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Sunday, July 29, 2018

ठगवा नगरिया लूटल हो



नोटबंदी के दौरान लाइनों में खड़े होने की लानत याद है? इनकम टैक्स का रिटर्न भरा होगा तो फॉर्म देखकर सिर घूम गया होगा! ध्यान रखिएगा आप ऐसे देश में हैं जहां ईमानदारी के भी कई पैमाने हैं. सरकार आपसे जितनी सूचनाएं मांगती है, उसकी एक फीसदी भी जानकारी उनसे नहीं मांगी जाती जिन्हें हम अपने सिर-आंखों बिठाते हैं. पारदर्शिता का पूरा ठेका सिर्फ आम लोगों पर है, राजनैतिक दल, जिनकी गंदगी जन्म से पवित्र है, वे अब विदेश से भी गंदगी ला सकते हैं. मोदी सरकार ने संसद से कहला दिया है कि सियासी दलों से कोई कुछ नहीं पूछेगा. उनके पिछले धतकर्मों के बारे में भी नहीं.

राजनैतिक दल भारत में भ्रष्टाचार के सबसे दुलारे हैं.  संसद ने भी खुद पर देश के विश्वास का एक शानदार नमूना पेश किया है. सरकार ने वित्त विधेयक 2018 के जरिए राजनैतिक दलों के विदेशी चंदों की जांच-पड़ताल से छूट देने का प्रस्ताव रखा था, जिसे संसद ने बगैर बहस के मंजूरी दे दी.

जनप्रतिनिधित्व कानून में इस संशोधन के बाद राजनैतिक दलों ने 1976 के बाद जो भी विदेशी चंदा लिया होगा, उसकी कोई जांच नहीं होगी!

यकीन नहीं हो रहा है न? ईमानदारी की गंगाजली उठाकर आई सरकार ऐसा कैसे कर सकती है?

दरअसल, संसद की मंजूरी के बाद राजनैतिक चंदों को भ्रष्टाचार की बिंदास छूट देने का अभियान पूरा हो गया है. अब देशी और विदेशी, दोनों तरह के राजनैतिक चंदे जांच-पड़ताल से बाहर हैं.

कैसे?

आइए, आपको सियासी चंदों के गटर की सैर कराते हैं:
·     अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने पहली बार राजनैतिक चंदे को वीआइपी बनाया था जब कंपनियों को खर्च की मद में चंदे को दिखाकर टैक्स में छूट लेने की इजाजत दी गई. ध्यान रहे कि सियासी दलों के लिए चंदे की रकम पर कोई टैक्स नहीं लगता. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स के आंकड़े बताते हैं कि 2012-16 के बीच पांच प्रमुख पार्टियों को 945 करोड़ रु. चंदा कंपनियों से मिला. यह लेनदेन पूरी तरह टैक्स फ्री है, कंपनियों के लिए भी और राजनैतिक पार्टियों के लिए भी.

·   कांग्रेस की सरकार ने चंदे के लिए इलेक्टोरल ट्रस्ट बनाने की सुविधा दी, जिसके जरिए सियासी दलों को पैसा दिया जाता है.

·       नोटबंदी हुई तो भी राजनैतिक दलों के नकद चंदे (2,000 रु. तक) बहाल रहे.

·       मोदी सरकार ने एक कदम आगे जाते हुए, वित्त विधेयक 2017 में कंपनियों के लिए राजनैतिक चंदे पर लगी अधिकतम सीमा हटा दी. इससे पहले तक कंपनियां अपने तीन साल के शुद्ध लाभ का अधिकतम 7.5 फीसदी हिस्सा ही सियासी चंदे के तौर पर दे सकती थीं. इसके साथ ही कंपनियों को यह बताने की शर्त से भी छूट मिल गई कि उन्होंने किस दल को कितना पैसा दिया है.

·    विदेशी चंदों की खिड़की खोलने की शुरुआत भी मोदी सरकार ने 2016 में वित्त विधेयक के जरिए की थी जब विदेशी मुद्रा चंदा कानून (एफसीआरए) को उदार किया गया था.

·    ताजे संशोधन के बाद सियासी दलों के विदेशी चंदों की कोई पड़ताल नहीं होगी, अगर पैसा ड्रग कार्टेल या आतंकी नेटवर्क से आया हो तो?

