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Friday, March 5, 2021

चमत्कारी राहत


अबक्या घोर मंदी के बावजूद बेरोजगारी रोकी जा सकती है?

क्या अर्थव्यवस्था की आय टूटने के बाद भी आम लोगों की कमाई में नुक्सान सीमित किए जा सकते हैं या कमाई बढ़ाई जा सकती है?

असंभव लगता है लेकिन असंभव है नहीं? 

बेकारी और मंदी के बीच पेट्रोल-डीजल पर टैक्स लगाकर और किस्म-किस्म की महंगाई बढ़ाकर, सरकारें हमें गरीब कर सकती हैं तो महामंदी के बीच सरकारें ही अपनी आबादी को गरीब होने बचा भी सकती हैं. मंदी के बावजूद आम लोगों की कमाई बढ़ाने का यह करिश्मा दुनिया के बड़े हिस्से में हुआ है, वह भी सामूहिक तौर पर.

मैकेंजी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, यह आर्थिक पैमानों किसी चमत्कार से कम नहीं है कि

= 2019 और 2020 की चौथी व दूसरी तिमाही में यूरोप में जीडीपी करीब 14 फीसद सि‍कुड़ गया तब भी रोजगार में गिरावट केवल 3 फीसद रही जबकि लोगों की खर्च योग्य आय (डिस्पोजेबल इनकम) में केवल 5 फीसद की कमी आई

= अमेरिका में तो जीडीपी 10 फीसद टूटा, रोजगार भी टूटे लेकिन लोगों की खर्च योग्य आय 8 फीसद बढ़ गई!

= कोविड के बाद जी-20 देशों ने मंदी और महामारी के शि‍कार लोगों की मदद पर करीब 10 खरब डॉलर खर्च किए, जो 2008 की मंदी में दी गई सरकारी मदद से तीन गुना ज्यादा था और दूसरे विश्व युद्ध के बाद जारी हुए आर्थिक पैकेज यानी मार्शल प्लान से 30 गुना अधि‍क था. अलबत्ता इस पैकेज का बड़ा होना उतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना कि इनके जरिए उभरने वाला एक नया कल्याणकारी राज्य, जो हर तरह से अनोखा था.

= यूरोपीय समुदाय की सरकारों ने करीब 2,342 डॉलर और अमेरिका ने प्रति व्यक्ति 6,752 डॉलर अति‍रिक्त खर्च किए. सरकारों की पूरी सहायता रोजगार बचाने (कुर्जाबेत-जर्मन, शुमेज पार्शिएल-फ्रांस, फर्लो ब्रिटेन, पे-चेक प्रोटेक्शन-अमेरिका) और बेरोजगारों को सीधी मदद पर केंद्रित थी. यूरोप के अधि‍कांश देशों ने इस तरह की मदद पर सामान्य दिनों से ज्यादा खर्च किया.

= सरकारों ने आम लोगों की बचत संरक्षित करने और आवासीय, चि‍कित्सा की लागत को कम करने पर खर्च किया. यूरोप के देशों ने मकान के किराए कम किए, कर्मचारियों को अनिवार्य पेंशन भुगतान (स्वि‍ट्जरलैंड, आइसलैंड, नीदरलैंड) में छूट दी गई या सरकार ने उनके बदले पैसा जमा किया और शि‍क्षा संबंधी खर्चों की लागत घटाई गई.

= सामाजिक अनुबंधों की इस व्यवस्था में निजी क्षेत्र सरकार के साथ था. हालांकि कंपनियों को कारोबार में नुक्सान हुआ, दीवालिया भी हुईं, लेकिन यूरोप और अमेरिका में कंपनियों ने सरकारी प्रोत्साहनों जरिए रोजगारों में कमी को कम से कम रखा और कर्मचारियों के बदले पेंशन व बीमा भुगतानों का बोझ उठाया.

मंदी के बीच रोजगार महफूज रहे तो अमेरिका में 2020 की तीसरी में तिमाही में बचत दर (खर्च योग्य आय के अनुपात में) 16.1 यानी दोगुनी तक बढ़ गई. यूरोप में बचत दर 24.6 फीसद दर्ज की गई.

अब जबकि उपभोक्ताओं की आय भी सुरक्षि‍त है और बचत भी बढ़ चुकी है तो मंदी से उबरने के लिए जिस मांग का इंतजार है वह फूट पडऩे को तैयार है. वैक्सीन मिलने के बाद कारोबार खुलते ही यह ईंधन अर्थव्यवस्थाओं को दौड़ा देगा.

