अब क्या घोर मंदी के बावजूद बेरोजगारी रोकी जा सकती है?
क्या अर्थव्यवस्था की आय टूटने के बाद भी
आम लोगों की कमाई में नुक्सान सीमित किए जा सकते हैं या कमाई बढ़ाई जा सकती है?
असंभव लगता है लेकिन असंभव है नहीं?
बेकारी और मंदी के बीच पेट्रोल-डीजल पर
टैक्स लगाकर और किस्म-किस्म की महंगाई बढ़ाकर, सरकारें हमें गरीब कर सकती हैं तो महामंदी के बीच सरकारें ही अपनी
आबादी को गरीब होने बचा भी सकती हैं. मंदी के बावजूद आम लोगों की कमाई बढ़ाने का
यह करिश्मा दुनिया के बड़े हिस्से में हुआ है, वह भी सामूहिक तौर पर.
मैकेंजी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, यह आर्थिक पैमानों किसी चमत्कार से कम नहीं है कि
= 2019 और 2020 की चौथी व दूसरी तिमाही में यूरोप में
जीडीपी करीब 14 फीसद सिकुड़ गया तब भी रोजगार में
गिरावट केवल 3 फीसद रही जबकि लोगों की खर्च योग्य आय
(डिस्पोजेबल इनकम) में केवल 5 फीसद की
कमी आई
= अमेरिका में तो जीडीपी 10 फीसद
टूटा, रोजगार भी टूटे लेकिन लोगों की खर्च योग्य
आय 8 फीसद बढ़ गई!
= कोविड के बाद जी-20 देशों
ने मंदी और महामारी के शिकार लोगों की मदद पर करीब 10 खरब डॉलर खर्च किए, जो 2008 की मंदी में दी गई सरकारी मदद से तीन
गुना ज्यादा था और दूसरे विश्व युद्ध के बाद जारी हुए आर्थिक पैकेज यानी मार्शल
प्लान से 30 गुना अधिक था. अलबत्ता इस पैकेज का बड़ा
होना उतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना कि इनके जरिए उभरने वाला एक नया कल्याणकारी
राज्य, जो हर तरह से अनोखा था.
= यूरोपीय समुदाय की सरकारों ने करीब 2,342 डॉलर और अमेरिका ने प्रति व्यक्ति 6,752 डॉलर अतिरिक्त खर्च किए. सरकारों की
पूरी सहायता रोजगार बचाने (कुर्जाबेत-जर्मन, शुमेज पार्शिएल-फ्रांस, फर्लो
ब्रिटेन, पे-चेक प्रोटेक्शन-अमेरिका) और बेरोजगारों
को सीधी मदद पर केंद्रित थी. यूरोप के अधिकांश देशों ने इस तरह की मदद पर सामान्य
दिनों से ज्यादा खर्च किया.
= सरकारों ने आम लोगों की बचत संरक्षित करने और आवासीय, चिकित्सा की लागत को कम करने पर खर्च किया. यूरोप के देशों ने मकान
के किराए कम किए, कर्मचारियों को अनिवार्य पेंशन भुगतान
(स्विट्जरलैंड, आइसलैंड, नीदरलैंड) में छूट दी गई या सरकार ने उनके बदले पैसा जमा किया और शिक्षा
संबंधी खर्चों की लागत घटाई गई.
= सामाजिक अनुबंधों की इस व्यवस्था में निजी क्षेत्र सरकार के साथ था.
हालांकि कंपनियों को कारोबार में नुक्सान हुआ, दीवालिया भी हुईं, लेकिन
यूरोप और अमेरिका में कंपनियों ने सरकारी प्रोत्साहनों जरिए रोजगारों में कमी को
कम से कम रखा और कर्मचारियों के बदले पेंशन व बीमा भुगतानों का बोझ उठाया.
मंदी के बीच रोजगार महफूज रहे तो अमेरिका
में 2020 की तीसरी में तिमाही में बचत दर (खर्च
योग्य आय के अनुपात में) 16.1 यानी
दोगुनी तक बढ़ गई. यूरोप में बचत दर 24.6 फीसद
दर्ज की गई.
अब जबकि उपभोक्ताओं की आय भी सुरक्षित है
और बचत भी बढ़ चुकी है तो मंदी से उबरने के लिए जिस मांग का इंतजार है वह फूट पडऩे
को तैयार है. वैक्सीन मिलने के बाद कारोबार खुलते ही यह ईंधन अर्थव्यवस्थाओं को
दौड़ा देगा.
यकीनन अमेरिका और यूरोप की सरकारें बीमारी
और मौतें नहीं रोक सकीं, देश की
अर्थव्यवस्था को नुक्सान भी नहीं बचा पाईं लेकिन उन्होंने करोड़ों परिवारों को
बेकारी-गरीबी की विपत्ति से बचा लिया.
जहां सरकारें ऐक्ट ऑफ गॉड के सहारे टैक्स
थोप रही हैं या निजी कंपनियां रोजगार काट कर मुनाफे कूट रही हैं, ये कल्याणकारी राज्य उनके लिए आइना हैं. पूंजीवादी मुल्कों ने इस
महामारी में सरकार और समुदाय के बीच अनुबंध यानी सोशल कॉन्ट्रैक्ट जैसा इस्तेमाल
किया वह भारत में क्यों नहीं हो सकता था?
सनद रहे कि भारत में कोविड पूर्व की मंदी और बेरोजगारी की वजह से लोगों की खर्च योग्य आय (डिस्पोजेबल इनकम) करीब 7.1 फीसद टूट चुकी थी. लॉकडाउन के दौरान भारत के जीडीपी में गिरावट की अनुपात में लोगों की खर्च योग्य आय में गिरावट कहीं ज्यादा रही है.
भारत में आम परिवारों की करीब 13 लाख करोड़ रुपये की आय मंदी निगल गई (यूबीएस सिक्योरिटीज). इसके बाद महंगाई आ धमकी है जो कमाई और बचत खा रही है.
भारत दुनिया में खपत पर सबसे ज्यादा और
दोहरा-तिहरा टैक्स लगाने वाले मुल्कों में है. हम कभी इस टैक्स का हिसाब नहीं
मांगते, पलट कर पूछते भी नहीं कि हम उन सेवाओं के
लिए सरकार को भी पैसा देते हैं, जिन्हें
हम निजी क्षेत्र से खरीदते हैं या सरकार से उन्हें हासिल करने के लिए हम रिश्वतें
चढ़ाते हैं. हम कभी फिक्र नहीं करते कि कॉर्पोरेट मुनाफों में बढ़त से रोजगारों और
वेतन क्यों नहीं बढ़ते अलबत्ता संकट के वक्त हमें जरूर पूछना चाहिए कि हम पर भारी
टैक्स लगाने वाला भारत का भारत का कल्याणकारी राज्य किस चुनावी रैली में खो हो गया
है.