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Tuesday, January 30, 2018

जवाबदेही का 'बजट'

बजट की फिक्र में दुबले होने से कोई फायदा नहीं है. आम लोगों के बजट (खर्च) को बनाने या बिगाडऩे वाला बजट अब संसद के बाहर जीएसटी काउंसिल में बनता है. दरअसल, बजट को लेकर अगर किसी को चिंतित होने की जरूरत है तो वह स्वयं संसद है. लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था को इस बात की गहरी फिक्रहोनी चाहिए कि भारत की आर्थिक-वित्तीय नीतियों के निर्धारण में उसकी भूमिका किस तरह सिमट रही है

अमेरिका में सरकार का ठप होना अभी-अभी टला है. सरकारी खर्च को कांग्रेस (संसद) की मंजूरी न मिलने से पूरे मुल्क की सांस अधर में टंग गई. लोकतंत्र के दोनों संस्करणों (संसदीय और अध्यक्षीय) में सरकार के वित्तीय और आर्थिक कामकाज पर जनप्रतिनिधियों की सर्वोच्च संस्थाओं (संसद-विधानसभाओं) के नियंत्रण के नियम पर्याप्त स्पष्ट हैं.

सरकार के वित्तीय व्यवहार पर संसद-विधानसभाओं का नियंत्रण दो सिद्धांतों पर आधारित हैः एक—प्रतिनिधित्व के बिना टैक्स नहीं और दूसरा—सरकार के बटुए यानी खर्च पर जनता के नुमाइंदों का नियंत्रण. इसलिए भारत में सरकारें (केंद्र व राज्य) संसद की मंजूरी के बिना न कोई टैक्स लगा सकती हैं और न खर्च की छूट है. बजट (राजस्व व खर्च) की संसद से मंजूरी—विनियोग विधेयक, अनुदान मांगों, वित्त विधेयक, कंसोलिडेटेड फंड (समेकित निधि)—के जरिए ली जाती है. भारत में सरकार संसद की मंजूरी के बिना केवल 500 करोड़ रु. खर्च कर सकती है और वह भी आकस्मिकता निधि से, जिसका आकार 2005 में 50 करोड़ रु. से बढ़ाकर 500 करोड़ रु. किया गया था.

पिछले एक दशक में सरकार के खर्च और राजस्व का ढांचा बदलने से सरकारी वित्त पर संसद और विधानसभाओं का नियंत्रण कम होता गया है. जीएसटी सबसे ताजा नमूना है.

- जीएसटी से पहले तक अप्रत्यक्ष कर वित्त विधेयक का हिस्सा होते थे, संसद में बहस के बाद इनमें बदलाव को मंजूरी मिलती थी. खपत पर टैक्स की पूरी प्रक्रिया, अब संसद-विधानसभाओं के नियंत्रण से बाहर है. जीएसटी कानून को मंजूरी देने के बाद जनता के चुने हुए नुमाइंदों ने इनडाइरेक्ट टैक्स पर नियंत्रण गंवा दिया. जीएसटी काउंसिल संसद नहीं है. यहां दो दर्जन मंत्री मिलकर हर महीने टैक्स की दरें बदल देते हैं. इन बदलावों का क्या तर्क है? इससे किसे फायदा है? जीएसटी काउंसिल में होने वाली चर्चा सार्वजनिक क्यों नहीं होती? टैक्स लगाने के लिए प्रतिनिधित्व की शर्त जीएसटी काउंसिल पर कितनी खरी उतरती है? जीएसटी के सदंर्भ में संसद और सीएजी की क्या भूमिका होगी? संसद और विधानसभाओं को इन सवालों पर चर्चा करनी चाहिए.

- भारत में सरकारों की खर्च बहादुरी बेजोड़ है. कर्ज पर निर्भरता बढ़ने से ब्याज भुगतान हर साल नया रिकॉर्ड बनाते हैं. कर्ज पर ब्याज की अदायगी बजट खर्च का 18 फीसदी है, जिस पर संसद की मंजूरी नहीं (चाज्र्ड एक्सपेंडीचर) ली जाती. राज्य सरकारों, पंचायती राज संस्थाओं और अन्य एजेंसियों के दिए जाने वाले अनुदान बजट खर्च में 28 फीसदी का हिस्सा रखते हैं. सीएजी की पिछली कई रिपोर्ट बताती रही हैं कि करीब 20 फीसदी अनुदानों पर संसद में मतदान नहीं होता यानी कि लगभग 38 फीसदी (ब्याज और अनुदान) खर्च संसद के नियंत्रण से बाहर है.