·      सियासी चंदों के खेल में कुछ बहुत भयानक गंदगी है, इसीलिए तो 1976 के बाद से सभी विदेशी चंदे संसद के जरिए जांच से बाहर कर दिए गए हैं. इससे पहले 2016 के वित्त विधेयक के जरिए सरकार ने विदेशी चंदा कानून के तहत विदेशी कंपनी की परिभाषा को उदार किया था और यह बदलाव 2010 से लागू किया गया था. 2014 में दिल्ली हाइकोर्ट ने भाजपा और कांग्रेस, दोनों को विदेशी चंदों के कानून के उल्लंघन का दोषी पाया था. ताजा बदलाव के बाद दोनों पार्टियां चैन से चंदे की चिलम फूंकेंगी.

किस्सा कोताह यह कि ताजा बदलावों के बाद सभी तरह के देशी और विदेशी राजनैतिक चंदे जांच से परे यानी परम पवित्र हो गए हैं.

जो सरकार विदेशी चंदे के नियमों के तहत पिछले एक साल में 5,000 स्वयंसेवी संगठनों को बंद कर सकती है, कंपनियों से किस्म-किस्म के रिटर्न भरने को कहती है, और आम लोगों को सिर्फ नोटबंदी की लाइनों में मरने को छोड़ देती है, वह राजनैतिक चंदे को हर तरह की रियायत देने पर क्यों आमादा है

राजनैतिक दल कौन-सी जन सेवा कर रहे हैं?

हमें खुद से जरूर पूछना चाहिए कि क्या हर चुनाव में हम देश के सबसे विराट और चिरंतन घोटाले को वोट देते हैं?


Monday, June 4, 2018

सरकार बेशुमार



देश के हर बूथ पर हमारा कार्यकर्ता झंडा लेकर खड़ा रहेगा! हमारे कार्यकर्ता घर-घर तक पहुंचने चाहिए! पानी में आग लगा देने वाली इन राजनैतिक तैयारियों पर न्योछावर होने से पहले सुमेरपुर के ‘प्रधान जी’ से मिलना जरूरी है.


प्रधान जी सिखाते हैं कि जब कोई समाज अपने प्रगति के लक्ष्य बदलता है तो उसे अपनी च‌िंताओं के आयाम बदल लेने चाहिए अन्यथा बेगानगी अच्छे-खासे समाजों का तिया पांचा कर देती है.

प्रधान जी का काफिला प्रधानमंत्री से कुछ ही छोटा है. उनका पारिवारिक प्रताप पंचायत प्रमुखों से लेकर पन्ना प्रमुखों तक फैला है. मनरेगा से लेकर उज्ज्वला तक हर स्कीम के आंकड़े उनकी ड्योढ़ी का पानी पीकर अंगड़ाई लेते हैं. भाईभतीजेनातीबहुएंसब कहीं न कहीं किसी न किसी सरकार का हिस्सा हैं. त्योहारों और मुंडन-कनछेदन पर उनका घर सर्वदलीय बैठक जैसा हो जाता है.

प्रधान जी पार्टी का विस्तार हैं. 

वे सरकार के जन संपर्क मिशन का शुभंकर हैं. 

वे सरकार की सरकार हैं. 

प्रधान जी ‘मैक्सिमम गवर्नमेंट’ हैं.

प्रधान जीदरअसल‘वड़ा प्रधान’ की चार साला उम्मीदों का सजीव स्मारक हैं.

2014 में मई में उत्साह से लबरेज नरेंद्र मोदी ने एक ऐसा वादा किया थाजो उनसे पहले की कोई सरकार इतने खम ठोक तरीके से नहीं कर पाई थी. मोदी ने कहा था कि वह सरकार छोटी करेंगे यानी मिनिमम गवर्नमेंट. उनका यह वादा रिझाने लायक थाक्योंकि इसमें उन मुसीबतों का इलाज भी छिपा थाजो 1991 के बाद सुधारों की खुराक से भी दूर नहीं हुईं.

