क्या हम यही गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स चाहते थे?
जीएसटी की पाती आ गई है.
किस पर कितना टैक्स, क्या नियम, कौन से कायदे, अब सभी कुछ तय हो गया है.
जीएसटी की पावती भेजने के बाद खुद से यह जरुर पूछियेगा कि क्या हम यही गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स चाहते थे?
क्या इसी के लिए 16 साल इंतजार किया गया?
जीएसटी का रोमांच सन् 2000 से बनने लगा था तब तक तो वैल्यू एडेड टैक्स (वैट) भी पूरी तरह लागू भी नहीं हो पाया था.
रोमांच की तीन वजहें थीं:
एक: भारत को रियायती इनडाइरेक्ट टैक्स चाहिए. अधिकतम दो टैक्स और दो दरें, ताकि लोग खर्च करें, मांग बढ़े, निवेश बढ़े और बढ़े रोजगार. जीएसटी वाले मुल्कों में टैक्स रेट औसत 15 से 18 फीसदी है.
दोः कम टैक्स और छूट बिल्कुल नहीं. सभी कारोबारी टैक्स के दायरे में.
तीनः बेहद आसान कर नियम ताकि कारोबार करना मुश्किल न बन जाए.
जीएसटी से देश का जीडीपी कम से दो फीसदी बढऩे की उम्मीद इसी उत्सुकता की देन थी.
....और जीएसटी मानो अलादीन का चिराग हो गया.
जीएसटी, जो हमें मिला
- तारीफ करनी होगी कि उत्पादों और सेवाओं पर दरें तय करने में पूरी पारदर्शिता रही. जीएसटी काउंसिल ने जो फॉर्मूला तय किया था उस पर वह अंत तक कायम रही. कॉर्पोरेट लॉबीइंग नहीं चली.
- इस फॉर्मूले के चलते ही राज्यों से सहमति बनी जो राजस्व नुकसान को लेकर आशंकित थे, यानी अगर पारदर्शिता रहे तो विश्वास बन सकता है.
लेकिन
वन टैक्स, वन नेशन के बदले आठ जीएसटी दरें (5,12,18, 28%) मिली हैं, गुड्स की (एक्साइज/ वैट) चार और चार दरें सर्विसेज की, सेस अलग से.
आम खपत के कई उत्पादों (स्किन केयर, हेयर केयर, डिटर्जेंट, आयुर्वेद, कॉफी) पर टैक्स रेट अपेक्षा से अधिक है. बिल्डिंग मटीरियल और बिजली के सामान पर भी बोझ बढ़ा है.
बेहतर जिंदगी की उम्मीद से जुड़े उत्पादों-सेवाओं पर 28 फीसदी का टैक्स है जो काफी ऊंचा है.
ऊंचे टैक्स वर्ग में आने वाली कंपनियों को अपने मार्जिन गंवाने होंगे या फिर मांग. निवेश की बाद में सोची जाएगी.
हिसाब-किताब
टैक्स को लेकर सरकार का बुनियादी नजरिया नहीं बदला है. अच्छी जिंदगी की उम्मीद को महंगा रखने की जिद कायम है.
जिन उत्पादों व सेवाओं (उपभोक्ता उत्पाद, भवन निर्माण, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल) पर सबसे ज्यादा टैक्स है वहीं नया निवेश, नई तकनीक, इनोवेशन और रोजगार आने हैं. यह मेक इन इंडिया की उम्मीदों के विपरीत है.
इनपुट टैक्स क्रेडिट (लागत में शामिल टैक्स की वापसी) जीएसटी का एकमात्र नयापन है. सफलता इस निर्भर होगी कि जीएसटी का नेटवर्क कितनी तेजी से निर्माता-विक्रेताओं को इनपुट टैक्स की वापसी करता है.
बहुत सी कर दरें, ढेर सारे रिटर्न और केंद्र व राज्य की दोहरी ब्यूरोक्रेसी के कारण करदाताओं, खासतौर पर छोटे-मझोले कारोबारियों के लिए यंत्रणा से कम नहीं होगा. दो की जगह 37 रिटर्न भरने होंगे. कर नियमों के पालन की लागत पहले से ज्यादा होगी.
जीएसटी के बाद
महंगाई नहीं बढ़ेगी या बेहद मामूली बढ़ोतरी होगी.
कर ढांचा यथावत है इसलिए मांग भी नहीं बढ़ेगी.
जीएसटी के चलते अगले दो साल में जीडीपी में किसी खास तेजी की उम्मीद नहीं है.
केंद्र या राज्यों को तत्काल बड़ा राजस्व नहीं मिलने वाला.
इनडाइरेक्ट टैक्स देने वालों की संख्या बढ़ेगी जो शायद भविष्य में राजस्व में बढ़ा सके.
केंद्र सरकार को 2018 में करीब 500 अरब रुपए (0.3प्रतिशत जीडीपी) का नुक्सान उठाना पड़ सकता है जो राज्यों को दी जाने वाली क्षतिपूर्ति की वजह से होगा.
ज्यादातर केंद्रीय क्षतिपूर्ति महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु आदि सप्लायर राज्यों को मिलेगी.
राज्यों में तैयारियां सुस्त हैं. लागू होने में एक से दो माह की देरी हो सकती है.
कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारे पास मजबूत सरकार है, लोकप्रिय प्रधानमंत्री है या अधिकांश देश में एक ही दल की सरकार है, जीएसटी, राजनैतिक-आर्थिक रूप से दकियानूसी ही है क्रांतिकारी या चमत्कारी नहीं.
हद से हद हमने अपने टैक्स ढांचे की ओवरहॉलिंग कर ली है. करीब 16 साल (2000 से 2017) घिसटने के बावजूद हम ऐसा टैक्स ढांचा नहीं बना पाए जिसे देखकर दुनिया बरबस कह उठे, 'यह हुआ सुधार!''
दुआ कीजिए कि यह जीएसटी जैसा भी है अब ठीक ढंग से लागू हो जाए, शायद वही इसकी सफलता होगी.