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Saturday, October 26, 2019

दांंव पर रोशनी


भारत की मौजूदा आर्थिक ढलान अगर लंबी चली तो?
ताजा आकलनों की मानें तो खतरा भरपूर है. अगर ऐसा हुआ तो अब, भारत के लिए उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि दांव पर है. हाल के दशकों में तेज विकास की मदद से भारत ने गरीबी कम करने में निर्णायक सफलता हासिल की है, मंदी का ग्रहण इसी रोशनी पर लगा है. विश्व बैंक और आइएमएफ के अगले आकलन भारत में गरीबी बढ़ने पर केंद्रित हों तो चौंकिएगा नहीं.

विश्व बैंक मानता है कि पिछले एक दशक में दुनिया में गरीबी की दर को आधा करने (2005 से 2015) की सफलता में भारत की भूमिका सबसे बड़ी है. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) विश्व में बहुआयामी गरीबी नाप-जोख करता है. इसकी ताजा रिपोर्ट (2018) बताती है कि भारत दुनिया का पहला देश है जिसने 2005-06 से 2015-16 के बीच करीब 27 करोड़ लोगों को गरीबी की रेखा से बाहर निकाला और आबादी के प्रतिशत के तौर पर गरीबी करीब आधी यानी 55 फीसद से 28 फीसद रह गई. गरीबी में यह कमी गांव और शहर दोनों जगह हुई.

गरीबी में यह कमी भारत की सतत तेज आर्थिक विकास दर (औसत सात फीसद) के चलते आई लेकिन अब तो एक साल से कम समय में भारत (जुलाई ’18 से जुलाई ’19) दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्यवस्था से सबसे तेजी से धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था में बदल गया है. यह गिरावट लंबी और तीखी है व गहरी भी.

रिजर्व बैंक, इक्रा या इंडिया रेटिंग्स से लेकर विश्व बैंक, आइएमएफ, मूडीज, फिच ने भारत की विकास दर के आकलन में बहुत कम समय में बहुत बड़ी (0.70 से एक फीसद तक) कटौती कर दी है जो अभूतपूर्व है. 

इस पर तुर्रा यह कि किसी भी एजेंसी को कम से कम 2022 तक ग्रोथ में तेजी की यानी 7 फीसद से ऊपर की विकास दर की उम्मीद नहीं है. ग्लोबल बाजार में मंदी आने का खतरा अलग से है. यानी कि कमाई, बचत, खपत की यह जिद्दी मंदी लंबी चलेगी और आठ-नौ फीसद या दहाई की विकास दर तो अब उम्मीदों की बहस से भी बाहर है.

ढहती ग्रोथ गरीबी से लड़ाई को कैसे कमजोर करेगी, इसके लिए हमें भारत की मंदी की जटिल परतों को खोलना होगा, जहां से पिछले दशक में आय में बढ़ोतरी निकली थी.

·       जीडीपी (जीवीए यानी मूल्य वर्धन पर आधारित) में खेती का हिस्सा (2014 से 2017 के बीच) 18.6 फीसद से 17.9 फीसद रह गया. खेती में न उत्पादन का मूल्य बढ़ा और न कमाई. यही वजह है कि 2018-19 में जीडीपी की विकास दर टूट गई

·       फैक्ट्री उत्पादन 81 माह के न्यूनतम पर है और पिछले तीन साल से बमुश्किल दो फीसद की गति से बढ़ रहा है. पिछले पांच साल में निजी औद्योगिक निवेश 11 साल के न्यूनतम स्तर पर आ गया. कंपनियों की बिक्री नहीं बढ़ रही लेकिन कॉर्पोरेट टैक्स घटाने से मुनाफे बढ़े हैं. मांग आने तक कोई नए निवेश का जोखिम लेने को तैयार नहीं है 

