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Saturday, July 13, 2019

जिएं तो जिएं कैसे


प्रत्‍येक बड़ा कारोबार कभी न कभी छोटा ही होता है. इस ग्लोबल सुभाषित की भारतीय व्याख्या कुछ इस तरह होगी कि भारत में हर छोटा कारोबार छोटे रहने को अभिशप्तहोता है. आमतौर पर या तो वह घिसट रहा होता है, या फिर मरने के करीब होता है. यहां बड़ा कारोबारी होना अपवाद है और छोटे-मझोले बने रहना नियम. कारोबार बंद होने की संभावनाएं जीवित रहने की संभावनाओं की दोगुनी होती हैं.

भारत में 45 साल की रिकॉर्ड बेकारी की वजहें तलाशते हुए सरकारी आर्थिक समीक्षा को उस सच का सामना करना पड़ा है जिससे ताजा बजट ने आंखें चुरा लीं. यह बात अलग है कि बजट उसी टकसाल में बना है जिसमें आर्थिक समीक्षा गढ़ी जाती है.

सरकार का एक हाथ मान रहा है कि भारत की बेरोजगारी अर्थव्यवस्था के केंद्र या मध्य पर छाए संकट की देन है. कमोबेश स्व-रोजगार पर आधारित खेती और छोटे व्यवसाय अर्थव्यवस्था की बुनियाद हैं जो किसी तरह चलते रहते हैं जबकि बड़ी कंपनियां अर्थव्यवस्था का शिखर हैं जिनके पास संसाधनों और अवसरों का भंडार है. इन्हें कोई खतरा नहीं होता. रोजगारों और उत्पादकता का सबसे बड़ा स्रोत मझोली कंपनियां या व्यवसाय हैं जिनमें 25 से 100 लोग काम करते हैं. बड़े होने की गुंजाइश इन्हीं के पास है. इनके लगातार सिकुड़ने या दम तोड़ने के कारण ही बेरोजगारी गहरा रही है.

मध्यम आकार की कंपनियों का ताजा हाल दरअसल संख्याएं नहीं बल्कि बड़े सवाल हैं, बजट जिनके जवाबों से कन्नी काट गया.

         संगठित मैन्युफैक्चरिंग के पूरे परिवेश में 100 से कम कर्मचारियों वाली कंपनियों का हिस्सा 85 फीसद है लेकिन मैन्युफैक्चरिंग से आने वाले रोजगारों में ये केवल 14 फीसद का योगदान करती हैं. उत्पादकता में भी यह केवल 8 फीसद की हिस्सेदार हैं यानी 92 फीसद उत्पादकता केवल 15 फीसद बड़ी कंपनियों के पास है.

         दस साल की उम्र वाली कंपनियों का रोजगारों में हिस्सा 60 फीसद है जबकि 40 साल वालों का केवल 40 फीसद. अमेरिका में 40 साल से ज्यादा चलने वाली कंपनियां भारत से सात गुना ज्यादा रोजगार बनाती हैं. इसका मतलब यह कि भारत में मझोली कंपनियां लंबे समय तक नहीं चलतीं इसलिए इनमें रोजगार खत्म होने की रफ्तार बहुत तेज है. अचरज नहीं कि नोटबंदी और जीएसटी या सस्ते आयात इन्हीं कंपनियों पर भारी पड़े.

निवेश मेलों में नेताओं के साथ मुस्कराते एक-दो दर्जन बड़े उद्यमी अर्थव्यवस्था का शिखर तो हो सकते हैं लेकिन भारत को असंख्य मझोली कंपनियां चाहिए जो इस विशाल बाजार में स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं की रीढ़ बन सकें. ऐसा न होने से बेकारी के साथ दो बड़ी असंगतियां पैदा हो रही हैं:

एकहर जगह बड़ी कंपनियां नहीं हो सकतीं. विशाल कंपनियों के बिजनेस मॉडल क्रमश: उनका विस्तार रोकते हैं. भारत की स्थानीय अर्थव्यवस्था में (पुणे, कानपुर, जालंधर, कोयंबत्तूर, भुवनेश्वर आदि) इसके विकास में संतुलन का आधार हैं. मझोली कंपनियां इन लोकल बाजारों में रोजगार और खपत दोनों को बढ़ाने का जरिया हैं.