सरकार को सिकोड़कर प्रधानमंत्री मोदी हजार तरह की बर्बादीसैकड़ों तरीके के भ्रष्टाचार और असंख्य नापाक नेता-अफसर गठजोड़ों को खत्म करने जा रहे थे. वे राजनैतिक भ्रष्टाचार का मर्सिया लिखने की तरफ बढ़ चले थे. लेकिन फिर वक्त ने गिरगिट होना कबूल किया और मोदी सरकार पिछली किसी सरकार से ज्यादा स्कीमें पचाकर बड़ी होती गई. लंबे उदर वाली सरकारें विकास पर बैठ जाती हैंइसलिए अब विकास महसूस कराने के लिए स्कीमों का प्रचार और ‘प्रधान जी’ का ही एक सहारा हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार को फिटनेस का मंत्र दे पातेइससे पहले भाजपा ने दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनने का बीड़ा उठा लिया और फिर वही हुआ जो पिछले 60 साल से होता आया था. पार्टी को बड़ा करने के लिए सरकार को बड़ा करना जरूरी था.

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी कितने सारे कारोबारों में दखल रखती है. साम्यवादियों का यह वीभत्स पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) अब पार्टी के नेताओं और कारोबारियों में फर्क खत्म कर चुका है.

पता नहींहम भारतीय कब इस वायरस के शिकार हुए कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को राजनीति में आना चाहिए. लेकिन इस बीमारी का राजनैतिक दलों को लाभ हुआ. उनका संसार बड़ा होता चला गया. 

अलबत्तागांव से लेकर शहरों तक मेहनती और मेधावी सैकड़ों लोग अपने सबसे उत्पादक वर्षों (25 से 60) को मुट्ठी भर ‘कुर्सी चिपको’ नेताओं की खातिर यूं ही नहीं गंवाने वाले थेखासतौर जब उन्‍हें  यह मालूम  है कि सियासत में ऊपर जाने वाली हर सीढ़ी पर झुंड के झुंड लोग जमा हैं. उन्हें अपने श्रम का वाजिब मूल्य यानी अपने लिए थोड़ी-सी सरकार चाहिए. इसलिए राजनैतिक दलों का सांगठनिक विस्तारथुलथुली सरकारों का सहोदर हो जाता है.

भारतीय राजनीति एक वीभत्स बिजनेस मॉडल पर आधारित हैप्रधान जी जिसके ब्रांड एंबेसडर हैं. उनके लिए राजनीति ही उनका कारोबार है या फिर राजनीति है इसलिए कारोबार है. जो दल सत्ता में होते हैंवे संगठन बढ़ाने के लिए सरकार बढ़ाते हैं और फिर सत्ता में बने रहने को लिए संगठन व सरकार को बढ़ाते रहना होता है.

राजनीति में जितने अधिक लोग आएंगेसरकारें उतनी ही बड़ी होती जाएंगी और भ्रष्टाचार उतना ही जरूरी होगा. भाजपा को पूरे देश में फैलाते हुए प्रधानमंत्री मोदी छोटी सरकार का आदर्श संभाल नहीं सकते थेइसलिए उनकी सरकार बड़ी होती गई. आज निचले और मझोले स्‍तरों पर राजनैतिक भ्रष्टाचार पहले से ज्यादा बजबजा रहा है.

चार साल में सबसे बड़ी पार्टी सबसे बेशुमार सरकार में तब्दील हो गई है.

सब्सिडी और स्कीमों की भीड़ पहले से ज्यादा बढ़ गई है. कार्यर्ताओं की कमाई के लिए यह जरूरी है.

सियासी चंदे पारदर्शी नहीं हुए. बहुराष्ट्रीय कंपनी जैसी पार्टी को चलाने और चुनाव जीतने के लिए अकूत संसाधन चाहिए जो लाभ के अवसर बांटकर ही मिलेगा.

मैदां की हार-जीत तो किस्मत की बात है
टूटी है किसके हाथ में तलवार देखना 




Monday, November 13, 2017

जो नहीं जानते ख़ता क्या है

जो पीडि़त हैं वही क्यों पिटते हैं?

काली कमाई और भ्रष्टाचार पर गुर्राई नोटबंदी अंतत: उन्हीं पर क्यों टूट पड़ी जो कालिख और लूट के सबसे बड़े शिकार हैं.