- रेल बजट के आम बजट में विलय (2017) से रेलवे का तो कोई भला नजर नहीं आया लेकिन रेलवे बजट पर भी संसद का सीधा नियंत्रण खत्म हो गया. रेल का खर्च और राजस्व किसी दूसरे विभाग की तरह बजट का हिस्सा है.

- पिछले तीन साल में वित्तीय फैसलों पर, राज्यसभा से कन्नी काटने के लिए मनी बिल (सिर्फ लोकसभा) का इस्तेमाल खूब हुआ है. गंभीर वित्तीय फैसलों में अब पूरी संसद भी शामिल नहीं होती.

उदारीकरण के बाद आर्थिक फैसलों में पारदर्शिता के लिए संसद की भूमिका बढऩी चाहिए थी लेकिन...

- स्वदेशी को लेकर आसमान सिर पर उठाने वाले क्या कभी पूछना चाहेंगे कि विदेशी निवेश के उदारीकरण के फैसलों में संसद की क्या भूमिका है, इन फैसलों को संसद कभी परखती क्यों नहीं है.

- अंतरराष्ट्रीय निवेश, व्यापार और टैक्स रियायत संधियां तो संसद का मुंह भी नहीं देखतीं. विश्व के कई देशों में इन पर संसद की मंजूरी ली जाती है.


जब आर्थिक फैसलों में संसद की भूमिका का यह हाल है तो विधानसभाओं की स्थिति क्या होगी? केंद्रीय बजट के करीब एक-तिहाई से ज्यादा खर्च के लिए जब सरकार को संसद से पूछने की जरूरत न पड़े और एक तिहाई राजस्व जुटाने के लिए टैक्स लगाने या बदलने का काम संसद के बाहर होता हो तो चिंता उन्हें करनी चाहिए जो लोकतंत्र में संसद के सर्वशक्तिमान होने की कसमें खाते हैं.

Monday, March 12, 2012

बजट का जनादेश

ग्रोथ भी गई और वोट भी गया! क्‍या खूब भूमिका बनी है बारह के बजट की। आर्थिक नसीहतें तो मौजूद थीं ही अब राजनीतिक सबक का ताजा पर्चा भी वित्‍त मंत्री की मेज पर पहुंच गया है। पांच राज्यों के महाप्रतापी वोटरों ने पारदर्शिता और भ्रष्टाचार से लेकर ग्रोथ तक और स्थिरता से लेकर बदलाव तक हर उस पहलू पर ऐसा बेजोड़ फैसला दिया है जो किसी भी समझदार बजट का कच्चा माल बन सकते हैं। भ्रष्टाचार पर उत्तर प्रदेश का वोटर सत्ता विरोधी हो गया हैं तो ग्रोथ के सबूतों के साथ पंजाब के वोटर बादल को दोबारा आजमाने जा रहे हैं। वित्त मंत्री यदि बजट को इन चुनाव नतीजों को रोशनी में लिखेंगे तो उन्हें तो उन्‍हें केवल आज की नहीं बलिक बीते और आने वाले कल की मुसीबतों के समाधान भी देने होंगे। क्‍यों कि सरकार असफलताओं के सियासी तकाजे शुरु हो गए हैं। कांग्रेस के प्रति वोटरों का यह समग्र इंकार यूपीए सरकार के खाते में जाता है। चुनावी इम्‍तहानो का पूरा कैलेंडर (दो वर्षो में कई राज्‍यों के चुनाव) सामने है इसलिए एक खैराती नहीं बल्कि खरा बजट देश की जरुरत और कांग्रेस की राजनीतिक मजबूरी बन गया है।
बीते कल का घाटा
अगर वित्‍त मंत्री उत्‍तर प्रदेश के नतीजों को पढ़कर बजट बनायेंगे तो उनका बजट बहुत दम खम के साथ उस घाटे को खत्‍म करने की बात करेगा जिसने उत्‍तर प्रदेश में राहुल गांधी की मेहनत पानी फेर दिया। अगली चुनावी फजीहत से बचने के लिए एक पारदर्शी सरकार का कौल इस बजट की बुनियाद होना चाहिए कयों कि केंद्र सरकार के भ्रष्‍टाचार ने कांग्रेस की राजनीतिक उममीदों का वध कर दिया है। माया राज मे यूपी की ग्रोथ इतनी बुरी नहीं थी। कानून व्‍यवस्‍था भी कमोबेश ठीक ही थी। जातीय गणित भी मजबूत थी लेकिन बहन जी का सर्वजन दरअसल विकट भ्रष्‍टाचार के कारण उखड़ गया। कांग्रेस अपने दंभ में यह भूल