दोमध्यम आकार की ज्यादातर कंपनियां स्थानीय बाजारों में खपत का सामान या सेवाएं देती हैं और आयात का विकल्प बनती हैं. यह बाजार पर एकाधिकार को रोकती हैं. मझोली कंपनियों के प्रवर्तक अब आयातित सामग्री के विक्रेता या बड़ी कंपनियों के डीलर बन रहे हैं जिससे खपत के बड़े हिस्से पर चुनिंदा कंपनियों का नियंत्रण हो रहा है जो कीमतों को अपने तरह से तय करती हैं.

पिछले एक दशक में सरकारें प्रोत्साहन और सुविधाओं के बंटवारे में स्थानीय और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के बीच संतुलन नहीं बना पाईं. रियायतें, सस्ता कर्ज और तकनीक उनके पास पहुंची जो पहले से बड़े थे या प्राकृतिक संसाधनों (जमीन, स्पेक्ट्रम, खनन) को पाकर बड़े हो गए. उन्होंने बाजार में प्रतिस्पर्धा सीमित कर दी. दूसरी तरफ, टैक्स नियम-कानून, महंगी सेवाओं और महंगे कर्ज की मारी मझोली कंपनियां सस्ते आयात की मार खाकर प्रतिस्पर्धा से बाहर हो गईं और उनके प्रवर्तक बड़ी कंपनियों के एजेंट बन गए.

यह देखना दिलचस्प है कि प्रत्यक्ष अनुभव, आंकड़े और सरकारी आर्थिक समीक्षा वही उपदेश दे रहे हैं जो एक चतुर और कामयाब उद्यमी अपनी अगली पीढ़ी से कहता है कि या तो घास बने रहो या फिर जल्द से जल्द बरगद बन जाओ. घास बार-बार हरी हो सकती है और बरगदों को कोई खतरा नहीं है. हर मौसम में मुसीबत सिर्फ उनके लिए है जो बीच में हैं यानी न जिनके पास गहरी जड़ें हैं और न ही मजबूत तने.

चुनावी चंदे बरसाने वाली बड़ी कंपनियों के आभा मंडल के बीच, सरकार नई औद्योगिक नीति पर काम कर रही है. क्या इसे बनाने वालों को याद रहेगा कि गुलाबी बजट की सहोदर आर्थिक समीक्षा अगले दशक में बेकारी का विस्फोट होते देख रही है. जब कामगार आयु वाली आबादी में हर माह 8 लाख लोग (97 लाख सालाना) जुड़ेंगे. इनमें अगर 60 फीसद लोग भी रोजगार के बाजार में आते हैं तो हर महीने पांच लाख (60 लाख सालाना) नए रोजगारों की जरूरत होगी.


Sunday, June 10, 2018

नई पहेली


गांव क्यों तप रहे हैं?

किसान क्यों भड़के हैं?

उनके गुस्से को किसी एक आंकड़े में बांधा जा सकता है?

आंकड़ा पेश-ए-नजर हैः

गांवों में मजदूरी की दर पिछले छह माह में गिरते हुए तीन फीसदी पर आ गई जो पिछले दस साल का सबसे निचला स्तर है. यह गांवों में खुशहाली को नापने का जाना-माना पैमाना है. चार साल की गिरावट के बाद, पिछले साल के कुछ महीनों के दौरान ग्रामीण मजदूरी बढ़ती दिखी थी लेकिन वेताल फिर डाल पर टंग गया है.

ठहरिए! यह गिरावट सामान्य नहीं है क्योंकि...

Ø पिछले साल मॉनसून बेहतर रहा और रिकॉर्ड उपज भी. इस साल भी अब तक तो बादल मेहरबान हैं ही

Ø  समर्थन मूल्यों में बढ़ोतरी इतनी भी बुरी नहीं रही.

Ø 2014 से अब तक आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान, कर्नाटक में किसानों के कर्ज माफ किए गए या किए जा रहे हैं.

Ø  पिछले एक साल में केंद्र और राज्यों ने गांवों में रिकॉर्ड (2009 के बाद सर्वाधिक) संसाधन डाले.

Ø और सस्ता आयात रोकने के लिए गेहूं, चीनी, खाद्य तेल के आयात पर कस्टम ड्यूटी (हाल में चीनी पर 100 फीसदी, चने पर 50 फीसदी, गेहूं पर 30 फीसदी) बढ़ाई गई.

फिर भी गांवों में कमाई गिर रही है!