जवाबों के लिए चीन चलते हैं.

इसी अक्तूबर के दूसरे सप्ताह में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की 19वीं सालाना बैठक में राष्ट्रपति शी जिनपिंग को एक अनोखा दर्जा हासिल हुआ. उपलब्धि यह नहीं थी कि कम्युनिस्ट पार्टी के संविधान में बदलाव के साथ शी को माओ त्से तुंग और देंग श्याओ की पांत में जगह दी गई बल्कि शी ताजा इतिहास में दुनिया के पहले ऐसे नेता हैं जिन्होंने संगठित राजनैतिक और कॉर्पोरेट भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई जीतकर खुद को दुनिया के सबसे ताकतवर नेताओं की पांत में पहुंचा दिया.

बीजिंग के ग्रेट हॉल ऑफ पीपल में जब कम्युनिस्ट पार्टी शी का अभिनंदन कर रही थी, तब तक उनका भ्रष्टाचार विरोधी अभियान अपनी ही पार्टी के 13 लाख पदाधिकारियों व सरकारी अफसरों और 200 मंत्री स्तर के 'टाइगरों को सजा दे चुका था. शी ने अपनी ही पार्टी के भ्रष्ट नेताओं और दिग्गजों को सजा देकर ताकत पाई और लोकप्रिय हो गए! 

असफल नोटबंदी के दर्द की छाया में भ्रष्टाचार के विरुद्ध चीन का अभियान जरूरी सूत्र दे सकता है.

         इस अभियान के लक्ष्य आम चीनी नहीं बल्कि नेता, सरकारी मंत्री, सेना और सार्वजनिक कंपनियों के अफसर थे जो चीन के कुख्यात वोआन-जोआन (नेता-अफसर-कंपनी गठजोड़) भ्रष्टाचार की वजह हैं. 2013 में शी जिनपिंग ने कहा था कि सिर्फ मक्खियां (छोटे कारकुन) ही नहीं, शेर (बड़े नेता-अफसर) भी फंदे में होंगे. इसने चीनी राजनीति के तीन बड़े गुटोंपेट्रोलियम गैंग, सिक्योरिटी गैंग और  शांक्सी गैंग (बड़े राजनैतिक नेताओं का गुट) पर हाथ डाला, जो टाइगर्स कहे जाते हैं.

 भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान का नेतृत्व सेंट्रल कमिशन फॉर डिसिप्लिनरी ऐक्शन (सीसीडीआइ) कर रहा है. स्वतंत्र और अधिकार संपन्न एजेंसी के जरिए राजनैतिक व आर्थिक भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का मॉडल दुनिया के अन्य देशों, खासतौर पर लोकतंत्रों से मेल खाता ही है.

    किसी भी दूसरे देश की तरह शी की यह मुहिम भी विवादित थी लेकिन चीन की अपेक्षाओं से कहीं ज्यादा पारदर्शी भी थी. नियमित सूचनाओं का प्रवाह और यहां तक कि राजदूतों को बुलाकर इस स्वच्छता मिशन की जानकारी देना इस अभियान का हिस्सा था.

  अभियान की सफलता शी की राजनैतिक ताकत में दिखती है. स्वतंत्र प्रेक्षक (खासतौर पर ताजा चर्चित किताब चाइनाज क्रोनी कैपिटलिज्म के लेखक और कैलिफोर्निया में क्लैरमांट मैककेना कॉलेज के प्रोफेसर मिनक्सिन पे) मानते हैं कि बड़े व संगठित भ्रष्टाचार पर निर्णायक प्रहार से निचले स्तर पर भ्रष्टाचार में कमी महसूस की जा सकती है. हालांकि चीन में कानून कमजोर हैं और स्वतंत्र मीडिया अनुपलब्ध है, इसलिए जन अभियानों का विकल्प नहीं है. 

अब वापस नोटबंदी पर

1. नोटबंदी से कालिख के दिग्गजों को सजा मिलनी थी लेकिन नौकरियां गईं आम लोगों की, धंधे बंद हुए छोटों के. भ्रष्ट और काले धन के राजनैतिक-आर्थिक ठिकानों पर कोई फर्क नहीं पड़ा.

