काले धन व महंगाई की बहसों में रिजर्व बैंक ने धमाकेदार इंट्री ली है। वह काली अर्थव्यवस्था से निबटने के लिए अपने तरीके आजमा रहा है और महंगाई से बेफिक्र राजनीति को नए फार्मूलों में बांध रहा है।
रिजर्व बैंक जैसा कोई केंद्रीय नियामक जब राजनीतिक
व व्यवस्थागत चुनौतियों से अपने तरीके जूझने लगता है तो सियासत के कबूतरों के
बीच बिल्लियां दौड़ जाती हैं। रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन ने यही किया है। 2005
से पहले के सभी करेंसी नोट का प्रचलन समाप्त करने के साथ रिजर्व बैंक ने काला धन
को रोकने की बहस को मौद्रिक रोमांच से भर दिया है। जबकि दूसरी तरफ ब्याज दरें तय करने
के लिए थोक की जगह खुदरा महंगाई को आधार बनाने की तैयारी शुरु हो गई है जो न केवल मौद्रिक
व्यवस्था में एक बड़ा क्रांतिकारी बदलाव है बल्कि इसके बाद उपभोक्ता महंगाई पर
नियंत्रण अगले कई वर्षों तक देश का सबसे बड़ा आर्थिक राजनीतिक सवाल बन जाएगा। यह
कदम उस वक्त सामने आए हैं जब काले धन के सबसे बड़े उत्सव यानी आम चुनाव की तैयारी
चल रही है और भारी महंगाई की तोहमतें सियासत का दम घोंट रही हैं। दोनों फैसलों का फलित
यह है कि देश में कर्ज लंबे समय तक महंगा रहेगा। यानी कि आर्थिक पारदर्शिता में बढ़त
और महंगाई में कमी के बिना सस्ते कर्ज की उम्मीद बेमानी है।