बैंकों ने होम लोन ब्याज की दर फिर घटा
दी. मकान कर्ज के तलबगार खुश हो सकते हैं लेकिन जो कर्ज लेने की हैसियत नहीं रखते
उन्हें परेशान करने वाली इससे बड़ी खबर कोई नहीं है.
मंदी से निकलने की जद्दोजहद में भारत दो नए
वर्गों में बंट रहा है. एक तरफ हैं चुनिंदा लोग जो कर्ज ले सकते हैं, क्योंकि वे उसे चुका भी सकते हैं और दूसरी तरफ वे लाखों लोग जो कर्ज
नहीं लेते या ले नहीं सकते लेकिन बैंकों में बचत रखते हैं, जिस पर ब्याज टूट रहा है.
बॉन्ड बाजार की घुड़की
बीते तीन माह में छह बार (2013 के बाद पहली बार) बॉन्ड बाजार ने सरकार
को घुड़की दी और सस्ती ब्याज दर पर कर्ज देने से मना कर दिया. इस घटनाक्रम का
हमारी बचत से गहरा रिश्ता है.
सरकार भारतीय कर्ज बाजार की पहली और सबसे
बड़ी ग्राहक है. बैंकों में अधिकांश बचत सरकार को कर्ज के तौर पर दी जाती है.
सरकार जिस दर पर पैसा उठाती है (अभी 6.15 फीसद दस
साल का बॉन्ड), हमें कर्ज उससे ऊंची दर पर (कर्ज लेने
वाले की साख के आधार पर ब्याज दरों में अंतर) मिलता है जबकि बचत पर ब्याज की दर
सरकारी कर्ज पर ब्याज से कम रहती है.
सरकार से वसूला जाने वाला ब्याज उसके कर्ज
की मांग से तय होता है. केंद्र सरकार अगले दो साल (यह और अगला) में करीब 25 लाख करोड़ रुपए का कर्ज लेगी, (राज्य अलग से) जो अब तक का रिकॉर्ड है.
यानी बैंकों के पास ज्यादा रिटर्न वाले कर्ज बांटने के लिए कम संसाधन बचेंगे.
मंदी का दबाव है इसलिए बैंकों को सरकार के
साथ और कंपनियों को भी सस्ता कर्ज देना है, नतीजतन बचत के ब्याज पर छुरी चल रही है. एफडी पर केवल 4.5 फीसद ब्याज मिल रहा है, अलबत्ता मकान के लिए ऐतिहासिक सस्ती दर पर (औसत 7 फीसद) कर्ज मिल रहा है.
हमने कमाई महंगाई
बैंकों को अपने सबसे बड़े ग्राहक (सरकार)
से कम इतना तो ब्याज चाहिए जो महंगाई से ज्यादा हो. पेट्रोल-डीजल, जिंसों की कीमत बढऩे से महंगाई बढ़ती जानी है. दूसरी तरफ, अपनी कमाई का 50 फीसद
हिस्सा ब्याज चुकाने पर खर्च कर रही सरकार को नए कर्ज चुकाने के लिए नए टैक्स
लगाने होंगे यानी और महंगाई.
महंगाई तो नहीं रुकती लेकिन रिजर्व बैंक
को कर्ज पर ब्याज दरें थाम कर रखनी हैं. नतीजतन, बैंक जमा लागत घटाने के लिए बचतों पर ब्याज काट रहे हैं. भारत की 51 फीसद वित्तीय बचतें बैंक (2018 रिजर्व
बैंक) में हैं. बचत पर रिटर्न महंगाई से ज्यादा होना चाहिए ताकि जिंदगी जीने की
बढ़ती लागत संतुलित हो सके. लेकिन इन पर मिल रहा ब्याज महंगाई से कम है.
जो कर्ज नहीं लेते उनकी मुसीबत दोहरी है.
एक तो नौकरियां गईं और पगार घटी और दूसरा जिन बचतों पर निर्भरता बढ़ी उन पर रिटर्न
टूट रहा है. लॉकडाउन के दौरान खर्च रुकने से बैंकों में बचत बढ़ी थी लेकिन इस
दौरान बचत पर नुक्सान पहले से कहीं ज्यादा हो गया.
बचत करने वालों का एक छोटा हिस्सा जो शेयर
बाजार में निवेश कर रहा है बस उसे ही फायदा है. बड़ी आबादी का सहारा यानी तयशुदा
(फिक्स्ड) रिटर्न वाले सभी बचत विकल्प बुरी तरह पिट चुके हैं. छोटी बचत स्कीमों
में पैसा लंबे समय के लिए रखना होता है, उनमें
बैंक जमा जैसी तरलता नहीं है.
भारत में बैंक ग्राहकों का महज 10-12 फीसद हिस्सा ही कर्ज लेता है, शेष तो बचत करते हैं जिनका नुक्सान बढ़ता जा रहा है. बचतों को टैक्स
प्रोत्साहन खत्म हो चुके हैं. नए बजट में पेंशन और ईपीएफ योगदान पर भी इनकम टैक्स
थोप दिया है.
पुराने लोग कहते थे कि बाजार में केवल दस
रुपए का ऊंट बिक रहा है लेकिन क्या उस ऊंट से इतना काम मिल सकेगा कि चारा खिलाने
के बाद कुछ बच सके. भारत में कर्ज का यही हाल है.
कर्ज सस्ता ही रहेगा लेकिन कैश फ्लो और
नियमित कमाई (महंगाई हटाकर) वाले ही इसके ग्राहक होंगे, जो ब्याज भरने के बाद खर्च के लिए कुछ बचा सकें. कंपनियों के लिए यह
आदर्श स्थिति है इसलिए शेयर बाजार में बहार है.
मंदी से भारत की वापसी ‘वी’ (V) की शक्ल में नहीं बल्कि बदनाम ‘के’ (K) की शक्ल में हो रही है. बचत, महंगाई, ब्याज और टैक्स के मौजूदा परिदृश्य में
आबादी का छोटा सा हिस्सा ही तेजी से आगे बढ़ेगा जबकि K का निचले हिस्से में मौजूद लाखों लोगों
के बढ़ती महंगाई और घटती कमाई के बीच मंदी में गहरे धंसने का खतरा है.
तेज ग्रोथ में भी भारत में बचत की दर कम
रही है. इनका आकर्षण लौटाने के लिए फिक्स्ड इनकम वाले नए विकल्प जरूरी हैं.
सरकारी कर्ज भी कम करना होगा. अर्थव्यवस्था को बचत चाहिए नहीं तो नोट छपेंगे और
महंगाई धर दबोचेगी.