2. लोकतंत्र के पैमानों पर, नोटबंदी के फैसले और नतीजों में सरकार अपेक्षित पारदर्शी नजर नहीं आई.

3. राजनैतिक मकसद से चुनिंदा जांच के अलावा उच्च पदों पर भ्रष्टाचार पर कोई संगठित अभियान नजर नहीं आया. चीन की तो छोडि़ए, भारत में पाकिस्तान की तरह भी कोई मजबूत व स्वतंत्र जांच संस्था नहीं बन पाई. पनामा (टैक्स हैवेन) से रिश्तों में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का नाम आने के बाद, उनके खिलाफ अदालत व जांच एजेंसी की सक्रियता देखने लायक है. भारत में पनामा पेपर्स के मामलों में एक नोटिस तक नहीं भेजा गया है जबकि टैक्स हैवन के भारतीय रिश्तों पर सूचनाओं की दूसरी खेप (पैराडाइज पेपर्स) आ पहुंची है.

4. ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की इस साल आई दो रिपोर्टों के मुताबिक, भारत आज भी एशिया प्रशांत क्षेत्र में सबसे भ्रष्ट देश है. यहां औसतन 70 फीसदी लोगों को रिश्वत देनी पड़ती है.

चलते-चलते एक तथ्य और पकडि़ए.

उपभोक्ताओं पर भारत के प्रमुख सर्वेक्षण, आइसीई 3600 सर्वे (2016) के अनुसार, भारत में केवल 20 फीसदी परिवार ऐसे हैं जिनका मासिक उपभोग खर्च औसतन 15,882 रु. या उससे ज्यादा है. सबसे निचले 40 फीसदी परिवारों का मासिक खर्च तो केवल 7,000-8,500 रु. के बीच है.

काला धन किसके पास है

नोटबंदी के दौरान लाइनों में कौन लगे थे?


आप खुद समझदार हैं. 

Thursday, August 3, 2017

गठबंधन हो गया, अब लड़ाई हो

      
नीतीश कुमार के दिल-बदल के साथ गठबंधनों की नई गोंद का आविष्कार हो गया है. सांप्रदायिकता के खिलाफ एकजुटता के दिन अब पूरे हुए. भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई,  नया सेकुलरवाद या गैर कांग्रेसवाद है इसके सहारे राजनैतिक दल नए गठजोड़ों को आजमा सकते हैं. लेकिन ध्यान रहे कि कहीं यह नया सेकुलरवाद न बन जाए. सेकुलरवादी गठजोड़ों की पर्त खुरचते ही नीचे से बजबजाता हुआ अवसरवाद और सत्‍ता की हमाम में डुबकियों में बंटवारे के फार्मूले निकल आते थे इसलिए सेकुलर गठबंधनों की सियासत बुरी तरह गंदला गई.

