यह ग्रोथ के लिए सबसे बुरा वर्ष होने वाला है। हम बुद्धू लौट कर हिंदू ग्रोथ रेट के उसी पुराने घर पर पहुंच गए हैं जहां दो दूनी चार से फिर शुरुआत करनी होगी।
यह मत समझिये कि रुपये की दुर्दशा, किस्म किस्म के घाटे और सठियाई राजनीति से घिरा भारत ग्रोथ की ग्लोबल बहस से बाहर हो गया है। भारत के इर्द गिर्द एक नई बहस तैयार हो रही है जो दरअसल, भारत में आर्थिक विकास दर की नई गर्त तलाशने की कोशिश है। दिग्गज निवेशक, बैंकर और नामचीन विश्लेषक किस्म किस्म के पैमानों के सहारे यह आंकने में जुटे हैं कि भारत में 2013-14 का सूरज 4 फीसद ग्रोथ के साथ डूबेगा या 3.5 फीसद। आक्रामक हताशा वालों को तो ग्रोथ दो फीसद तक गिर जाने की संभावना दिख रही है। इस बहस का इंजन अप्रैल से जून की तिमाही में 4.4 फीसद आर्थिक विकास दर से शुरु हुआ है, जो चार साल की सबसे कमजोर तिमाही है। ग्रोथ के पांच फीसद से नीचे जाने का मतलब है भारत में निवेश का अकाल और लंबी व गहरी बेकारी। यह आर्थिक उदासी, रुपये की कमजोरी या शेयर बाजारों की तात्कालिक उछल कूद से ज्यादा बड़ी और कठिन समस्या है क्यों कि ग्रोथ सबसे बड़ी नेमत है जिसके डूबने से बाकी चुनौतियां तो स्वाभाविक हो जाती हैं।
आर्थिक विकास दर का लक्ष्य फिलहाल भारत में किसी
सरकारी या निजी आर्थिक बहस का विषय नहीं है क्यों कि रुपये की मरम्मत, आयात पर
रोक, पेट्रो ईंधन को महंगा करने की आपा धापी में असली मंजिल