यह अर्थार्थ स्तंभ का हिस्सा नहीं है लेकिन इसे एक तरह से अर्थार्थ भी माना जा सकता है। बजट के भीतर कर और खर्च को दो अलग-अलग दिलचस्प जगत हैं। बजट के अंतर्जगत की यात्रा पर दैनिक जागरण में दो चरणों मे प्रकाशित छह खबरों को लेकर कई स्नेही पाठकों काफी उत्सुकता दिखाई थी इसलिए लगा कि बजट की इस दिलचस्प दुनिया का ब्योरा सबसे बांट लिया जाए। सो बजट की यह षटपदी आप सबके सामने प्रस्तुत है। खुद ही देख लीजिये कि हमारी सरकारें कैसे कर लगाती है और कैसे खर्च करती हैं।
खातों में खेल-1
(केंद्र सरकार के खातों में दिलचस्प खेल जारी हैं। सरकार के पास विनिवेश फंड के खर्च का हिसाब- किताब रखने का खाता तक नहीं है।)
विनिवेश की रकम, बजट में गुम
-किस सामाजिक विकास के काम आई सरकारी रत्न बेचकर की गई कमाई?
-बजट में नहीं है विनिवेश की रकम के इस्तेमाल का ब्यौरा
-राष्ट्रीय निवेश फंड के इस्तेमाल का खाता तक नहीं
(अंशुमान तिवारी) सरकारी रत्नों को बेचकर की गई कमाई सरकार ने किस सामाजिक विकास में लगाई? सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश से आया पैसा किसके काम आया? विनिवेश का पूरा हिसाब-किताब बजट के भीतर शायद कहीं खो गया है। न सही खाता है न बही। वित्त मंत्रालय को बस विनिवेश से मिली रकम मालूम है। मगर इस रकम का इस्तेमाल कहां और कितना हुआ, यह जानकारी देने वाला खाता या हिसाब-किताब बजट में है ही नहीं।
पूरा मामला सरकारी खातों में गंभीर अपारदर्शिता का है। सरकार ने विनिवेश की रकम को सामाजिक विकास स्कीमों और सरकारी उपक्रमों के सुधार में लगाने का नियम तय किया था। लेकिन सरकारी खातों की ताजी पड़ताल बताती है कि विनिवेश की रकम के इस्तेमाल का ब्यौरा ही उपलब्ध नहीं है। सूत्रों के मुताबिक नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (कैग) विनिवेश से मिली राशि को लेकर सरकार के खातों की पड़ताल कर रहा है और वित्त मंत्रालय से मामले की कैफियत भी पूछी गई है। मंत्रालय के अधिकारी इसके आगे कुछ बताने को तैयार नहीं है। बताते चलें कि सरकार ने पिछले वित्त वर्ष 2009-10 में विनिवेश से 25,958 करोड़ रुपये जुटाए हैं और इस साल 40,000 करोड़ रुपये जुटाने का कार्यक्रम है। जब पिछला हिसाब-किताब ही गफलत में है तो इसके इसके निर्धारित इस्तेमाल को लेकर भी संदेह है ।
सरकार ने विनिवेश से मिली रकम को रखने के लिए नेशनल इन्वेस्टमेंट फंड बनाया है। वर्ष 2008-09 के आंकड़े बताते हैं कि इसमें करीब 1,814.45 करोड़ रुपये की रकम है। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। भारत की समेकित निधि में इस विनिवेश की राशि से 84.81 करोड़ रुपये की कमाई भी दिखाई गई, लेकिन इसके बाद इस रकम के इस्तेमाल और खर्च का कोई खाता या हिसाब बजट में उपलब्ध नहीं है। जबकि नियमों के तहत इस इस फंड से खर्च और कमाई का हर छोटा-बड़ा ब्यौरा बजट के हिस्से के तौर पर संसद के सामने होना चाहिए।
गौरतलब है कि विनिवेश से आई राशि को शेयर व ऋण बाजार में लगाया जाता है। यूटीआई एसेट मैनेजमेंट कंपनी (एएमसी), एसबीआई फंड्स और जीवन बीमा सहयोग एएमएसी विनिवेश से मिली रकम का निवेश एक पोर्टफोलियो मैनेजमेंट स्कीम के तहत शेयर बाजार में करती हैं। यह स्कीम सेबी के नियंत्रण मे है, लेकिन इस निवेश पर होने वाली कमाई या नुकसान का ब्यौरा भी सरकार के खातों में तलाशने पर नहीं मिलता।
