भरोसा जुटाने के लिए चिदंबरम को निर्ममता के साथ पिछले वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के बजटों को गलत साबित करना होगा।
यह महासंयोग कम ही बनता है जब सियासत के पास खोने के लिए कुछ न हो और अर्थव्यवस्था भी अपना सब कुछ गंवा चुकी हो। भारत उसी मुकाम पर खड़ा है जहां सत्तारुढ़ राजनीति अपनी साख व लोकप्रियता गंवा चुकी है और अर्थव्यवस्था अपनी बढ़त व ताकत। 2013 का बजट इस दुर्लभ संयोग की रोशनी में देश के सामने आएगा। यह अपने तरह का पहला चुनाव पूर्व बजट है जिससे निकलने वाले राजनीतिक फायदे इस तथ्य पर निर्भर होंगे बजट के बाद आर्थिक संकट बढ़ते हैं या उनमें कमी होगी। इस बजट के लिए आर्थिक सुधारों का मतलब दरअसल पिछले बजटों की गलतियों का सुधार है। चिदंबरम मजबूर हैं, वोटर और निवेशक, दोनों का भरोसा जुटाने के लिए उन्हें निर्ममता के साथ पिछले वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के बजटों को गलत साबित करना होगा। मुखर्जी ने तीन साल में करीब एक लाख करोड़ के नए टैक्स थोपे थे जिनसे जिद्दी महंगाई, मरियल ग्रोथ, रोजगारों में कमी और वित्तीय अनुशासन की तबाही निकली है। प्रणव मुखर्जी के आर्थिक दर्शन को सर के बल खड़ा करने के बाद ही चिदंबरम