहड़ी-पटरी की कोशिश में हैं.
रोजगारों की गुणवत्ता संख्या की बजाए वेतन से मापी जाती है. लॉकडाउन के बाद गांवों में रोजगार में जो बढ़त दिख रही है वह मनरेगा में है, जहां मजदूरी शहरी इलाकों की दिहाड़ी से आधी है. यह दर, गांवों में भी गैर मनरेगा कामों से सौ रुपए प्रति दिन कम है.
लॉकडाउन से निकलती भारतीय अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी के तीन आयाम होंगे
• दैनिक और गैर अनुबंध वाले मजदूरों की संख्या में वृद्धि यानी रोजगार सुरक्षा पर खतरा
• कृषि और छोटे स्वरोजगारों पर ज्यादा निभरता यानी कम मजदूरी
• संगठित नौकरियों में वेतन वृद्धि पर रोक के कारण खपत में कमी और शहरी रोजगारों में मंदी
भारत में करीब 44 फीसद लोग खेती में लगे हैं, 39 फीसद छोटे उद्योगों और अपने कारोबारों में और 17 फीसद के पास बड़ी कंपनियों या सरकार में रोजगार हैं. खेती में मजदूरी वैसे भी कम है. गैर कृषि कारोबारों में करीब 55 फीसद लोगों की कमाई में बढ़ोतरी, नए पूंजी निवेश और मांग पर निर्भर है.
निवेश व मांग में बढ़त के साथ 2007 से 2012 के बीच हर साल करीब 75 लाख नए रोजगार बने जो 2012-18 के बीच घटकर 25 लाख सालाना रह गए. नतीजतन शहरी और ग्रामीण इलाकों में वेतन व आय बढ़ने की दर लगातार गिरती गई और कोविड से पहले बेकारी 45 साल के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई.
कोविड के बाद बेकारी बढ़ी ही नहीं बल्कि और जटिल हो रही है. ग्रामीण रोजगार स्कीमों से गरीबी रोकना मुश्किल होगा. शहरी अर्थव्यवस्था को खपत की बड़ी खुराक चाहिए. अब चाहे वह सरकार अपने बजट से दे या फिर कंपनियों को रियायत देकर निवेश कराए. दोनों ही हालात में 2012 की रोजगार (75 लाख सालाना) और पगार वृद्धि दर पाने में कम से कम छह साल तो लग ही जाएंगे.