कमाई कम होना केवल वोट वालों के लिए ही डरावना नहीं है, गांव के बाजार पर टिकी मोबाइल, बाइक, साबुन, तेल, मंजन, दवा, कपड़ा, सीमेंट बनाने वाली सैकड़ों कंपनियां भी पसीना पोछ रही हैं.

सरकार को उसके हिस्से की सराहना मिलनी चाहिए कि उसने पिछले चार साल में अन्य सरकारों की तर्ज पर खेती में जगह-जगह आग बुझाने की भरसक कोशिश की है. इन कोशिशों में समर्थन मूल्य को अधिकतम सीमा तक बढ़ाने का वादा शामिल है. किसानों की आय दोगुनी करने के इरादे के नीचे नीतियों की नींव नजर नहीं आई लेकिन यह मानने में हर्ज नहीं कि सरकार गांवों में घटती आय की हकीकत से गाफिल नहीं है. 

दरअसल, खेती की छांव में उम्मीदों को पोसती ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पिछले दो साल में एक पहेलीनुमा बदलाव हुआ है. बादलों की बेरुखी खेती को तोड़ती है लेकिन अच्छे मेघ से कमाई नहीं उगती. सरकार की मदद का खाद-पानी भी बेकार जाता है.

क्या ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्थाओं का एकीकरण, गांव में गहरी मंदी की वजह है?

आंकड़ों के भूसे से धान निकालने पर नजर आता है कि गांवों से शहरों के बीच श्रमिकों की आवाजाही, ताजी मंदी का कारण हो सकती है. इसे समझने के लिए हमें शहरों की उन फैक्ट्रियों-धंधों पर दस्तक देनी होगी जो अधिकांशतः श्रम आधारित हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था में इनका हिस्सा काफी बड़ा है.

2005 से 2012 के बीच बड़ी संख्या में गांवों से लोग शहरों में आए थे जब भवन निर्माण, ट्रांसपोर्ट जैसे कारोबार फल-फूल रहे थे. यही वह दौर था जब गांवों की कमाई में सबसे तेज बढ़ोतरी देखी गई.

ग्रामीण आय में गिरावट का ताजा अध्याय, शहरों में श्रम आधारित उद्योगों में मंदी की वंदना से प्रारंभ होता है. चमड़ा, हस्त शिल्प, खेल का सामान, जूते, रत्न-आभूषण, लकड़ी, कागज उद्योगों में नोटबंदी और जीएसटी के बाद गहरी मंदी आई. ये उद्येाग पारंपरिक रूप से श्रमिकों पर आधारित हैं. भवन निर्माण के सितारे तो 2014 से ही खराब हैं.

शुरुआती आंकड़े हमें इस आकलन की तरफ धकेलते हैं कि शहरी मंदी, गांवों की सबसे बड़ी मुसीबत है. पिछले दो साल में बड़े पैमाने पर शहरों से गांवों की ओर श्रमिकों का पलायन हुआ है. गांव में अब काम कम और मांगने वाले हाथ ज्यादा हैं तो मजदूरी कैसे बढ़ेगी? वहां जबरदस्त गुस्सा यूं ही नहीं खदबदा रहा है.

गांवों की अर्थव्‍यवस्था का बड़ा हिस्सा यकीनन अब शहरों पर निर्भर हो गया है इसलिए जीडीपी में रिकॉर्ड बढ़ोतरी (2017-18 की चौथी तिमाही) पर रीझने से बात नहीं बनेगी.

गांवों को अपनी खुशहाली वापस पाने के लिए शहरों की पटरी पर बैठकर लंबा इंतजार करना होगा. अब गांवों के अच्छे दिन शहरों से मंदी खत्म होने पर निर्भर हैं. शहर में धंधा-रोजगार बढ़ेगा तब गांव में बारात चढ़ेगी. तेल की महंगाई, ऊंची ब्याज दरों व कमजोर रुपए के बीच शहर के रोजगार घरों का ताला खुलने में लंबा वक्त लग सकता है 

अगर अच्छी फसल, कर्ज माफी और सरकारी कोशिशों के बावजूद शहरी मंदी ने गांव को लपेट ही लिया है तो फिर दम साध कर बैठिए, क्योंकि यह उलटफेर सियासत की तासीर बदल सकता है.