Monday, April 26, 2010

झूठ के पांव

आईपीएल, ग्रीस, गोल्डमैन सैक्श और आइसलैंड में क्या समानता है? यह सभी बड़े, चमकदार, जटिल और विशाल झूठ व फर्जीवाड़े की ताजी नजीरें हैं जो भारत से लेकर यूरोप व अमेरिका तक फैली हैं। यकीनन इन्हें शानदार कुशलता से गढ़ा गया था, लेकिन मंजिल तक ये भी नहीं पहुंच पाए।.. रास्ते में ही बिखर गए। झूठ का सबसे बड़ा सच यही है कि यह किसी तरह से नहीं छिपता। न राष्ट्रीय झंडे और सरकारी मोहर की ओट में, न बड़े नाम और ऊंची साख की छाया में और न लोकप्रियता और सितारों की चमक में। यहां तक कि आंकड़ों की भूल भुलैया भी झूठ को ढक नहीं पाती। ग्रीस की सरकार ने अपने कर्ज को छिपाने के लिए जो झूठ बोला था, उसने देश को आर्थिक त्रासदी में झोंक दिया है। दुनिया के सबसे बड़े निवेश बैंक गोल्डमैन सैक्श का झूठ वित्तीय बाजारों को नए सिरे से हिला रहा है। आइसलैंड झूठ बोलकर बर्बाद हो चुका है और आईपीएल का झूठ भारत के क्रिकेट धर्म को पाप के पंक में डुबो रहा है। यकीनन यह धतकरम चुनिंदा लोगों ने खातों में खेल, कंपनियों के फर्जीवाड़े, वित्तीय अपारदर्शिता, आंकड़ों के जंजाल के जरिए किया था, लेकिन अब इनके झूठ की कीमत बहुत बड़ी और नतीजा बड़ा शर्मनाक होने वाला है।
सरकारी झूठ की ग्रीकगाथा
सरकारें जब सच छिपाती हैं तो कयामत आती है। ग्रीस के दीवालियेपन और बदहाली की संकट कथा का निचोड़ यही है। ग्रीस को यूरोमुद्रा अपनाने वाले देशों के संगठन में इस शर्त पर प्रवेश मिला था कि वह घाटे और कर्ज को निर्धारित स्तर पर रखने की शर्ते (ग्रोथ एंड स्टेबिलिटी पैक्ट) पूरी करेगा। ग्रीसने यह सब शर्ते पूरी करने के लिए सच पर पर्दा डाल दिया। ताजा आर्थिक संकट आने के बाद दुनिया को पता चला कि ग्रीस ने खातों में खेल किया था। 2009 में देश का घाटा जीडीपी के अनुपात में 12.5 फीसदी पाया गया, जबकि सरकार ने अपने पहले आकलन में इसे 3.7 फीसदी माना था। यूरोपीय समुदाय के आधिकारिक आंकड़ा संगठन (यूरोस्टैट) ने ग्रीस के इस फरेब को प्रमाणित कर दिया कि वहां की सरकार ने कई तरह के ब्याज भुगतान, कर्जो की माफी, स्वास्थ्य सब्सिडी आदि को अपने नियमित खातों से छिपाया और सब घाटे को नियंत्रित दिखाते हुए बाजार से कर्ज उठाया। यह झूठ बहुत बड़ा था, इसलिए अब ग्रीस की साख खत्म हो गई है। देश पूरी तरह दीवालिया है और यूरोजोन के नियामकों का सर शर्म से झुक गया है। ग्रीस की जनता इस झूठ की कीमत नए टैक्स, गरीबी, महंगाई और संकट से ठीक उसी तरह चुकाएगी जैसा कि आइसलैंड में हुआ है। बैंकों के झूठ के कारण दुनिया के सबसे समृद्ध देशों में एक आइसलैंड देखते-देखते राहत का भिखारी हो गया। पूरे संकट की जांच करने वाले आइसलैंड के ट्रुथ कमीशन की हाल में आई रिपोर्ट बताती है कि केंद्रीय बैंक के पास केवल 1.2 अरब डालर का विदेशी मुद्रा भंडार था, लेकिन बैंकों ने 14 अरब डालर का विदेशी कर्ज ले डाला। हकीकत खुली तो वित्तीय बाजारों में बैंकों और देश की साख कचरा और प्रतिभूतियां मिट्टी हो गई। इस बर्बादी का बिल देश की जनता टैक्स देकर चुका रही है।
खातों में खेल की ललित कला
