यूरोप
के देश कई हफ्तों से यही तो सुनने के लिए व्याकुल थे. अगस्त के आखिरी सप्ताह
में जर्मनी ने एलान कर दिया कि पुतिन का ब्लैकमेल नहीं चलेगा. जर्मनी में गैस के
80 फीसदी भंडार भर चुके हैं. अगले साल तक रुस निर्भरता और खत्म हो जाएगी.
इस
एलान के वक्त रुस ने जर्मनी को गैस ले जाने वाली नॉर्डस्ट्रीम पाइपलाइन से तीन
दिन तक सप्लाई बंद कर दी थी. सितंबर के पहले सप्ताह में यह आपूर्ति पूरी तरह रोक
दी गई. लेकिन इस बीच जर्मनी ने न केवल छह माह में अपनी ऊर्जा सुरक्षा का बंदोबस्त
कर लिया बल्कि महंगाई थामने के लिए महंगी बिजली के बदलने लोगों को राहत देने का
पैकेज भी तैयार कर लिया.
यूक्रेन
पर रुस के हमले के बाद यूरोप ने रिपॉवर ईयू कार्यक्रम प्रारंभ किया था. जिसका मकसद
2027 तक रुस पर ऊर्जा निर्भरता खत्म करना था. एलएनजी का आयात इस कार्यक्रम का
आधार था. जर्मनी के द
बंदरगाहों विलहेल्मसहैवेन और ब्रूंसबुटल, यूरोप की इस नई ताकत का आधार हैं.
विलहेल्मसहैवेन
यह शहर नॉर्थ सी खाड़ी में जर्मनी का प्रमुख डीप वाटर बंदरगाह है जो एम्स और वीजर
नदियों की बीच जेड डेल्टा में स्थित है ब्रूंसबुटेल भी नॉर्थ सी में एल्ब नदी
के मुहाने पर स्थित है. कील नहर दुनिया का सबसे व्यस्त मानवनिर्मित वाटरवे
यानी जलमार्ग है.
यह दोनों
ही जर्मनी में आयातित एलएनजी के नए केंद्र हैं. यहां जर्मनी ने चार floating storage and regasification units
(FSRUs) लगाये हैं. इन्हे तैरते हुए गैस टर्मिनल समझिये जहां तरल
एलएएनजी जमा होती है और उसे गैस में बदला जाता है. बूंसबुटेल के दूसरी
तरफ यानी एल्ब नदी के पास हैम्बर्ग के करीब पोर्ट ऑफ स्टेड में भी ठीक इसी तरह
के टर्मिनल बन रहे हैं .बाल्टिक तट पर ल्युबमिन में भी तैरते हुए गैस टर्मिनल
एलएनजी जमा करेंगे.
एलएनजी
आयात की क्षमतायें बढ़ाकर जर्मनल ने रिपॉवर ईयू
2021
में जर्मनी की जरुरत की 55 फीसदी गैस रुस से आती थी जो इस साल जून में घटकर 26
फीसदी रह गया. अब जर्मनी अगले साल तक रुस पर निर्भरता पूरी तरह खत्म करने की तरफ
बढ़ गया है.
यूरोप
की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी की गैस में बढ़ती आत्मनिर्भरता यूरोप के लिए ठीक
वैसा ही अवसर है जैसा कि 1970 में अमेरिका में हुआ था जब इजरायल अरब युद्ध में, इज़रायल के समर्थन पर अरब देशों ने अमेरिका का तेल का निर्यात बंद कर दिया
था. इसके बाद अमेरिका ने नए ऊर्जा स्रोतों, शेल और गैस में
निवेश किया. यही गैस आज पुतिन के ब्लैकमेल को जवाब देने के लिए यूरोप के काम भी आ
रही है.
भारत की ऊर्जा पहेली
लौटते
हैं अपने मुल्क की तरफ
यूरोप
पूरा घटनाक्रम भारत के लिए कई जरुरी नसीहतों से लबरेज़ है. प्रधानमंत्री ने इस साल
स्वाधीनता दिवस पर अपने संबोधन में ऊर्जा आत्मनिर्भरता की हुंकार लगाई. हालांकि
बात उन्होंने इलेक्ट्रिक वाहनों के संदर्भ में की थी. इससे ज्यादा कुछ कहना
मुश्किल भी था क्यों कि 2022 भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए सबसे निराशाजनक या
कहें कि अपशकुनी साल बन गया है.