एक जानकार के मुताबिक विनिवेश की राशि तो बजट में ही है, लेकिन इस खर्च का खाता न होने का मतलब है कि शायद इसका इस्तेमाल उन मदों में नहीं हुआ है जहां होना चाहिए था। अर्थात रत्नों की कमाई शायद बजट का घाटा कम करने में ही काम आई है। जिसे टालने के लिए सरकार ने यह तय किया था कि यह रकम स्पष्ट रूप से सामाजिक विकास व सार्वजनिक उपक्रमों के सुधार पर खर्च होगी।
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खातों में खेल-2
(सरकार के बजट का 'अन्य' खाता बहुत बड़ा हो गया है। करीब 30 फीसदी खर्च अन्य में डाल कर छिपा लिया जाता है, जो बजट में नजर नहीं आता। )
पूरी-पूरी स्कीमें निगल जाता है बजट का 'बेनामी' खाता
-अन्य खर्चो की छोटी सी मद हुई बहुत बड़ी
-हज सब्सिडी से लेकर इंदिरा आवास योजना तक अन्य खर्च में
-बड़ी मदों का आधा खर्च अन्य के खाते में
(अंशुमान तिवारी) बजट के खातों की खर्च की सबसे उपेक्षित और छोटी मद खर्च 'छिपाने' की शायद सबसे बड़ी मद बन चुकी है। बजट की खर्च सूची में सबसे नीचे छिपा नामालूम सा 'अन्य खर्च' पूरी-पूरी स्कीमें, भारी भरकम अनुदान और मोटी सब्सिडी तक निगल जाता है। पिछले कुछ वर्षो दौरान बजट में 'अदर एक्सपेंडीचर' दरअसल एक ब्लैक होल बन गया है। जिसमें हज सब्सिडी और इंदिरा आवास योजना जैसे बड़े-बड़े खर्चे भी गुम हो जाते हैं। और ऊपर से तुर्रा यह कि इस भीमकाय अन्य खर्च का कोई ब्यौरा बजट के जरिए देश को बताया भी नहीं जाता।
सरकार के खातों में इतने बड़े-बड़े गुन हैं कि दांतों तले उंगली दबानी पड़ती है। ताजा बजट 7,35,657 करोड़ रुपये के गैर योजना खर्च में 2,07,544 करोड़ रुपये अर्थात करीब 30 फीसदी खर्च अन्य के खाते में डाल कर निकल गया है। इस अन्य में राज्यों की पुलिस को चुस्त करने के लिए अनुदान जैसे अहम खर्च भी हैं। सूत्रों के मुताबिक सीएजी यानी नियंत्रक व महालेखा परीक्षक पिछले साल से इस अन्य के रहस्य से जूझ रहा है। पिछले साल आई सीएजी की रिपोर्ट में इस पर सरकार से जवाब मांगा गया था, लेकिन वित्त मंत्रालय सवालों से किनारा कर रहा है।
वर्ष 2007-08 और 08-09 में सरकारी खर्च की गहरी पड़ताल बताती है कि 29 प्रमुख खर्चो के मामले में क्रमश: करीब 20,000 करोड़ रुपये और 28,000 करोड़ रुपये का खर्च अन्य की छोटी मद में दिखा दिया गया। सूत्रों के मुताबिक वर्ष 2008-09 के बजट में 8,799 करोड़ रुपये की इंदिरा आवास योजना, 620 करोड़ रुपये की हज सब्सिडी और सफाई कर्मियों के लिए 100 करोड़ रुपये की योजना जैसे खर्च अन्य के अंधे कुएं में खो गए। वर्ष 2007-08 के बजट में हज सब्सिडी के अलावा गांवों में गोदाम बनाने और अनुसूचित जातियों के कल्याण की स्कीम भी अन्य खर्चो का हिस्सा बन गई।
अपारदर्शी हिसाब-किताब की यह बीमारी ग्रामीण विकास, आवास, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण, नागरिक विमानन और कृषि जैसे बड़े मंत्रालयों के खर्च में और बढ़ी है। आकलन बताता है कि 29 बड़ी मदों में कुल खर्च का आधा से ज्यादा हिस्सा अन्य खर्च में खो गया है। दरअसल सरकार अन्य खर्चो के हिसाब को बजट के जरिए देश को नहीं बताती। इसलिए यह पता भी नहीं चलता कि इस अन्य की मद में क्या-क्या छिपा है। केंद्र के बजट में खर्च को कुछ बड़ी मदें (मेजर हेड) और एक छोटी मद (माइनर हेड) में बांटा जाता है। अन्य खर्च बजट की छोटी मद है। सिर्फ बड़ी मदों का खर्च बजट के जरिए संसद और देश के सामने रखा जाता है। छोटी मदों के खर्च को सरकारी खातों के नियंत्रक (सीजीए) अलग से हिसाब लगाकर फाइलों में दाखिल दफ्तर कर देते हैं। अन्य खर्चो की यह छोटी सी मद हर मंत्रालय के खर्च के साथ चिपकी रहती है और जाहिर है कि अब सरकार के लिए बड़े काम की साबित हो रही है।
