Showing posts with label GST & growth. Show all posts
Showing posts with label GST & growth. Show all posts

Saturday, August 10, 2019

सुधार की हार



Art- Asit 
ठीक ही कहते थे रोनाल्ड रेगनसरकारें समस्याओं का समाधान नहीं करतीं बल्कि उन्हें नए क्रम में पुनर्गठित कर देती हैंदो साल पुरानी भारत की दूसरी आजादी यानी जीएसटी को लेकर अगर आपको भी ऐसा ही महसूस होता है तो अब देश के संवैधानिक ऑडिटर यानी सीएजी को अपने दर्द से इत्तेफाक करता हुआ पाएंगे.

सीएजी ने जीएसटी की ‘समग्र असफलता’ का रिपोर्ट कार्ड संसद को सौंप दिया हैजिसे पढ़ते हुए बरबस 30 जून, 2017 की मध्य रात्रि याद आ जाती है जब जगमगाते संसद भवन और दिग्गजों से सजे सेंट्रल हॉल में युगांतरकारी जीएसटी अवतरित हुआ थाचैनल-चैनल घूमकर बधाई गाते हुए सरकार के मंत्री बता रहे थे कि जीएसटी के अवतार के बाद

·       कारोबार करना दुनिया में सबसे आसान हो जाएगा
·       टैक्स चोर तो दिखेंगे ही नहीं        
·       सरकार का खजाना भर जाएगा
·       देश की विकास दर में कम से दो फीसद का इजाफा तो तय समझिए 

जीएसटी पर सीएजी की ताजा रिपोर्ट 1991 के बाद भारत के सबसे बडे़ आर्थिक सुधार की श्रद्धांजलि है.

जीएसटी के तहत कारोबारी सहजता (ईज ऑफ डूइंग बिजनेसको तलाशने निकले सीएजी को क्या मिला?

ऑडिटर ने रजिस्ट्रेशन सिस्टम की पड़ताल से शुरुआत की जो करदाता के लिए जीएसटी के तिलिस्म का प्रवेश द्वार हैपता चला कि कई जरूरी सूचनाएं गलत भरी जा रही हैंयहां तक कि कंपोजिशन स्कीम (छोटे टैक्सपेयर के लिए टर्न ओवर आधारित जीएसटीका गलत फायदा लिया जा रहा है.

निर्माता और सप्लायर की इनवॉयस यानी बिल का शत प्रतिशत  (रियल टाइममिलान जीएसटी का सबसे बुनियादी सुधार था क्योंकि इसके आधार पर कच्चे माल पर चुकाया गया कर वापस (रिफंडहोना थायह व्यवस्था कभी लागू नहीं हो सकीनतीजतनजीएसटी में जमकर फ्रॉड हुएएक करदाता ने 6 लाख करोड़ रुके रिफंड का दावा कर दियाजिसे बाद में सुधारा गया.

पंजीकरणहिसाब-किताब (इनवॉयस मिलानकी तरह ही टैक्स भुगतान का सिस्टम भी घिसट रहा हैडेबिट क्रेडिट कार्ड से टैक्स भुगतान आज तक शुरू नहीं हुआइन असफलताओं के चलते औसतन 60 फीसद करदाता ही रिटर्न फाइल करते हैं.

सीएजी ने दुख के साथ सूचित किया कि जीएसटी आने के बाद कर ईमानदारी तो नहीं बढ़ी अलबत्ता चोरी काफी बढ़ गई है.

कर नियमों के पालननए करदाताओं और खपत (कर दरों में रियायत के कारणमें बढ़ोतरी की मदद से राजस्व बढ़ना था लेकिन यह सुधार तो सरकारी खजानों को बहुत महंगा पड़ा हैजीएसटी लागू होने से पहले (2016-17) में सरकार के राजस्व में बढ़ोतरी की दर 21.33 फीसद थी जो घटकर करीब एक-चौथाई यानी 5.80 फीसद (2017-18) रह गईजीएसटी में कई टैक्स शामिल किए गए थेउनसे मिलने वाले राजस्व की तुलना में केंद्र की जीएसटी से कमाई दस फीसद (2017-18) घट गई.

ऑडिटर की रिपोर्ट यह भी बताती है कि सरकार ने अंतर्राज्यीय कारोबार पर लगने वाले आइजीएसटी को राज्यों के साथ बांटने में संविधान के नियमों का उल्लंघन कियाइसमें कई राज्यों के साथ भेदभाव हुआ हैइस गफलत पर सीएजी की मुहर के बाद राज्य मुखर हो सकते हैं.