यह
साल ऊर्जा की संसाधनों की खौलती कीमतों के बीच
भारत ऊर्जा सुरक्षा के कमजोर होते जाने का है. सैकड़ों सुर्खियों के बीच
क्या हमें याद है कि 2015 में सरकार ने तय किया था आयातित कच्चे तेल पर
निर्भरता को 2022 में दस फीसदी घटा दिया जाएगा. 2022 की वह साल भी है जब भारत
थर्मल कोल यानी बिजली के लिए कोयले के आयात बंद करने का एलान कर चुका था. यह एलान
बीते बरस कोयला मंत्रालय के एक चिंतन शिविर में हुआ था, जो गुजरात के केवड़िया में आयोजित किया गया था.
कोयले
और तेल के साथ नेचुरल गैस की आपूर्ति भी घट रही है.
सनद
रहे कि भारत की ऊर्जा सुरक्षा केवल रुस यूक्रेन युद्ध के कारण मुश्किल में नहीं
आई यहां तो मुसीबत पुरानी है और लंबी लंबी बातों के बीच उत्पादन में गिरावट बढ़ती
गई है इधर लीथियम, बैटरी, तकनीक, सोलर सेल्स और हाइड्रोजन फ्यूल के आयात पर
निर्भरता के बाद पूरा ऊर्जा क्षेत्र भी आयात का मोहताज हो गया है जो विदेशी मुद्रा
भंडार के लिए किसी संकट की पदचाप है.
सबसे
पहले देखते हैं कच्चे तेल की तरफ .. जहां कुछ चाहते थे कुछ और ही हो गया है.
तेल
में यह क्या हुआ
इस
साल अप्रैल से अगस्त के बीच भारत में कच्चे तेल के आयात का बिल करीब 99 अरब डॉलर
पर पहुंच गया. इससे पहले मार्च 2022 तक भारत का तेल आयात 2021 के मुकाबले दोगुना
बढ़कर 119 अरब डॉलर हो गया था.
यदि
हम इसे रुस यूक्रेन युद्ध के कारण तेल की कीमतों में लगी का आग का असर मानते हैं
तो दरसअल यह रेत में सर डाल देने जैसा है.
2015
में सरकार ने लक्ष्य रखा था कि 2022 तक तेल आयात पर भारत की निर्भरता 87 फीसदी से
घटाकर 77 फीसदी और 2030 तक 50 फीसदी कर दी जाएगी. लेकिन हुआ इसका उलटा. 2015 से
तेल आयात पर भारत की निर्भरता बढ़ने लगी. सरकार के पेट्रोलियम प्लानिंग एंड एनालिसिस
सेल के आंकड़ो के अनुसार जून 2022 में भारत अपनी जरुरत का 87 फीसदी तेल आयात करने लगा. वह भी इतनी ऊंची
कीमतों पर .
अब
आइये आपको भारत की ऊर्जा सुरक्षा के खलनायक से मिलवाते हैं. भारत में कच्चे तेल
का घरेलू उत्पादन वित्त वर्ष 2022 में 28 साल के न्यूनतम स्तर पर आ गया.
भारत
में बुनियादी उद्योगों का एक सूचकांक है जिसमें मासिक आधार पर तेल, कोयला, स्टील, बिजली आदि
उद्योगों के उत्पादन वृद्धि का आकलन किया जाता है. इस सूचकांक के आधार पर बीते
चार बरस से भारत का कच्चा तेल उत्पादन लगातार गिर रहा है.
ओएनजीसी
सबसे बड़ा खलनायक है. दूसरी सरकारी कंपनी ऑयर इंडिया है. इन दोनों पर घरेलू उत्पादन
का दारोमदार है. इनका उत्पादन लगातार गिर रहा है. ओएनजीसी में तेल उत्पादन का
बुरा हाल है. कंपनी का तेल उत्पादन बीते
चार साल में करीब 10 से 16 फीसदी गिरा है. नए रिजर्व जोड़ने की रफ्तार करीब 35
फीसदी टूटी है. देश की शीर्ष तेल खोज कंपनी अपने पूंजी खर्च का इस्तेमाल भी नहीं
कर पा रही है.
