नोटबंदी के दौरान
लाइनों में खड़े होने की लानत याद है? इनकम टैक्स का रिटर्न भरा होगा तो फॉर्म देखकर सिर घूम गया
होगा! ध्यान रखिएगा आप ऐसे देश में हैं जहां ईमानदारी के भी कई पैमाने हैं. सरकार
आपसे जितनी सूचनाएं मांगती है, उसकी एक फीसदी भी जानकारी उनसे
नहीं मांगी जाती जिन्हें हम अपने सिर-आंखों बिठाते हैं. पारदर्शिता का पूरा ठेका
सिर्फ आम लोगों पर है, राजनैतिक दल, जिनकी गंदगी जन्म
से पवित्र है, वे अब विदेश से
भी गंदगी ला सकते हैं. मोदी सरकार ने संसद से कहला दिया है कि सियासी दलों से कोई कुछ नहीं पूछेगा. उनके पिछले धतकर्मों के बारे में
भी नहीं.
राजनैतिक दल भारत
में भ्रष्टाचार के सबसे दुलारे हैं. संसद ने भी खुद पर
देश के विश्वास का एक शानदार नमूना पेश किया है. सरकार ने वित्त विधेयक 2018 के जरिए
राजनैतिक दलों के विदेशी चंदों की जांच-पड़ताल से
छूट देने का प्रस्ताव रखा था, जिसे संसद ने बगैर बहस के मंजूरी दे दी.
जनप्रतिनिधित्व
कानून में इस संशोधन के बाद राजनैतिक दलों ने 1976 के बाद जो भी विदेशी चंदा लिया होगा, उसकी कोई जांच
नहीं होगी!
यकीन नहीं हो रहा
है न? ईमानदारी की
गंगाजली उठाकर आई सरकार ऐसा कैसे कर सकती है?
दरअसल, संसद की मंजूरी
के बाद राजनैतिक चंदों को भ्रष्टाचार की बिंदास छूट देने का अभियान पूरा हो गया
है. अब देशी और विदेशी, दोनों तरह के राजनैतिक
चंदे जांच-पड़ताल से बाहर हैं.
कैसे?
आइए, आपको सियासी
चंदों के गटर की सैर कराते हैं:
· अटल बिहारी
वाजपेयी सरकार ने पहली बार राजनैतिक चंदे को वीआइपी बनाया था जब कंपनियों को खर्च
की मद में चंदे को दिखाकर टैक्स में छूट लेने की इजाजत दी गई. ध्यान रहे कि सियासी
दलों के लिए चंदे की रकम पर कोई टैक्स नहीं लगता. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स के आंकड़े बताते हैं कि 2012-16 के बीच पांच
प्रमुख पार्टियों को 945 करोड़ रु. चंदा
कंपनियों से मिला. यह लेनदेन पूरी तरह टैक्स फ्री है, कंपनियों के लिए
भी और राजनैतिक पार्टियों के लिए भी.
· कांग्रेस की
सरकार ने चंदे के लिए इलेक्टोरल ट्रस्ट बनाने की सुविधा दी, जिसके जरिए
सियासी दलों को पैसा दिया जाता है.
· नोटबंदी हुई तो
भी राजनैतिक दलों के नकद चंदे (2,000 रु. तक) बहाल रहे.
· मोदी सरकार ने एक
कदम आगे जाते हुए, वित्त विधेयक 2017 में कंपनियों के
लिए राजनैतिक चंदे पर लगी अधिकतम सीमा हटा दी. इससे पहले तक कंपनियां अपने तीन साल
के शुद्ध लाभ का अधिकतम 7.5 फीसदी हिस्सा ही
सियासी चंदे के तौर पर दे सकती थीं. इसके साथ ही
कंपनियों को यह बताने की शर्त से भी छूट मिल गई कि उन्होंने किस दल को कितना पैसा
दिया है.
· विदेशी चंदों की
खिड़की खोलने की शुरुआत भी मोदी सरकार ने 2016 में वित्त विधेयक के जरिए की थी जब विदेशी मुद्रा चंदा
कानून (एफसीआरए) को उदार किया गया था.
· ताजे संशोधन के
बाद सियासी दलों के विदेशी चंदों की कोई पड़ताल नहीं होगी, अगर पैसा ड्रग कार्टेल
या आतंकी नेटवर्क से आया हो तो?
· सियासी चंदों के
खेल में कुछ बहुत भयानक गंदगी है, इसीलिए तो 1976 के बाद से सभी विदेशी चंदे संसद के जरिए जांच से बाहर कर
दिए गए हैं. इससे पहले 2016 के वित्त विधेयक
के जरिए सरकार ने विदेशी चंदा कानून के तहत विदेशी कंपनी की परिभाषा को उदार किया था और यह बदलाव 2010 से लागू किया गया था. 2014 में दिल्ली
हाइकोर्ट ने भाजपा और कांग्रेस, दोनों को विदेशी चंदों के कानून के उल्लंघन का दोषी पाया
था. ताजा बदलाव के बाद दोनों पार्टियां चैन से चंदे की चिलम फूंकेंगी.
किस्सा कोताह यह
कि ताजा बदलावों के बाद सभी तरह के देशी और विदेशी राजनैतिक चंदे जांच से परे यानी
परम पवित्र हो गए हैं.
जो सरकार विदेशी
चंदे के नियमों के तहत पिछले एक साल में 5,000 स्वयंसेवी संगठनों को बंद कर सकती है, कंपनियों से
किस्म-किस्म के रिटर्न भरने को कहती है, और आम लोगों को सिर्फ नोटबंदी की लाइनों में मरने को छोड़
देती है, वह राजनैतिक चंदे
को हर तरह की रियायत देने
पर क्यों आमादा है?
राजनैतिक दल
कौन-सी जन सेवा कर रहे हैं?
हमें खुद से जरूर
पूछना चाहिए कि क्या हर चुनाव में हम देश के सबसे विराट और चिरंतन घोटाले को वोट
देते हैं?