लगभग 122 पेज की यह रिपोर्ट नियमों में बार-बार बदलावजीएसटीएन में तकनीकी खामियांगलत गणनाओं की पड़ताल करते हुए कहती हैसरकार को यह समझना चाहिए था कि जीएसटी जैसे विशाल और जटिल सिस्टम में जरा सी चूक बड़े नुक्सान व असुविधा का सबब बनेगी लेकिन यहां तो दो साल से जीएसटी का संक्रमण पूरा होता ही नहीं दिख रहा है.

याद रखना जरूरी है कि उस मध्य रात्रि के जीएसटी अवतरण की गहमागहमी के बीच देश की विकास दर दो फीसद बढ़ने का सपना भी दिखाया गया थाजीएसटी में असंख्य बदलाव हुए लेकिन इस सुधार के बाद न केवल हर प्रमुख उत्पाद की खपत गिरी है बल्कि आर्थिक विकास दर हर तिमाही नए गड्ढे तलाश रही है.

सबसे गंभीर बात यह है कि वित्त मंत्रालय ने तमाम लानत-मलामत के बावजूद सीएजी को जीएसटी के अखिल भारतीय आंकड़े का ऑडिट करने की छूट नहीं दीसीएजी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि ये खामियां फील्ड ऑडिट के आधार पर पाई हैंइसलिए यह सीमित ऑडिट है.

सनद रहे कि जीएसटी कानून के प्रारंभिक प्रारूप की धारा 65 के तहत सीएजी को जीएसटी काउंसिल से सूचनाएं तलब करने का अधिकार था लेकिन अक्तूबर 2017 में जीएसटी काउंसिल ने इस सुधार की निगहबानी से सीएजी को दूर कर दिया. 

समझा जा सकता है कि सरकार जीएसटी से सीएजी को क्यों दूर रखना चाहती थी.

एक घटिया सुधार ने अर्थव्यवस्था के दो साल बर्बाद कर दिएजीएसटी का समग्र ऑडिट और इस विफलता पर सरकार की जवाबदेही अब लोकतंत्र का तकाजा है.


Tuesday, January 1, 2019

एक था जीएसटी



99 फीसदी सामान व सेवाओं पर 18 फीसदी तक जीएसटी! 
97 फीसदी सामान सेवाएं तो पहले इसी दायरे में हैं
तो क्रांतिकारी उदारता का  यशोगान! 

कभी दूध कुछ इस तरह फट जाता है कि उससे पनीर तो दूररायता भी नहीं बनता. जीएसटी का हाल अब कुछ ऐसा ही समझिए. भारत की दूसरी आजादी (जैसा कि संसद में अर्धरात्रि इसकी शुरुआत के वक्त कहा गया था) 18 माह में ऐसी प्रणाली में बदल गई है जिसके आर्थिक मकसद ध्वस्त हो चुके हैं. जीएसटी दम तोड़ता हुआ एक सुधार हैचुनाव से पहले जिससे सियासी लाभ की बची-खुची बूंदें निचोड़ी जा रही हैं.

जीएसटी का राजस्व‍ संग्रह लक्ष्य से मीलों दूर है और खजानों का हाल खस्ता है. अगर सरकार शुरू से ही दो टैक्स दरों वाला जीएसटी लेकर चली होती तो बात दूसरी थी लेकिन अब तो जटिलताओं का अंबार गढ़ा जा चुका है.

सरकार को ठोस तौर पर यह भी पता नहीं कि गुजरात चुनाव से लेकर आज तक जीएसटी में रियायतों के बाद उत्पादों या सेवाओं की कीमतें कम हुई भी हैं क्योंकि कंपनियां लागत बढऩे के कारण मूल्य बढ़ा रही हैं. जीएसटी के तहत मुनाफाखोरी रोकने वाला तंत्र अभी शुरू नहीं हुआ जिससे पता चले कि रियायतों का फायदा किसे मिला है.

रियायतों के असर से खपत या मांग बढऩे या कंपनियों का कारोबार बढऩे के प्रमाण भी नहीं हैं.

तो फिर अचानक इस टैक्स दयालुता की वजह

·       पिछले 18 माह में सरकार को एहसास हो गया है कि राजस्व के मामले में मासिक एक लाख करोड़ रु. के संग्रह का लक्ष्य फिलहाल मुश्किल है. सेवाओं से टैक्‍स संग्रह में कमी आई है. जीएसटी अब केवल बड़े निर्माता और सेवा प्रदाता (जो पिछली प्रणाली में भी प्रमुख करदाता थे) के कर योगदान पर चल रहा है. छोटे करदाता और नए पंजीकरण वाले कारोबारी रियायतों की मदद से टैक्स चोरी के पुराने ढर्रे पर लौट आए हैं.

·       जीएसटी में अभी औसतन 60 फीसदी कारोबारी रिटर्न भर रहे हैं. ई वे बिल लागू होने के बाद पारदर्शिता आने की उम्मीदें भी खेत रही हैं. चुनाव के मद्देजनर टैक्स चोरी पर सख्ती मुश्किल है.