सरकार
कंपनियां ही नहीं निजी क्षेत्र के घरेलू कच्चे तेल उत्पादन में भी गिरावट आ रही
है. भारत के तेल कुएं सूख रहे हैं. ड्राइ वेल्स सबसे बड़ी समस्या हैं. तेल की
खोज में निवेश नहीं हुआ है इसलिए जितने भंडार थे वह निचोड़े जा चुके हैं. नए भंडार
उपलब्ध नहीं हैं. अगर आप अपने ज़हन पर जोर डालकर बीते वर्षों में आई तेल खोज नीति
यानी एनईएलपी और एचईएलपी की याद कर पूछना चाहते हैं कि उनसे क्या नए स्रोत नहीं
मिले? तो आपको पता चले कि यह नीतियां असफलता का सबसे बड़ा
स्मारक बन चुकी हैं
1999
से 2016 तक तेल ब्लॉक आवंटन की कोशिशें लगभग असफल रहीं. कोई बड़ी विदेशी कंपनी
आई नहीं और जिन कंपनियों ने लाइसेंस लिये भी वह ब्लॉक छोड़कर निकल गईं. 2018 की
तेल खोज लाइसेंस नीति में 127 ब्लॉक आवंटित हुए हैं उत्पादन किसी में नहीं हो
रहा है.
इंटरनेशनल
एनर्जी एजेंसी का आकलन है कि इलेक्ट्रिक वाहनों के आने बावजूद 2040 तक भारत में
क्रूड ऑयल की मांग कम से 7 मिलियन बैरल प्रतिदिन के हिसाब से बढ़ेगी.
आप
खुद अंदाज लगा सकते हैं कि लगातार महंगे कच्चे तेल की बीत भारत की तेल आत्मनिर्भरता
का क्या हश्र होने वाला है.
कोयले
की ट्रेजडी
भारत
इस साल करीब 76 मिलियन टन कोयला आयात करेगा. जो बीते कई वर्षों का रिकार्ड है.
भारत की 90 फीसदी बिजली थर्मल यानी कोयला आधारित है. इस साल कोयले का आयात करीब 40
फीसदी बढ़ा है. यह आयात बीते कई बरसों में कोयले की सबसे महंगी कीमत पर होगा.
कोयले
की त्रासदी, क्रूड ऑयल से ज्यादा दर्दनाक
है. भारत दुनिया का दूसरा सबसे कोयला खनन वाला देश है. पांचवा सबसे बड़ा कोयला
भंडार है. बीते साल अक्टूबर में सरकार ने दावा किया कि कोयला उत्पादन बढ़ रहा
है. इस साल यानी 2022 से थर्मल कोल का आयात बंद हो जाएगा लेकिन इस साल पूरी
आपूर्ति चरमरा गई. जनवरी के बाद बिजली घर बंद होने लगे. सरकार को न केवल कोयला
आयात को बढ़ावा देना पड़ा बल्कि देश की
सबसे बड़ी कोयला उत्पादक कंपनी कोल इंडिया खुद ही इंपोर्टर होगई.
कोयले
में समस्या उत्पादन की ही नहीं बल्कि आपूर्ति और िबजली घरों तक कोयला
पहुंचाने की भी है. कोल इंडिया को अगले एक साल कोयला ढुलाई की क्षमताओं मसलन रेल
लाइन, ढुलाई तकनीक में करीब 14000 करोड़ रुपये
का निवेश करना होगा
कोल
इंडिया मांग का 80 फीसदी कोयला उत्पादन करती है लेकिन कंपनी का निवेश नहीं बढ़ा
है. नई खदानों को खोलने का काम पिछड़ा है. करीब 39 खदानें लंबित मंजूरियों की वजह
से अधर में हैं. बीते पांच बरस में कोयला खदानों के निजीकरण कोशिश भी सफल नहीं
हुई. कोयला नीति में बड़े बदलावों के बाद 2020 में करीब 40 खदानों को निजी क्षेत्र
के लिए खोला गया था मगर निवेश नहीं आया. हाल के कोयला संकट के बाद कोल इंडिया ने
बंद पड़ी खदानों के निजीकरण की तैयारी की थी मगर बाजार से कोई उत्सुकता नहीं
दिखी.
गैस
तो है ही नहीं
पूरी
दुनिया में नेचुरल गैस की ले दे मची है. रुस यूक्रेन युद्ध के बाद यूरोप से लेकर
चीन तक गैस की आपूर्ति बढ़ाने के नए उपायों की होड़ है. नेचुरल गैस भविष्य का
ईंधन है सुरक्षित और सस्ता. रिकार्ड तेजी है कीमतों में.
भारत
में ऊर्जा की चर्चायें तेल से आगे नहीं निकलती, नेचुरल गैस
पर चर्चा केवल सीएनजी की कीमतें बढ़ने की वजह से होती है.
नेचुरल
गैस भी सरकारों के कुछ कहने और कुछ होने का प्रमाण है. सरकार ने यह लक्ष्य रखा था
कि भारत की ऊर्जा आपूर्ति में गैस का हिस्सा 2030 तक आज के 6.4 फीसदी से बढ़ाकर 15% किया जाएगा.