·       छोटे उद्योग, जहां से कमाई और रोजगार आते हैं वहां कर्ज का संकट गहरा रहा है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, छोटे उद्योगों में कर्ज का बोझ बढ़ने की दर उनका उत्पादन बढ़ने की दोगुनी है

·       और सबसे महत्वपूर्ण यह कि यह मंदी विदेशी निवेश के रुपए के पर्याप्त अवमूल्यन (प्रतिस्पर्धा में बढ़त), भरपूर उदारीकरण, महंगाई में कमी, कई बड़े सुधारों (दिवालियापन कानून, रेरा, जीएसटी), सरकारी खर्च में जोरदार बढ़त और ब्याज दरों में कमी के बावजूद आई है

·       ग्रामीण मजदूरी की घटती दर, खेती में ज्यादा लोगों का रोजगार के लिए पहुंचना और गांवों में मनरेगा के लिए युवा मजदूरों की भरमार गांवों में गरीबी बढ़ने के शुरुआती संकेत हैं. शहरों में करीब 8 करोड़ लोग भवन निर्माण और छोटे उद्योगों में मंदी की मार झेल रहे हैं. यह बेकारी दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है

ये मूलभूत कारण हैं जिनसे भारत में आय, खपत और बचत में जल्दी सुधार को लेकर असमंजस है और दुनिया की एजेंसियां भारत में मंदी के टिकाऊ होने को लेकर फिक्रमंद हैं. पिछले आर्थिक संकटों (लीमन का डूबना, अमेरिका में ब्याज दर बढ़ने का डर, चीन की मुद्रा के अवमूल्यन) के दौरान भारत की विकास दर तेजी से वापस लौटी. लेकिन इस बार ऐसा नहीं है. भारतीय अर्थव्यवस्था क्रमश: धीमी पड़ी है. यानी लोगों की समग्र आय क्रमश: घट रही है.

हैरत की बात है कि पिछले पांच साल में सरकार ने गरीबी की पैमाइश और पहचान के नए फॉर्मूले को तैयार करने का काम ही रोक दिया. नीति आयोग ने जून 2017 में अपनी रिपोर्ट में कहा कि गरीबों की पहचान या लोगों की आय नाप-जोख जरूरी नहीं है, इससे बेहतर है कि सरकारी योजनाओं के असर को मापा जाए.

ठीक उस वक्त हमें जब गरीबी के अन्य जटिल आयामों (मौसम, बीमारी, विस्थापन, विकास) के समाधान तलाशने थे और एक न्यूनतम जीवन स्तर उपलब्ध कराना था, हमारे पास गरीबों की पहचान का आधुनिक फॉर्मूला नहीं है और दूसरी तरफ ढहती ग्रोथ एक बड़ी आबादी को वापस गरीबी की खाई में ढकेलने वाली है. यह वक्त चुनावी शोर से बाहर निकल कर सच से नजरें मिलाने का है. यह मंदी 25 साल में भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि के लिए सबसे बड़ा अपशकुन है.


Tuesday, July 3, 2018

मंदी में आजादी


आर्थिक मंदी से क्या लोकतांत्रिक आजादियों पर खतरा मंडराने लगता है?

क्या ताकत बढ़ाने की दीवानी सरकारों को आर्थिक मुसीबतें रास आती हैं?

लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी के लिए मुक्त बाजार को सिकुड़ने से बचाना क्यों जरूरी है?

लोकशाही में आजादियों से जुड़े ये सबसे टटके और नुकीले सवाल हैं. बीते बीसेक बरस में लोकशाही का नया अर्थशास्त्र बना है जिसकी मदद से मुक्त बाजार ने आर्थिक स्वाधीनता को संवार करसरकारों को माई बाप होने से रोक दिया है.

खुली अर्थव्यवस्था के साथ सरकारों पर जनता की निर्भरता कम होती चली गईइसलिए नेता अब उन मौकों की तलाश में हैं जिनके सहारे आजादियों की सीमित किया जा सके.

