मुख्यधारा की राजनीति में केजरीवाल की आमद के बाद देश की राजनीति किस्म-किस्म के प्रतिस्पर्धी डरों से ही गुंथी-बुनी होगी, जो कई बदलावों की राह खोलेगा.
यह जीत डराती है, इसे सिर पर मत चढ़ने देना!'' दिल्ली की अद्भुत जीत के बाद अरविंद केजरीवाल ने यह बात सोचकर नहीं
कही होगी. यह सहज मध्यवर्गीय प्रतिक्रिया है जो बड़ी सफलता मिलने पर कुछ बिगड़
जाने की आशंका से उपजती है. डर चाहे कितना नकारात्मक हो लेकिन उसकी अपनी ताकत
होती है. सियासत की दुनिया में हमेशा कुछ गहरे डर भिदे होते हैं जो रणनीतियों
की बुनियाद बनते हैं. केजरीवाल का डर जायज है. उन्हें सिर्फ उनके हिस्से का सकारात्मक जनादेश नहीं मिला है. एक ताजा लहर से ऊब व उफनती उम्मीदों ने उन्हें जोखिम की चोटी पर टांग
दिया है. इससे अकेले केजरीवाल ही डरे नहीं हैं, डर दूसरी तरफ भी है. दो साल तक थपेड़े खाने और रगड़ने के बाद अंतत: नई सियासत पूरी ठसक के साथ सत्ता के शिखर तक आ ही गई. पारंपरिक सियासत को इसी का तो डर था. राजनीति की बहसों से परे एक तीसरा डर भी है. लोग अब महसूस करना चाहते हैं कि केजरीवाल, गवर्नेंस व सियासत के भ्रष्ट मॉडल को कितना डरा पाते हैं. दरअसल, डर कितने भी बुरा हों, मुख्यधारा की राजनीति में केजरीवाल की आमद के बाद देश की राजनीति
किस्म-किस्म के प्रतिस्पर्धी डरों से ही गुंथी-बुनी होगी, जो कई बदलावों की राह खोलेगा.
केजरीवाल को क्यों डरना चाहिए? क्योंकि उन्हें सरकार चलानी नहीं बल्कि नई सरकार बनानी है. भारत में सरकारें खूब चलीं लेकिन नई गवर्नेंस का इंतजार खत्म नहीं
हुआ. सरकारें, इस चुनाव से उस चुनाव के बीच सिमट गईं इसलिए
राजनीति व गवर्नेंस का फर्क धुंधला होता चला गया. केजरीवाल अतीत नहीं पोंछ सकते, वे एक नई गवर्नेंस की उम्मीद के साथ शुरू हुए थे, आंदोलन व सियासत जिसके माध्यम बने. पुरानी राजनीति सत्ता में आने के बाद भी सियासी
आग्रहों से मुक्त नहीं हो पाती, ठीक उसी तरह केजरीवाल 49 दिन के पुराने प्रयोग में आंदोलनकारी आग्रहों से
मुक्त नहीं हो पाए. उम्मीद है कि वे बदले होंगे. उन्हें मिली नसीहतों में यह सबक भी शामिल होगा कि गवर्नेंस की मौजूदा
सीमाओं के भीतर नए तौर-तरीके
ईजाद करना कतई मुश्किल नहीं है. आम आदमी पार्टी को डरना चाहिए कि उसका भव्य जनादेश
नई व कमजोर जमीन पर टिका है. सियासत अमूर्त है, गवर्नेंस जिंदगी को छूती है. यह जनादेश सियासत करने का नहीं, सरकार चलाने का है. पारंपरिक राजनैतिक दलों की जड़ें विचाराधाराओं, परंपरा, परिवार व भौगोलिक विस्तार से पोषण पाती हैं इसलिए
चुनावी पराजयों के बावजूद वे फिर उग आते हैं. केजरीवाल के पास ऐसा कुछ भी नहीं है. वे उम्मीदों के शिखर पर खड़े हैं, ताकतवर व प्रतिस्पर्धी राजनीति से मुकाबिल हैं. केजरीवाल को यह डर वाकई महसूस होना चाहिए कि बस एक गलती हुई तो पुनर्मूषकोभव!