यकीनन अमेरिका और यूरोप की सरकारें बीमारी और मौतें नहीं रोक सकीं, देश की अर्थव्यवस्था को नुक्सान भी नहीं बचा पाईं लेकिन उन्होंने करोड़ों परिवारों को बेकारी-गरीबी की विपत्ति‍ से बचा लिया.

जहां सरकारें ऐक्ट ऑफ गॉड के सहारे टैक्स थोप रही हैं या निजी कंपनियां रोजगार काट कर मुनाफे कूट रही हैं, ये कल्याणकारी राज्य उनके लिए आइना हैं. पूंजीवादी मुल्कों ने इस महामारी में सरकार और समुदाय के बीच अनुबंध यानी सोशल कॉन्ट्रैक्ट जैसा इस्तेमाल किया वह भारत में क्यों नहीं हो सकता था?

सनद रहे कि भारत में कोविड पूर्व की मंदी और बेरोजगारी की वजह से लोगों की खर्च योग्य आय (डि‍स्पोजेबल इनकम) करीब 7.1 फीसद टूट चुकी थी. लॉकडाउन के दौरान भारत के जीडीपी में गिरावट की अनुपात में लोगों की खर्च योग्य आय में गिरावट कहीं ज्यादा रही है.  

भारत में आम परिवारों की करीब 13 लाख करोड़ रुपये की आय मंदी नि‍गल गई (यूबीएस सि‍क्योरिटीज). इसके बाद महंगाई आ धमकी है जो कमाई और बचत खा रही है. 

भारत दुनिया में खपत पर सबसे ज्यादा और दोहरा-तिहरा टैक्स लगाने वाले मुल्कों में है. हम कभी इस टैक्स का हिसाब नहीं मांगते, पलट कर पूछते भी नहीं कि हम उन सेवाओं के लिए सरकार को भी पैसा देते हैं, जिन्हें हम निजी क्षेत्र से खरीदते हैं या सरकार से उन्हें हासिल करने के लिए हम रिश्वतें चढ़ाते हैं. हम कभी फिक्र नहीं करते कि कॉर्पोरेट मुनाफों में बढ़त से रोजगारों और वेतन क्यों नहीं बढ़ते अलबत्ता संकट के वक्त हमें जरूर पूछना चाहिए कि हम पर भारी टैक्स लगाने वाला भारत का भारत का कल्याणकारी राज्य किस चुनावी रैली में खो हो गया है.

 

Friday, May 22, 2020

फिर चूक गए!


लॉकडाउन में कुछ घंटे के लिए दूध ब्रेड की दुकान खोलने वाले नत्थू को इतना तो पता ही है कि अगर मांग नहीं होगी तो धंधा नहीं चलेगा. लाइन में लगे लोगों से सुनकर वह जान गया है कि तनख्वाहें कट रही हैं, नौकरियां जा रही हैं, सरकार की राहत का सच भी उसने ग्राहकों से सुन ही लिया है, वह समझ गया है कि दुकान में ज्यादा माल रखने का नहीं.

20 लाख करोड़ रुपए का पैकेज गढ़ती सरकार को पता है कि भारत को इस समय केवल मांग चाहिए, जो कोविड से पहले अधमरी थी और अब पूरी तरह ढह गई है. मांग उम्मीद का उत्पाद है. लोग भविष्य के प्रति आश्वस्त होंगे तो खरीद-खपत का पहिया घूम सकेगा. भारत ने अपने ताजा इतिहास में इतनी भयानक बेकारी या कमाई में ऐसी कमी कभी नहीं देखी. किसी भी सरकार के लि यह वक्त तो रोजगार बचाने में पूरी ताकत झोंक देने का है लेकिन सबसे बड़ी मुसीबत सरकार की वरीयता पर ही नहीं है!  

21 लाख करोड़ रुपए (अधिकांश बैंक कर्ज या गारंटी ) पर फिदा होने वालों को पता चले कि 20 क्या 40 लाख करोड़ रुपए का सरकारी पैकेज भी भारतीय अर्थव्यवस्था को स्टार्ट नहीं कर सकता. जिसकी विकास दर शून्य से नीचे जा रही है. 200 लाख करोड़ रुपए की अर्थव्यवस्था में करीब 120 लाख करोड़ रुपए (60 फीसद) का हिस्सा आम लोगों की खपत से आता है. सरकार तो 20 फीसद से भी कम की हिस्सेदार है.

होना क्या चाहिए था?

सरकार को बगैर देर किए संगठित क्षेत्र में रोजगार संरक्षण यानी वेतन सहायता कार्यक्रम (पे चेक प्रोटेक्शन) कार्यक्रम शुरू करने चाहिए.

वेतन संरक्षण! क्या मतलब?