·       जीएसटी की प्रणालियां व नियम अभी तक स्थिर नहीं हैं. रफू-पैबंद जारी हैं. 

·       इसलिए चुनाव से पहले सरकार ने दो काम किए एकरिटर्न फॉर्म सालाना रिटर्न (9को अगले साल तक के लिए टाल दिया. इसके बिना करदाताओं के हिसाब सुचारु (इनवॉयस मैचिंग) करना और टैक्स क्रेडिट संभव नहीं है. यही वजह है कि जीएसटी का अर्थव्यवस्था पर कोई सकारात्मक असर नहीं दिखा. दोजीएसटी तो चल नहीं रहा तो इससे कम से कम चुनावी फायदा ही हो जाए.

जीएसटी के सियासी इस्तेमाल का केंद्र सरकार के पास यह आखिरी मौका था. पिछले 18 महीने में देश का राजनैतिक भूगोल बदल गया है. जीएसटी काउंसिल में अब विपक्ष के राज्यों की संख्या बढ़ चुकी है इसलिए आगे सहमति मुश्किल होने वाली है. काउंसिल की हालिया बैठक में इसके संकेत भी मिले. विपक्ष शासित राज्यजीएसटी को सिरे से बदलने की बातें करने लगे हैं.

कभी किसी मंत्री ने कहा था कि देश में हवाई चप्पल या कार पर एक जैसा कर नहीं हो सकता (अब 99 फीसदी...) या जीएसटी देश से टैक्स चोरी को मिटा देगा अथवा इससे कारोबार की लागत कम होगी या इससे जीडीपी बढ़ जाएगा. आज सरकार इन पर सवाल भी सुनना नहीं चाहती.

क्या जीएसटी राज्यों के वैट जैसे भविष्य की तरफ बढ़ रहा हैअपने शुरुआती वर्षों (2005-08में सफलता के बादराजनीति और वित्तीय दिक्कतों के चलते राज्यों ने वैट का अनुशासन तार-तार कर दिया. हालांकि जीएसटी वैट से कहीं ज्यादा सुगठित है लेकिन जब केंद्र सरकार ही चुनावी राजनीति के खातिर इसके अनुशासन का मुरब्बा बना चुकी तो राज्य भी अनुशासन तोड़ेंगे. ई वे बिल में राज्य स्तरीय रियायतें इसका नमूना हैं.

इसी फरवरी में हमने लिखा था कि जीएसटी का सुधारवाद अब इतिहास की बात है. भारत का सबसे नया सुधार सिर्फ सात माह में पुराने रेडियो की तरह हो गयाजिसे ठोक-पीट कर चलाया जा रहा है. अठारह माह बाद इस रेडियो में अब केवल चुनावी प्रसारण चल रहे हैं. कहना मुश्किल है कि अगले साल जीएसटी का क्या होगा लेकिन 2019 लगते-लगते यह साबित हो गया है कि हमारी सियासत सुधारों की समझ और साहस सिरे से दरिद्र हैं.

Sunday, June 24, 2018

एक सुधार, सौ बीमार


  
 देर से आने वाले हमेशा दुरुस्त होंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है. जैसे जीएसटी. सरकार को लोगों का धन्यवाद करना चाहिए कि उन्होंने दुनिया के सबसे घटिया जीएसटी के साथ एक साल गुजार लिया जो कहने को दुनिया में सबसे नया टैक्स सुधार था.

 पहली सालगिरह पर हमें, टीवी पर जीएसटी की पाठशाला चलाते मंत्री, जीडीपी के एवरेस्ट पर चढ़ जाने का दावा करते अर्थशास्त्री, टैक्स चोरी को मौत की सजा सुनाते भाजपा प्रवक्ताओं और संसद में एक जुलाई की आधी रात के उत्सव को नहीं भूलना होगा, जिसे भारत की दूसरी आजादी कहा गया था.

जीएसटी, यकीनन भव्य था. वजह थी तीन उम्मीदें. एकखपत पर टैक्स में कमी, दोकारोबार में सहजता यानी लागत में बचत, तीनटैक्स चोरी पर निर्णायक रोक.  सुधारों को दो दशक बीत गए लेकिन ये तीन नेमतें हमें नहीं मिली थीं. तेज विकास दर और बेहतर राजस्व के लिए इनका होना जरूरी था.

जीएसटी नोटबंदी नहीं है कि इसके असर को मापा न जा सके. सबसे पहले सरकार से शुरू करते हैं.

-  पिछली जुलाई से इस मई तक औसत मासिक जीएसटी संग्रह 90,000 (केंद्र-राज्य सहित) करोड़ रु. रहा है. न्यूनतम 107 से 110 लाख करोड़ रु. हर माह चाहिए ताकि जीएसटी से पहले का राजस्व स्तर मिल सके. यह इस साल मुश्किल है.