क्रिएटिव अकाउंटिंग ???... ग्रीस से लेकर अमेरिका तक इस शब्द का अब एक ही अर्थ है- खातों में खेल और सच पर पर्दा। यूरोप में चर्चा है कि ग्रीस की सरकार को खातों में स्याह सफेद करने की ललित कला गोल्डमैन सैक्श ने सिखाई थी। पता नहीं कि इस प्रतिष्ठित निवेश बैंक ने दुनिया को और क्या-क्या सिखाया है? गोल्डमैन पिछले साल आए वित्तीय संकट पर अपने झूठ को लेकर कठघरे में है। अमेरिकी सरकार और गोल्डमैन सैक्श में ठन चुकी है। अमेरिका में सेबीनुमा और बेहद ताकतवर सरकारी नियामक सिक्योरिटी एक्सचेंज कमीशन ने हाल में गोल्डमैन पर निवेशकों को आने वाले संकट से धोखे में रखकर प्रतिभूतियां बेचने का आरोप लगाया है। ब्रिटेन व जर्मनी के वित्तीय नियामक और अमेरिका की सरकारी बीमा कंपनी एआईजी भी गोल्डमैन को कठघरे में खड़ा करने की तैयारी कर रही है। यह निवेश बैंकिंग उद्योग लिए नए संकट की शुरुआत है। निवेश बैंकों पर उनका झूठ अब भारी पड़ने लगा है। लेकिन निवेश बैंक ही क्यों खातों में खेल निजी कंपनियों का भी पुराना शगल रहा है, बीसीसीआई बैंक, जेराक्स, एनरान, सीआरबी से लेकर सत्यम तक खातों में खेल की कलाओं के तमाम उदारहण हमारे इर्द-गिर्द हैं। आईपीएल भी इसी वित्तीय झूठ का नमूना है, जिसमें क्रिकेट का खेल मैदान में हो रहा था मगर असली खेल पेंचदार कंपनियों, बेनामी निवेश, विदेश में लेन-देन और काले धन के निवेश का था।
पहरेदारों की लंबी नींद
अपनी बेईमानी को स्वाभाविक (बकौल मैकियावेली) मानते हुए आदमी ने ही तमाम नियामक बनाए हैं कि ताकि वे उसकी बेइमानी पकड़ें और पारदर्शिता तय करें, लेकिन इन नियामकों में भी भी तो मैकियावेली वाले आदमी ही हैं न? सो इनकी नींद ही नहीं टूटती। दुनिया में ज्यादातर वित्तीय घोटाले, खातों में गफलत और हिसाब किताब में हेरफेर या तो किसी संकट के बाद सामने आया है या फिर उस खेल और घोटाले में शामिल किसी खिलाड़ी ने ही पर्दा उठाया है। अमेरिका के नियामक ऊंघते रहे और मेरिल लिंच जैसे बैंकर झूठ बेचकर पैसा कूटते रहे। ग्रीस व आइसलैंड जब अपने खाते स्याह सफेद कर रहे थे, तब यूरोपीय नियामक सपनों में तैर रहे थे। वित्तीय फरेब की एनरान व सत्यम जैसी कथाएं प्राइस वाटर हाउस, आर्थर एंडरसन जैसे आडिटरों की निगहबानी में लिखी गई हैं। आयकर विभाग, कंपनी मामलों के मंत्रालय व तमाम नियामकों के सामने आईपीएल ने एक विराट झूठ का संसार रच दिया, जो अब ढह रहा है और वित्तीय धोखेबाजी का हर दांव इसमें चमकता दिख रहा है।
पूरी दुनिया में इस समय बड़े बडे़ झूठ खुलने का मौसम है, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। इस समय भी जब आप यह पढ़ रहे हैं, तब भी दुनिया में कहीं न कहीं कोई वित्तीय बाजीगरी, खातों में कोई खेल चल रहा होगा और झूठ अपने पांव जमाने की कोशिश कर रहा होगा। झूठ रचने वाले हमेशा हिटलर का यह मंत्र साधते हैं कि झूठ बड़ा हो और बार बार कहा जाए तो लोग विश्वास कर लेते हैं। ..हिटलर सच था .. आम लोगों ने बड़े झूठ पर हमेशा भरोसा किया है और बाद में उसकी कीमत भी चुकाई है। .जब ग्रीस चमक रहा था, आइसलैंड अमीरी दिखा रहा था, गोल्डमैन गरज रहा था और आईपीएल झूम रहा था तब लोग कैसे जान पाते कि यह सब वित्तीय झूठ के करिश्मे हैं। ..दरअसल फरेब का फैशन बड़ा मायावी है और आम लोग बहुत भोले हैं। ..वह झूठ बोल रहा था इस कदर करीने से, कि मैं एतबार न करता तो और क्या करता?
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http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच, सातोरी)