Sunday, February 12, 2017

नोटबंदी का बजट


नोटबंदी के नतीजों पर सरकार में सन्‍नाटे के बावजूद कुछ तथ्‍य

 सामने आ ही गए हैं

हिम्मतवर सरकारें अगर बड़े फैसले लेती हैं तो उन्हें फैसलों के नतीजे बताने से हिचकना नहीं चाहिए. नोटबंदी ने रोजगार से लेकर कारोबार तक सबका बजट बिगाड़ दिया तो इससे सरकार को भरपूर टैक्स या फिर रिजर्व बैंक से मोटा लाभांश जरूर मिलने वाला होगा! लेकिन बजट भी गुजर गया अलबत्ता नोटबंदी के फायदे-नुक्सान को लेकर न तो सरकार का बोल फूटा, न ही रिजर्व बैंक ने आंकड़े बताने की जहमत उठाई.

नोटबंदी को बिसारने की तमाम कोशिशों के बावजूद बजट और आर्थिक समीक्षा नोटबंदी से जुड़े कुछ तथ्य सामने लाती है. अगर उन्हें एक सूत्र में बांधा जाए तो हमें एहसास हो जाएगा कि नोटबंदी पर बेखुदी बेसबब नहीं है, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.
तीर!
कहावत है जिसकी नाप-जोख नहीं हो सकती, उसे संभालना भी असंभव है. वित्त मंत्री कह चुके हैं कि नकद काले धन का कोई ठोस आकलन उपलब्ध नहीं है. तो 500 और 1000 के नोट बंद करने और 86 फीसदी नकदी को एकमुश्त अवैध करार देने का इतना बड़ा निर्णय किस आकलन पर आधारित था?
आर्थिक समीक्षा की मानें तो करेंसी नोटों का सॉयल रेट (नोटों के गंदे होने और कटने-फटने की दर) इस फैसले का आधार था. सॉयल रेट नोटों के इस्तेमाल की जानकारी देता है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, 500 रु. से नीचे के मूल्य वाले नोट में सॉयल रेट 33 फीसदी सालाना है यानी 33 फीसदी गंदे कटे-फटे नोट हर साल बदल जाते हैं. 500 रु. के नोट में सॉयल रेट 22 और 1000 रु. के नोट में 11 फीसदी है.
समीक्षा ने दुनिया के अन्य देशों में सॉयल रेट को भारत में बड़े नोटों के प्रचलन पर लागू करते हुए निष्कर्ष निकाला है कि नोटबंदी से पहले करीब 3 लाख करोड़ रु. के बड़े नोट ऐसे थे जिनका भरपूर इस्तेमाल लेन-देन में नहीं होता था. इस राशि को क्या काली नकदी माना जा सकता है जो जीडीपी के दो फीसदी के बराबर है?
इस सवाल पर समीक्षा मौन है अलबत्ता वह नकदी के दो आयाम बताती है.
सफेद धनः रसीद काटकर और टैक्स की घोषणा के बाद कर्मचारियों को दिया गया नकद वेतन या घरों में आकस्मिकता के लिए रखा गया धन.
काला धनः छोटी कंपनियां या व्यापारी नकद में धन रखते हैं और चुनाव में चंदा देते हैं. 
निशाना!
बजट के आंकड़े नोटबंदी के निशाने पर बैठने का प्रमाण नहीं देते. टैक्स के आंकड़ों में एकमुश्त कोई बहुत बड़ी रकम मिलने का आकलन नहीं है, अलबत्ता आंकड़े इतना जरूर बताते हैं कि आयकर संग्रह में बढ़त की दर तेज रहेगी. नोटबंदी के बाद एडवांस टैक्स भुगतान लगभग 35 फीसदी बढ़ा है. अगले साल आयकर संग्रह में लगभग 25 फीसदी की बढ़त की उम्मीद है. यदि आकलन सही उतरे तो दो साल में करीब 1.5 लाख करोड़ रु. का अतिरिक्त आयकर मिल सकता है.
रिजर्व बैंक ने नहीं बताया है कि बड़े नोटों में कितना धन बैंकिंग सिस्टम से बाहर रह गया है इसलिए रिजर्व बैंक से मोटा लाभांश मिलने का आकलन उपलब्ध नहीं है
नुक्सान 
''नोटबंदी से नहीं कोई मंदी" का दम भरने के बावजूद सरकार ने मान लिया है कि ग्रोथ की गाड़ी पटरी से उतर गई है. आर्थिक समीक्षा बताती है कि नोटबंदी के चलते इस साल आर्थिक विकास दर में करीब एक फीसदी (पिछले साल 7.6) की गिरावट होगी. अगले साल भी विकास दर सात फीसदी से नीचे रहेगी. नोटबंदी से रोजगार घटा है, खेती में आय को चोट लगी है और नकद पर आधारित असंगठित क्षेत्र में बड़ा नुक्सान हुआ, लेकिन इसके आंकड़े सरकार के पास उपलब्ध नहीं हैं.
सरकार मान रही है कि नकदी का प्रवाह सामान्य होने के बाद बैंकों से जमा तेजी से बाहर निकलेगी, नोटबंदी से सरकार-रिजर्व बैंक की साख को धक्का लगा है और लोगों में भविष्य के प्रति असमंजस बढ़ा है.
हिसाब-किताब
नोटबंदी मौद्रिक फैसला था इसलिए फायदे-नुक्सान को आंकड़ों में नापना होगा. बजट और समीक्षा को खंगालने पर हमें इसके सिर्फ दो ठोस आंकड़े मिलते हैं.
फायदा
नोटबंदी के बाद इस साल के चार महीनों में और अगले साल के दौरान आयकर संग्रह में लगभग 1.5 लाख करोड़ रु. की बढ़त हो सकती है.
नुक्सान  
2016-17 में नोटबंदी से जीडीपी में एक फीसदी की कमी आएगी जो कि 1.5 लाख करोड़ रु. के आसपास है. रिजर्व बैंक के लिए नोटों की छपाई की लागत और बाजार में नकदी का प्रवाह संतुलित करने के लिए जारी बॉन्डों पर ब्याज को भी इसमें जोडऩा होगा.