राजस्व मोर्चे पर जीएसटी औंधे मुंह क्यों गिरा?

- क्योंकि देश में बहुत छोटे कारोबारियों को छोड़कर सभी पर जीएसटी लगाया जाना था. हर माह तीन रिटर्न भरे जाने थे. लागत में शामिल टैक्स की वापसी होनी थी. लेकिन जीएसटी ने तो पहले दिन से ही कारोबारी सहजता का पिंडदान करना शुरू कर दिया. मरियल नेटवर्क, किस्म-किस्म की गफलतें देखकर गुजरात चुनाव के पहले सरकार ने 75 फीसदी करदाताओं को निगहबानी से बाहर कर दिया. दर्जनों रियायतें दी गईं.

पहले तीन माह के भीतर वह जीएसटी बचा ही नहीं, सुधार मानकर जिसका अभिषेक हुआ था. जीएसटी का सुधार पक्ष टूटते ही इससे मिलने वाले राजस्व की गणित बेपटरी हो गई. 

तो फिर जीएसटी सुधार क्यों नहीं बन पाया?

- क्योंकि कारोबारी सहजता इसके डीएनए में थी ही नहीं. जीएसटी एक या दो टैक्स दरें लेकर आने वाला था, पांच दरें और सेस नहीं. पूरे तंत्र में जटिलताएं इतनी थीं कि जीएसटी के खिलाफ कारोबारी बगावत की नौबत आ गई.
जन्म से ही दुर्बल और पेचीदा जीएसटी ने तीन माह बाद ही सुधारों वाले सभी दांत दान कर दिए. और फिर लामबंदी, दबावों, असफलताओं के कारण 375 से अधिक बदलावों की मार से जीएसटी उसी नेटवर्क जैसा लुंज-पुंज हो गया जिस पर उसे बिठाया गया था. बड़ी मुश्किल से अंतरराज्यीय कारोबार के लिए ई वे बिल अब लागू हो पाया है.   

किस्सा कोताह यह कि जीएसटी अब निन्यानवे के फेर में है.

- जीएसटी ने सरकारों के खजाने का बाजा बजा दिया है. कारोबारी सहजता के लिए टैक्स दरों की असंगति दूर करना जरूरी है. वह तब तक नहीं हो सकता जब तक राजस्व संग्रह संतोषजनक न हो जाए.

- पेट्रो उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने की मंजिल भी अभी दूर है.

- टैक्स चोरी जीएसटी की सबसे बड़ी ताजा मुसीबत है, यानी जिसे रोका जाना था वह भरपूर है. अगर राजस्व चाहिए या उपभोक्ताओं को जीएसटी को फायदे देने हैं तो अब कारोबारियों पर सख्ती करनी होगी यानी उनकी नाराजगी को न्योता देना होगा.

कारोबारी दार्शनिक निकोलस नसीम तालेब ने अपनी नई किताब स्किन इन द गेम में कहा है कि हमारे आसपास ऐसे बहुत लोग हैं जो समझने या सुनने की बजाए समझाने की आदत के शिकार हैं. जीएसटी शायद सरकार की इसी आदत का मारा है. इसे बनाने वाले जमीन से कटे और जड़ों से उखड़े थे.

याद रखना होगा कि आर्थिक सुधार तमाम सतर्कताओं के बाद भी उलटे पड़ सकते हैं. दो माह पहले की ही बात है कि मलेशिया का जीएसटी, खुद भी डूबा और सरकार को भी ले डूबा. इसे भारत के लिए आदर्श माना गया था जो अपने भारतीय संस्‍करण की तुलना में हर तरह से बेहतर भी था.

जीएसटी नेटवर्क की विफलता ने पूरी दुनिया में डिजिटल इंडिया की चुगली की और इसकी ढांचागत खामियों ने सुधारों को लेकर सरकार की काबिलियत पर भरोसे की चूले हिला दी. जीएसटी की पहली छमाही देखकर विश्‍व बैंक को कहना पड़ा कि भारत का जीएसटी दुनिया में सबसे जटिल है. नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबराय बोल पड़े कि जीएसटी को स्थिर होने में दस साल लगेंगे.

एक साल बाद अब ताजा कोशिशें जीएसटी के संक्रमण को दूर करने यानी एक सुधार के नुकसानों को सीमित करने की हैं. जीएसटी खुद कब ठीक होगा इसका कार्यक्रम बाद में घोषित होगा

Tuesday, February 20, 2018

जीएसटी जैसे-तैसे

एक फरवरी 2018 भारत के लिए एक खास तारीख थी. इसलिए नहीं कि उस दिन बजट आया. वह तो हर साल आता है. यह भारत में विशाल अंतरराज्यीय कारोबार को एक सूत्र में पिरोने का दिन था. इस तारीख को द्वारका से दीमापुर और लेह से कोवलम तक कारोबारी सामान की आवाजाही सभी किस्म के अवरोधों से मुक्त होने वाली थी.