Thursday, April 22, 2010

बजट की षटपदी (दो) – खर्च प्रसंग

यह अर्थार्थ स्‍तंभ का हिस्‍सा नहीं है लेकिन इसे एक तरह से अर्थार्थ भी माना जा सकता है। बजट के भीतर कर और खर्च को दो अलग-अलग दिलचस्‍प जगत हैं। बजट के अंतर्जगत की यात्रा पर दैनिक जागरण में दो चरणों मे प्रकाशित छह खबरों को लेकर कई स्‍नेही पाठकों काफी उत्‍सुकता दिखाई थी इसलिए लगा कि बजट की इस दिलचस्‍प दुनिया का ब्‍योरा सबसे बांट लिया जाए। सो बजट की यह षटपदी आप सबके सामने प्रस्‍तुत है। खुद ही देख लीजिये कि हमारी सरकारें कैसे कर लगाती है और कैसे खर्च करती हैं।
खातों में खेल-1
(केंद्र सरकार के खातों में दिलचस्प खेल जारी हैं। सरकार के पास विनिवेश फंड के खर्च का हिसाब- किताब रखने का खाता तक नहीं है।)

विनिवेश की रकम, बजट में गुम
-किस सामाजिक विकास के काम आई सरकारी रत्न बेचकर की गई कमाई?
-बजट में नहीं है विनिवेश की रकम के इस्तेमाल का ब्यौरा
-राष्ट्रीय निवेश फंड के इस्तेमाल का खाता तक नहीं
(अंशुमान तिवारी) सरकारी रत्नों को बेचकर की गई कमाई सरकार ने किस सामाजिक विकास में लगाई? सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश से आया पैसा किसके काम आया? विनिवेश का पूरा हिसाब-किताब बजट के भीतर शायद कहीं खो गया है। न सही खाता है न बही। वित्त मंत्रालय को बस विनिवेश से मिली रकम मालूम है। मगर इस रकम का इस्तेमाल कहां और कितना हुआ, यह जानकारी देने वाला खाता या हिसाब-किताब बजट में है ही नहीं।
पूरा मामला सरकारी खातों में गंभीर अपारदर्शिता का है। सरकार ने विनिवेश की रकम को सामाजिक विकास स्कीमों और सरकारी उपक्रमों के सुधार में लगाने का नियम तय किया था। लेकिन सरकारी खातों की ताजी पड़ताल बताती है कि विनिवेश की रकम के इस्तेमाल का ब्यौरा ही उपलब्ध नहीं है। सूत्रों के मुताबिक नियंत्रक व महालेखा परीक्षक (कैग) विनिवेश से मिली राशि को लेकर सरकार के खातों की पड़ताल कर रहा है और वित्त मंत्रालय से मामले की कैफियत भी पूछी गई है। मंत्रालय के