अलबत्ता
बीते एक दशक में भारत में नेचुरल गैस का उत्पादन लगातार गिर रहा है. 2013 में यह
39 एमएमएससीएम था जो अब 33 एमएमएससीएम है जबकि मांग दोगुानी बढ़कर 63MMSCM पर पहुंच गई. यहां भी उत्पादन की खलनायक
ओनएनजीसी है जो करीब 61 फीसदी उत्पादन करती है.
आयात
पर निर्भरता बढ़ रही है क्यों कि उर्वरक, बिजली, परिवहन और घरेलू आपूर्ति की मांग सालाना करीब
10 फीसदी की गति से बढ रही है. मांग की आधी गैस आयात होती है. रुस यूक्रेन युद्ध
और दुनिया में गैस की कीमतें बढ़ने के बाद भारत की प्रमुख गैस कंपनी को आयात में
दिक्कत होने लगी. रुस की कंपनी गैजप्रॉम आपूर्ति का प्रमुख स्रोत थी जिस पर प्रतिबंध
लगा हुआ है.
भारत
में एलएनजी टर्मिनल हैं लेकिन गैस नहीं है. बीते बरस इन टर्मिनल की केवल 59 फीसदी
क्षमता का उपयोग हो सका था. एलएनजी आयात की लागत बढ़ रही है. कीमतों को लेकर तस्वीर
साफ नहीं होती क्येां कि सरकार हर छह माह में कीमतों पर फैसला करती है इसलिए आयात
भी कम है.
भारत
में नए एलएनजी टर्मिनल बन रहे हैं. जिनमें बैकों का बड़ा निवेश फंसा है लेकिन गैस कहां से आएगी इसकी यह पता
नहीं है. यूरोप में गैस की मांग बढ़ने के बाद मध्य पूर्व ने अपनी आपूर्ति यूरोप
की तरफ मोड़ दी है, भारत को नए स्रोत नहीं मिल रहे हैं
नए
चुनौतियां
भारत
की इलेक्ट्रिक वाहनों की फैशनेबल चर्चाओं से गुलजार है. हाइड्रोजन और सोलर ऊर्जा
की उडाने हैं. बैटरी को लेकर भारत के पास कच्चा माल और तकनीक दोनों नहीं है. जबकि
बैटरी के ईंधन जैसे लीथियम, कोबाल्ट
की कीमतें बढ रही हैं. बैटरी तकनीक का आयात ही एक रास्ता है. भारत इस साल करीब
13000 करोड़ रुपये के लीथियम का इंपोर्ट करेगा.
यह
है सबसे कठिन पहेली
अगले
25 वर्षों में विकसित देश बनने के लक्ष्य रखने वाले शायद ऊर्जा सुरक्षा पर बात
करने से कतराते हैं. यह भारत की विकास की कोशिशों का सबसे बड़ा गर्त है.
ऊर्जा
के आइने में आत्मनिर्भरता को तो छोड़िये और छोड़िये ग्रोथ की छलांग को यहां तो
एक कामचलाऊ विकास दर के लिए भी सस्ती ऊर्जा का टोटा होने वाला है.
भारत दो राहे पर है.
लाख
कोशिशों के बावजूद भौगोलिक तौर पर भारत के पास बड़े ऊर्जा स्रोत नहीं हैं, चाहे तेल गैस हो या बैटरी खनिज. इसे आयात से ही काम चलेगा. जहां कीमतें
नई ऊंचाई पर हैं. कार्टेल हैं और सस्ता होने की गुंजायश नहीं है. ऊपर से टूटता
घरेलू मुद्रा आयात महंगा करती जाएगाी
दूसरी
तरफ बिजल और बिजली चलित वाहनों के लिए कोयला है लेकिन तो उसकी निकासी, आपूर्ति पर भारी निवेश चाहिए. इसके बाद पर्यावरण के लिए सुरक्षित बनाना
होगा जो बहुत महंगा सौदा है.
भारत
की सरकारें फिलहाल तात्कालिक उपायों या सपनों उड़ान में लगी हैं. ऊर्जा सुरक्षा
की पूरी नीति पर नये सिरे से तैयारी चाहिए. हम आज के यूरोप या 1970 के अमेरिका से
सीख सकते हैं सनद रहे भारत के आर्थिक विकास की गति में स्थायी ऊर्जा महंगाई का
पत्थर बंध चुका है. यह हमें दौड़ने तो दूर तेज चलने भी नहीं देगा.