बीमारी तो चली जाएगी लेकिन ‘महामारी’! करीब 80 बसंत देख चुके बाबा ने गांव लौटते मजदूरों को देखकर कपाल पर हाथ मारा तो लोग पूछ बैठे कौन-सी महामारी! बाबा बुदबुदाए, नहिं दरिद्र सम दुख...
अनुभव-पके बाबा ने जो लॉकडाउन के दौरान देखा था वही अब आंकड़ों में उभर रहा है. वर्षों बाद भारत में प्रति व्यक्ति आय में कमी (5.7 फीसद) हुई है जो जीडीपी में गिरावट (3.8 फीसद) से ज्यादा है. गरीबी की वापसी भारत की पूरी ग्रोथ गणित को बिगाड़ सकती है.
पांच ताजा तथ्य बताते हैं कि आत्मनिर्भर पैकेज के बाद सरकार यूं ही मनरेगा का नया मोदी संस्करण (25 स्कीमों को मिलाकर) नई ग्रामीण रोजगार योजना नहीं लाई और मुफ्त अनाज की स्कीम को तीन माह के लिए ऐसी ही नहीं बढ़ा दिया गया.
• अर्थव्यवस्था की समग्र आय में खेती का हिस्सा 18.2 फीसद है लेकिन अर्थव्यवस्था में समग्र मजदूरी और वेतन भुगतान में कृषि मजदूरी का हिस्सा केवल 8.2 फीसद है. खेती में 2012 से 17 के बीच बढ़ी हुई आय (जीवीए) का केवल 15.3 फीसद हिस्सा मजदूरी में गया. शेष पूंजी लगाने वालों के पास रह गया. खेती में उपज और कमाई बढ़ने से मजदूरी नहीं बढ़ी.
खेती जो सबसे ज्यादा कामगारों को अपनी छोटी सी पीठ पर लादे (जीडीपी में हिस्सा 14 फीसद, कुल कामगार 28 करोड़) है, वहां श्रम की आपूर्ति बढ़ने से मजदूरी और कम होनी है. सनद रहे कि करीब 5.6 करोड़ (मजदूर और भूमिहीन) किसा परिवारों ‘पीएम किसान’ की सीधी मदद नहीं मिलती.
• रोजगार का आंकड़ा देने वाली एजेंसी सीएमआइई और शिकागो यूनिवर्सिटी के सर्वे (5,800 परिवार 27 राज्य) के अनुसार, लॉकडाउन के दौरान, 88 फीसद ग्रामीण परिवारों की आय में कमी आई. 3,800 रुपए मासिक आय वाले परिवारों की हालत सबसे ज्यादा खराब है. 34 फीसद परिवार बाहरी मदद के बिना केवल एक हफ्ता काम चला सकते हैं और 30 फीसद के पास एक माह से ज्यादा की क्षमता नहीं है.
• लॉकडाउन के दौरान (दस करोड़ रोजगारों का नुक्सान) अकुशल श्रमिक, छोटे व्यापारी और दैनिक मजदूरों के काम बंद हुए. पिछले तीन माह में किसानों और कृषि मजदूरों की तादाद बढ़ी जबकि छोटे व्यापारी (पान, चाय, रेहड़ी) कम हुए–सीएमआइई
• कोविड से पहले शहरों में काम करने वाले श्रमिकों की औसत मासिक कमाई 11,000 रुपए (5,000 रुपए से 15,000 रुपए) थी. जिसमें करीब 7,000 रुपए वापस गांव पहुंचते थे (मार्ट ग्लोबल सर्वे) जो जीडीपी का करीब दो फीसद है. प्रवासी श्रमिकों की वापसी के साथ यह हस्तांतरण रुक जाएगा. दूसरी तरफ लौट रहे लोगों को मनरेगा में मिलने वाली मजदूरी, उनकी शहरी पगार की एक-चौथाई होगी.
• कोविड के बाद केंद्र की घोषणाओं में भीड़ में अगर सीधी मदद की तलाश की जाए तो 20 करोड़ महिला जनधन खातों में तीन माह में केवल 1,500 रुपए दिखते हैं, जो आठ दिन की मनरेगा मजदूरी के बराबर है. राज्यों की सहायताएं भी ऐसी ही प्रतीकात्मक हैं. अन्य स्कीमें पहले से चल रही हैं.
कंपनियां नाहक ही परेशान नहीं हैं. यह गरीबी साबुन, तेल, मंजन, दोपहिया वाहन, सस्ते कपड़ों, सोना-चांदी, इंटरनेट, भवन निर्माण सामग्री की मांग पर भारी पडे़गी. गांवों में मांग टूटेगी और शहरों की फैक्ट्रियों में रोजगार.
कोविड के बाद उभर रही गरीबी का एक परोक्ष चेहरा भी है. डिजिटल शिक्षा एक बड़ी आबादी को मुख्यधारा से बाहर कर देगी. चिकित्सा महंगी होकर और सीमित होने का खतरा है जबकि एक बड़ी आबादी नई तकनीकों की दहलीज पर ठिठक जाएगी.
नेल्सन मंडेला ठीक कहते थे गरीबी, रंगभेद और गुलामी की तरह प्राकृतिक नहीं है. यह मानव निर्मित है और इसे खत्म किया जा सकता है. भारत दुनिया का पहला देश है जिसने इतनी बड़ी संख्या में (2005-06 से
2015-16 के बीच करीब 27 करोड़) लोगों को गरीबी से बाहर निकाला. आबादी के प्रतिशत के तौर पर गरीबी करीब आधी यानी 55 फीसद से 28 फीसद (यूनडीपी रिपोर्ट 2018) रह गई. लेकिन यही संयुक्त राष्ट्र और विश्व बैंक मान रहे हैं कि कोविड बाद पूरी दुनिया में करीब 70 करोड़ से एक अरब लोग न्यू पुअर या नए गरीब होंगे. सरकार की मुफ्त अनाज स्कीम के 80 करोड़ लाभार्थियों को गिन लिया जाए तो फिर गरीबी का विस्फोट विश्व बैंक के आकलन से कहीं ज्यादा बड़ा हो सकता है.
मौसमी और तात्कालिक गरीबी को हटाने के बाद भी शहरों से आने वाली बचत की समाप्ति और ग्रामीण मजदूरी में कमी के बीच भारत में 10 से 35 करोड़ लोग गरीबी के दलदल में फिर धंस जाएंगे.
यह तादाद छोटी नहीं है. इस विभीषिका को रोकने लिए सीधी नकद सहायता और रोजगार संरक्षण तक सब कुछ किया जाना चाहिए. नहीं तो भारत के पिछले ढाई दशक की मेहनत बेकार हो जाएगी. सनद रहे कि गरीबी आती बहुत तेजी से है लेकिन इससे छुटकारे में पीढि़यां गुजर जाती हैं.