जीएसटी ई वे बिल?

सही पकड़े हैं. 

यह जीएसटी का सबसे जरूरी और दूरगामी हिस्सा था. यह वन नेशनवन सिस्टम की शुरुआत था. बस कंप्यूटर से निकला एक बिल और कहीं भी माल ले जाने की छूटन कोई परमिटन चेकपोस्ट! यही वजह थी कि बजट के दिन कारोबारियों की दिलचस्पी वित्त मंत्री के भाषण में नहीं बल्कि ई वे बिल में थी. 

एक फरवरी को बजट भाषण और जीएसटी नेटवर्क से ई वे बिल लेने की जद्दोजहद एक साथ शुरू हुई. बजट भाषण खत्म होने तक जीएसटी का नेटवर्क बैठ चुका था. कुछ राज्यों ने इस पर अमल रद्द करने का ऐलान कर दिया. शाम होते-होते टीवी स्टुडियो में जब बजट गूंज रहा थाउसी दौरान जीएसटी के अफसर एक ट्वीट टिकाकर घर को निकल लिए कि तकनीकी दिक्कतों के कारण ई वे बिल का क्रियान्वयन अनिश्चितकाल के लिए टाला जा रहा है.

और इस तरह देश को एक बाजार बनाने यानी जीएसटी का सबसे बड़ा मकसद भी खेत रहा.

शुरुआत के सात महीने बीतते-बीततेजीएसटी सुधार से चुनौती में तब्दील हो गया है.

- इस बजट में टैक्स की जो मार (कैपिटल गेंससीमा शुल्क में बढ़ोतरीसेस व सरचार्ज) हुई वह जीएसटी का नतीजा है. नेटवर्क की नाकामी से रिटर्न और टैक्स संग्रह का बुरा हाल पहले से था. इस बीच गुजरात चुनाव की चपेट में जीएसटी का ढांचा फेंट दिया गया. 95 फीसदी करदाताओं को रिटर्न भरने से रियायत मिली. नतीजतन पिछले सात माह में जीएसटी से राजस्व बढऩे की उम्मीदें ढह गईं.

- राज्यों को और ज्यादा नुक्सान हुआ. पिछली जुलाई से मार्च तक के लिए केंद्रीय बजट से राज्यों को 60,000 करोड़ रु. की भरपाई होगी और अगले साल 90,000 करोड़ रु. दिए जाएंगे. राजस्व में कमी और क्षतिपूर्ति ने वित्त मंत्री का घाटा नियंत्रण रिकॉर्ड दागदार कर दिया.

- सभी कारोबारियों को करदाता बनाने का मकसद पटरी से उतर गया है. जीएसटीएन की खामी95 फीसदी करदाताओं को तिमाही रिटर्न की सुविधा और एक फीसदी टैक्स व तिमाही रिटर्न वाली कंपोजिशन स्कीम के कारण केवल 30 फीसदी करदाता विस्तृत इनवॉयस रिटर्न भर रहे हैं. जीएसटी की गफलत से काफी बड़ा कारोबार टैक्स निगहबानी से बाहर है. 

- जीएसटी में पंजीकरण के शुरुआती आंकड़े सरकार के लिए उत्साहवर्धक हैं. करदाताओं की संख्या 50 फीसदी बढ़ी है. छोटे उद्योगों में एक-तिहाई लेन-देन कारोबारी इकाइयों के बीच हो रहा है. इससे कर नियम पालन कराना आसान है. हर राज्य को उसके औद्योगिक कारोबारी परिदृश्य के हिसाब से पंजीकरण मिले हैं. इससे किसी खास राज्य को नुक्सान या फायदे की आशंका खत्म हुई है. 

- अलबत्ता इन उपयोगी सूचनाओं के जरिए राजस्व बढऩे की उम्मीद कम है क्योंकि जीएसटी का क्रियान्वयन पटरी से उतर चुका है. ई वे बिल के जरिए देश भर में माल की आवाजाही की मॉनिटरिंग होनी थी जो टैक्स चोरी रोकने के लिए जरूरी है. सात-आठ लाख बिल प्रति दिन जारी करने वाला सिस्टम बनाने के लिए एनआइसी (सरकारी कंप्यूटर एजेंसी) को लगाया गया लेकिन यह कोशिश भी असफल रही.