अगर परोक्ष नुक्सान को गिनती में न लिया जाए तो  भी आयकर राजस्व में बढ़ोतरी का अनुमान जीडीपी के नुक्सान के बिल्कुल बराबर है.

बाकी आप खुद समझदार हैं.


Monday, January 25, 2016

मंदी की बैलेंस शीट


अगर मैन्युफैक्चरिंग सर्विसेज कंपनियों ने निवेश शुरू नहीं किए तो स्टार्ट-अप के पास न मांग होगी, न मुनाफा और तब इनके वैल्यूएशन बुलबुले बन जाएंगे.

स्टार्ट-अप इंडिया का मेक इन इंडिया से क्या रिश्ता है? वैसा ही जैसा कि मेक इन इंडिया का भारतीय खेती से है या फिर ग्रामीण अर्थव्यवस्था का शहरी और औद्योगिक अर्थव्यवस्था से है, क्योंकि ग्रामीण और कस्बाई मांग के बिना ऑटो, सीमेंट, खाद्य और उपभोक्ता उत्पादों का बाजार आज जैसी मंदी में डूब जाता है. भारत के सबसे ज्यादा वैल्यूएशन (शुद्ध कारोबार का औसतन सात गुना) वाले स्टार्ट-अप ई कॉमर्स से आते हैं. ई कॉमर्स भारत के विशाल उद्योग क्षेत्र के लिए छोटी-सी शॉपिंग मॉल जैसा है. दूसरी तरफ स्टार्ट-अप इंडिया के ग्राहक शहरी क्षेत्र से आते हैं जहां उद्योगों और इनसे जुड़ी सेवाएं ही रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत हैं.
बीते रविवार को प्रधानमंत्री जब लघु उद्योगों की नई पीढ़ी यानी स्टार्ट-अप के लिए सहूलियतों का अभियान शुरू कर रहे थे तब स्टार्ट-अप उद्यमियों की सूझ व साहस पर व वित्तीय जरूरतों की आपूर्ति पर संदेह नहीं था. सरकारी स्टार्ट-अप फंड का विचार उपजने (फंड अभी दूर है) से पहले इस महीने तक पिछले दो साल में वेंचर कैपिटल आधारित कंपनियों की फंडिंग 12 अरब डॉलर यानी करीब 80,000 करोड़ रुपए पर पहुंच गई. स्टार्ट-अप एग्रीगेटर टैक्स्कैन के मुताबिक, करीब 7.3 अरब डॉलर की फंडिंग तो 2015 में हुई है. इसलिए स्टार्ट-अप को पैसा कैसे मिलेगा, यह सवाल नहीं है बल्कि चुनौती तो यह है कि इन्हें बाजार मिलेगा या नहीं. अगर मैन्युफैक्चरिंग सर्विसेज में कंपनियों ने निवेश शुरू नहीं किया तो स्टार्ट-अप के पास न मांग होगी, न मुनाफा और तब इनके वैल्यूएशन बुलबुले बन जाएंगे जिसका डर सॉफ्टबैंक के प्रेसिडेंट और सीओओ निकेश अरोड़ा ने स्टार्ट-अप इंडिया के भव्य मंच से जाहिर भी किया.
स्टार्ट-अप इंडिया की सफलता के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली की जोड़ी को उस मंदी को तोडऩा है जो कंपनियों की बैलेंस शीट में बैठी है. पिछले दो साल में तमाम गंभीर कोशिशों और उससे गंभीर प्रचार के बावजूद अर्थव्यवस्था की चुनौती पिछले 18 माह में ज्यादा गहरा गई है. भारत में उद्योग, निर्माण और सेवाएं रोजगार के सबसे बड़े स्रोत हैं लेकिन यह मोर्चा तिल-तिल कर ढह रहा है. औद्योगिक ग्रोथ नवंबर में चार साल के सबसे निचले स्तर पर आ गई है. 2015-16 की पहली दो तिमाही में कंपनियों की कमाई 6 से 15 फीसद घटी. और यह गिरावट पिछले दो-तीन साल से जारी है. लगातार निर्यात मुश्किलें दोगुनी कर रहा है.