अधिकारी इसके आगे कुछ बताने को तैयार नहीं है। बताते चलें कि सरकार ने पिछले वित्त वर्ष 2009-10 में विनिवेश से 25,958 करोड़ रुपये जुटाए हैं और इस साल 40,000 करोड़ रुपये जुटाने का कार्यक्रम है। जब पिछला हिसाब-किताब ही गफलत में है तो इसके इसके निर्धारित इस्तेमाल को लेकर भी संदेह है ।
सरकार ने विनिवेश से मिली रकम को रखने के लिए नेशनल इन्वेस्टमेंट फंड बनाया है। वर्ष 2008-09 के आंकड़े बताते हैं कि इसमें करीब 1,814.45 करोड़ रुपये की रकम है। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। भारत की समेकित निधि में इस विनिवेश की राशि से 84.81 करोड़ रुपये की कमाई भी दिखाई गई, लेकिन इसके बाद इस रकम के इस्तेमाल और खर्च का कोई खाता या हिसाब बजट में उपलब्ध नहीं है। जबकि नियमों के तहत इस इस फंड से खर्च और कमाई का हर छोटा-बड़ा ब्यौरा बजट के हिस्से के तौर पर संसद के सामने होना चाहिए।
गौरतलब है कि विनिवेश से आई राशि को शेयर व ऋण बाजार में लगाया जाता है। यूटीआई एसेट मैनेजमेंट कंपनी (एएमसी), एसबीआई फंड्स और जीवन बीमा सहयोग एएमएसी विनिवेश से मिली रकम का निवेश एक पोर्टफोलियो मैनेजमेंट स्कीम के तहत शेयर बाजार में करती हैं। यह स्कीम सेबी के नियंत्रण मे है, लेकिन इस निवेश पर होने वाली कमाई या नुकसान का ब्यौरा भी सरकार के खातों में तलाशने पर नहीं मिलता।
एक जानकार के मुताबिक विनिवेश की राशि तो बजट में ही है, लेकिन इस खर्च का खाता न होने का मतलब है कि शायद इसका इस्तेमाल उन मदों में नहीं हुआ है जहां होना चाहिए था। अर्थात रत्नों की कमाई शायद बजट का घाटा कम करने में ही काम आई है। जिसे टालने के लिए सरकार ने यह तय किया था कि यह रकम स्पष्ट रूप से सामाजिक विकास व सार्वजनिक उपक्रमों के सुधार पर खर्च होगी।
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खातों में खेल-2
(सरकार के बजट का 'अन्य' खाता बहुत बड़ा हो गया है। करीब 30 फीसदी खर्च अन्य में डाल कर छिपा लिया जाता है, जो बजट में नजर नहीं आता। )

