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Monday, November 18, 2013

महंगाई का यंगिस्‍तान

बढ़ती कीमतों को आर्थिक समस्‍या मानने वाली दुनिया भारत में महंगाई का जनसंख्‍याशास्‍त्र बनता देख रही है।

दिल्‍ली के तख्‍त का ताज किसे मिलेगा यह उतना बड़ा सवाल नहीं है जितनी बड़ी पहेली यह है कि क्‍या भारत की सबसे बडी नेमत ही दरअसल उसकी सबसे बड़ी मुसीबत बनने वाली है। भारत की सबसे बड़ी संभावना के तौर

चमकने वाली युवा आबादी अब, समृद्धि की जयगाथा नहीं बल्कि मुसीबतों का नया अर्थशास्‍त्र लिखने लगी है। भारत की लंबी और जिद्दी महंगाई में इस यंगिस्‍तान की भूमिका अचानक बड़ी होने लगी है। एक तरफ उत्‍पादन व उत्‍पादकता में गिरावट और दूसरी तरफ खपत की क्षमताओं से लैस इस कार्यशील आबादी ने ताजा महंगाई को एक जटिल सामाजिक परिघटना बना दिया है। भारत में लोगों की कमाई को कोई पंख नहीं लगे हैं, लेकिन खपत में सक्षम आबादी बढ़ने से महंगाई की नींव में मांग व आपूर्ति में स्‍थायी असंतुलन का सीमेंट भर गया है। तभी तो रिकार्ड कृषि उत्‍पादन और ब्‍याज दरों में लगातार वृ‍द्धि के बावजूद जिद्दी महंगाई पिछले पांच साल से जीत का अट्टहास कर रही है और बढ़ती कीमतों को आर्थिक समस्‍या मानने वाली दुनिया भारत में महंगाई का जनसंख्‍याशास्‍त्र बनता देख रही है।
मिल्‍टन फ्रीडमैन ने बड़े ठोस विश्‍वास के साथ कहा था कि मुद्रास्‍फीति हर जगह और हमेशा एक मौद्रिक परिघटना है। खुले बाजार व मु्द्रास्‍फीति के विशेषज्ञ अमेरिकी अर्थविद फ्रीडमैन मानते थे कि सरकारें जितनी ज्‍यादा करेंसी छापेंगी मुद्रास्‍फीति उतनी ही बढ़ेगी। लेकिन बीसवीं सदी के इस वैचारिक पुरोधा को इक्‍कीसवीं सदी के पूर्वार्ध में गलत

Monday, November 5, 2012

सियासत बनाम सिद्धांत


भारत का आर्थिक प्रबंधन सिद्धांत और सियासत के बीच फंस गया है। आजाद भारत के इतिहास में पहली बार वित्‍त मंत्रालय और रिजर्व बैंक दो अलग अलग ध्रुवों पर खड़े हैं। इस सच से मुंह छिपाने से कोई फायदा नही कि देश की अर्थव्‍यवस्‍था चलाने पर राजकोषीय नियामक और मौद्रिक नियामक के बीच सैद्धांतिक मतभेद हैं। केंद्र सरकार सस्‍ते कर्ज की पार्टी चाहती है, ता‍कि शेयर सूचकांक में उछाल सरकारी आर्थिक प्रबंधन की साख कुछ तो सुधर जाए। अलबतता रिजर्व बेंक मौद्रिक सिद्धांत पर पर कायम हैं, वह ब्‍याज दरों को लेकर लोकलुभावन खेल नहीं करना चाहता। रिजर्व बैंक नजरिये पर वित्‍त मंत्री की झुंझलाहट लाजिमी है। सुब्‍बाराव ने अपने  मौ‍द्रिक आकलन पर टिके रह कर दरअसल ताजा आर्थिक सुधारों के गुब्‍बारे में पिन चुभा दी है और भारत की बुनियादी आर्थिक मुसीबतों को फिर बहस के केंद्र में रख दिया है। टीम मनमोहन सुधारों का संगीत बजाकर इस बहस से बचने कोशिश की कर रही थी।  
सुधारों की हकीकत   
रिजर्व बैंक ने ग्रोथ आकलन को ही सर के बल खडा कर दिया है। इस वित्‍त वर्ष में देश की आर्थिक विकास दर 6.5 फीसद नहीं बलिक 5.8 फीसद रहेगी। यह आंकडा़  सरकार के चियरलीडर योजना आयोग के उत्साही अनुमानों को हकीकत की जमीन सुंघा देता है । ठीक इसी केंद्रीय बैंक मान रहा है कि थोक मूल्‍यों की महंगाई इस साल 7 फीसदी से बढ़कर 7.5 फीसदी हो जाएगी। मतलब यह है कि खुदरा कीमतों में महंगाई की आग और भडकेगी। मौ‍द्रिक समीक्षा कहती है कि महंगाई के ताजे तेवर  खाद्य, पेट्रो उत्‍पादों दायरे से बाहर के हैं यानी कि अब मैन्‍युफैक्‍चरिंग क्षेत्र से महंगाई आ रही है जो एक जटिल चुनौती है। रिजर्व बैंक ने वित्‍त मंत्री चिंदबरम की फील गुड पार्टी की योजना ही खत्‍म

