ढोल बजाने वाले तैयार खड़े थे, एक और महान बजट का मंच सज चुका था. उम्मीदों की सवारी करने का मौका भी था और चुनावों के वक्त दिलफेंक होने का दस्तूर भी .. लेकिन बजट सब कुछ छोड़कर बैरागी हो गया. विरक्त बजट ही तो था यह .. बस काम चालू आहे वाला बजट ..
बजट बड़े मौके
होते हैं कुछ कर दिखाने का लेकिन इस बार माज़रा
कुछ और ही था.
बेखुदी बेसबब
नहीं गालिब
कुछ तो है जिसकी
पर्दादारी है
हम बताते हैं कि
आखिर बीते एक दो बरस में भारतीय बजट के साथ हुआ क्या है जिसके कारण सब बुझा बुझा
सा है.
बात बीते साल
की यानी अक्टूबर 2021 की है. भारत में बजट की तैयारियां शुरु हो चुकी
थीं. आम लोगों में कोविड के नए संस्करण को लेकर कयास जारी थे इसी दौरान आईएमएफ की
एक रिपोर्ट ने भारत पर नजर रखने वालों के होश उड़ा दिये. हालांकि दिल्ली के
नॉर्थ ब्लॉक यानी वित्त मंत्रालय में अफसरों को यह सच पता था लेकिन उन्होंने
बात अंदर ही रखी.
भारत ने एक
खतरनाक इतिहास बना दिया था. कोविड की मेहरबानी और बजट प्रबंधन की कारस्तानी कि
भारत एक बड़े ही नामुराद क्लब का हिस्सा बन गया था. भारत में कुल सार्वजनिक कर्ज
यानी पब्लिक डेट (केंद्र व सरकारों और सरकारी कंपनियों का कर्ज) जीडीपी के
बराबर पहुंच रहा था यानी जीडीपी के अनुपात में 100 फीसदी !
ठीक पढ़ रहे हैं
भारत का कुल सार्वजनिक कर्ज भारत के कुल आर्थिक उत्पादन के मूल्य के बराबर
पहुंच रहा है. यह खतरे का वह आखिरी मुकाम है जहां सारे सायरन एक साथ बज उठते हैं.
..
बजे भी क्यों न
, दुनिया करीब 20 मुल्क इस अशुभ सूची का हिस्सा हैं. जिनका कुल सार्वजनिक
कर्ज उनके जीडीपी का शत प्रतिशत या इससे ज्यादा है. इनमें वेनेजुएला, इटली, पुर्तगाल, ग्रीस जैसी
बीमार अर्थव्यवस्थायें या मोजाम्बिक, भूटान, सूडान जैसे छोटे मुल्क हैं. इसमें अमेरिका और जापान भी हैं लेकिन जापान
तो पहले गहरी मंदी में है और अमेरिका के कर्ज मामला जरा पेचीदा है क्यों कि उसकी
मुद्रा दुनिया की केंद्रीय करेंसी है और निवेश का माध्यम है.
15 अक्टूबर को
आईएमएफ ने अपनी स्टाफ रिपोर्ट (देशों की समीक्षा रिपोर्ट) में लिखा कि भारत का
कुल पब्लिक डेट जीडीपी के बराबर पहुंच रहा है. यह खतरनाक स्तर है. यह अभी ऊंचे
स्तर पर ही रहेगा: विश्व बैंक और आईएमएफ के पैमानों पर किसी देश का पब्लिक डेट
का अधिकतम स्तर जीडीपी का 60 फीसदी होना चाहिए. इससे ऊपर जाने के अपार खतरे
हैं.
इस आईएमएफ को इस
हालत की सूचना यकीनन सरकार से ही मिली होगी क्यों कि अनुबंधों के तहत सरकारें
अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के साथ अपनी सूचनायें साझा करती हैं अलबत्ता
देश को इसकी सूचना कुछ अनमने ढंग से ताजा आर्थिक समीक्षा ने दी जो सरकारी टकसाल
का कीमती दस्तावेज है और बजट के लिए
जमीन तैयार करता है.
इस दस्तावेज ने
बहुत ही चौंकाने वाला आंकड़ा बताया. भारत
के सार्वजनिक कर्ज और जीडीपी अनुपात 2016 के बाद से बिगड़ना शुरु हुआ था
जब जीडीपी टूटने और कर्ज बढ़ने का सिलसिला शुरु हुआ. 2016 में यह जीडीपी के
अनुपात में 45 फीसदी था जो 2020-21 में 60 फीसदी पर पहुंच गया.
सार्वजनिक कर्ज
का दूसरा हिस्सा राज्यों सरकारों के खाते हैं. आर्थिक समीक्षा के अनुसार 2016
में यह कर्ज जीडीपी के अनुपात में 25 फीसदी पर था जो अब 31 फीसदी है. यानी कि
केंद्र और राज्यों का कर्ज मिला कर जीडीपी के अनुपात में 90 फीसदी हो चुका है.
भारत में सरकारी कंपनियां भी बाजार से खूब कर्ज लेती हैं, उसे मिलाने पर पब्लिक
डेट जीडीपी के बराबर हो चुका है.