क्या आर्थिक मंदी लोकतंत्र की दुश्मन है?

फ्रीडम हाउस (लोकतंत्रों की प्रामाणिकता को आंकने वाली सबसे प्रतिष्ठित संस्था) की रिपोर्ट "फ्रीडम इन द वर्ल्ड लोकशाही का ख्यात सूचकांक है. 2018 की रिपोर्ट के मुताबिकलोकतंत्र पिछले कई दशकों के सबसे गहरे संकट से मुकाबिल है. 2107 में 75 लोकतंत्रों (देशों) में राजनैतिक अधिकारप्रेस की आजादीअल्पसंख्यकों के हक और कानून का राज कमजोर हुए.

लोकतंत्र की आजादियों में लगातार गिरावट का यह 12वां साल है. "फ्रीडम इन द वर्ल्ड'' बताती है कि 12 साल में 112 देशों में लोकतंत्र दुर्बल हुआ. तानाशाही वाले देशों की तादाद 43 से बढ़कर 48 हो गई.

लोकतंत्रों के बुरे दिनों ने 2008 के बाद से जोर पकड़ा. ठीक इसी साल दुनिया में मंदी शुरू हुई थी जो अब तक जारी है. 1990 के बाद पूरी दुनिया में लोकतंत्रों की सूरत और सीरत बेहतर हुई थी. अचरज नहीं कि ठीक इसी समय दुनिया के कई देशों में आर्थिक उदारीकरण प्रारंभ हुआ था और ग्लोबल विकास को पंख लग गए थे.

यानी कि तेज आर्थिक विकास की छाया में स्वाधीनताएं खूब फली-फूलीं.

आर्थिक संकट से किसे फायदा?

आर्थिक उदारीकण और लोकतंत्र के रिश्ते दिलचस्प हैं. जहां भी बाजार मुक्त हुआ और उद्यमिता को आजादी मिलीवहां सरकारों को अपनी ताकत गंवानी पड़ीइसलिए मंदी जैसे ही बाजार को सिकोड़ती है और निजी उद्यमिता को सीमित करती हैसरकारों को ताकत बढ़ाने के मौके मिल जाते हैं. ताजा तजुर्बे बताते हैं कि जो देश मंदी से बुरी तरह घिरे रहे हैंवहां लोकतंत्र की ताकत घटी है.

सरकारें मंदी की मदद से दो तरह से ताकत बढ़ाती हैः

एकः मंदी के दौरान सरकार अपने खजाने से मुक्त बाजार में दखल देती है और सबसे बड़ी निवेशक बन जाती है. भारत में 1991 से पहले तक सरकार ही अर्थव्यवस्था की सूत्रधार थी.

दोः आर्थिक चुनौतियों के चलते बाजार में रोजगारों में कमी होती है और सरकारें लोगों की जिंदगी-जीविका में गहरा दखल देने लगती हैं.

तो क्या हर नेता को एक मंदी चाहिए जिससे वह दानवीर और ताकतवर हो सके?

लाचार बाजार तो अभिव्यक्ति बेजार!

विज्ञापनों की दुनिया से जुड़े एक पुराने मित्र किस्सा सुनाते थे कि 2001 से 2005 के दौरान अखबारों और टीवी के पास सस्ते सरकारी विज्ञापनों के लिए जगह नहीं होती थी. बाजार से मिल रहे विज्ञापन सरकारों के लिए जगह ही नहीं छोड़ते थे. मंदी की स्थिति में सरकार सबसे बड़ी विज्ञापक व प्रचारक हो जाती है और आजादी को सिकुडऩा पड़ता है.