पूरी-पूरी स्कीमें निगल जाता है बजट का 'बेनामी' खाता
-अन्य खर्चो की छोटी सी मद हुई बहुत बड़ी
-हज सब्सिडी से लेकर इंदिरा आवास योजना तक अन्य खर्च में
-बड़ी मदों का आधा खर्च अन्य के खाते में
(अंशुमान तिवारी) बजट के खातों की खर्च की सबसे उपेक्षित और छोटी मद खर्च 'छिपाने' की शायद सबसे बड़ी मद बन चुकी है। बजट की खर्च सूची में सबसे नीचे छिपा नामालूम सा 'अन्य खर्च' पूरी-पूरी स्कीमें, भारी भरकम अनुदान और मोटी सब्सिडी तक निगल जाता है। पिछले कुछ वर्षो दौरान बजट में 'अदर एक्सपेंडीचर' दरअसल एक ब्लैक होल बन गया है। जिसमें हज सब्सिडी और इंदिरा आवास योजना जैसे बड़े-बड़े खर्चे भी गुम हो जाते हैं। और ऊपर से तुर्रा यह कि इस भीमकाय अन्य खर्च का कोई ब्यौरा बजट के जरिए देश को बताया भी नहीं जाता।
सरकार के खातों में इतने बड़े-बड़े गुन हैं कि दांतों तले उंगली दबानी पड़ती है। ताजा बजट 7,35,657 करोड़ रुपये के गैर योजना खर्च में 2,07,544 करोड़ रुपये अर्थात करीब 30 फीसदी खर्च अन्य के खाते में डाल कर निकल गया है। इस अन्य में राज्यों की पुलिस को चुस्त करने के लिए अनुदान जैसे अहम खर्च भी हैं। सूत्रों के मुताबिक सीएजी यानी नियंत्रक व महालेखा परीक्षक पिछले साल से इस अन्य के रहस्य से जूझ रहा है। पिछले साल आई सीएजी की रिपोर्ट में इस पर सरकार से जवाब मांगा गया था, लेकिन वित्त मंत्रालय सवालों से किनारा कर रहा है।
वर्ष 2007-08 और 08-09 में सरकारी खर्च की गहरी पड़ताल बताती है कि 29 प्रमुख खर्चो के मामले में क्रमश: करीब 20,000 करोड़ रुपये और 28,000 करोड़ रुपये का खर्च अन्य की छोटी मद में दिखा दिया गया। सूत्रों के मुताबिक वर्ष 2008-09 के बजट में 8,799 करोड़ रुपये की इंदिरा आवास योजना, 620 करोड़ रुपये की हज सब्सिडी और सफाई कर्मियों के लिए 100 करोड़ रुपये की योजना जैसे खर्च अन्य के अंधे कुएं में खो गए। वर्ष 2007-08 के बजट में हज सब्सिडी के अलावा गांवों में गोदाम बनाने और अनुसूचित जातियों के कल्याण की स्कीम भी अन्य खर्चो का हिस्सा बन गई।
अपारदर्शी हिसाब-किताब की यह बीमारी ग्रामीण विकास, आवास, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण, नागरिक विमानन और कृषि जैसे बड़े मंत्रालयों के खर्च में और बढ़ी है। आकलन बताता है कि 29 बड़ी मदों में कुल खर्च का आधा से ज्यादा हिस्सा अन्य खर्च में खो गया है। दरअसल सरकार अन्य खर्चो के हिसाब को बजट के जरिए देश को नहीं बताती। इसलिए यह पता भी नहीं चलता कि इस अन्य की मद में क्या-क्या छिपा है। केंद्र के बजट में खर्च को कुछ बड़ी मदें (मेजर हेड) और एक छोटी मद (माइनर हेड) में बांटा जाता है। अन्य खर्च बजट की छोटी मद है। सिर्फ बड़ी मदों का खर्च बजट के जरिए संसद और देश के सामने रखा जाता है। छोटी मदों के खर्च को सरकारी खातों के नियंत्रक (सीजीए) अलग से हिसाब लगाकर फाइलों में दाखिल दफ्तर कर देते हैं। अन्य खर्चो की यह छोटी सी मद हर मंत्रालय के खर्च के साथ चिपकी रहती है और जाहिर है कि अब सरकार के लिए बड़े काम की साबित हो रही है।
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खातों में खेल (अंतिम)
केंद्र सरकार अब पंचायती राज संस्थाओं व स्थानीय निकायों को पैसा दे रही है। बजट का एक मोटा हिस्सा इन्हें सीधे मिलता है, लेकिन इन तक नहीं पहुंचती आडिट की रोशनी।