सेकुलरवादफिर भी अमूर्त था. उसकी सफलता या विफलता सैद्धांतिक थी. उसकी अलग अलग व्‍याख्‍याओं की छूट थी संयोग से भ्रष्‍टाचार ऐसी कोई सुविधा नहीं देता. भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई ठोस और व्यावहारिक है जिसके नतीजों को देखा और महसूस किया जा सकता है. यह भी ध्‍यान रखना जरुरी है भ्रष्‍टाचार से जंग छेड़ने वाले सभी लड़ाकों अतीत पर्याप्‍त तौर पर दागदार हैंइसलिए गठबंधनों के नए रसायन को सराहने से पहले पिछले तीन साल के तजुर्बोंतथ्यों व आंकड़ों पर एक नजर डाल लेनी चाहिए ताकि हमें भ्रष्टाचार पर जीत के प्रपंच से भरमाया न जा सके.
  •  क्रोनी कैपिटलिज्म का नया दौर दस्तक दे रहा है. बुनियादी ढांचेरक्षानिर्माण से लेकर खाद्य उत्पादों तक तमाम कंपनियां उभरने लगी हैंसत्ता से जिनकी निकटता कोई रहस्य नहीं है बैंकों को चूना लगाने वाले अक्‍सर उद्यमी मेक इन इंडिया का ज्ञान देते मिल जाते हैं. सत्ता के चहेते कारोबारियों की पहचानराज्यों में कुछ ज्या‍दा ही स्पष्ट है. द इकोनॉमिस्ट के क्रोनी कैपिटलिज्म इंडेक्स 2016 में भारत नौवें नंबर पर है.  
  •   सरकारी सेवाओं में भ्रष्टाचार और रिश्वतों की दरें दोगुनी हो गई है. इस साल मार्च में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के सर्वे में बताया गया था कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र के 16 देशों में भारत सबसे भ्रष्ट हैजहां सेवाओं में रिश्वत की दर 69 फीसदी है. सीएमएस इंडिया करप्शन स्टडी (अक्तूबर-नवंबर 2016) के मुताबिक, पुलिसटैक्सन्यायिक सेवा और निर्माण रिश्वतों के लिए कुख्यात हैं. डिजिटल तकनीकों के इस्‍तेमाल से काम करने की गति बढ़ी है लेकिन कंप्यूटरों के पीछे बैठे अफसरों के विशेषाधिकार भी बढ़ गए है इसलिए छोटी रिश्‍वतें लगातार बड़ी होती जा रही हैं
  •   नोटबंदी की विफलता में बैंकों का भ्रष्टाचार बड़ी वजह थाजिस पर सफाई से पर्दा डाल दिया गया.
  •  आर्थिकनीतिगत और तकनीकी कारणों से बाजार में प्रतिस्पर्धा सीमित हो रही है. जीएसटी चुनिंदा कंपनियों को बड़ा बाजार हासिल करने में मददगार बनेगा. टेलीकॉम क्षेत्र में तीन या चार कंपनियों के हाथ में पूरा बाजार पहुंचने वाला है.
  •   राजनैतिक मकसदों के अलावा पिछली सरकार के भ्रष्टाचार के मामलों की जांच या तो असफल होकर दम तोड़ चुकी है या फिर शुरू ही नहीं हुई. विदेश से काला धन लाने के वादों के विपरीत पनामा में भारतीयों के खातों के दस्‍तावेज आने के बावजूद एफआईआर तो दूर एक नोटिस भी नहीं दिया गया
  •  सतर्कता आयोगलोकपाललोकायुक्त जैसी संस्थाएं निष्क्रिय हैं और भ्रष्टाचार रोकने के नए कानूनों पर काम जहां का तहां रुक गया है  
सरकारी कामकाज में 'साफ-सफाई' के कुछ ताजा नमूने सीएजी की ताजा रिपोर्टों में भी मिले हैं यह रिपोर्ट पिछले तीन साल के कामकाज पर आधारित हैं
  •    बीमा कंपनियां फसल बीमा योजना का 32,000 करोड़ रुपए ले उड़ींयह धन किन लाभार्थियों को मिला उनकी पहचान मुश्किल है
  •    रेलवे के मातहत सेंट्रल ऑर्गेनाइजेशन फॉर रेलवे इलेक्ट्रिफिकेशन के ठेकों में गहरी अनियमितताएं पाई गई हैं.
  •   रेलवे में खाने की क्वालिटी इसलिए खराब है क्योंकि खानपान सेवा पर चुनिंदा ठेकेदारों का एकाधिकार है.
  •  और नौसेना व कोस्ट गार्ड में कुछ महत्वपूर्ण सौदों को सीएजी ने संदिग्ध पाया है.
सेकुलरवाद को समझने में झोल हो सकता है लेकिन व्यवस्था साफ-सुथरे होने की   पैमाइश मुश्किल नहीं है
  •  सरकारें जितनी फैलती जाएंगी भ्रष्टाचार उतना ही विकराल होगा. सनद रहे कि नई स्‍कीमें लगातार नई नौकरशाही का उत्‍पादन कर रही हैं
  •   भ्रष्टाचार गठजोड़ों और भाषण नहीं बल्कि ताकतवर नियामकों व कानूनों से घटेगा.
  •   अदालतें जितनी सक्रिय होंगी भ्रष्‍टचार से लड़ाई उतनी आसान हो जाएगी.
  •   बाजारों में प्रतिस्पर्धा बढ़ाते रहना जरूरी है ताकि अवसरों का केंद्रीकरण रोका जा सके. 
भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनैतिक एकजुटता से बेहतर क्‍या हो सकता है लेकिन इस नए गठजोड़ के तले भ्रष्‍टाचार का घना और खतरनाक अंधेरा है. उच्चपदों पर व्यक्तिगत भ्रष्टाचार अब फैशन से बाहर है कोई निपट मूर्ख राजनेता ही खुद अपने नाम पर भ्रष्‍टाचार कर रहा होगा. चहेतों को अवसरों की आपूर्ति और उनका संरक्षण राजनीतिक भ्रष्‍टाचार के नए तरीके हैं इसलिए इस हमाम की खूंटियों पर सभी दलों के नेताओं के कपड़े टंगे पाए जाते हैं

