भारत का आर्थिक प्रबंधन सिद्धांत और सियासत के बीच फंस गया है। आजाद भारत के
इतिहास में पहली बार वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक दो अलग अलग ध्रुवों पर खड़े
हैं। इस सच से मुंह छिपाने से कोई फायदा नही कि देश की अर्थव्यवस्था चलाने पर राजकोषीय
नियामक और मौद्रिक नियामक के बीच सैद्धांतिक मतभेद हैं। केंद्र सरकार सस्ते कर्ज
की पार्टी चाहती है, ताकि शेयर सूचकांक में उछाल सरकारी आर्थिक प्रबंधन की साख कुछ
तो सुधर जाए। अलबतता रिजर्व बेंक मौद्रिक सिद्धांत पर पर कायम हैं, वह ब्याज दरों
को लेकर लोकलुभावन खेल नहीं करना चाहता। रिजर्व बैंक नजरिये पर वित्त मंत्री की
झुंझलाहट लाजिमी है। सुब्बाराव ने अपने मौद्रिक
आकलन पर टिके रह कर दरअसल ताजा आर्थिक सुधारों के गुब्बारे में पिन चुभा दी है और
भारत की बुनियादी आर्थिक मुसीबतों को फिर बहस के केंद्र में रख दिया है। टीम मनमोहन
सुधारों का संगीत बजाकर इस बहस से बचने कोशिश की कर रही थी।
सुधारों की हकीकत
रिजर्व बैंक ने ग्रोथ आकलन को ही सर के बल खडा कर दिया है। इस वित्त वर्ष में
देश की आर्थिक विकास दर 6.5 फीसद नहीं बलिक 5.8 फीसद रहेगी। यह आंकडा़ सरकार के चियरलीडर योजना आयोग के उत्साही अनुमानों
को हकीकत की जमीन सुंघा देता है । ठीक इसी केंद्रीय बैंक मान रहा है कि थोक मूल्यों
की महंगाई इस साल 7 फीसदी से बढ़कर 7.5 फीसदी हो जाएगी। मतलब यह है कि खुदरा
कीमतों में महंगाई की आग और भडकेगी। मौद्रिक समीक्षा कहती है कि महंगाई के ताजे
तेवर खाद्य, पेट्रो उत्पादों दायरे से
बाहर के हैं यानी कि अब मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र से महंगाई आ रही है जो एक जटिल चुनौती
है। रिजर्व बैंक ने वित्त मंत्री चिंदबरम की फील गुड पार्टी की योजना ही खत्म