मेक इन इंडिया की कोशिशों और दो बजटों के बावजूद मोदी सरकार उद्योगों को नए निवेश के लिए क्यों राजी नहीं कर सकी? भारत का उद्योग जगत अब उस मंदी से घिर गया है जिसे तकनीकी जबान में बैलेंस शीट रिसेशन कहते हैं. यह पुरानी पारंपरिक मंदी से अलग और जटिल है. यह मंदी कंपनियों पर लदे कर्ज से उपजती है. नई अर्थव्यवस्था में अधिकांश निवेश निजी कंपनियां ही करती हैं. बैलेंस शीट रिसेशन के दौरान कंपनियां बुरी तरह कर्ज में दब जाती हैं इसलिए कंपनियां जो भी कमाई करती हैं, उसे कर्ज चुकाने में लगाती हैं, न कि नए निवेश में. ऐसी स्थिति में नया निवेश खत्म हो जाता है. ग्लोबल अर्थशास्त्री मानते हैं कि जापान की 1990 से 2005 तक की मंदी दरअसल कंपनियों की बैलेंस शीट को निचोड़ देने वाले उस कर्ज से उपजी थी जो उन्होंने बैंकों से ले रखा था. अमेरिका में 2007 से 2009 के बीच की मंदी भी बैलेंस शीट रिसेशन ही थी.
कर्ज ने भारत में कंपनियां की कमर तोड़ दी है. एक आर्थिक अखबार के अध्ययन के मुताबिक, 2014-15 के अंत में देश की 441 प्रमुख कंपनियां करीब 28.5 लाख करोड़ रुपए के कर्ज पर बैठी थीं जो देश की कुल 656 गैर वित्तीय कंपनियों के कर्ज का 98.1 फीसदी है. बीते दिसंबर में रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने कंपनियों को निवेश की राह में सबसे बड़ी मुसीबत यूं ही नहीं कहा था. कंपनियों के संचालन लाभ कर्ज पर ब्याज देने या चुकाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. ऐसा दबाव महसूस कर रही कंपनियों की संख्या 2009-10 में 16 थी जो तीन साल पहले 29 और अब 67 हो गई है. इसी तरह कंपनियों के निवेश पर रिटर्न भी 2014-15 में घटकर दशक के सबसे निचले स्तर 7.4 फीसद पर आ गया है. यही बैलेंस शीट रिसेशन है.
 याद कीजिए, ग्रोथ के लिए कर्ज पर ब्याज दरें घटाने की वह बहस जो पिछले साल खूब चली और तब ऐसा लगता था कि रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय, दोनों दो ध्रुवों पर हैं. अलबत्ता रिजर्व बैंक सही निकला. कंपनियों के कर्ज इस कदर बढ़ चुके हैं कि वे जो कमाई कर रही हैं, वह कर्ज चुकाने में जा रही है. दूसरी तरफ, बैंक बकाया कर्जों के पहाड़ तले दब गए हैं. यही वजह है कि ब्याज दर में कमी के बावजूद न निवेश बढ़ा, न ग्रोथ. इसके साथ ही यह समझ में आ गया कि इस मंदी का इलाज सस्ता कर्ज है ही नहीं क्योंकि जिस वजह से कंपनियां बीमार हैं उसे बढ़ाने वाली दवा वह क्यों लेंगी.