यदि भ्रष्टाचार के खिलाफ गठबंधनों को सत्‍ता के अवसरवाद से बचाना है तो इसे सेकुलरवाद बनने से रोकना होगा. कौन कितना सेकुलर है यह वही लोग तय करते थे जिन्हें खुद उन पर कसा जाना था. ठीक इसी तरह कौन कितना साफ है यह तय करने की कोशिश भी वही लोग करेंगे जो जिन्‍हें खुद को साफ सुथरा साबित करना है सतर्क रहना होगा क्‍यों कि नए गठजोड़ भ्रष्टाचार को दूर करने के बजाय इसे ढकने के काम आ सकते हैं.  

भ्रष्‍टाचार से जंग में कामयाबी के पैमाने देश की जनता को तय करने होंगे. यदि इस लड़ाई की सफलता तय करने का काम भी नेताओं पर छोड़ दिया गया तो हमें बार-बार छला जाएगा.





Monday, March 27, 2017

विकास का हठयोग


उत्‍तरप्रदेश को विकास की प्रयोगशाला बनाने के लिए योगी आदित्‍यनाथ कौन सा जटिल दुष्‍चक्र तोड़ना होगा ?

योगी आदित्यनाथ क्या उत्तर प्रदेश को विकास की प्रयोगशाला बना सकते हैं?
विकास सिर्फ साफ सुथरा विकास ही पढि़ए और कुछ नहीं.
योगी को इस हठयोग की शुरुआत अपनी पार्टी से ही करनी होगी.
राजनीति के साथ गुंथकर, राज्यों में विकास का मॉडल टेढ़ा-मेढ़ा और बुरी तरह दागी हो चुका है. विकास कार्यों की कमान सियासी कार्यकर्ता ही संभालते हैं. यह पार्टी की तरफ से उनकी सेवाओं के बदले उनको मिलने वाली मेवा है. भाजपा के पास पहली बार विशाल कार्यकर्ता और समर्थक समूह जुटा है. इस मेवाको लेकर जिनकी उम्मीदें बल्लियों उछल रहीं हैं.

राज्यों में विकास को देखना अब उतना दुर्लभ भी नहीं रहा है. वित्त आयोग की सिफारिशों के बाद राज्यों के पास संसाधनों की कमी नहीं है. उत्तर प्रदेश के लगभग हर जिले में सरकारी पैसे से कुछ न कुछ बन रहा है. यही हाल देश के अन्य राज्यों में भी है. 

राज्यों में विकास पर अधिकांश खर्च सरकार करती है. सबसे बड़ा हिस्सा कंस्ट्रक्शन का है. मसलन, उत्तर प्रदेश में इस साल करीब 40,000 करोड़ रु. बुनियादी ढांचा निर्माणों के लिए रखे गए हैं

केंद्र और राज्य की परियोजनाओं की सीरत में बड़ा फर्क है. केंद्रीय परियोजनाएं अपेक्षाकृत बड़ी या बहुत बड़ी होती हैं, जिनमें निजी कंपनियों की निजी भागीदारी के नियम अपेक्षाकृत पारदर्शी हैं. इन पर ऑडिट एजेंसियों व नियामकों की निगहबानी रहती है.