Monday, May 23, 2011

अब तो ग्रोथ पर बन आई

मुंबई में रिजर्व बैंक की छत से एक कौए ने ब्याज दरें बढ़ने के ऐलान के साथ महंगाई से डराने वाली प्रभाती सुनाई, तो दिल्ली में वित्त मंत्रालय की मुंडेर पर बैठे दूसरे कौए ने पेट्रो कीमतों में बढ़ोत्तडरी की हांक लगाते हुए कहा कि यह कैसी रही भाई? ... यह सुनकर स्टॉक एक्सचेंज की छत पर बैठा एक दिलजला कौआ चीखा, चुप करो अब तो ग्रोथ पर बन आई। यकीनन, अब भारत के तेज आर्थिक विकास पर बन आई है। महंगाई ने सात साल में कमाई गई सबसे कीमती पूंजी पर दांत गड़ा दिये हैं। तमाम संकटों के बावजूद टिकी रही हमारी चहेती ग्रोथ अब खतरे में है। रिजर्व बैंक कह चुका है कि महंगाई अब विकास को खायेगी। सरकार भी ग्रोथ बचाने के बजाय महंगाई बढ़ाने (पेट्रो मूल्य वृद्धि) में मुब्तिला है। ग्रोथ, बढ़ती कमाई और रोजगार के  सहारे ही पिछले तीन साल से महंगाई को झेल रहे थे लेकिन मगर हम महंगाई को अपनी तरक्की खाते देखेंगे। दहाई की (दस फीसदी) की विकास दर का ख्वाब चूर होने के करीब है।
हारने की रणनीति
हम दुनिया की सबसे ज्यादा महंगाई वाली अर्थव्यवस्थाओं में एक है और यह हाल के इतिहास का सबसे लंबी और जिद्दी महंगाई है। महंगाई के इन वर्षों में चुनाव न आते तो शायद सरकारें महंगाई से निचुडते आम लोगों को ठेंगे पर ही रखतीं। क्यों कि महंगाई से मुकाबला सियासत की गणित के तहत हुआ है। तभी तो बंगाल में वोट पड़ते पेट्रोल पांच रुपये बढ़ गया। बढ़ोत्तंरी अगर क्रमश: होती तो शायद दर्द कुछ कम रहता। पिछले तीन साल की महंगाई ने केंद्र के आर्थिक प्रबंधकों की दरिद्र दूरदर्शिता को उघाड़ दिया है। ताजा महंगाई ने हमें 2008-09 में पकड़ा था। याद कीजिये कि तब से प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, योजना आयोग के मुखिया, रिजर्व बैंक गवर्नर आदि ने कितनी बार यह नहीं कहा कि तीन माह में महंगाई काबू में होगी मगर तीन माह खत्म होने से पहले ही इन्हों ने अपनी बात वापस चबा कर निगल

Monday, May 2, 2011

तख्ता पलट महंगाई !

क सरकार ने दूसरी से खुसफुसाकर पूछा क्या इजिप्ट की बगावत यकीनन खाद्य उत्पादों की महंगाई से शुरु हुई थी? मुद्रा कोष (आईएमएफ) तो कह रहा है कि यमन व ट्यूनीशिया की चिंगारी भी महंगाई से भड़की थी।.. जरा देखो तो, महंगे ईंधन के कारण गुस्साये शंघाई के हड़ताली ट्रक वालों को सख्त चीन ने कैसे पुचकार कर शांत किया।... महंगाई के असर से तख्ता पलट ?? सरकारों में खौफ और बेचैनी उफान पर है। लाजिमी भी है, एक तरफ ताजे जन विप्ल‍वों की जड़ें महंगाई में मिल रही हैं तो दूसरी तरफ बढ़ती कीमतों का नया प्रकोप आस्ट्रेलिया से लेकर अमेरिका तक, चिली से चीन तक और रुस से चीन से अफ्रीका तक पूरी दुनिया को लपेट रहा है। पिछले छह माह में महंगाई एक अभूतपूर्व सार्वभौमिक आपदा बन गई है। मुद्रास्फीति से डरे अमेरिकी फेड रिजर्व के मुखिया बेन बर्नांके (सौ साल पुरानी परंपरा तोड़ कर) को बीते सप्ताह मीडिया को सफाई देने आना पड़ा। यूरोप में सस्‍ते कर्ज की दुकानें बंद हो गईं और चीन कीमतों महंगाई रोकने के लिए ग्रोथ गंवाने को तैयार है। भारत तो अब महंगाई की आदत पड़ गई है। भूमंडलीय महंगाई की यह हाल फिलहाल में यह सबसे डरावनी नुमाइश है। बढ़ती कीमतें यूरोप व अमेरिका में बेहतरी की उम्मीदों की बलि मांग रही हैं जबकि उभरती अर्थव्यवस्थाओं अपनी तेज ग्रोथ का एक हिस्सा इसे भेंट करना होगा। फिर भी राजनीतिक खतरे टलने की गारंटी नहीं है।
सबकी जेब में छेद
मंदी व संकटों से छिली दुनिया के जख्मों पर महंगाई का अभूतपूर्व नमक बरसने लगा है। महंगाई अब अंतरराष्ट्रीय मुसीबत है। पूरा आसियान क्षेत्र मूल्य वृद्धि से तप रहा है। वियतनाम, थाइलैंड, इंडोनेशिया, सिंगापुर में महंगाई तीन से दस फीसदी तक है। चीन में जब उपभोक्ता उत्पाद पांच फीसदी से ज्यादा महंगे हुए तो सरकार ने कीमतें बढ़ाने पर पाबंदी लगा दी। महंगाई से डरा चीन अपने युआन को मजबूत करने अर्थात निर्यात वृद्धि से समझौते को तैयार है। भारत दो साल 13 फीसदी महंगाई जूझ रहा है। रुस आठ फीसदी, यूरोजोन दो फीसदी, ब्रिटेन 3.3 फीसदी, पोलैंड तीन फीसदी