खर्च के अधिकार, हिसाब पर अंधकार
-स्वायत्त संस्थाओं को सीधे मिलने वाले हजारों करोड़ सरकार के राडार से बाहर
-मनरेगा, ग्राम सड़क सहित कुल योजना खर्च का 40 फीसदी आवंटन निचले निकायों व स्वायत्त संस्थाओं को
(अंशुमान तिवारी) प्रदेश व जिलों में स्वायत्त संस्थाओं, सोसाइटी और स्वयंसेवी संस्थाओं को सीधा आवंटन सरकार के बजट का अंधा कोना बन गया है। इन संस्थाओं को खर्च के अधिकार तो मिल गए हैं, लेकिन हिसाब को लेकर अंधेरा है। आवंटन होने के बाद खर्च और इनके खातों में बचत को जांचने का कोई तंत्र नहीं है, क्योंकि इन्हें मिला पैसा सरकारी खातों के राडार से बाहर हो जाता है। मनरेगा, ग्रामीण पेयजल, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना जैसी हाई प्रोफाइल स्कीमों सहित केंद्र के योजना खर्च का करीब 40 फीसदी हिस्सा इसे 'अंधेरे' में डूबा है।
सरकारी स्कीमों पर अमल की प्रणाली पिछले दशक में आमूलचूल बदल गई है। केंद्र की बड़ी-बड़ी सामाजिक विकास स्कीमें कभी राज्य सरकारें लागू करती थीं, लेकिन अमल सुनिश्चित कराने के लिए केंद्र प्रदेशों में स्वायत्त संस्थाओं और स्वयंसेवी संगठनों को सीधे पैसा देता है। इन संस्थाओं को बजट से सीधे मिलने वाला धन बढ़ते-बढ़ते ताजे बजट में 1,07,551.53 करोड़ रुपये पर जा पहुंचा है। लेकिन आवंटन के बाद इस खर्च की गली बंद हो जाती है। इन के खर्च मामले में सीएजी के भी हाथ बंधे हैं, क्योंकि इन स्वायत्त संस्थाओं के संचालन सरकारी खातों का हिस्सा नहीं हैं। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी सीएजी इस मामले में सरकार से जवाब-तलब कर रहा है।
सीधे आवंटन की यह प्रणाली जबर्दस्त असंगति और अपारदर्शिता का शिकार हो गई है। स्थानीय संस्थाओं को वित्तीय ताकत देते हुए केंद्र यह सुनिश्चित नहीं कर पाया कि इनके खाते सरकार की निगाह में रहने चाहिए। सूत्रों के मुताबिक स्वायत्त संस्थाओं को दी गई राशि आवंटन के बाद सरकारी खातों से निकलकर इन संस्थाओं के अपने अकाउंट में चली जाती है। निश्चित तौर पर पूरा आवंटन उसी वर्ष खर्च नहीं होता और इनके खातों में पड़ा रहता है। जबकि सरकार का बजट उसे खर्च मान लेता है और अगले साल संस्थाओं को नया आवंटन हो जाता है।
इन संस्थाओं को दिया जाने वाला यह पैसा केंद्र प्रायोजित स्कीमों का है जो कि विभिन्न मंत्रालय चलाते हैं। करीब 40,000 करोड़ रुपये के बजट वाली मनरेगा पूरी तरह इन संस्थाओं के हवाले है। 9,000 करोड़ रुपये इंदिरा आवास योजना, इतनी ही राशि वाले ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम, 12,000 करोड़ की ग्राम सड़क योजनाओं का 90 फीसदी आवंटन सीधे निचली संस्थाओं को होता है। इसी तरह स्कूली शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि की कई स्कीमों में भी बड़ा हिस्सा अब इन्हीं संस्थाओं के जरिए खर्च होता है।
इस सीधे आवंटन की राशि वित्त वर्ष 2007-08 में करीब 51,000 करोड़ रुपये थी, जो कि वर्ष 08-09 में बढ़कर 83,000 करोड़ रुपये और 09-10 में 95,000 करोड़ रुपये हो गई है। निचली संस्थाओं को सीधे आवंटन की प्रणाली एक नए तरह की वित्तीय विसंगति की वजह बन रही है और खर्च के एक बहुत बडे़ हिस्से को स्थापित मानीटरिंग प्रक्रिया से बाहर निकाल रही है।
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