राज्यों में परियोजनाएं छोटी होती हैं. मसलन, ग्रामीण सडक़ें, नलकूप, सिंचाई, बुनियादी ढांचा, सरकारी भवन, शहरों में छोटे पुल, सडक़ों का निर्माण और मरम्मत के ढेर सारे काम. लागत के आधार पर परियोजनाएं छोटी लेकिन संख्‍या यह परियोजनाएं वस्तुत: ठेके हैं, जिनमें पारदर्शी टेंडरिंग, जांच, ऑडिट की कोई जगह नहीं है. राज्यों का अधिकांश निर्माण विशाल कॉन्ट्रैक्टर राज के जरिए होता है. कॉन्ट्रैक्ट सत्तारूढ़ दल के लोगों या उनके शुभचिंतकों को मिलते हैं. समाजवादी पार्टी के दौर में अधिकांश निर्माण पार्टी के लोगों के हाथ में थे. बसपा के दौर में वर्ग विशेष के लिए ठेके आरक्षित कर दिए गए थे.

सरकार के विभागों को सामान की आपूर्ति और सरकार के बदले नागरिक सेवाओं (टोल, पार्किंग, राजस्व वसूली, बिजली बिल वसूली) का संचालन कारोबारों का अगला बड़ा वर्ग है, जिसके जरिए सत्तारूढ़ राजनैतिक दल अपने खैरख्वाहों को उनका मेहनताना देते हैं. करीब 29 गैर धात्विक खनिज राज्यों के मातहत हैं, जिनकी बिक्री में अकूत कमाई है. इनके ठेके हमेशा सत्ता के राजनैतिक चहेतों को मिलते हैं

निर्माण, सेवाओं और खनन के ठेके राज्यों में सबसे बड़े कारोबार हैं. राज्यों की राजनीति का बिजनेस मॉडल इन्हीं पर आधारित है. इन अवसरों को हासिल करने के लिए किसी को किसी भी पार्टी में जाने में कोई गुरेज नहीं है. राज्यों की राजनीति में समर्थक जुटाने, बढ़ाने और पालने का सिर्फ यही एक जरिया है.

राज्यों की राजनीति का बिजनेस मॉडल पिरामिड जैसा है, जिसमें शिखर पर चुने हुए प्रतिनिधि यानी सांसद और विधायक हैं. भाजपा के पास 323 विधायक और 71 सांसद हैं. व्यावहारिक सच यह है कि हर सांसद, विधायक और प्रमुख नेता के पास 15 से 20 लोग ऐसे हैं जिनकी मदद के बिना उनकी राजनीति मुमकिन नहीं है. यानी कि उत्तर प्रदेश भाजपा में लगभग 5 से 10,000 लोग सत्ता से सीधे फायदों की तरफ टकटकी लगाए हैं. इनके नीचे वे लोग आते हैं जिन्हें छोटे फायदों और अवसरों की उम्‍मीद है

सपा और बसपा ने उत्तर प्रदेश में अब तक इसी मॉडल के जरिए राजनीति की है जिसने राज्य के विकास को हर तरह से दागदार कर दिया. ध्यान रहे कि भाजपा से जुड़ रहे अधिकांश नए लोग इन्हीं अवसरों से आकर्षित हो रहे हैं. 

योगी आदित्यनाथ की शुरुआत भव्य थी लेकिन चमकदार नहीं. दूसरे दलों से आए प्रमुख नौ नेता एक मुश्त मंत्री बन गए, जो भाजपा को लेकर पिछले नजरिए और बयानों के बारे में पूछने पर बेशर्मी से हंस देते हैं. यह नेता सिर्फ नए अवसरों की तलाश में या अवसरों को बचाने की गरज से भाजपा में आए और रेवडिय़ां पा गए.

क्या योगी उत्तर प्रदेश में सियासी कॉन्ट्रैक्टर राज खत्म कर पाएंगे?

क्या वे भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं को ठेका, पट्टा कारोबार और सरकारी मेवे से दूर रख पाएंगे?

योगी ने सरकारी निगमों व समितियों से सपा के लोगों को बेदखल कर दिया है. क्या भाजपा के लोगों को इन पर बिठाने से खुद को रोक पाएंगे?
दरअसल, उन्हें उत्तर प्रदेश में विकास के इस मॉडल को शीर्षासन कराना होगा.


योगी आदित्यनाथ यदि ऐसा कर सके तो उत्तर प्रदेश विकास के उस आंदोलन की पहली प्रयोगशाला बन जाएगा जिसकी पुकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लगाई है.