अमेरिका यूरोप के देश मंदी से इसलिए बेहतर लड़ पा रहे हैं कि क्योंकि वहां सरकारें कंपनियों को नौकरी बनाए रखने और वेतन काटने के लिए सीधी मदद करती हैं. अमेरिका में छोटी कंपनियों के लिए 349 अरब डॉलर के कार्यक्रम के तहत सस्ती दर पर कर्ज दिया जाता है. कंपनियां निर्धारित सीमा के तहत कर्मचारियों के वेतन रोजगार संरक्षित करती हैं. कर्ज पर उन्हें केवल ब्याज देना होता है.

जाइए जी, हम अमेरिका नहीं हैं

झारखंड की सरकार 2016 में कपड़ा उद्योग के लिए एक स्कीम लाई थी जिसमें तनख्वाहों का 40 फीसद खर्च सरकार उठाती थी. इसे खासा सफल पाया गया था.

तो क्या सरकार बजट से निजी कर्मचारियों को वेतन बांटेगी? 

सस्ते बैंक कर्ज का इस्तेमाल यहां होना चाहिए. बॉन्ड, अन्य तरीकों से कंपिनयों को सस्ता कर्ज पहुंचाया जा सकता है. जिससे वे रोजगार बचाएं और वेतन काटें. कंपनियों को टैक्स की रियायत (कॉर्पोरेट टैक्स में 1.75 लाख करोड़ रुपए की ताजा कटौती) या कर्ज भुगतान से छूट की बचत को वेतन में इस्तेमाल करने की शर्त से बांधने में क्या हर्ज है?

लेकिन फायदा तो केवल संगठित कामगार को मिलेगा?

संगठित क्षेत्र के एक रोजगार पर चार असंगठित कामगार निर्भर होते हैं. अगर संगठित क्षेत्र करीब 4.5 करोड़ (भविष्य निधिवाले) कर्मचारियों को नौकरी और वेतन की सुरक्षा मिले तो उनके खर्च से प्रमुख शहरों में असंगठित (घरेलू सहायक, चालक, खुदरा विक्रेता) बहुत से कामगारों की जीविका बचेगी. अन्य असंगठित कर्मचारियों को बजट से सीधी मदद दी जा सकती है. संगठित क्षेत्र में रोजगार वेतन जारी रहने से मांग बनेगी जो रोजगारों का आधार है.

तो कंपनियां वेतन संरक्षण सहायता क्यों नहीं मांगतीं?

यही कुचक्र है. भारतीय कंपनियां हमेशा कर्ज माफी और टैक्स रियायत मांगती हैं. सरकार ने कोविड राहत पैकेज में यह दे भी दिया. रियायतें उनके मुनाफे का हिस्सा हो जाती हैं. कुछ मुनाफा राजनैतिक चंदा बनकर लौट जाता है.

भारत में ज्यादातर वेतन अच्छे नहीं हैं. अगली तनख्वाह आए तो बिल चुकाना मुश्कि. कंपनियां अपने मुनाफे कामगारों से नहीं बांटतीं और पहले मौके पर रोजगार खत्म हो जाते हैं.

भारत में उद्योग केवल 68 फीसद क्षमता (2008 के बाद न्यूनतम) का इस्तेमाल कर रहे हैं. इस मंदी में कर्ज लेकर वह नया निवेश तो करने से रहे. कोविड के सहारे वे टैक्स बचा लेंगे, कर्ज का भुगतान टाल देंगे और रोजगार घटा देंगे.
इस वक्त जब सब कुछ केवल जीविका बचाने पर केंद्रित होना चाहिए था तब सरकार ने रोजगार गंवाने वालों को 
आत्मनिर्भरता का ज्ञान दिया है

1930 की महामंदी के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट को सलाह देने वाले अर्थविद जॉन मेनार्ड केंज के सिद्धांत यूं ही आर्थिक नीतियों का प्राण नहीं बन गए. उन्होंने सिखाया कि रोजगार ही मांग की गारंटी है, लोग खर्च तभी करते हैं जब उन्हें पता हो कि अगले महीने पैसा आएगा. भारत में यह भरोसा टूट गया है.

लॉकडाउन खुलने के बाद भारत में हजारों लोग काम पर नहीं लौटेंगे. जो बचेंगे उनके वेतन बुरी तरह कट चुके होंगे. बीस लाख करोड़ का पैकेज इनकी कोई मदद नहीं करेगा.जब तक इनकी नौकरियां या कमाई नहीं लौटेगी, आत्मनिर्भरता छोडि़ए, अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा पहिया मंदी के कीचड़ में धंसा रहेगा.