बजट के बाद अपने साक्षात्कारों में वित्त‍ मंत्री ने कहा कि टैक्स नियमों के पालन में सख्ती के साथ जीएसटी का राजस्व बढ़ेगा. वित्त मंत्रालय का कहना है कि निगरानी बढ़ाकर एक लाख करोड़ रु. टैक्स वसूला जा सकता है. सरकार को जानकारी है कि इस सुधार में रियायतों का कोटा पूरा हो गया है. चुनावी डर के चलते दी गई सुविधाओं और तकनीकी खामियों के कारण टैक्स चोरी हो रही है. राजस्व में गिरावट के कारण जीएसटी में अगले सुधार (पेट्रो उत्पादअचल संपत्ति को शामिल करना) जहां के तहां ठहर गए हैं. 


जीएसटी को लेकर सरकार की राजनैतिक दुविधा ज्यादा बड़ी है. इसे पटरी पर लाने के लिए इंस्पेक्टर राज की वापसी यानी छोटे व्यापारियों पर सख्ती करनी होगी. गुजरात की जली सरकार चुनावों के साल यह जोखिम तो लेने से रही. इसलिए सीधे और आसानी से उगाहे जाने वाले टैक्स (इनकम टैक्ससेस और सीमा शुल्क) बढ़ा लिए गए हैंउपभोक्ता तो टैक्स चुका ही रहे हैंकारोबारी टैक्स देंगे या नहींइसका हिसाब चुनाव देखकर होगा. 

जिसका डर था वही हुआ है. भारत का सबसे नया सुधार सिर्फ सात माह में पुराने रेडियो की तरह हो गयाजिसे ठोक-पीट कर किसी तरह चलाया जा रहा है. जीएसटी का सुधारवाद अब इतिहास की बात है. 

Sunday, September 17, 2017

जीएसटी का इलाज


यदि कोई बंदर कंप्यूटर के की बोर्ड को लंबे वक्त तक लगातार मनचाहे ढंग से पीटता रहे तो वह कभी न कभी अक्षरों का ऐसा पैटर्न बना लेगा जो शेक्सपियर की कविता के करीब होगा.

बीसवीं सदी की शुरुआत में फ्रांस के गणितज्ञ जब इनफाइनाइट मंकी थ्योरी बना रहे थे (जिसे 2011 में अमेरिकी कंप्यूटर प्रोग्रामर ने वर्चुअल बंदरों की मदद से सही सिद्ध कर दिया) तब उन्हें यह कतई अंदाज नहीं रहा होगा कि 21वीं सदी में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे बड़ा टैक्स सुधार इस थ्योरी का उदाहरण बन जाएगा.

प्रधानमंत्री का गुड ऐंड सिंपल टैक्ससरकार और कारोबारियों के लिए इनफाइनाइट मंकी थ्योरी की साधना बन गया है. तीन महीने बाद पहला रिटर्न भरने के तरीकों पर शोध जारी है. आए दिन बदलते नियमों से जीएसटी की गुत्थी और उलझ जाती है.

वन नेशनवन टेंशन

भारत का सबसे बड़ा टैक्स सुधार गहरी मुश्किल में है जीएसटी खुद बीमार हो गया है और इससे कारोबार में भी बीमारी फैल गई है। 
  •  जीएसटी के सूचना तकनीक नेटवर्क (जीएसटीएन) के बिना जीएसटी लागू होना नामुमकिन है. यह नेटवर्क असफल सा‍बित हो गया है. रिटर्न भरने की भी तारीखें आगे बढ़ा दी गई हैं. इस नेटवर्क के भरोसे लाखों इनवॉयस मिलानेटैक्स  क्रे‍डिटमाल ले जाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक परमिट देनेकेंद्र और राज्य के बीच राजस्व बंटवारे का काम मुश्किल दिख रहा है.
  • जीएसटीएन की असफलता की पड़ताल के लिए राज्यों के वित्त मंत्रियों की समिति बनानी पड़ गई है. सनद रहे कि इस नेटवर्क की तैयारी को लेकर देश को लगातार गुमराह किया गया. शनिवार को बंगलौर में जीएसटी 'उपचार'  समिति की बैठक के बाद सरकार ने स्वीकार किया कि नेटवर्क में समस्‍यायें हैं जिन्‍हें दूर करने की कोशिश हो रही है.
  • उत्पादों और सेवाओं को विभिन्न दरों में बांटने वाली जीएसटी (फिटमेंट) कमेटी ने पर्याप्त तैयारीशोध और उद्योगों से संवाद नहीं किया. इसी गफलत के चलते जुलाई के तीसरे सप्ताह में सिगरेट कंपनी आइटीसी का शेयर एक दिन में 13 फीसदी टूट गया यानी निवेशकों को करीब 50,000 करोड़ रुपए का नुक्सान. यह हुआ सिगरेट पर जीएसटी लगाने की गलती से. पहले सिगरेट पर जीएसटी की दर कम रखी गई फिर गलती समझ में आई तो उसे बढ़ा दिया गया. यह पहला मामला नहीं था इसके बाद जीएसटी काउंसिल लगातार उत्पादों और सेवाओं पर टैक्स की दरें बदल रही है.
  •  नेटवर्क की विफलता और नियमों के फेरबदल से राजस्व संग्रह पर खतरा बढ़ गया है. राज्यों ने केंद्रीय जीएसटी में हिस्सा न मिलने की शिकायत की है. नाराज व्या‍पारी अदालतों से गुहार लगाने लगे हैं.
 विफलता के नतीजे  
  •  ऑनलाइन नेटवर्क की असफलता के कारण नियम पालन और टैक्स चोरी रोकने का मॉडल लडख़ड़ा गया है. अब अधिकांश कारोबार नकद और कच्चे बिल में हो रहा है.
  •   जटिलता और नेटवर्क की उलझनों के कारण जीएसटीकारोबारी सहजता (ईज ऑफ डूइंग बिजनेस) पर आतंकी हमले की तरह सामने आया है.
  •    उत्पादन और बिक्री बेहद सुस्त है. जीडीपी में गिरावट गहरी और लंबी हो सकती है.