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खातों में खेल (अंतिम)
केंद्र सरकार अब पंचायती राज संस्थाओं व स्थानीय निकायों को पैसा दे रही है। बजट का एक मोटा हिस्सा इन्हें सीधे मिलता है, लेकिन इन तक नहीं पहुंचती आडिट की रोशनी।
खर्च के अधिकार, हिसाब पर अंधकार
-स्वायत्त संस्थाओं को सीधे मिलने वाले हजारों करोड़ सरकार के राडार से बाहर
-मनरेगा, ग्राम सड़क सहित कुल योजना खर्च का 40 फीसदी आवंटन निचले निकायों व स्वायत्त संस्थाओं को
(अंशुमान तिवारी) प्रदेश व जिलों में स्वायत्त संस्थाओं, सोसाइटी और स्वयंसेवी संस्थाओं को सीधा आवंटन सरकार के बजट का अंधा कोना बन गया है। इन संस्थाओं को खर्च के अधिकार तो मिल गए हैं, लेकिन हिसाब को लेकर अंधेरा है। आवंटन होने के बाद खर्च और इनके खातों में बचत को जांचने का कोई तंत्र नहीं है, क्योंकि इन्हें मिला पैसा सरकारी खातों के राडार से बाहर हो जाता है। मनरेगा, ग्रामीण पेयजल, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना जैसी हाई प्रोफाइल स्कीमों सहित केंद्र के योजना खर्च का करीब 40 फीसदी हिस्सा इसे 'अंधेरे' में डूबा है।
सरकारी स्कीमों पर अमल की प्रणाली पिछले दशक में आमूलचूल बदल गई है। केंद्र की बड़ी-बड़ी सामाजिक विकास स्कीमें कभी राज्य सरकारें लागू करती थीं, लेकिन अमल सुनिश्चित कराने के लिए केंद्र प्रदेशों में स्वायत्त संस्थाओं और स्वयंसेवी संगठनों को सीधे पैसा देता है। इन संस्थाओं को बजट से सीधे मिलने वाला धन बढ़ते-बढ़ते ताजे बजट में 1,07,551.53 करोड़ रुपये पर जा पहुंचा है। लेकिन आवंटन के बाद इस खर्च की गली बंद हो जाती है। इन के खर्च मामले में सीएजी के भी हाथ बंधे हैं, क्योंकि इन स्वायत्त संस्थाओं के संचालन सरकारी खातों का हिस्सा नहीं हैं। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी सीएजी इस मामले में सरकार से जवाब-तलब कर रहा है।
सीधे आवंटन की यह प्रणाली जबर्दस्त असंगति और अपारदर्शिता का शिकार हो गई है। स्थानीय संस्थाओं को वित्तीय ताकत देते हुए केंद्र यह सुनिश्चित नहीं कर पाया कि इनके खाते सरकार की निगाह में रहने चाहिए। सूत्रों के मुताबिक स्वायत्त संस्थाओं को दी गई राशि आवंटन के बाद सरकारी खातों से निकलकर इन संस्थाओं के अपने अकाउंट में चली जाती है। निश्चित तौर पर पूरा आवंटन उसी वर्ष खर्च नहीं होता और इनके खातों में पड़ा रहता है। जबकि सरकार का बजट उसे खर्च मान लेता है और अगले साल संस्थाओं को नया आवंटन हो जाता है।
इन संस्थाओं को दिया जाने वाला यह पैसा केंद्र प्रायोजित स्कीमों का है जो कि विभिन्न मंत्रालय चलाते हैं। करीब 40,000 करोड़ रुपये के बजट वाली मनरेगा पूरी तरह इन संस्थाओं के हवाले है। 9,000 करोड़ रुपये इंदिरा आवास योजना, इतनी ही राशि वाले ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम, 12,000 करोड़ की ग्राम सड़क योजनाओं का 90 फीसदी आवंटन सीधे निचली संस्थाओं को होता है। इसी तरह स्कूली शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि की कई स्कीमों में भी बड़ा हिस्सा अब इन्हीं संस्थाओं के जरिए खर्च होता है।
इस सीधे आवंटन की राशि वित्त वर्ष 2007-08 में करीब 51,000 करोड़ रुपये थी, जो कि वर्ष 08-09 में बढ़कर 83,000 करोड़ रुपये और 09-10 में 95,000 करोड़ रुपये हो गई है। निचली संस्थाओं को सीधे आवंटन की प्रणाली एक नए तरह की वित्तीय विसंगति की वजह बन रही है और खर्च के एक बहुत बडे़ हिस्से को स्थापित मानीटरिंग प्रक्रिया से बाहर निकाल रही है।
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