भारत में
सरकारें कर्ज छिपाने और घाटा कम दिखने के
लिए कर्ज छिपा लेती हैं. बजट से बाहर कर्ज लिये जाते हैं जिन्हें ऑफ बजट बारोइंग
कहा जाता है. जैसे कि 2020-21 में केंद्र सरकार ने भारतीय खाद्य निगम को खाद्य
सब्सिडी के भुगतान का आधा भुगतान लघु बचत निधि से कर्ज के जरिये किया. यह सरकार के कुल कर्ज
में शामिल नहीं था.
आईएमएफ के खतरे
वाले सायरन को इस बजट से उठने वाले स्वरों
ने और तेज किया है. सरकार अच्छे राजस्व के बावजूद वित्त वर्ष 2022-23 में उतना
ही कर्ज (12 लाख करोड़) लेगी जो कोविड की पहली लहर और लंबे लॉकडाउन के दौरान लिए
गए कर्ज के बराबर है. अब नया कर्ज महंगी ब्याज दरों पर होगा क्यों कि ब्याज
दरें बढ़ने का दौर शुरु होने वाला है.
अच्छे राजस्व
के बावजूद इतना कर्ज क्यों ? वजह जानन के लिए सार्वजनिक कर्ज के आंकड़ों के भीतर एक डुबकी और
मारना जरुरी है जहां से हमें कुछ और आवश्यक सूचनायें मिलेंगी. आर्थिक समीक्षा
बताती है कि केंद्र सरकार का करीब 70 फीसदी कर्ज लंबी नहीं बल्कि छोटी अवधि यानी
10 साल तक का है. यानी कि सरकारें बेहद सीमित हिसाब किताब के साथ कर्ज ले रही
हैं. वजह यह कि लंबी अवधि का कर्ज लेने पर ब्याज का बोझ लंबा चलेगा, जिसे उठाने की कुव्वत नहीं है.
कर्ज को लेकर
सबसे बड़ी चुनौती अगले वित्त वर्ष से
शुरु होगी. वित्त मंत्रालय की तिमाही कर्ज रिपोर्ट बताती है कि अगले साल 2023
में करीब 4.21 लाख करोड़ का कर्ज चुकाने के लिए सर पर खड़ा होगा. यानी ट्रेजरी बिल
मेच्योर हो जाएंगे. इन्हें चुकाने के लिए नकदी की जरुरत है. सनद रहे कि यह भारी
देनदारी केवल एक साल की चुनौती नहीं है. 2023 से 2028 के बीच, सामान्य औसत से करीब
चार गुना कर्ज चुकाने के लिए सर पर खड़ा होगा.
वह चाहे सरकार
ही क्यों न हो पुराना कर्ज चुकाने के लिए नया कर्ज लेने की एक सीमा है. नए कर्ज से नया ब्याज भी सर पर आता है.
इसके लिए सरकार को और ज्यादा कमाई की जरुरत होगी यानी सरकार का कर्ज आपका मर्ज है
और इसके लिए उसे आगे नई रियायतें नहीं बांटनी हैं बल्कि नए टैक्स लगाने होंगे.
सरकार अब हर
संभव कोशिश करेगी. कि खर्च सीमित रहे और
टैक्स बढ़े. भारतीय कर्ज का यह भयावह आंकड़ा देश की संप्रभु साख पर भारी है.
जिसका असर रुपये की कीमत पर नजर आएगा. यही वह दुष्चक्र है जो भारी कर्ज के साथ
शुरु होता है
अब समझे आप बजट की बेखुदी का सबब या वित्त मंत्री के उस दो टूक बयान का मतलब कि शुक्र मनाइये नए टैक्स नहीं लगे.
भारत का बजट
प्रबंधन पहले भी कोई शानदार नमूना नहीं था, दरारें खुलीं थीं, प्लास्टर
झर रहा था, इस बीच कोविड का भूकंप आ गया और पूरी इमारत ही
लड़खड़ा गई
भारत में
राजकोषीय सुधारों की बात करना अब फैशन से बाहर है. सरकार अपनी तरह से बजट प्रबंधन
की परिभाषा गढ़ती है. वह राजनीतिक सुविधा के अनुसार राजकोषीय अनुशासन के बलिदान
का एलान करती है. जैसे कि सरकार अपना एकमात्र राजकोषीय अनुशासन यानी फिस्कलन रिस्पांसबिलिटी
और बजट मैनेजमेंट एक्ट ही ताक पर रख दिया है जब बात तो इसे और सख्ती से लागू करने
की थी.
भारत सार्वजनिक
कर्ज बेहद खतरनाक मुकाम पर है. इस कर्ज में बैंक,जमाकर्ता और टैक्स
पेयर सब फंसे हैं. एसे अंबेडकर में याद आते हैं जिन्होंने अगस्त 1949 में
संविधान सभा की बहस (अनुच्छेद 292 जो पहले 268 था) कहा था कि सरकार को मनचाहा
कर्ज उठाने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए. संसद इसे बेहद गंभीरता से लेना चाहिए और
कानून न बनाकर सरकार के कर्ज की सीमा तय करनी चाहिए.
काश कि संसद
सुन लेती ..................