सहजता ही इलाज है
इसी स्तंभ में हमने लिखा था जीएसटी बेहद जटिल है. 24 से लेकर 36 रिटर्न की शर्तों और पेचीदा नियमों से लंदे फंदे जीएसटी को ऐसे सूचना तकनीक नेटवर्क के हवाले किया गया है जिसका कायदे से परीक्षण भी नहीं हुआ. यह गठजोड़ की विफलता अर्थव्यवस्था के लिए विस्फोटक हो सकती है. अफसोस कि हम गलत साबित नहीं हुए.  
·   जीएसटी एक ऐसा सुधार है जो तीन माह में ही खुद बीमार हो गया है. इसका ढांचा बदले बिना इसे खड़ा कर पाना अब मुश्किल लगता है.
  •   जीएसटी को चलाना है तो रिटर्न और तमाम प्रक्रियाओं में बड़े पैमाने पर कमी की जरूरत है. सरकार को कारोबारियों पर हमेशा शक करने की आदत छोडऩी होगी. सरकार को यह तय करना होगा कि उसे कितनी सूचना चाहिए. हर छोटी-बड़ी सूचना हासिल करने की जिद हटाकर प्रक्रिया को आसान करना पड़ेगा.
  • छोटे और बड़े कारोबारियों के लिए नियम अलग-अलग तय करने नहीं तो गैर जीएसटी कारोबार बढऩे लगेगा या फिर छोटे कारोबार और व्यापार बंद होने की नौबत आ जाएगी. 
  • कर नियमों में आए दिन बदलाव रोकना होगा ताकि कारोबारी स्थायित्व को लेकर आश्वस्त हो सकें.
याद कीजिए 30 जून की मध्यरात्रि को संसद में हुए जीएसटी उत्सव को. उस जलसे को याद करने पर जीएसटी का ताजा हाल हमें शर्मिंदा करता है. सुधारों की शुरुआत कोई उत्सव नहीं होतीत्योहार तो उनकी सफलता पर मनाया जाता है.




मिल्टन फ्रीडमैन ठीक ही कहते थे: ‘‘सरकारें नसीहत नहीं लेतीसबक तो सिर्फ जनता को मिलते हैं.’’

Sunday, August 6, 2017

सावधान! जीएसटी असफल नहीं होगा


पनी तमाम दर्दभरी 'अच्छाइयों' और उलझन भरी 'सरलताओं' के बावजूद जीएसटी असफल नहीं होने वाला. अलबत्‍ता जीएसटी जिस कामयाबी से मुखातिब हैवह नोटबंदी से बिल्कुल विपरीत हो सकती है.
नोटबंदी आर्थिक और मौद्रिक रूप से बुरी तरह विफल रही. लेकिन 'गरीबों के लिए अमीरों को सजा' देने का राजनैतिक संदेश समझ में आने से पहले अपना काम बखूबी कर गया था.
जीएसटी की सफलता को महसूस करना मुश्किल होगा लेकिन इसे आर्थिक आंकड़ों में बताया जा सकेगा. अलबत्ता यह टैक्स सुधार राजनैतिक खतरों से लैस है. यह उन जगहों पर चोट करेगाजहां भारत के अधिकांश कामगारों को पनाह मिलती है.