"फ्रीडम इन द वर्ल्ड'' ने 2013 में बताया था कि ग्लोबल मंदी के बाद यूरोपीय देशों में प्रेस की स्वाधीनता कमजोर पड़ी. खासतौर पर यूरोपीय समुदाय के मुल्कों में प्रेस की आजादी के मामले में जिनका रिकॉर्ड बेजोड़ रहा है

प्रसंगवशकांग्रेस के आधिकारिक इतिहासकार प्रणब मुखर्जी ने लिखा है कि 1975 के आपातकाल की पृष्ठभूमि में 1973 के तेल संकट से उपजी महंगाईबेकारीहड़तालें और उसके विरोध में पूरे देश में फूट पड़े आंदोलन थेजिसने राजनैतिक माहौल बिगाड़ दिया. यानी कि इमर्जेंसी के पीछे मंदी और महंगाई थी!

वैसेअब अगर आजादियां पूरी तरह सरकार की पाबंद नहीं हैं तो सरकारें भी आजादियों का उतना बेशर्म अपहरण नहीं करतीं जैसा कि 1975 के भारतीय आपातकाल में हुआ.

आजादियों को मुक्त बाजार और तेज आर्थिक प्रगति चाहिए क्योंकि चतुर सरकारों ने लोकतंत्र के भीतर स्वाधीनता के अपहरण के सूक्ष्म तरीके विकसित कर लिये हैं. यकीनन मुक्त बाजार निरापद नहीं है लेकिन उसे संभलाने के लिए हमारे पास सरकार है. सरकारों की निरंकुशता को कौन संभालेगाइसके लिए तो उन्हें छोटा ही रखना जरूरी है.

Monday, October 2, 2017

हाथी की बीमारी बकरी का इलाज


सरकार के साथ सहानुभूति रखिए.

वह कभी-कभी सवालों के अनोखे जवाब ले आती है.

जैसे मंदी और बेकारी दूर करने के लिए गांवों में बिजली के खंभे लगाना. यह पानी की कमी दूर करने के लिए रेल की पटरी बिछाने जैसा है.
देश जब मंदी के इलाज का इंतजार कर रहा था जो किसी अंतरराष्ट्रीय आपदा के कारण नहीं बल्कि पूरी तरह सरकार के गलत फैसलों से आईतब मुफ्त में बिजली कनेक्शन बांटने की योजना का त्योहार शुरू हो गया. यह स्कीम उन राज्यों में लागू होगी जहां बिजली वितरण नेटवर्क बुरे हाल में हैबिजली बोर्ड घाटे में हैंकर्ज से उबरने की कोशिश कर रहे हैं और बिजली सप्लाई के घंटे गिने-चुने ही हैं. 

सरकारें अक्सर यह भूल जाती हैं कि अर्थव्यवस्था के मामले में आत्मविश्वास और दंभ की विभाजक रेखा बहुत बारीक होती है. देश में व्याप्त मंदी इसी गफलत की देन है. लेकिन दंभ के बाद अगर दुविधा आ जाए तो जोखिम कई गुना बढ़ जाते हैंक्योंकि तब घुटने की चोट के लिए आंख में दवा डालने जैसे अजीबोगरीब फैसले लिए जाते हैं. मंदी के मौके पर सब्सिडी का 'सौभाग्य' महोत्सव इसी दुविधा से निकला है.

सरकारी स्कीमों का हाल बुरा है. इसे खुद सरकार से बेहतर भला कौन जानता है. सरकार का एक मंत्रालय है जो स्कीमों के क्रियान्वयन का हिसाब-किताब रखता है. इस साल की शुरुआत में उसने जो रिपोर्ट जारी की थी उसके मुताबिकमोटे खर्च और बजट वाली सरकार की 12 प्रमुख स्कीमें 2016-17 में बुरी तरह असफल रहीं. मसलनग्रामीण सड़क योजना 14 राज्यों में लक्ष्य से पीछे रही. प्रधानमंत्री आवास योजना 27 राज्यों में पिछड़ गई.