केजरीवाल से किसे डरना चाहिए? 2011 का दिसंबर याद करिए जब लोकपाल पर संसद में बहस चल
रही थी. राजनीति की मुख्यधारा के सूरमा दहाड़ रहे थे कि परिवर्तनों के सभी
रास्ते पारंपरिक राजनीति के दालान से गुजरते हैं. जिसे बदलाव चाहिए, उसे दलीय राजनीति के दलदल में उतर कर दो-दो हाथ करने होंगे. केजरीवाल ने दलगत और चुनावी सियासत के जरिए एक
नहीं बल्कि दो बार राजनीति के पारंपरिक डिजाइन से इनकार को मुखर कर दिया. केजरीवाल हाल के दशकों में भारत के सबसे तपे हुए नेता हैं जो स्याही
की बौछार और जनता से पिटते हुए, जमीनी आंदोलनों की परिपाटी के जरिए अभूतपूर्व जीत
तक आए हैं. केजरीवाल की भव्य विजय, भारतीय राजनीति में मोदी युग की शुरुआत और
कांग्रेस के अदृश्य होने के बाद की घटना है. इस विराट जीत को मोदी की लोकप्रियता के शोर के बीच
बड़ी खामोशी के साथ गढ़ा गया है. पुराने दलों को केजरीवाल से इसलिए डरना चाहिए
क्योंकि राजनीति का यह स्टार्ट अप जबरदस्त जन निवेश से शुरू हो रहा है. केजरीवाल के पास सरकार की सीमाओं के भीतर रह कर वह पारदर्शी गवर्नेंस
गढ़ने का प्रचंड बहुमत है, पुरानी राजनीति जिसे रोकती रही है. केजरीवाल का यह डर हमेशा बने रहना चाहिए कि वे पारंपरिक राजनीति की
लकीर छोटी कर सकते हैं.
केजरीवाल का डर कैसा होना चाहिए? दिल्ली की आम चर्चाएं यह कहती हैं कि केजरीवाल के पहले 49 दिन भ्रष्टाचार को डराने वाले थे. भ्रष्टाचार का प्रकोप घटा था या नहीं, प्रमाण नहीं मिलता लेकिन लोगों के निजी किस्से और
तजुर्बे बताते हैं कि भ्रष्टाचार कम होने की ठोस उम्मीद जरूर बनी थी. इसी उम्मीद ने आम आदमी पार्टी को वापसी का आधार दिया. भारत में तमाम उत्पाद सिर्फ इसलिए महंगे हैं क्योंकि उनकी कीमत में
कट-कमीशन का खर्च शामिल है. तमाम स्कूल सिर्फ इसलिए मोटी फीस वसूलते हैं क्योंकि उन्हें खोलने व
चलाने की एक अवैध लागत है. विकासशील देशों में भ्रष्टाचार परियोजनाओं की लागत 20 फीसद तक बढ़ाता है और महंगाई को ताकत देता है. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भ्रष्टाचार रोकने के लिए डर पैदा कर रहे हैं
क्योंकि उन्हें लोगों के गुस्से से डर लगता है. केजरीवाल
भ्रष्टाचार के खिलाफ खौफ बना सके तो उनके बहुत से काम अपने आप सध जाएंगे.
जनता माफ करना जानती है इसलिए तो सत्ता छोड़ने के
बाद, दिल्ली में मकान तक न देने वाले लोगों ने केजरीवाल को 67 सीटें दे दीं. लेकिन जनता अब झटपट फैसला करती है, वह पांच साल तक इंतजार नहीं करती, पहले मौके पर ही सजा भी सुना देती है. केजरीवाल प्रतिस्पर्धी राजनीति व बेहद बेसब्र वोटर से मुखातिब हैं, जो नेताओं को डरा कर रखना चाहता है ताकि वे हमेशा वह करें जो
उन्होंने कहा है. इस वोटर को आप सैडिस्ट या निर्मम कह सकते हैं
लेकिन क्या करेंगे, जनता तो जनार्दन है. उसे मूर्ख समझने की बजाए उससे डरते रहने में ही
समझदारी है. शुक्र है कि भारतीय नेताओं में यह समझदारी बढ़ने के सबूत मिलने लगे
हैं.