कामयाबी का गणित
जीएसटी को सफल साबित करने वाले आंकड़ों की कमी नहीं होने वाली. जीएसटी की पहली सफलता राजस्व में बढ़ोतरी से नापी जाएगी.
सरकारें कमाएंगी
 जीएसटी का डिजाइन सरकारों की कमाई में वृद्धि के लिए बना है. 60 फीसदी उत्पाद और सेवाएं 18 व 28 फीसदी के ऊंचे टैक्स स्लैब में हैं. राजस्व के सबसे बड़े स्रोत यानी पेट्रो उत्पादअचल संपत्ति और मोटर वाहन पंजीकरण जीएसटी से बाहर हैं. इनपुट टैक्स क्रेडिट के लिए संगठित क्षेत्र के ज्यादा विनिमय जीएसटी में दर्ज होंगेइसलिए राजस्व के आंकड़े चमकेंगे.
पुरानी व्यवस्था में टैक्स क्रेडिट फ्रॉड से एक लाख करोड़ रु. तक का नुक्सान होता था. जीएसटी के साथ यह बंद हो जाएगा.
पुरानी प्रणाली के तहत केंद्र और राज्यों में करीब 85 लाख करदाता पंजीकृत थे. टैक्स छूट सीमा कम होने और एक कंपनी के कई प्रतिष्ठानों को रजिस्टर कराने की शर्त के जरिए करदाताओं की संख्या एक करोड़ तक जा सकती है.
जीडीपी बढ़ेगा
जीडीपी के लिए जीएसटी विटामिन है. छोटे कारोबारी टैक्स भले ही न देंउन्हें मिलने वाली सप्लाई और कारोबार किसी न किसी स्तर पर रिकॉर्ड होगा जो जीडीपी में बढ़त की वजह बनेगा.
- -1.5 करोड़ रु. की छूट सीमा वाली इकाइयांछूट स्कीमों का लाभ (20 लाख और 75 लाख रु.) लेने के लिए कारोबार को अलग-अलग कंपनियों में बांटेंगी जिससे उत्पादन नहीं बढ़ेगा पर जीडीपी बढ़ जाएगा.
- - जीडीपी उत्पादन व उपभोग को मापता हैजिसमें टैक्स के आंकड़े प्रमुख कारक होते हैं. बेहतर राजस्व और करदाता ग्रोथ के आंकड़ों की मालिश करेंगे हालांकि यह ग्रोथ हकीकत में महसूस नहीं होगी.

राजनैतिक जोखिम
जीएसटी का अर्थशास्त्र चुस्त है. इसकी राजनीति  जोखिम भरी है.
जीएसटी असंगठित और छोटे उद्योग व व्यापार तंत्र को सिकोड़ रहा हैअर्थव्यवस्था का यही हिस्सा सबसे ज्यादा रोजगार देता है.
= जीएसटी आने के बाद बड़ी कंपनियों ने छोटे और गैर रजिस्टर्ड सप्लायरों व जॉब वर्करों की छंटनी शुरू कर दी है. यहां बेकारी बहुत तेजी से बढ़ 
सकती है.
भारत स्थानीय ब्रांड्स की प्रयोगशाला है जो सस्ते उत्पाद बनाते हैं. बड़ी कंपनियां अब पूरे देश में सप्लाई चेन व वेयरहाउस का विस्तार करेंगी जो स्थानीय निर्माताओं के लिए अच्छी खबर नहीं है.
पिछले साल अक्तूबर में विश्व बैंक ने कहा था कि भारत में करीब 69 फीसदी रोजगार ऐसे हैं जो अगले एक-डेढ़ दशक में ऑटोमेशन के कारण खत्म हो जाएंगे. ऑटोमेशन से सबसे ज्यादा खतरा मशीन ऑपरेटरलेबरक्लर्क आदि रोजगारों के लिए है.
जीएसटी के बाद छोटी कंपनियां बड़े पैमाने पर या तो बंद हो जाएंगी या फिर अपने कारोबार को स्थानीय बाजारों तक सीमित करेंगी क्योंकि कम टैक्स देने या बचाने के रास्ते बंद हो जाएंगे.
मझोले कारोबारीछोटी-मझोली कंपनियांअसंगठित डिस्ट्रिब्यूशनसामान्य टेक्नोलॉजी वाले उत्पाद और सस्ते आयात से मुकाबला करने वाले उद्योगों में नौकरियों पर खतरा है.
ध्यान रहे कि भारत में सबसे आसान काम है छोटा कारोबार. इसके लिए किसी कौशल की जरूरत नहीं होती. 50,000 रु. की पूंजी पर दो लाख रु. का उधार लेकर कोई भी अपनी रोजी जुटाना शुरू कर देता है.
भारत में जहां हर साल करीब एक करोड़ नए युवा बेरोजगारी लाइन में आ जाते होंवहां हमें तय करना होगा कि जीएसटी की सफलता को हम कैसे नापते हैं: खर्चीली और भ्रष्ट सरकारों के खजाने में बढ़त से या फिर रोजगार गंवाकर सड़कों पर बेरोजगार घूमते युवाओं की भीड़ से?

नीतियां युद्ध नहीं होतीं. इनमें हर कीमत पर जीतने जैसा कुछ नहीं होता. नीतियों की सफलता उस कीमत से आंकी जाती है जो उनकी कामयाबी के बदले चुकाई गई है.