इस रिपोर्ट में दीनदयाल ग्राम ज्योति योजना भी है जो 14 राज्यों में ठीक ढंग से नहीं चली. सौभाग्य योजना इसी का विसतार है. नोटबंदी के बाद जनधन को लकवा मार गया है. फसल बीमा योजना के बारे में तो सीएजी ने बताया है कि इसका फायदा बीमा कंपनियों ने उठा लियाकुदरत के कहर के मारे किसानों को कुछ नहीं मिला. 

गरीबों को मुफ्त गैस कनेक्शन देने वाली योजना उज्ज्वला भी अब दुविधा की शिकार है. केंद्रीय पेट्रो कंपनियों के कारण स्कीम की शुरुआत ठीक रही लेकिन सिलेंडर भरवाने के लिए 450 रुपए देना उज्ज्वला धारकों के लिए मुश्किल है. ग्रामीण इलाकों में मंदी के पंजे ज्यादा गहरे हैं. केरोसिन और लकड़ी हर हाल में एलपीजी से सस्ती है.

उत्तर प्रदेशमध्य‍ प्रदेशबिहारओडिशाराजस्थान जैसे राज्यों में एलपीजी धारकों की संख्या और एलपीजी की खपत में बड़ा झोल है. पेट्रो मंत्रालय के रिसर्च सेल की रिपोर्ट बताती है कि उज्ज्वला के बाद यहां जिस रफ्तार से कनेक्शन बढ़े हैंउस गति से एलपीजी की मांग या खपत नहीं बढ़ी.

सिर्फ आंकड़े ही नहींलोगों का नजरिया भी स्कीमों को लेकर बहुत उत्साहवर्धक नहीं है. इस साल अगस्त में इंडिया टुडे के 'देश का मिज़ाज सर्वे' ने बताया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का आंकड़ा जितना ऊंचा हैउनकी स्कीमों की अलोकप्रियता उतनी ही गहरी है. इनमें जन धनडिजिटल इंडिया जैसी बड़ी स्कीमें शामिल हैं. यह स्थिति तब है जबकि प्रधानमंत्री देश से लेकर विदेश तक लगभग हर दूसरे भाषण में इनका नाम लेते हैं और पिछले तीन साल में इन स्कीमों के प्रचार पर क्‍या खूब खर्च हुआ है ?

मोदी सरकार मनरेगा जैसे किसी बड़े करिश्मे की तलाश में है जिसकी पूंछ पकड़ कर चुनावों की लंबी वैतरणी पार हो सके. दिलचस्प है कि मनरेगा की सफलता उसके जरिए मिले रोजगारों में नहीं बल्कि उसके जरिए बढ़ी मजदूरी की दरों में थी. मनरेगा लागू होते समय आर्थिक विकास की गति तेज थी इसलिए मनरेगा के सहारे मजदूरी दरों का बाजार पूरी तरह श्रमिकों के माफिक हो गया. मजदूरों को गांव में भी ज्यादा मजदूरी मिली और शहरों में भी. अगर मंदी के दौर में मनरेगा आती तो शायद ये नतीजे नहीं मिलते.

दरअसलसरकारी स्कीमें गरीबी का समाधान हैं ही नहीं. 1994 से 2012 तक कुल आबादी में निर्धनों की तादाद 45 फीसदी से घटकर 22 फीसदी रह गई. 2005 से 2012 के बीच गरीबी घटने की रफ्तारइससे पिछले दशक की तुलना में तीन गुना तेज थी. ध्यान रखना जरूरी है कि यही वह दौर था जब भारत की आर्थिक विकास दर सबसे तेजी से बढ़ी.

हम इतिहास से यह सीखते हैं कि हमने इतिहास से कुछ नहीं सीखा. हम इतिहास से यह भी सीखते हैं कि नसीहतें न लेने के मामले में सरकारें सबसे ज्यादा जिद्दी होती हैं. वे ऐसे इलाज लाती हैं जिसमें हाथी की दवा चींटी को चटाई जाती है. तभी तो बेकारी दूर करने के लिए अब गांवों में एलईडी बल्ब टांगे जाएंगे.