अगर वित्त मंत्री इस सच से इत्तेफाक रखते हैं तो इस मंदी का इलाज बजट को ही निकालना होगा. सरकार बदलने से सब कुछ बदल जाने के ख्यालीपुलाव की महक अब खत्म हो रही है और औद्योगिक उत्पादन, निर्यात, खेती की उपज, शेयर बाजारों में गिरावट की तल्ख हकीकत सामने आ चुकी है तो उन्हें बजट का पूरा गणित बदलना होगा. मोदी सरकार के पिछले दो बजटों में मंदी खत्म करने को लेकर बड़ी निर्णायक रणनीति नजर नहीं आई. सिर्फ खर्च रोककर और टैक्स बढ़ाकर घाटे को संभालने की कोशिश सफल हुई लेकिन इन बजटों से मांग की कमी और उस मंदी का इलाज नहीं हुआ जो कंपनियों की बैलेंस शीट में पैठ गई है. आधुनिक इकोनॉमी यानी स्टार्ट-अप, पुरानी इकोनॉमी यानी मेक इन इंडिया और खेती अब तीनों सरकार से मंदी का इलाज करने वाला ड्रीम बजट चाहते हैं क्या वित्त मंत्री बड़ी परियोजनाएं, खर्च में तेज बढ़ोतरी और टैक्सों में कमी दे सकेंगे? अगर यह साहस नहीं दिखा तो वास्तविक अर्थव्यवस्था की ढलान स्टार्ट-अप इंडिया को बढऩे की तो छोड़िए, पांव टिकाने का मौका भी नहीं देगी. 

Monday, December 19, 2011

सुधारों की समाधि

मंदी से जूझने की तैयारी कर रहे हैं न, भारत के आर्थिक सुधारों की समाधि पर दो फूल चढा दीजिये, शांति मिलेगी। अब हम दुनिया की सबसे तेज दौड़ती अर्थव्‍यवस्‍था नहीं बल्कि सबसे तेजी से गिरती अर्थव्‍यवस्‍था हैं। सिर्फ तीन माह में भारत का औद्योगिक उत्‍पादन सर के बल जमीन में उलटा धंस गया है। है कोई दुनिया की उभरती अर्थव्‍यवस्‍था जो इतनी तेज गिरावट में हमसे मुकाबला कर सके। हमारे पास ग्रोथ में गिरावट, घरेलू मुद्रा का टूटना और महंगाई तीनों एक साथ मौजूद हैं। इस आर्थिक सत्‍यानाश के लिए ग्रीस, इटली (संप्रभु कर्ज संकट) या अमेरिका (रेटिंग में गिरावट) को मत कोसिये। हम पर कर्ज का पहाड़ नहीं लदा था, कोई बैंक नहीं डूबा, बाढ़, भूकंप नहीं फट पड़े, सरकारें नहीं गिरीं। हमारी मुसीबतों की महागाथा तो आर्थिक सुधारों के शून्‍य, बहुमत वाली लुंज पुंज सरकार और अप्रतिम भ्रष्‍टाचार ने लिखी है। पिछले दो साल में भारत के आर्थिक सुधारों को भयानक लकवा लगा है इसलिए जरा मौसम बिगड़ते ही पूरी अर्थव्‍यव्‍स्‍था कई पहिये एक साथ रुकने लगे। दुर्भाग्‍य देखिये कि 2011 भारत के आर्थिक सुधारों का बीसवां बरस था और सुधारों के सूत्रधार ही गद्दीनशीन थे मगर उनके निजाम ने ही ग्रोथ के पांव काट कर उसे अपाहिज बना दिया।
उम्‍मीदों का गर्भपात  
ग्रोथ तो पिछली छह तिमाही से तिल तिल कर मर रही है, कोई देखे तब न। संसद स्‍थायी शूनयकाल में है और मनमोहन सरकार दो साल से आर्थिक सुधारों का शोक गीत गा रही है। इस सरकार के पांच आर्थिक सुधार गिनाना मुश्किल है अलबत्‍ता सुधारों के गर्भपात की सूची आनन फानन में बन सकती है। कुछ बड़ी दुर्घटनायें इस प्रकार